यह मणिकर्णिका है ​,​ यहाँ तराजू पकड़ने वालों की आखों पर काली-पट्टी नहीं होती। यहाँ न्याय से अधिक न्याय मिलता है

मणिकर्णिका घाट, लकड़ी, तराजू और न्याय ​

बनारस पर ​”रीविजिटिंग बनारस” बनाने के क्रम में उस दिन सुवह-सुवह विश्वनाथ मन्दिर के प्रवेश द्वार के ठीक सामने चाय पी रहा था। एक-एक चुस्की के साथ सोच रहा था बाएं जाऊँ या दाहिने। बायीं ओर मणिकर्णिका था और दाहिने अस्सी।

इस बीच एक वृद्ध महिला सामने आयीं। वे मुझे देखीं, मैं उन्हें देखा और एक कप चाय के साथ दो बिस्कुट उनके तरफ बढ़ाया। वे मुस्करायीं जैसे मैंने कोई जमीन्दारी उन्हें लिख दिया हो। लेकिन प्रारब्ध तो यही था। हम दोनों का उस स्थान पर मिलना, उन्हें मेरे द्वारा चाय पीना, बिस्कुट खाना। इसे कौन मिटा सकता है। उसके बाद बनारस दर्जनों बार गया, वे फिर नहीं दिखीं।

इधर सुवह-सुवह ९ बजे तक दशास्वमेध घाट से गदौलिया मोड़ तक गाडी के आने-जाने पर स्थानीय प्रशासन का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता और खाकीधारी भी अपने-अपने कपाल पर स्वेत-चन्दन लगाकर मस्तष्क को ठंढा किये होते हैं। कोई हंगामा नहीं। कोई वसूली नहीं। कोई छल नहीं। कोई प्रपञ्च नहीं। कभी-कभी तो लोगों को राह भी दिखाते देखे जाते हैं, तो कभी वृद्ध महिला-पुरुष को हाथ पकड़कर सड़क पार करते। परन्तु अचानक ९ बजे के बाद सब कुछ बदलने लगता है। प्रतिबन्ध भी लग जाता है और माथा भी गर्म होने लगता है।

तीसरी प्याली चाय खत्म करने के बाद अपने झोले को सँभालते गंगा की ओर निकल पड़ा। पैर मणिकर्णिका की ओर बढ़ा । मैं मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। बाबूजी कहते थे “पुरुष का बायाँ पैर पहले उठता है और वह कभी गलत नहीं होता।” पिता तो स्वयं एक ब्रह्माण्ड होता है, वह गलत हो ही नहीं सकता।

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बाबूजी कहते थे जीवित मणिकर्णिका देखना सबों के भाग्य में नहीं होता। चट – चट – पट – पट – फटाक – फाटक आवाज के बीच जलती चिताओं से जो ऊर्जा निकलता है, सभी जलते पार्थिव शरीर की ऊर्जाएं एक-दूसरे से मिलकर जो समग्र ऊर्जा का निर्माण करते हैं; उसे ग्रहण करना सबों के वश की बात नहीं होती। उनकी बातें सत्य का पराकाष्ठा।

गंगा किनारे चलते-चलते मैं अब तक मणिकर्णिका पहुँच गया था। शरीर मणिकर्णिका पर। आत्मा महादेव के प्रति समर्पित और मन में दिवंगत पिता की बातें। मेरे पिताजी मणिकर्णिका में वर्षों साधना किये थे कामाख्या जाने से पूर्व।

मैं इस तस्वीर वाले स्थान पर आकर रुक गया। सामने सुखी-भींगी लकड़ियों का अम्बार। एक रंगीन तराजू जिसका रंग आसमान और पानी दोनो से मिलता-जुलता था। तराजू पर कोई ‘काली-पट्टी’ नहीं यानि ‘सम्पूर्ण न्याय’ – मैं उसे देख भी रहा था और मुस्कुरा भी रहा था।

इस बीच कोई नब्बे से अधिक वर्षीय सज्जन, झुकी कमर, हाथ में लाठी, कंधे पर गमछा लिए मेरे कंधे को थपथपाते बोले: “बाबूजी !! क्या देख रहे हो ? उनकी आवाज में गूँज थी जैसे कोई लाउडस्पीकर पर बोल रहा हो। कंधे पर रहे हाथ में वजन था और नब्बे बसंत देखने के बाद आँखों में तेज।

यह मणिकर्णिका है बाबूजी। यहाँ तराजू पकड़ने वालों की आखों पर काली-पट्टी नहीं होती। ऐसी बात आपके समाज में कुख्यात है। यहाँ न तो जीवित शरीर से और न ही पार्थिव से – अन्याय नहीं किया जाता। सम्पूर्ण न्याय और वह भी बराबर।

वे बोले: “यहाँ बट्टी मारने (गलत माप, गलत न्याय) की प्रथा नहीं है। यहाँ वजन (मृतक के पार्थिव शरीर) से अधिक वजन (लकड़ी का वजन) दिया जाता है। यानि, अगर लकड़ी का वजन कुछ अधिक भी हो गया, तो कम नहीं किया जाता। यहाँ की न्यायिक व्यवस्था बहुत ही सख्त और बहुत ही उदार है।”

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वे फिर बोले: “इसका वजह यह है कि यहाँ पढ़े-लिखे-विद्वानों का राज नहीं, हम डोमों का साम्राज्य है। हम अशिक्षित हैं। अज्ञानी है। इसलिए हम लोग न तो जीवित शरीर से और न ही पार्थिव शरीर से छल-प्रपञ्च करते हैं। सात मन में पार्थिव शरीर मिटटी में और उनकी आत्मा महादेव के शरण में.। अनंत बार बनारस और मणिकर्णिका जाने के बाद भी उस पुण्यात्मा से अब तक नहीं मिल पाया हूँ।

तस्वीर लेकर मैं पीछे बने चबूतरे पर बैठ गया और सामने के द्वार को देखने लगा जो गँगा नदी में खुलती है – मन में कोई हलचल नहीं था, शांत पानी की तरह।

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