बिहार के अधिकांश पत्रकार सुशील मोदी के साथ यात्रा नहीं करना चाहते थे, क्योंकि वे ‘शाकाहारी’ थे

पटना कॉलेज के मैदान से अपने छात्र नेता सुशील कुमार मोदी को विनम्र श्रद्धांजलि

नई दिल्ली: बिहार के लोग जब नरेंद्र मोदी का नाम नहीं सुने थे, बिहार में सुशील मोदी का नाम घरेलू हो गया था। अगर राजनीति नहीं हो और राज नेता के अनुयायी ‘निष्पक्ष निर्णय लेने लायक हो, तो आज ही नहीं, आने वाले काल खंडों में भी आधुनिक बिहार (जय प्रकाश नारायण आंदोलन के बाद) में अगर किसी भी ‘शिक्षित’, ‘तथ्यगत जानकारी रखने वाला’, ‘स्पष्टवक्ता’ राजनेताओं का नाम लिया जाएगा तो वह नाम ‘एक वचन” से बहुवचन नहीं हो पाएगा और सुशील मोदी के नाम पर पूर्ण विराम भी लग जाएगा।

आज बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार गुलबंद बांधकर भले भारतीय जनता पार्टी के आला नेता के संग बैठकर कुर्सी का मज़ा लें, ठहाका-पर-ठहाका लगाएं, आला नेता भले यह स्वीकार नहीं करें, लेकिन हक़ीक़त यही है कि बिहार में सन् सत्तर के दशक के बाद पहले ‘दीपक’ को ‘बुझने’ से बचाये रखने, जलाये रखने और फिर कमल को खिलने-खिलाने में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया तो वह पटना के राजेंद्र नगर रोड नंबर 8 के निवासी सुशील कुमार मोदी के अलावे कोई नहीं था। यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जगत प्रकाश नड्डा भी सुशील मोदी के सामने बौने हैं। भले वे गोल-मटोल होकर, गोल-मटोल बातें कर सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हों।

यह बात मैं ही नहीं, प्रदेश के ‘निष्पक्ष’ पत्रकार, जिन्हें अख़बारों के लिए ‘विज्ञापन’ एकत्रित नहीं करना होता है, मालिकों को राजनीतिक-लाभ दिलाने के लिए क्षण-प्रतिक्षण दण्ड बैठकी नहीं करना पड़ता है, स्वीकार करेंगे । इतना ही नहीं, इस बात पर पटना कॉलेज का यह विशाल मैदान, भले इस मैदान को सुशील मोदी किताब-कॉपी के साथ एक कक्षा से दूसरे कक्षा में जाने के क्रम में नहीं नापे हों, इस मैदान की मिट्टी प्रत्यक्ष गवाह है जहाँ सत्तर के दशक से सफ़ेद कमीज, खाकी हाफ पैंट, काली टोपी और अपने कद से अधिक ऊँचा डंडा लिए प्रत्येक रविवार को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के सैकड़ों कार्यकर्ताओं के साथ उपस्थित होते थे। पटना विश्वविद्यालय को अपने दिवंगत छात्र नेता के व्यक्तित्व पर नाज है।

5 जनवरी, 1952 को पटना में जन्म लिए सुशील मोदी का 72 वर्ष की आयु में कल रात अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में निधन हो गया। सुशील मोदी के निधन से सन 1974 की सम्पूर्ण क्रांति की उपज का पहला स्तंभ गिर गया। मोदी कैंसर से जूझ रहे थे और दिल्ली के एम्स अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। लोकसभा चुनाव के ऐलान के बाद सुशील मोदी ने अपनी बीमारी की जानकारी सार्वजनिक की थी। उन्होंने एक्स पर लिखा था, ”मैं पिछले छह महीने से कैंसर से जंग लड़ रहा हूं। अब मुझे लगता है कि लोगों को इस बारे में बता देना चाहिए। मैं लोकसभा चुनाव में ज़्यादा कुछ नहीं कर पाऊंगा।”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा है, ”पार्टी में अपने मूल्यवान सहयोगी और दशकों से मेरे मित्र रहे सुशील मोदी जी के असामयिक निधन से अत्यंत दुख हुआ है। बिहार में भाजपा के उत्थान और उसकी सफलताओं के पीछे उनका अमूल्य योगदान रहा है। आपातकाल का पुरज़ोर विरोध करते हुए, उन्होंने छात्र राजनीति से अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। वे बेहद मेहनती और मिलनसार विधायक के रूप में जाने जाते थे. राजनीति से जुड़े विषयों को लेकर उनकी समझ बहुत गहरी थी। उन्होंने एक प्रशासक के तौर पर भी काफ़ी सराहनीय कार्य किए. जीएसटी पारित होने में उनकी सक्रिय भूमिका सदैव स्मरणीय रहेगी. शोक की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके परिवार और समर्थकों के साथ हैं। ”

सुशील मोदी जेपी आंदोलन की उपज माने जाते थे। जयप्रकाश आंदोलन से रामजनम सिन्हा, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, नरेंद्र सिंह, सुशील मोदी, शिवानंद तिवारी जैसा राजनीतिक नेताओं का जन्म हुआ। सुशील मोदी की छात्र राजनीति की शुरुआत साल 1971 में हुई जब वे पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ की पांच सदस्यीय कैबिनेट के सदस्य निर्वाचित हुए। 1973 में वो महामंत्री चुने गए। उस वक़्त पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और संयुक्त सचिव रविशंकर प्रसाद चुने गए थे। भारतीय जनता पार्टी के सिद्धांतकार और संघ विचारक रहे केएन गोविंदाचार्य को सुशील कुमार मोदी का राजनीतिक गुरु माना जाता है।

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श्रीमती रत्ना देवी – श्री मोती लाल मोदी के पुत्र सुशील मोदी अपने पीछे अपनी विधवा डॉ. जैसी सुशील मोदी और दो पुत्र उत्कर्ष तथागत और अक्षय अमृतांशु को छोड़ गए हैं। सुशील मोदी पटना के संत माइकल स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण किया। बाद में वे ​पटना साइंस कॉलेज से वनस्पति विज्ञान में स्नातक किये। जेपी आंदोलन के प्रभाव में आने के बाद उन्होंने स्नातकोत्तर कक्षा में दाखिला लेकर पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लागू आपातकाल के दौरान मोदी बिहार की राजनीतिक वातावरण में उभर कर आए। अपनी वाक्पटुता, स्पष्ट विचार के कारण वे पटना के मजदूरों से लेकर शिक्षाविदों तक सभी के पसंदीदा रहे। आपातकाल के दौरान वे 19 महीने जेल में रहे। सन 1977 से 1986 तक वो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में महत्वपूर्ण पदों पर रहे। बिहार की राजनीति में सुशील मोदी अपना नाम अपने दम पर लिखा। सन 1968 में वे राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और आजीवन आरएसएस के कार्यकर्त्ता बने रहे। सन 1974 आंदोलन के दौरान वे बिहार प्रदेश छात्र संघर्ष समिति के सदस्य बने। सन 1983 आते-आते वे विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय महासचिव के पद पर आसीन हुए।

1990 में सुशील कुमार मोदी ने पटना केन्द्रीय विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े और विधानसभा पहुंचे। 1995 और 2000 का भी चुनाव वो इसी सीट से जीते। साल 2004 में उन्होंने भागलपुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीता था। साल 2005 में उन्होंने संसद सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया और विधान परिषद के लिए निर्वाचित होकर उपमुख्यमंत्री बने। साल 2005 से 2013 और फिर 2017 से 2020 के दौरान वो बतौर उपमुख्यमंत्री अपनी भूमिका निभाते रहे। इस दौरान वो पार्टी में भी अलग-अलग दायित्व संभालते रहे। दिसंबर, 2020 में उन्हें पार्टी ने राज्यसभा भेजा।

नब्बे में जिस पटना केंद्रीय विधानसभा क्षेत्र (अब कुम्हरार विधानसभा क्षेत्र) से सुशील मोदी चुनाव जीते थे, कोई साढ़े तीन दशक बाद आज तक उस विधानसभा क्षेत्र में ‘मोदी के पग के निशान’ दीखते हैं। स्थानीय लोगों का मानना है कि इस स्थान से भारतीय जनता पार्टी का कोई भी अभ्यर्थी चुनावी मैदान में अपनी टोपी उछालेगा, वह सुशील मोदी के नाम से विजय हो जायेगा। राजनीतिक विचारधाराओं में विविधता के वावजूद इस विधानसभा क्षेत्र के सभी लोग सुशील मोदी का बहुत सम्मान करते हैं। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से जन्म लिए किसी भी राजनेताओं को, यहाँ तक की वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या अन्य केंद्रीय मंत्रियों को वह सम्मान नहीं प्राप्त हुआ।

सत्तर के दशक में जब देश में, खासकर बिहार और प्रदेश की राजधानी पटना में राजनीतिक परिवेश बदल रहा था, उन दिनों मैं पटना की सड़कों पर अखबार विक्रेता (1968-1975) था। जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति का प्रत्यक्षदर्शी रहा। उनके आंदोलन के कारण सड़कों पर अखबार -आर्यावर्त, इंडियन नेशन, सर्चलाइट और प्रदीप – खूब बेचते थे। उन दिनों मैं पटना कॉलेज के सामने सामने ननकूजी के होटल के ऊपर गली के कोने पर रहता था। सन 1974 में दसवीं कक्षा का परीक्षार्थी भी था। कलाई पर घड़ी नहीं थी, इसलिए सुवह-सुवह अशोक राजपथ पर (पटना कॉलेज प्रवेश द्वार के समीप) ब्रह्म स्थान के नीचे से जाने वाली बैलगाड़ी बैल की घंटी की आवाज से उठ जाया करता था। उस सुबह भी घंटी की आवाज से उठा। कुछ देर बाद साइकिल से गांधी मैदान स्थित बस अड्डे के तरफ निकला अखबार लिए – बांटने के लिए।

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साइकिल पर बैठा ही था, इस वृक्ष के नीचे पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन सभी छात्र नेता जो जय प्रकाश नारायण के आंदोलन में सक्रीय थे, खड़े दिखाई दिए। बहुतों के पैर में चप्पल था, पैजामा – कुर्ता, बेलबॉटम पहने थे। क्रांति की तैयारी हो रही थी। सुशील मोदी, लालू यादव. नवल सिंह आदि छात्र नेताओं के साथ-साथ पटना के तत्कालीन छायाकार कृष्णमुरारी किशन भी उपस्थित थे। कुछ पल रुका। सबों ने हाल-चाल पूछा। फिर मैं आगे निकल पड़ा। इस बृक्ष के नीचे दाहिने फुटपाथ पर एनीबेसेन्ट रोड के कोने पीपुल्स बुक हॉउस, चाय वाला, दास स्टूडियो इत्यादि दूकानों पर उस सुवह जो भी लोग बाग़ खड़े दिखे थे, वे बिहार सरकार में विराजमान हुए।

बहरहाल, सुशील मोदी तत्कालीन नेताओं में सबसे ‘तेज’ थे, ‘सभी मामलों’ में। आज के भाजपा के नेता भले इस बात को स्वीकार नहीं करें (स्वहित में), हकीकत यह है कि अगर उन दिनों सुशील मोदी नहीं होते तो पहले जनसंघ और बाद में भाजपा समाप्त हो गया होता।

वरिष्ठ पत्रकार सुधाकर जी कहते हैं: “प्रदेश में भाजपा को जीवित रखने का सम्पूर्ण श्रेय सुशील मोदी को जाता है। सुशील मोदी राजेंद्र नगर रोड नंबर-8 में रहते हैं और मैं रोड नंबर- 11 में। दोनों पटना विश्वविद्यालय के छात्र रहे, समकक्ष। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे पढ़ते बहुत थे। तथ्यों को दस्तावेजों के साथ प्रस्तुत करने की उनकी बहुत बेहतरीन आदत थी। वे हवा में आरोप-प्रत्यारोप की बात नहीं करते थे। राजनीतिक विचार धाराएं अलग-अलग होने के बावजूद भी लोग सुशील मोदी के इस गुण के कायल थे। ऐसे गुण जयप्रकाश नारायण आंदोलन के बाद जो भी नेता जन्म लिए, उनमें पूर्णता के साथ अभाव था और है भी।”

सुधाकर जी आगे कहते हैं: “मैं सुशील मोदी को पिछले साठ सालों से जानता हूँ, देखा हूँ, परिचित हम, मिला हूँ। वे एक चलंत पुस्तकालय थे। उनके पास दस्तावेजों का अम्बार था। जब बिहार में नेताओं के द्वारा भ्रष्टाचार में लिप्त होने की बात की शुरुआत हुयी, सुशील मोदी दस्तावेजों के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़े। जब भी विधायक फंड की बात होती थी विधानसभा क्षेत्र के विकास के लिए, वे खुलकर लोगों से कहते थे कि आप भी खर्च करें और हम भी खर्च करते हैं। दोनों मिलकर विकास का कार्य करते हैं। इतना ही नहीं, कई ऐसे अवसर आये जब प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनसे सलाह लेते थे।”

टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के वरिष्ठ पत्रकार (अवकाश प्राप्त) श्री लवकुमार मिश्रा कहते हैं कि “सुशील जी का जीवन ‘जीवन-पर्यन्त’ सादगी से बीता। पटना के पोलो रोड स्थित आधिकारिक आवास पर वे सुबह दस बजे से देर रात दो बजे तक कार्य करते थे। सोने के लिए वे अपने घर राजेंद्र नगर जाते थे। हम एक अच्छे मित्र को खो दिया।”

बहरहाल, सन् 1983 की बात है। कपिल देव की अगुवाई में क्रिकेट विश्व कप खेला जा रहा था। मैच अपने अंतिम चरण में तब। उन दिनों मैं पटना विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर करने के बाद इंडियन नेशन अख़बार के संपादकीय विभाग में आ गया था। विश्वकप फ़ाइनल मैच के आस-पास ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का आगरा में अधिवेशन होने जा रहा था। परिषद के न्योता पर हम तीन पत्रकार आगरा जाने के लिए तैयार हुए। देश में राजनीतिक वातावरण बदल रहा था। राजनीति की परिभाषा भी बदल रही थी। राजनीति में देश के युवा वर्ग आने को सज्ज हो रहे थे। उधर कांग्रेस पार्टी भी युवा कांग्रेस को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी। लेकिन इसकी जमीनी स्तर पर संगठन मजबूत नहीं हो पा रहा था। जबकि विद्यार्थी परिषद के एक एक कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर कैडर को मजबूत करने का अथक प्रयास कर रहा था। सुशील मोदी विद्यार्थी परिषद् के शीर्षस्थ पद पर विराजमान थे।

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हम तीन – श्री त्रिवेदी अमरीश (अब दिवंगत), श्री ज्ञानवर्धन मिश्र और मैं – आगरा की और निकल पड़े। उन दिनों इण्डियन नेशन अख़बार के संपादक थे श्री दीननान्थ झा। उनका आदेश था कि कहानी में शब्दों का प्रयोग ठीक से करना, साथ ही, ऐसा लिखना जिससे प्रदेश के युवापीढ़ियों को राजनीति में सजग और अध्यनशील रहने का सन्देश हो। आगरा पहुँचने पर हम तीनों गंतव्य स्थान पर पहुँचने के लिए होटल से कुछ समय पहले निकले जिससे वक्ताओं के कोई शब्द छूटे नहीं। तभी सुशील मोदी और हेमंत शुक्ला एक जीप से आगे निकले। लेकिन तक्षण रुके और उनके जीप में एक खली स्थान पर ज्ञानवर्धन जी को उठा लिए। जीप पर ज्ञानवर्धन जी को बिच का स्थान मिला। परिणाम यह हुआ कि गंतव्य तक पहुँचने के क्रम में सड़क के दोनों तरफ जो भी व्यक्ति माला पहना रहे थे, सुशील मोदी के गले में नहीं, बल्कि ज्ञानवर्धन जी के गले में शोभायमान हो रहा था। खैर।

वैसे बिहार के पत्रकार इस बात को भी स्वीकार करेंगे (खासकर जो शाकाहारी नहीं हैं) कि प्रदेश का बाहुल्य पत्रकार सुशील मोदी के साथ यात्रा नहीं करना चाहते थे। वजह यह था कि वे ‘शाकाहारी’ थे और उस ज़माने में भी ‘मदिरा निषेध’ नहीं होने के बाद भी सुशील से स्वच्छ जल पीने-पिलाने में अधिक विश्वास रखते थे – चाहे चुनाव का समय हो या अन्य।

बहरहाल, डा धनाकर ठाकुर का कहना है कि “मिथिला के समर्थक थे मेरे मित्र सुशील मोदी।” उन्होंने कहा कि बिहार के भूतपूर्व उपमुख्यमंत्री ‘सुशील कुमार मोदी नेता विपक्ष के रूप में मेरे मिथिल राज्य आन्दोलन की सफलता के लिए पत्र भेजा था । उन्हें ‘भारत का प्रधानमंत्री बनाना था ‘ जब मैंने यह बात कुछ वर्ष पूर्व पटना में कही थी तो लोगों को आश्चर्य हुआ था । गुजराती भाषा  दादरा नगर हवेली दमन दीव और  विरार वाले  पश्चिमी मुम्बई के साथ 28 लोकसभा क्षेत्र केवल हैं जबकि बिहार- झारखंड के 54 के साथ 68 लोकसभा के  दूसरे प्रदेशों में क्षेत्र हैं जहां बिहारी मतदाता निर्णायक हैं विशेषत: मैथिल मतदाता। इतने प्रभावी क्षेत्र में किन्हीं की भी पकड़ मजबूत नहीं संभव। फिर सुशील कुमार मोदी बिहार के अपने बैच के 124 सर्वश्रेष्ठ बायलोजी छात्र में एक थे जिनका ही साइंस कॉलेज, पटना में प्रवेश हो  सकता था और आनर्स में प्रथम वर्ग में दूसरा स्थान प्राप्त किया। मनमोहन सिंह सरकार के समय जीएसटी पैनल के चेयरमैन बने जिनको अपने ही दल ने भारत का वित्त मंत्री भी नहीं बनाया जो दुखद हुआ।

1974 छात्र आन्दोलन के नेता अपने दल के अधिक विधायक रहते हुए भी बिहार के मुख्यमंत्री पद के लिए उन्होंने जोर नहीं दिया, इतना ही  नहीं उन्होंने कभी बहिरागत के लिए  विपक्षी दल का नेता पद भी छोड़ि दिया। अहंकारविहीन व्यक्ति सुशील कुमार मोदी थे। बंगलोर में 2006 में मिथिला के विकास के लिए प्रेजेंटेशन मैथिल आइ टी कर्मी साथ मैंने रखा थ। शिमोगा से गोरक्षा रैलीज्ञसे वे ओ लेट आए थे अतः बिहार भवन के कार्यक्रम के बाद बोले कि भोजन के बाद प्रेजेंटेशन हो तो मैंने डांटते हुए कहा नहीं आपका भोजन वहीं होगा, युवाकर्मिंयों को दूर जाना है और वही हुआ। टिफिन से वे खाते रहे और प्रेजेन्टेशन चलता  रहा। समय के वे पक्के थे। राजनेता के अवसान पर मिथिला की श्रद्धांजलि।

बहरहाल, जिस अख़बारों में प्रकाशित होकर आप छात्र नेता से राष्ट्रीय नेता बने, प्रदेश के राजनीतिक गलियारे के रास्ते संसद तक विराजमान हुए और राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय अख़बारो में प्रकाशित हुए, उन्हीं अख़बारों संस्थापक, संरक्षक के सम्मानार्थ बने वेबसाइट का श्रद्धांजलि स्वीकार करें। पांच-छह दशक पूर्व अपने सभी पत्रकार मित्रों के तरफ से (जो जीवित हैं और जो मृत्यु को प्राप्त किये) उनके तरफ से श्रद्धांजलि स्वीकार करें। मुझे उम्मीद हैं कि आधुनिक बिहार में शायद आप पहला और अंतिम छात्र नेता होंगे जिनके बारे में लिखते समय अश्रुपूरित हूँ।

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