“बिहारियन शब्दकोष” से देश पर कब्ज़ा: आज़ादी के 75 साल पर लोगों को उपहार, ‘बिहारीमय’ होएं हुज़ूर !!!!

"बिहारियन शब्दकोष" से देश पर कब्ज़ा: आज़ादी के 75 साल पर लोगों को उपहार, 'बिहारीमय' होएं हुज़ूर

नई दिल्ली : नब्बे के प्रारंभिक वर्षों में दिल्ली के “फ्लीट स्ट्रीट” पर दौड़ने वाली निजी बसों के खलासियों के मुख से सुनता था “ओय !!! बिहारी” – आज स्थिति ऐसी है कि दिल्ली के फ्लीट स्ट्रीट से राजपथ के रास्ते, भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों के 718 जिलों के 6764 ब्लॉकों में, कोई 6,49,4811 गाँव में “बिहारी शब्द” न केवल कारपोरेट घरानों के मोहतरमाओं और मोहतरमों के “शान और प्रतिष्ठा” में चौबीस-चाँद लगा रहा है, बल्कि हज़ारों-लाखों लोगों को पेट-भराई का भी काम कर रहा है। 

विश्वास नहीं हो रहा है न। 

हम बिहारी लोगों को जब कुछ मिल जाता है तो कहते हैं “पैलिओ” – यह नाम एक चार-पहिया वाहन का है – Palio (Fiat) कार। हम मगध वाले जब किसी चीज को देखते हैं, मसलन दिल्ली के क़ुतुब मीनार को देखे, तो जब वापस गया या पटना जायेंगे तो गाँव घर में सभी को कहेंगे “क़ुतुब मीनार देखलुक” – ऑउट(लुक) तो जानते ही होंगे। हम बिहारी लोग जब जलेबी खरीद कर खाते हैं, यानी कोई वस्तु, पदार्थ खरीदते हैं, तो लोग बाग़ पूछते हैं “किनले” का (ख़रीदे हो क्या?) – पेप्सी कंपनी वाले इस शब्द को चुरा लिए और पानी भरा बोतल KINLEY बाजार में ले आये। इसी तरह, हम लोग जब “कंचा” खेलते हैं, कैरम खेलते हैं तो एक “गुच्ची” (छेद) में कंचा या कैरम के गोटी को जाना होता है, तब ही ‘विजय’ घोषित किये जाते हैं। शहर में बाबू लोग बड़ा-बड़ा डंडा लेकर भी एक खेल बड़े-बड़े मैदान में खेलते हैं और बॉल को ‘गुच्ची’ में डालते हैं। आज यह शब्द “फैशन की दुनिया” का एक वस्तु है। 

स्थिति आज ऐसी है कि भारत का 137 करोड़ लोग, चाहे बिहार की चौहद्दी के अंदर जन्म लिए हो, चाहे भारत के पूर्वी क्षेत्र के हों या पश्चिमी क्षेत्र के, उत्तर भारत में जन्म लिए हों या दक्षिण भारत में – शब्दों को लेकर बिहारी हैं। इसलिए अब “ओय – बिहारी !!!!” कहने वालों की संख्या न्यूनतम होती जा रही है। क्योंकि अन्तः मन से अब सभी बिहारी हैं। यानी, कुछ वर्ष पहले तक जहाँ तिलचट्टा के तरह गली-कूची में बिहारी मिलते थे, आज “बिहारी शब्द” चिलचट्टा के तरह फ़ैल गया है। इसलिए हम बिहारी “रायता” फैलाना नहीं कहते। दिल्ली का “किंग्सवे” (राजपथ), “फ्लीट स्ट्रीट” (बहादुरशाह ज़फर मार्ग), “क्वींस वे” (जनपथ), “यॉर्क रोड” (मोतीलाल नेहरू मार्ग), “रॉबर्ट्स रोड” (तीनमूर्ति मार्ग), “ओल्ड मिल रोड” (रफ़ी मार्ग), “अल्बकार्ड मार्ग” (तीस जनबरी मार्ग), ”जी बी रोड” (श्रद्धानन्द मार्ग), “कैनिंग स्ट्रीट” (माधवराव सिंधिया मार्ग), चेम्सफोर्ड रोड, मिंटो रोड, हैली रोड इसका चश्मदीद गवाह है – यहाँ बिहारी शब्दों का साम्राज्य है, अतः आप भी बिहारी ही हैं। 

दिल्ली के मुखर्जी नगर क्षेत्र में अगर आप “ले लोट्टा” शब्द सुनते हैं, तो शायद आश्चर्यचकित नहीं होंगे। ‘भारत के भविष्य’ अपने-अपने गाँव, क़स्बा से झोला में सत्तू भरकर जब वहां से पलायन करते हैं, मन में कुछ करने, कुछ कर गुजरने का विश्वास लिए, यह सोचकर कि कुछ और बने अथवा नहीं, या तो पत्रकार बन ही जायेंगे या फिर भारतीय प्रशासनिक/पुलिस/राजस्व सेवा का अधिकारी तो बनेंगे ही; तो सबसे पहले यहीं गिरते हैं। मैं भी यहीं गिरा था पत्रकार बनकर। 

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नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में मैं लखनऊ से दिल्ली टपका था और सबसे पहले मुखर्जी नगर में ही गिरा था। हुआ यूँ था कि एक बोरी किताब, एक बेडिंग, एक एलुमिनियम का बक्सा, कोई दस किलो अखबार का कतरन और एक गोदरेज टाईप राइटर यथा-योग्य चल-सम्पति के साथ नई दिल्ली स्टेशन पर टपका था। ‘जीन्स’ और ‘टी-शर्ट’ भले पहना था, पटना के अशोक राज पथ से धनबाद के हीरापुर के रास्ते कोलकाता के चौरंगी, सोनागाछी होते, लखनऊ के चारबाग के रास्ते दिल्ली आया था, लेकिन था तो “बिहारी” ही। मुझे अपनी “योग्यता” पर “गुमान” भले नहीं था, लेकिन अपनी “मेहनत” को जीवन का सर्वोत्तम पूंजी समझता था। परन्तु जो पहला अनुभव हुआ वह यह था कि दिल्ली सल्तनत में मुझसे अधिक “विद्वान” “ज्ञानी” “कर्तव्यनिष्ठ” “कर्तव्य परायण” लोग पहले से मौजूद थे। तभी तो लखनऊ मेल के डब्बे में मेरे धोकरि (जेब) से मेरा बटुआ निकाल लिए और हम कुम्भ-करण जैसा सोये रहे। खैर, भला हो उस लाल-वस्त्र धारी रेलवे के कुली का जो बिना पैसा लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से बाहर निकाल दिए। 

दिल्ली की पत्रकारिता में “झा” से “झौआ” कब हो गया, पता भी नहीं चला। यही है दिल्ली की खूबी। यहाँ ‘राजीव’ को ‘रज्जीवा’ होने में, ‘सुशांत’ को ‘सुशांतवा’ होने में, ‘आशीष’ को ‘अशीषवा’ बनने में, ‘राजू’ को ‘रजुआ’ बनने में, ‘रंजीत’ को ‘रंजीतवा’ कहलाने में, ‘संजय’ को ‘संजय्या’ बनने में, ‘अजय’ को ‘अजय्या’ कहलाने में, ‘दीप्ती’ को ‘दिप्तिया’ कहलाने में, ‘श्वेता’ को ‘शवेताबा’ कहलाने में, ‘अमिता’ को ‘अमितिया’ कहलाने में, ‘लता’ को ‘लतिया’ बनने में तनिक भी देर नहीं लगता। 

बस चिह्वा को उलट-पुलट दीजिये। जो सबसे आसान हो और शब्द मुंह से ‘ससर’ जाय, बस इतना ही करना है। यह बात सिर्फ दिल्ली के साथ ही नहीं है। कलकत्ता, बनारस, प्रयागराज, चेन्नई, बंगलुरु, गुरुग्राम जहाँ तक हवा का आना-जाना हो, आप अच्छा-भला नाम का नया नामकरण कर सकते हैं, सुन सकते हैं। यह तो भगवान् को धन्यवाद दीजिये की अभी तक बिहार के लोकसभा और राज्यसभा या फिर ट्रेन और हवाई जहाज से बिहार और दिल्ली के बीच सफर करने वाले राज नेताओं की गिद्ध जैसी निगाहें नहीं पड़ी है इस अनमोल रतन (रत्न) पर । नहीं तो पता नहीं सम्मानित नरेंद्र मोदी जी का नाम, सम्मानित अमित शाह जी का नाम, सम्मानित राहुल गाँधी का नाम, मोहतरमा सोनिया जी का नाम, सम्मानित मुलायम सिंह यादव जी का नाम, सम्मानित योगीजी का नाम कबका बदल दिया गया होता। 

इतना ही नहीं, राजनीतिक खेल के मैदान में जहाँ राजनेता “उपनाम” देखकर “जातीय जनगणना” में अपने-अपने लोगों को ढुकाते हैं, ताकि “वोट बैंक” बना रहे और कहीं से कोई सेंघमारी नहीं कर दे; उन “उपनामों” के साथ जो बलात्कार होता है उसका भी दृष्टान्त देख ही लीजिए। मसलन : “सिंह” जी हो गए “सिंहजीवा”, “झा” जी हो गए “झौआ”, “मिश्रा” जी हो गए “मिसरवा”, “राय” जी बन गए “रायजीवा”, “मंडल” जी बन गए “मंडलबा”, तिवारी” जी बन गए “तिवरिया” और “ठाकुर” जी (बिहार में नाई को भी कहते हैं) कहलाने लगे “ठकुरवा”, “शास्त्री” जी बन गए “शास्त्रिया”, “सहाय” जी हो गए “सहायवा” – इतना गहन अध्ययन और उस अध्ययन का स्वतः परिणाम सिर्फ बिहार में ही है। 

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यह क्रिया-प्रक्रिया कोई आज की बात नहीं है। यह भी नहीं है कि आप इसके लिए श्रीकृष्ण सिन्हा से लेकर डॉ जगन्नाथ मिश्रा (मिसरवा) को या लालू यादव (यादववा) से लेकर नितीश कुमार (नीतीशवा) को अलंकृत कर दें, या इसके लिए मखान वाला माला या फिर मछली लगा पाग पहना दें अपने-अपने प्रदेश के, संसदीय क्षेत्र के नेटवन को, ताकि पंचायत ही सही, जिला परिषद्स ही सही, “एगो टिकटवा” मिल जाय । यह अपने आप “उत्पन्न” होता है “कुकुरमुत्ता” (मशरूम) की तरह और फिर तिलचट्टा की तरह फ़ैल जाता है। 

हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक श्री राजीव मिश्र (मिसरवा) का मानना है कि “यह इस्टेब्लिस्ड कनवेंशन है कि आपके नाम के पीछे ‘आ’, या, ‘वा’ लगाए बिना वो संपूर्ण नहीं है।”राजीव मिश्र गजबे लिखते हैं। कमाल के लिखते हैं। उन्होंने लिखा है की: आरकुट पर बिहारी कम्यूनिटी पर एक पोस्ट में एक्सक्लूसिव बिहारी शब्द सुझाने को कहा गया था। मतलब ऐसे शब्द या वाक्य जो सिर्फ़ बिहार में बोली और समझी जाती है। कुछ शब्द वहीं से कंट्रोल सी कर लिया और कुछ को स्वयं अपने मेमोरी से जोड़ा। और तैयार हो गया यह मिनी डिक्शनरी। बिहार स्पेशल शब्दकोष। अधिकतर शब्द तदभव ही हैं। मगह, मैथिली, अंगिका, भोजपूरी और मसाले के रूप में पटनिया। लोगों का मानना है कि पटना में मगही भाषा बोली जाती है। लेकिन मैं इससे सहमत नहीं हूं। पटना में पटनिया बोली जाती है जो पूरे राज्य की भाषाओं और राष्ट्रभाषा हिंदी का मिश्रण है। 

आप भले आज़ादी के 75 वें वर्षगाँठ में हाथ में 75,000 का मोबाईल फोन लेकर, सोसल मिडिया पर ‘पब्लिक फिगर’ लिखा देखिये। लेकिन जैसे ही वे अपना जबड़ा हिलाएंगे बोल पड़ेंगे: “कपड़ा फींच\खींच लो (कपड़ा साफ़ कर लो), बरतन मईंस लो (वर्तन साफ़ कर लो), ललुआ (लालू यादव नहीं समझें, लेकिन समानार्थक शब्द ही है), ख़चड़ा, खच्चड़ (गधा नुमा चौपाया), ऐहो (सम्बोधित करना), सूना न, ले लोट्टा, ढ़हलेल (बुड़बक), सोटा, धुत्त मड़दे, ए गो, दू गो, तीन गो, भकलोल (कम बुद्धि वाला) बुद्धि बकलाहा, का रे, टीशन (स्टेशन), चमेटा (थप्पड़), ससपेन (स्सपेंस), हम तो अकबका (चौंक) गए, जोन है सोन, जे हे से कि (यह सम्मानित दिवंगत राम विलास पासवान का ट्रेडमार्क था), कहाँ गए थे आज शमावा (शाम) को?, गैया को हाँक दो, का भैया का हाल चाल बा, बत्तिया बुता (बुझा) दे, सक-पका गए, और एक ठो रोटी दो, कपाड़ (सिर), तेंदुलकरवा गर्दा मचा दिया, धुर् महराज, अरे बाप रे बाप, हौओ देखा (वो भी देखो), ऐने आवा हो (इधर आओ), टरका दो (टालमटोल), का हो मरदे, लैकियन (लड़कियाँ), लंपट, लटकले तो गेले बेटा (ट्रक के पीछे), की होलो रे (क्या हुआ रे), चट्टी (चप्पल), काजक (कागज़), रेसका (रिक्सा), ए गजोधर, बुझला बबुआ (समझे बाबू), सुनत बाड़े रे (सुनते हो) . 

इतना ही नहीं, अगर आप किसी बिहारी बाबा से बतिया रहे हैं तो बीच-बीच में “बहुवचन” के रूप में प्रयोग करते सुने गोंगे “फलनवाँ-चिलनवाँ”, कीन दो (ख़रीद दो), कचकाड़ा (प्लास्टिक), चिमचिमी (पोलिथिन बैग), हरासंख, चटाई या पटिया, खटिया, बनरवा (बंदर), जा झाड़ के, पतरसुक्खा (दुबला-पतला आदमी), ढ़िबरी, चुनौटी, बेंग (मेंढ़क), नरेट्टी (गरदन) चीप दो, कनगोजर, गाछ (पेड़), ुमटी (पान का दुकान), अंगा या बूशर्ट (कमीज़), चमड़चिट्ट, लकड़सुंघा, गमछा, लुंगी, अरे तोरी के, अइजे (यहीं पर), हहड़ना (अनाथ), का कीजिएगा (क्या करेंगे), दुल्हिन (दुलहन), खिसियाना (गुस्सा करना), दू सौ हो गया, बोड़हनझट्टी, लफुआ (लोफर), फर्सटिया जाना, मोछ कबड़ा, थेथड़लौजी, नरभसिया गए हैं (नरवस), पैना (डंडा), इनारा (कुंआ), चरचकिया (फोर व्हीलर), हँसोथना (समेटना), खिसियाना (गुस्साना), मेहरारू (बीवी), मच्छरवा भमोर लेगा (मच्छर काट लेगा), टंडेली नहीं करो, ज्यादा बड़-बड़ करोगे तो मुँह पर बकोट (नोंच) लेंगे, आँख में अंगुली हूर देंगे, चकाचक, ससुर के नाती, लोटा के पनिया, पियासल (प्यासा), ठूँस अयले (खा लिए), कौंची (क्या) कर रहा है, जरलाहा, कचिया-हाँसू, कुच्छो नहीं (कुछ नहीं), अलबलैबे, ज्यादा लबड़-लबड़ मत कर, गोरकी (गोरी लड़की). 

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आगे और सुनिए, सत्तर के दशक में एक गीत भी बहुत प्रचलित हुआ था – छौंड़ी पतरकी गए मारे गुलेलवा जियरा उरी उरी जाय – यानी ‘पतरकी (दुबली लड़की), ऐथी, अमदूर (अमरूद), आमदी (आदमी), सिंघारा (समोसा), खबसुरत, बोकरादी, भोरे-अन्हारे, ओसारा बहार दो, ढ़ूकें, आप केने जा रहे हैं, कौलजवा नहीं जाईएगा, अनठेकानी, लंद-फंद दिस् दैट, देखिए ढ़ेर अंग्रेज़ी मत झाड़िए, लंद-फंद देवानंद, जो रे ससुर, काहे इतना खिसिया रहे हैं मरदे, ठेकुआ, निमकी, भुतला गए थे, छूछुन्दर, जुआईल, बलवा काहे नहीं कटवाते हैं, का हो जीला, ढ़िबड़ीया धुकधुका ता, थेथड़, मिज़ाज लहरा दिया, टंच माल, भईवा, पाईपवा, तनी-मनी दे दो, तरकारी, इ नारंगी में कितना बीया है, अभरी गेंद ऐने आया तो ओने बीग देंगे, बदमाशी करबे त नाली में गोत देबौ, बड़ी भारी है-दिमाग में कुछो नहीं ढ़ूक रहा है, बिस्कुटिया चाय में बोर-बोर के खाओ जी, छुच्छे काहे खा रहे हो, बहुत निम्मन बनाया है, उँघी लग रहा है, काम लटपटा गया है, बूट फुला दिए हैं, बहिर बकाल, भकचोंधर, नूनू, सत्तू घोर के पी लो, लौंडा, अलुआ, सुतले रह गए, माटर साहब, तखनिए से ई माथा खराब कैले है, एक्के फैट मारबौ कि खुने बोकर देबे, ले बिलैया – इ का हुआ, सड़िया दो, रोटी में घी चपोड़ ले, लूड़ (कला), मुड़ई (मूली), उठा के बजाड़ देंगे, गोइठा, डेकची, कुसियार (ईख), रमतोरई (भींडी), फटफटिया (राजदूत), भात (चावल), नूआ (साड़ी), देखलुक (देखा), दू थाप देंगे न तो मियाजे़ संट हो जाएगा, बिस्कुट मेहरा गया है, जादे अक्खटल न बतिया, एक बैक आ गया और हम धड़फड़ा गए, फैमली (पत्नी), बगलवाली (वो), हमरा हौं चाहीं, भितरगुन्ना, लतखोर, भुईयां में बैठ जाओ, मैया गे, काहे दाँत चियार रहे हो, गोर बहुत टटा रहा है, का हीत (हित), निंबुआ दू चार गो मिरची लटका ला चोटी में, भतार (पति शायद), फोडिंग द कापाड़ एंड भागिंग खेते-खेते, मुझौसा, गुलकोंच (ग्लूकोज़)।” 

भानुमति का पिटारा के अलावे, स्तुतिपांडेयब्लॉग्स्पॉट पर पूरा शब्दकोष दिखा। कोई 34 लोग टिपण्णी भी किये। फॉरबिसगंज टाऊन पेज पर भी दिखा। शब्दकोष का पन्ना फाड़ कर चिपका दिए थे। “दीवान शब्दकोषवा” पर भी लौका। “गुस्ताख़” ब्लागस्पाट पर भी लटका दिखा। आईओसी स्थिति में यह शब्दकोष किनके पुस्तकालय और वाचनालय से निकला, ज्ञात नहीं हो पाया। लेकिन सब कहते हैं कि इसके जन्मदाता राजीव मिश्र है। 

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