काशी में ‘उनकी’ सरकार नहीं, ‘उनकी सरकार’ है, जिसे विश्व के लोग “काशी का कोतवाल” कहते हैं

बनारस : सत्तर के दशक के पूर्वार्ध मैं अशोक राजपथ स्थित पटना कॉलेज मुख्य द्वार के सामने वाली गली में रहता था। साल सन 1971 था। मैं नवमीं कक्षा का छात्र था पटना के उसी ऐतिहासिक विद्यालय में जहाँ स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद भी अपने जीवन का कुछ अध्याय शिक्षा ग्रहण किए थे। बिहार के किसी कोने में जयप्रकाश नारायण आंदोलन प्रदेश की मिटटी में बीजारोपण नहीं हुआ था। सत्तर के ज़माने के विद्वान और विदुषीगण सोचे भी नहीं थे कि देश में एक राजनीतिक भूकंप आने वाला है। वह भूकंप न्यूनतम 12+ रेक्टर स्केल पर आएगा और भूकंप के बाद बिहार की गली-कूचियों में कुकुरमुत्तों की तरह नेताओं का जन्म होगा होगा। 

गुरुगोविंद सिंह के पटना सिटी के मालसलामी से लेकर गौतम बुद्ध के बोधगया के रास्ते, शेरशाह सूरी के मकबरे को प्रणाम करते पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण, सभी दिशाओं में विकास तो चतुर्मुख होगा, लेकिन उस विकास का केंद्र बिंदु प्रदेश के लोगों का घर नहीं, बल्कि नेताओं और उनके ससुराल वालों का घर होगा। प्रदेश में विद्यालय तो हर गली-नुक्कड़ पर होगा, लेकिन शैक्षिक-स्तर बढ़ने, बढ़ाने के लिए नहीं, अपितु निरीह, गरीब माता-पिता-अभिभावकों का ‘शुल्क के रूप में’ रक्त चूसने के लिए। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद बिहार से पढ़ने वाले छात्र/छात्राओं का पलायन भी नहीं होता। काम-काज के लिए, रोजी-रोजगार के लिए लोग बाग़, औरतें अपने ‘दूघ मुंहे बच्चे’ को मोटरी में बांधकर पंजाब, बंगाल, दिल्ली, राजस्थान की ओर उन्मुख नहीं होते। परिजनों की अनुपस्थिति में बूढ़े माता-पिता अपने जीवन का अंतिम सांस नहीं लेते।

पटना जंक्शन के कोने पर लाल रंग में रंगे पत्थर-रूपी पवन पुत्र, जिसे लोगों ने स्वहित में भगवान् बना दिए, वे भी नहीं जानते थे कि उनका कल्याण उनके इष्ट अयोध्या वाले नहीं करेंगे, बल्कि पटना के ही हार-मांस वाले मनुष्य उनका कल्याण करेंगे। प्रदेश के मतदाताओं, गरीब-गुरबों का, रिक्शावालों का, रेड़ीवालों का, उनके मंदिर के बगल वाली गली में कचौड़ी-घुघनी बेचने वालों का, आगे जक्कनपुर रेलवे फाटक पर अपनी जान को जोखिम में डालकर तरकारी बेचने वालों का अपना घर – फुस का ही सही – बन पाए अथवा नहीं; बजरंगबली जी का घर चार-तल्ला, वातानुकूलित बनेगा। बहुत सारी बातें हैं, उन दिनों का, जिसका जिक्र तो किया जा सकता है, लेकिन यहाँ उचित नहीं होगा।

हमारे उसी मोहल्ले में एक सज्जन रहते थे। नाम था श्री जगदीश बाबू। जगदीश बाबू की खानदानी बर्तन की दूकान थी। उन्हें अपनी बेटी की शादी के सिलसिले में बनारस जाना था। जगदीश बाबू शाम में बाबूजी को बताये और उनसे मुझे अपने साथ ले जाने का आज्ञा भी मांगे। बाबूजी बनारस का नाम सुने और ‘ना’ कहें, यह संभव ही नहीं था। अगली सुबह हम दोनों बनारस रेलवे स्टेशन पर दस्तक दिए। बाबूजी कोई साढ़े तीन दशक पहले बनारस के मणिकर्णिका घाट पर अर्सों रहे थे अपने तंत्र-मन्त्र साधना के क्रम में। आज भी बनारस के मणिकर्णिका घाट पर हज़ामों (नाई) के नामों की जो सूची एक सफ़ेद शिलापट्ट पर लिखा है, उसमें ‘गोपालजी’ का नाम लिखा है। इतना ही नहीं, उसके कई वर्षों के बाद एक और नाम लिखा है ‘शिवनाथ’ – सौभाग्य देखिये, उस शिलापट्ट पर लिखा गोपालजी के पुत्र का ही नाम शिवनाथ था। खैर, यह सब विधाता के कारनामे हैं।

जगदीश बाबू को कोतवालपुरा जाना था। हम दोनों रिक्शा पर बैठे और कोतवालपुरा पहुँच गए। कोतवालपुरा से बाबा विश्वनाथ का मंदिर कुछ साँसों की दूरी पर था। ऐसा प्रतीत हुआ, बाबा विश्वनाथ ही बुलाये हैं, जगदीश बाबू की बेटी की शादी तो महज एक बहाना है। कुछ क्षण बातचीत के बाद हम दोनों लाहौरी टोला के लिए रवाना हुए, जहां उनके एक सम्बन्धी रहते थे। जगदीश बाबू से इजाजत लेकर हम पहले दशाश्वमेध घाट की ओर उन्मुख हुए फिर बाबा विश्वनाथ के दरबार में हाजरी लगाने पहुंचे। जीवन में पहली बार बनारस की धरती पर आया था, बाबा विश्वनाथ के मंदिर में दस्तक दिया था और फिर मणिकर्णिका घाट पर धधकती चिताओं से चट-चट-फट-फट-फुट-फ़टाक आवाज के बीच बैठा था। कुछ भी अनजान नहीं लग रहा था। सभी परिचित लग रहे थे। वहां के लोग, वहां का वातावरण, वहां की हवा, मणिकर्णिका घाट के प्रवेश के ठीक दाहिने तरफ महादेव का विशालकाय शिवलिङ्ग, लकड़ी बेचने वाला, हजाम सभी परिचित लग रहे थे। इस यात्रा के बाद सन 1989 में धनबाद से बनारस पहुंचे थे, अपने एक अभिन्न मित्र के माँ का अस्थि लेकर। पहले इलाहाबाद संगम में प्रवाह किये और फिर बनारस। इस यात्रा में भी वही अनुभव हुआ जो पहली बार हुआ था।

वापस पटना आने पर अपने बाबूजी को वृतांत में सभी बातें बताया और पूछा भी – ऐसा क्यों? वे मुझे देखे और मुस्कुरा दिए। उन्होंने कहाँ कि संभव है बनारस से, मणिकर्णिका से, विश्वनाथ मंदिर से तुम्हारा कोई पूर्व जन्म का सम्बन्ध रहा हो। उन्होंने यह भी कहा कि तुम बहुत भाग्यशाली हो कि बनारस को ना तुम भूले हो और ना ही बनारस तुम्हे। इस ‘पहचान’ को जीवित रखना। बनारस तो जीवित रहेगा ही। इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते कि आने वाले समय में कुछ ऐसी घटना हो, कुछ ऐसी बातें हो, जो ऐतिहासिक हो और बनारस के साथ तुम और अधिक नजदीक हो जाओ। बाबूजी 1992 महादेव के शरण में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दिए। 

बाबूजी की मृत्यु के कोई दस साल बाद, यानी 2002 में जब देश का बागडोर सम्मानित अटलबिहारी वाजपेजी जी के हाथों में था, बिस्मिल्लाह खान के बहाने बनारस से फिर जुड़े। जीवन के अंतिम वसंत में बिहार के लाल, भारत के रत्न, शहनाई के सम्राट और इंसानियत के मसीहा उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के लिए मदद का हाथ बढ़ाना। हम जैसा दीन, निर्धन, अर्थ से अपाहिज़ ब्राह्मण भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को क्या मदद कर सकते हैं? लेकिन त्रिनेत्रधारी महादेव, कशी का कोतवाल और उनका मणिकर्णिका घाट जब मुझे ही चुने, फिर क्या विद्वान, क्या विदुषी, गया ज्ञानी, क्या महात्मा, क्या धनाढ्य, क्या भिखमंगा, क्या कमजोर, क्या पहलवान, क्या राजा, क्या महाराजा – सभी शून्य थे महादेव चयन के सामने। तभी तो बिस्मिल्लाह खान अपने जीवन के अंतिम ‘जन्मदिन’ पर 90 किलो का केक काटे, तीन किलो चांदी की शहनाई हस्तगत किये, मेरी पत्नी, पुत्र के सर पर हाथ रखकर आशीष दिए। महीना मार्च का था और तारीख 25 तथा साल 2006 – इस तारीख के पांचवे महीने में, यानी 21 अगस्त, 2006 को उस्ताद भी महादेव के शरण में उपस्थित हो गए। यूट्यूब, कैसेट्स, पेनड्राइव से भले उनकी बजाई शहनाई आज भी बजती है, लेकिन बनारस का शहनाई शांत हो गया।

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लेकिन, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अपनी अंतिम सांस के साथ हमारे लिए जो छोड़ गए, भारत के 135 करोड़ लोगों के नसीब में शायद नहीं था । बिस्मिल्लाह खान की मृत्यु-लेख, जिसे भारत का श्रेष्ठ्तम संवाद एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया ने निर्गत किया, उस 770 शब्द वाले मृत्युलेख में 92 शब्द हमारे बारे में था। हमारे कार्यों के बारे में था। शायद इसे ही गरीबों का प्रारब्ध करते हैं। बिस्मिल्लाह खान अपनी मृत्यु से पहले “शहीद” शब्द का इस्तेमाल किये। वे अपनी इक्षा जाहिर किए कि मरने से पहले दिल्ली के इण्डिया गेट पर अपनी शहनाई से शहीदों की आत्मा को आमंत्रित करेंगे और फिर शहनाई की धुन से ही उन्हें विसर्जित करेंगे। हमने कोशिश की – लेकिन ‘शहीद’ शब्द का बीजारोपण कर वे बनारस से विसर्जित हो गए, सदा के लिए। उनकी मृत्यु के दस वर्ष होते-होते भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गुमनाम क्रांतिकारियों, शहीदों के 75 वंशजों को ढूंढा। छः किताबों से छः परिवारों का जीवन बदला, कामयाब रहा। 

जब सातवें वंशज की बात आई तब बनारस पर एक अद्वितीय किताब का डमी बनकर तैयार हुआ। इस डमी को मणिकर्णिका घाट के डोम राजा के परिवार के सदस्यों ने जलती, धधकती चिताओं के बीच पुष्पांजलि के साथ महादेव को प्रस्तुत किये। किताब अपने अगले चरण में उन्मुख होने के लिए तैयार था। लेकिन महादेव कुछ और चाहते थे। उस दिन तक बनारस का, बाबा विश्वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के बारे में केदारनाथ से बद्रीनाथ तक, जम्मू-कश्मीर से कन्याकुमारी तक कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी। ‘रीविजिटिंग बनारस’ किताब का नाम था और शायद महादेव यह चाहते थे कि एक नए तेवर के साथ इस ऐतिहासिक किताब में वह सभी बातें, वह सभी तस्वीरें ‘हस्ताक्षर’ स्वरूप उपस्थित रहे। उन बातों की चर्चा आज ही नहीं आने वाले सैकड़ों सालों बाद भी उसी तरह हो जिस तरह कल, यानी 13 दिसंबर विक्रम संवत् दो हजार अठहत्तर, मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष, दशमी तिथि को किया गया – भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र दामोदर मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उस इतिहास को दोहराते, नवनिर्मित इतिहास पर हस्ताक्षर किये।

कल रात काशी का कोतवाल और महादेव स्वप्न में मुस्कुरा रहे थे। कह रहे थे – वत्स !!! इसलिए हवा का रुख बदल दिया था। अब तुम्हारे द्वारा रचित इतिहास में वह सभी ऐतिहासिक बातों का, ऐतिहासिक तस्वीरों का, ऐतिहासिक शब्दों का समावेश होगा तो आने वाले समय में, आने वाली पीढ़ियों के लिए, धर्माथियों के लिए लाभकारी होगा। वे यह भी कह रहे थे कि अपने कर्म के प्रति मलिन नहीं होना। हम तुम्हारे साथ हैं। तुम्हारे कर्मों के पीछे खड़े रहेंगे। क्योंकि तुम अपने किताब से भारत ही नहीं, देश-दुनिया के लोगों को बनारस की पुनः यात्रा (रीविजिटिंग बनारस) करा रहे हो – तथास्तु। मैं निःशब्द महादेव के समक्ष खड़ा था और मेरी आखों से अश्रुधारा गंगा की अविरल धारा की तरह कशी के कोतवाल का, महादेव के पैरों को धो रहा था ।

कल, एक इतिहास की रचना हुई। यह सत्य है। प्राचीन काल में भारत के धार्मिक संस्थाओं के साथ, स्थानों के साथ, पीठों के साथ क्या हुआ, क्या नहीं हुआ – यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। लेकिन स्वतंत्र भारत में, विगत 75 वर्षों में, जो भी हुआ, वह भारत के लोगों के मानस-पटल पर उद्धृत हैं। बनारस और बनारस का विश्वनाथ मंदिर इसका जीता-जागता गवाह है। हमारे पुराणों में कहा गया है कि जैसे ही कोई काशी में प्रवेश करता है, सारे बंधनों से मुक्त हो जाता है। भगवान विश्वेश्वर का आशीर्वाद, एक अलौकिक ऊर्जा यहाँ आते ही हमारी अंतर-आत्मा को जागृत कर देती है। और आज, आज तो इस चिर चैतन्य काशी की चेतना में एक अलग ही स्पंदन है! कल आदि काशी की अलौकिकता में एक अलग ही आभा थी ! कल शाश्वत बनारस के संकल्पों में एक अलग ही सामर्थ्य दिख रहा था ! प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी कि “हमने शास्त्रों में सुना है, जब भी कोई पुण्य अवसर होता है तो सारे तीर्थ, सारी दैवीय शक्तियाँ बनारस में बाबा के पास उपस्थित हो जाती हैं। कुछ वैसा ही अनुभव आज मुझे बाबा के दरबार में आकर हो रहा है। ऐसा लग रहा है कि,  हमारा पूरा चेतन ब्रह्मांड इससे जुड़ा हुआ है। वैसे तो अपनी माया का विस्तार बाबा ही जानें, लेकिन जहां तक हमारी मानवीय दृष्टि जाती है, ‘विश्वनाथ धाम’ के इस पवित्र आयोजन से इस समय पूरा विश्व जुड़ा हुआ है।” 

उन्होंने यह भी कहा कि विश्वनाथ धाम का ये पूरा नया परिसर एक भव्य भवन भर नहीं है, ये प्रतीक है, हमारे भारत की सनातन संस्कृति का! ये प्रतीक है, हमारी आध्यात्मिक आत्मा का! ये प्रतीक है, भारत की प्राचीनता का, परम्पराओं का! भारत की ऊर्जा का, गतिशीलता का! आप यहाँ जब आएंगे तो केवल आस्था के ही दर्शन होंगे ऐसा नहीं है। आपको यहाँ अपने अतीत के गौरव का अहसास भी होगा। कैसे प्राचीनता और नवीनता एक साथ सजीव हो रही हैं, कैसे पुरातन की प्रेरणाएं भविष्य को दिशा दे रही हैं,  इसके साक्षात दर्शन विश्वनाथ धाम परिसर में हम कर रहे हैं।” जो मां गंगा, उत्तरवाहिनी होकर बाबा के पाँव पखारने काशी आती हैं, वो मां गंगा भी कल बहुत प्रसन्न थीं। अब जब हम भगवान विश्वनाथ के चरणों में प्रणाम करेंगे, ध्यान लगाएंगे, तो माँ गंगा को स्पर्श करती हुई हवा हमें स्नेह देगी, आशीर्वाद देगी। और जब माँ गंगा उन्मुक्त होंगी, प्रसन्न होंगी, तो बाबा के ध्यान में हम ‘गंग-तरंगों की कल-कल’ का दैवीय अनुभव भी कर सकेंगे। बाबा विश्वनाथ सबके हैं, माँ गंगा सबकी हैं। उनका आशीर्वाद सबके लिए हैं। लेकिन समय और परिस्थितियों के चलते बाबा और माँ गंगा की सेवा की ये सुलभता मुश्किल हो चली थी, यहाँ हर कोई आना चाहता था,  लेकिन रास्तों और जगह की कमी हो गई थी। बुजुर्गों के लिए, दिव्यांगों के लिए यहाँ आने में बहुत कठिनाई होती थी। जो मंदिर क्षेत्र केवल तीन हजार वर्ग फीट में था, वो अब करीब करीब 5 लाख वर्ग फीट का हो गया है। अब मंदिर और मंदिर परिसर में 50, 60, 70  हजार श्रद्धालु आ सकते हैं। 

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जब मैं बनारस आया था तो एक विश्वास लेकर आया था। विश्वास अपने से ज्यादा बनारस के लोगों पर था, आप पर था। आज हिसाब-किताब का समय नहीं है लेकिन मुझे याद है, तब कुछ ऐसे लोग भी थे जो बनारस के लोगों पर संदेह करते थे। लेकिन काशी तो काशी है! काशी तो अविनाशी है। काशी में एक ही सरकार है, जिनके हाथों में डमरू है, उनकी सरकार है। जहां गंगा अपनी धारा बदलकर बहती है, उस काशी को भला कौन रोक सकता है? काशीखण्ड में भगवान शंकर ने खुद कहा है- “विना मम प्रसादम् वै, कः काशी प्रति-पद्यते”। अर्थात्, बिना मेरी प्रसन्नता के काशी में कौन आ सकता है, कौन इसका सेवन कर सकता है? काशी में महादेव की इच्छा के बिना न कोई आता है, और न यहाँ उनकी इच्छा के बिना कुछ होता है। बाबा के साथ अगर किसी और का योगदान है तो वो बाबा के गणों का है। “इदम् शिवाय, इदम् न मम्”

वाराणसी ने युगों को जिया है, इतिहास को बनते बिगड़ते देखा है, कितने ही कालखंड आए, गए! कितनी ही सल्तनतें उठीं और मिट्टी में मिल गईं, फिर भी, बनारस बना हुआ है, बनारस अपना रस बिखेर रहा है। बाबा का ये धाम शाश्वत ही नहीं रहा है, इसके सौन्दर्य ने भी हमेशा संसार को आश्चर्यचकित और आकर्षित किया है। पुराणों में प्राकृतिक आभा से घिरी काशी के ऐसे ही दिव्य स्वरूप का वर्णन किया गया है। अगर हम ग्रंथों को देखेंगे, शास्त्रों को देखेंगे। इतिहासकारों ने भी वृक्षों, सरोवरों, तालाबों से घिरी काशी के अद्भुत स्वरूप का बखान किया है। लेकिन समय कभी एक जैसा नहीं रहता। आततायियों ने इस नगरी पर आक्रमण किए, इसे ध्वस्त करने के प्रयास किए! औरंगजेब के अत्याचार, उसके आतंक का इतिहास साक्षी है। जिसने सभ्यता को तलवार के बल पर बदलने की कोशिश की, जिसने संस्कृति को कट्टरता से कुचलने की कोशिश की! लेकिन इस देश की मिट्टी बाकी दुनिया से कुछ अलग है। यहाँ अगर औरंगजेब आता है तो शिवाजी भी उठ खड़े होते हैं! अगर कोई सालार मसूद इधर बढ़ता है तो राजा सुहेलदेव जैसे वीर योद्धा उसे हमारी एकता की ताकत का अहसास करा देते हैं। और अंग्रेजों के दौर में भी, वारेन हेस्टिंग का क्या हाल काशी के लोगों ने किया था, ये तो काशी के लोग समय समय पर बोलते रहतें हैं और काशी की जुबान पर निकलता है। घोड़े पर हौदा और हाथी पर जीनजान लेकर भागल वारेन हेस्टिंग।

आज समय का चक्र देखिए, आतंक के वो पर्याय इतिहास के काले पन्नों तक सिमटकर रह गए हैं! और मेरी काशी आगे बढ़ रही है, अपने गौरव को फिर से नई भव्यता दे रही है। काशी शब्दों का विषय नहीं है, काशी संवेदनाओं की सृष्टि है। काशी वो है- जहां जागृति ही जीवन है, काशी वो है- जहां मृत्यु भी मंगल है! काशी वो है- जहां सत्य ही संस्कार है! काशी वो है- जहां प्रेम ही परंपरा है।हमारे शास्त्रों ने भी काशी की महिमा गाते, और गाते हुये आखिर में, आखिर में क्या कहा, ‘नेति-नेति’ ही कहा है। यानी जो कहा, उतना ही नहीं है, उससे भी आगे कितना कुछ है! हमारे शास्त्रों ने कहा है- “शिवम् ज्ञानम् इति ब्रयुः, शिव शब्दार्थ चिंतकाः”। अर्थात् शिव शब्द का चिंतन करने वाले लोग शिव को ही ज्ञान कहते हैं। इसीलिए, ये काशी शिवमयी है, ये काशी ज्ञानमयी है। और इसलिए ज्ञान, शोध, अनुसंधान, ये काशी और भारत के लिए स्वाभाविक निष्ठा रहे हैं। भगवान शिव ने स्वयं कहा है- “सर्व क्षेत्रेषु भू पृष्ठे, काशी क्षेत्रम् च मे वपु:”। अर्थात्, धरती के सभी क्षेत्रों में काशी साक्षात् मेरा ही शरीर है। इसीलिए, यहाँ का पत्थर, यहां का हर पत्थर शंकर है। इसलिए, हम अपनी काशी को सजीव मानते हैं, और इसी भाव से हमें अपने देश के कण-कण में मातृभाव का बोध होता है। हमारे शास्त्रों का वाक्य है- “दृश्यते सवर्ग सर्वै:, काश्याम् विश्वेश्वरः तथा”॥ यानी, काशी में सर्वत्र, हर जीव में भगवान विश्वेशर के ही दर्शन होते हैं।  इसीलिए, काशी जीवत्व को सीधे शिवत्व से जोड़ती है। हमारे ऋषियों ने ये भी कहा है- “विश्वेशं शरणं, यायां, समे बुद्धिं प्रदास्यति”। अर्थात्, भगवान विश्वेशर की शरण में आने पर सम बुद्धि व्याप्त हो जाती है। बनारस वो नगर है जहां से जगद्गुरू शंकराचार्य को श्रीडोम राजा की पवित्रता से प्रेरणा मिली, उन्होंने देश को एकता के सूत्र में बांधने का संकल्प लिया। ये वो जगह है जहां भगवान शंकर की प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस जैसी अलौकिक रचना की है।

भाव विह्वलित शब्दों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि यहीं की धरती सारनाथ में भगवान बुद्ध का बोध संसार के लिए प्रकट हुआ। समाजसुधार के लिए कबीरदास जैसे मनीषी यहाँ प्रकट हुये। समाज को जोड़ने की जरूरत थी तो संत रैदास जी की भक्ति की शक्ति का केंद्र भी ये काशी बनी।ये काशी अहिंसा और तप की प्रतिमूर्ति चार जैन तीर्थंकरों की धरती है। राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा से लेकर वल्लभाचार्य और रमानन्द जी के ज्ञान तक, चैतन्य महाप्रभु और समर्थगुरु रामदास से लेकर स्वामी विवेकानंद और मदनमोहन मालवीय तक, कितने ही ऋषियों और आचार्यों का संबंध काशी की पवित्र धरती से रहा है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने यहां से प्रेरणा पाई। रानीलक्ष्मी बाई से लेकर चंद्रशेखर आज़ाद तक, कितने ही सेनानियों की कर्मभूमि-जन्मभूमि काशी रही है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचंद, पंडित रविशंकर, और बिस्मिल्लाह खान जैसी प्रतिभाएं, इस स्मरण को कहाँ तक लेते जायें, कितना कहते जायें! भंडार भरा पड़ा है। जिस तरह काशी अनंत है वैसे ही काशी का योगदान भी अनंत है। काशी के विकास में इन अनंत पुण्य-आत्माओं की ऊर्जा शामिल है। इस विकास में भारत की अनंत परम्पराओं की विरासत शामिल है। इसीलिए, हर मत-मतांतर के लोग, हर भाषा-वर्ग के लोग यहाँ आते हैं तो यहाँ से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं।

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काशी हमारे भारत की सांस्कृतिक आध्यात्मिक राजधानी तो है ही, ये भारत की आत्मा का एक जीवंत अवतार भी है। आप देखिए, पूरब और उत्तर को जोड़ती हुई यूपी में बसी ये काशी, यहाँ विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा गया तो मंदिर का पुनर्निमाण, माता अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया। जिनकी जन्मभूमि महाराष्ट्र थी, जिनकी कर्मभूमि इंदौर-माहेश्वर और अनेक क्षेत्रों में थी। उन माता अहिल्याबाई होल्कर को आज मैं इस अवसर पर नमन करता हूं। दो सौ-ढाई सौ साल पहले उन्होंने काशी के लिए इतना कुछ किया था। तब के बाद से काशी के लिए इतना काम अब हुआ है। बाबा विश्वनाथ मंदिर की आभा बढ़ाने के लिए पंजाब से महाराजा रणजीत सिंह ने 23 मण सोना चढ़ाया था, इसके शिखर पर सोना मढ़वाया था। पंजाब से पूज्य गुरुनानक देव जी भी काशी आए थे, यहाँ सत्संग किया था। दूसरे सिख गुरुओं का भी काशी से विशेष रिश्ता रहा था। पंजाब के लोगों ने काशी के पुनर्निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दिया था। पूरब में बंगाल की रानी भवानी ने बनारस के विकास के लिए अपना सब कुछ अर्पण किया। मैसूर और दूसरे दक्षिण भारतीय राजाओं का भी बनारस के लिए बहुत बड़ा योगदान रहा है। ये एक ऐसा शहर है जहां आपको उत्तर, दक्षिण, नेपाली, लगभग हर तरह की शैली के मंदिर दिख जाएंगे। विश्वनाथ मंदिर इसी आध्यात्मिक चेतना का केंद्र रहा है, और अब ये विश्वनाथ धाम परिसर अपने भव्य रूप में इस चेतना को और ऊर्जा देगा।

दक्षिण भारत के लोगों की काशी के प्रति आस्था, दक्षिण भारत का काशी पर और काशी का दक्षिण पर प्रभाव भी हम सब भली-भांति जानते हैं। एक ग्रंथ में लिखा है- तेनो-पयाथेन कदा-चनात्, वाराणसिम पाप-निवारणन। आवादी वाणी बलिनाह, स्वशिष्यन, विलोक्य लीला-वासरे, वलिप्तान। कन्नड़ भाषा में ये कहा गया है, यानि जब जगद्गुरु माध्वाचार्य जी अपने शिष्यों के साथ चल रहे थे, तो उन्होंने कहा था कि काशी के विश्वनाथ, पाप का निवारण करते हैं। उन्होंने अपने शिष्यों को काशी के वैभव और उसकी महिमा के बारे में भी समझाया। सदियों पहले की ये भावना निरंतर चली आ रही है। महाकवि सुब्रमण्य भारती, काशी प्रवास ने जिनके जीवन की दिशा बदल दी, उन्होंने एक जगह लिखा है, तमिल में लिखा है- “कासी नगर पुलवर पेसुम उरई दान, कान्जिइल के-पदर्कोर, खरुवि सेवोम” यानि “काशी नगरी के संतकवि का भाषण कांचीपुर में सुनने का साधन बनाएंगे” काशी से निकला हर संदेश ही इतना व्यापक है, कि देश की दिशा बदल देता है। वैसे मैं एक बात और कहूंगा। मेरा पुराना अनुभव है। हमारे घाट पर रहने वाले, नाव चलाने वाले कई बनारसी साथी तो रात में कभी अनुभव किया होगा तमिल, कन्नड़ा, तेलुगू, मलयालम, इतने फर्राटेदार तरीके से बोलते हैं कि लगता है कहीं केरला-तमिलनाडू या कर्नाटक तो नहीं आ गए हम! इतना बढ़िया बोलते हैं!  

भारत की हजारों सालों की ऊर्जा, ऐसे ही तो सुरक्षित रही है, संरक्षित रही है। जब अलग-अलग स्थानों के, क्षेत्रों के एक सूत्र से जुड़ते हैं तो भारत ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के रूप में जाग्रत होता है।इसीलिए, हमें ‘सौराष्ट्रे सोमनाथम्’ से लेकर ‘अयोध्या मथुरा माया, काशी कांची अवंतिका’ का हर दिन स्मरण करना सिखाया जाता है। हमारे यहाँ तो द्वादश ज्योतिर्लिंगों के स्मरण का ही फल बताया गया है- “तस्य तस्य फल प्राप्तिः, भविष्यति न संशयः”॥ यानी, सोमनाथ से लेकर विश्वनाथ तक द्वादश ज्योतिर्लिंगों का स्मरण करने से हर संकल्प सिद्ध हो जाता है, इसमें कोई संशय ही नहीं है। ये संशय इसलिए नहीं है क्योंकि इस स्मरण के बहाने पूरे भारत का भाव एकजुट हो जाता है। और जब भारत का भाव आ जाए, तो संशय कहाँ रह जाता है, असंभव क्या बचता है?

ये भी सिर्फ संयोग नहीं है कि जब भी काशी ने करवट ली है, कुछ नया किया है, देश का भाग्य बदला है। बीते सात वर्षों से काशी में चल रहा विकास का महायज्ञ, आज एक नई ऊर्जा को प्राप्त कर रहा है। काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण, भारत को एक निर्णायक दिशा देगा, एक उज्जवल भविष्य की तरफ ले जाएगा। ये परिसर, साक्षी है हमारे सामर्थ्य का, हमारे कर्तव्य का। अगर सोच लिया जाए, ठान लिया जाए, तो असंभव कुछ भी नहीं है। नए भारत में अपनी संस्कृति का गर्व भी है और अपने सामर्थ्य पर उतना ही भरोसा भी है। नए भारत में विरासत भी है और विकास भी है। आज का भारत अपनी खोई हुई विरासत को फिर से संजो रहा है। यहां काशी में तो माता अन्नपूर्णा खुद विराजती हैं। मुझे खुशी है कि काशी से चुराई गई मां अन्नपूर्णा की प्रतिमा, एक शताब्दी के इंतजार के बाद, सौ साल के बाद अब फिर से काशी में स्थापित की जा चुकी है। माता अन्नपूर्णा की कृपा से कोरोना के कठिन समय में देश ने अपने अन्न भंडार खोल दिए, कोई गरीब भूखा ना सोए इसका ध्यान रखा, मुफ्त राशन का इंतजाम किया। गुलामी के लंबे कालखंड ने हम भारतीयों का आत्मविश्वास ऐसा तोड़ा कि हम अपने ही सृजन पर विश्वास खो बैठे। आज हजारों वर्ष पुरानी इस काशी से, मैं हर देशवासी का आह्वान करता हूं- पूरे आत्मविश्वास से सृजन करें और बार-बार, अनेकानेक बार बनारस आते रहें, बाबा विश्वनाथ का दर्शन करते रहें, इतिहास पर गवाह स्वरूप हस्ताक्षर करते रहें। 

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