दरभंगा के ‘उजान’ गाँव के ‘कनकपुर’ टोला में स्थित कोई 200 साल से अधिक पुराना यह कुआं ‘जीवंत’ होने वाला है, लिख लें…..

दरभंगा के 'उजान' गाँव के 'कनकपुर' टोला में स्थित कोई दो-सौ साल से अधिक पुराना यह कुआं 'जीवंत' होने वाला है, लिख लें

दरभंगा: कल रात स्वप्न देखा कि सृष्टि के रचयिता त्रिनेत्र धारी महादेव अपने लाखों गणों के साथ, सर्पों के साथ हमारे गाँव उजान, रेलवे स्टेशन – लोहना रोड, टोल – कनकपुर, जिला – दरभंगा स्थित इस शताब्दी-पुराने कुएं पर बैठकर स्नान कर रहे हैं। उनके इर्द-गिर्द लाखों ‘गण’ एकत्रित हैं। चतुर्दिक नाग-सर्प प्रसन्न मुद्रा में नाच रचे हैं। कुछ बुजुर्ग नाग सर्प स्वयं बाल्टी से पानी निकाल कर महादेव के शरीर पर डाल रहे हैं। हमारे घर के परिसर में स्थित गगनचुम्बी ‘सुपारी’ के वृक्ष पर बैठकर, श्री छत्रनाथ झा के दालान पर स्थित एक विशाल नारियल के वृक्ष पर, श्रीमन्त बाबू के बाहरी बाड़ी में स्थित एक आम के पेड़ पर बैठकर गण-सर्प पुष्प वर्षा कर रहे हैं। नंदी महाराज महामहोपाध्याय श्री दिगम्बर झा के बास-डीह से शंखनाद के साथ हर-हर-महादेव कह रहे हैं। आकाश में हर-हर महादेव की गूंज हो रही है। हमारा यह ‘इनार’ जीवंत हो गया है। स्वर्ण जैसा चमक रहा है। इसके चतुर्दिक हमारे पूर्वज, जो प्रेत-विवाह के पद्धतिकार भी थे, तंत्र-मन्त्र विद्या में महामहोपाध्याय भी थे, अपने सभी सात-वंशजों के साथ महादेव का जय-जयकार कर रहे हैं। सबों के चेहरों पर प्रसन्नता थी। सबों की पत्नियां – कुछ परिचित चेहरे भी जो दशकों पहले अग्नि के रास्ते महादेव के पास गए थे – उनके साथ महादेव के प्रति अपना समर्पण, आभार व्यक्त कर रहे हैं। ऐसा लग रहा था कि सभी अपने-अपने बास-डीहों पर जीवंत हो गए हों। सभी एक दूसरे को पहचान रहे हों। हो भी कैसे नहीं – आखिर सभी तो एक ही पिता के वंशज थे और परमपिता महादेव उनके साथ स्नान कर रहे थे।

आज लोग विश्वास नहीं करेंगे लेकिन मिथिला के बड़े-बुजुर्ग, विद्वान, महामहिमोपाध्याय इस बात का निरादर भी नहीं करेंगे कि हमारे आठवीं पीढ़ी के पूर्वज ‘प्रेत विवाह पद्धतिकार थे। महामहोपाध्याय श्री गोकुल नाथ उपाध्याय के सबसे प्रिय शिष्य थे महामहोपाध्याय श्री रामेश्वर उपाध्याय। श्री रामेश्वर उपाध्याय के तीन पुत्र थे – महामहोपाध्याय श्री गंगा दत्त झा, महामहोपाध्याय लक्ष्मीदत्त झा ‘मनबोध’ और महामहोपाध्याय श्री भवानी दत्त झा ‘सुबोध’ । महामहोपाध्याय श्री लक्ष्मी दत्त झा के आठ पुत्र हुए – महामहोपाध्याय श्री जगद्धर झा, महामहोपाध्याय श्री रुद्रधर झा ‘श्याम’, महामहोपाध्याय श्री विद्याधर झा ‘ठेंगनी’, महामहोपाध्याय श्री पखिया झा, महामहोपाध्याय श्री केशव झा, महामहोपाध्याय श्री किशोर झा, महामहोपाध्याय श्री कृष्णदत्त झा और महामहोपाध्याय श्री बाल कृष्ण झा ।

महामहोपाध्याय पंडित केशव झा के दो पुत्र हुए – पंडित श्री लोक नाथ झा यानी ‘लान्हि झा’ और पंडित श्री जीवनाथ झा। पंडित लोक नाथ झा को चार पुत्र – महामहोपाध्याय श्री दिगम्बर झा, वैयाकरण श्री पीताम्बर झा, महामहोपाध्याय श्री नीलाम्बर झा, पंडित श्री सीताम्बर झा और एक कन्या महामहोपाध्याय बालकृष्ण मिश्र तथा मही मिश्र की माँ श्रीमती कर्पूरी मिश्राइन (जिनका नाम इस इनार पर लिखा है जीर्णोद्धार करने वाले में)। श्री पीताम्बर झा के एक पुत्र श्री गोपाल दत्त झा और श्री गोपाल दत्त झा के तीन पुत्र – श्री काशीनाथ झा, श्री शिवनाथ झा, श्री गंगा नाथ झा और पांच बेटी। आज श्री गोपाल दत्त झा, उनकी पत्नी श्रीमती राधा देवी और उनकी चार बेटियां इस पृथ्वी पर नहीं हैं। महामहोपाध्याय श्री दिगम्बर झा, वैयाकरण श्री पीताम्बर झा, महामहोपाध्याय श्री नीलाम्बर झा, पंडित श्री सीताम्बर झा और श्रीमती कर्पूरी मिश्राइन की चौथी-पांचवी-छठी पीढ़ियों के वंशज आज अपने-अपने पूर्वजों के आशीष से खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह इनार निश्चित रूप से हमारे पूर्वज महामहिमोपाध्याय श्री रामेश्वर उपाध्याय के समय का होगा।

बाबूजी कहते थे इस ‘इनार’ से कोई 135 डिग्री पर एक विशालकाय कृष्ण भोग आम का वृक्ष था जहाँ अक्सर नाग और नागिन सर्प का मिलन होता था। बाबूजी के पूर्वज और गाँव के अन्य लोग जो तंत्र-मन्त्र विद्या में महारथ थे, अक्सर नाग सर्प के मिलन काल में लाल-वस्त्र का प्रयोग करते थे, जिसे उस सर्प के ऊपर मंत्रोच्चारण के साथ रख दिया जाता था। वह वस्त्र मानव-कल्याण के लिए एक अचूक वाण होता था। बाबूजी के अलावे हमारे पूर्वजों में लगभग सभी लोग इस विद्या का वरण किये थे। एक बार बाबूजी भी सन 1932 के भूकंप के बाद, जब गाँव में भीषण अग्नि-कांड हुआ था, अपने पैतृक और तंत्र-मन्त्र विद्या परंपरा का निर्वाह करते वह कार्य किये थे। बाबूजी कहते थे कि सर्प उनका पीछा भी किया था, लेकिन कभी कष्ट नहीं दिया। बाबूजी जीवन पर्यन्त उस वस्त्र से कई लोगों की जिंदगी बदले थे। माँ-बाबूजी और गाँव के बुजुर्ग सगे-सम्बन्धी आज भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि उस क्षेत्र में स्थित लोगों के डीहों पर, जहाँ उनका पुस्तैनी घर है, नाग-नागिन सर्पों की पीढ़ियां भी बस रही है। अक्सर ‘नाग-पंचमी’ के दिन अथवा की भी शुभ दिनों में लोग दूध और धान का लावा बाहर, अँगने में रखते हैं एक विश्वास के साथ। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं ‘विश्वास में बहुत ताकत है। संभव है यह कुछ सकारात्मक संकेत हो।”

आज से कोई 57-वर्ष पहले गांव से रोजी-रोटी के साथ-साथ शिक्षा की तलाश में अ-आ-इ-ई-क-ख-ग सीखने के लिए पूर्णिया रवाना हुआ था, अपने सबसे बड़े मामा के पास गढ़बनैली। वहां दो माह से अधिक नहीं रुक सका। कहते हैं जब एक माँ अपने संतान को बचपन में अपनी छाती से अलग कर देती है, तो बच्चे की आत्मा कलपती है, अन्तःमन से रुदाली होता है, माँ के स्तन से दूध का बहाव होने लगता है। एक गरीब का संतान होने के नाते माँ की बहुत इक्षा थी की मैं पढ़ लूँ, किसी भी तरह, किसी का भी पैर पकड़कर। गढ़बनैली जाना उसी प्रयास का एक हिस्सा था।

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तत्कालीन प्रवास के दौरान अपने मामा के घर गढ़बनैली में मुझे जिस मानसिक और शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ा, ईश्वर न करे किसी गरीब के बच्चे के साथ, चाहे वह किसी भी जाति अथवा संप्रदाय का क्यों न हो, गुजरना पड़े। हे महादेव किसी को अर्थ से दीन नहीं बनाना क्योंकि मानसिक रूप से इस संसार में दरिद्रों की किल्लत नहीं है। इस कहानी को भी लिखूंगा अगले क्रम में। ‘महादेव’ और ‘समय’ की नजर में मैं पहली कतार में था। तभी मामा की पत्नी का देहांत हो गया। उनकी मृत्यु के साथ मेरा वहां से प्रवास करने का मार्ग प्रशस्त हो गया और मैं पटना की ओर उन्मुख हो गया। साल साठ के दशक का मध्य था।

जिस साल गाँव से निकला गाँव में यह कुआं हमारे घर से कोई 20 कदम पर था, आज भी है। उन दिनों कपड़े को बक्से में रखने की औकात नहीं थी, यात्रा के दौरान भी। अतः एक झोले में अपना एक-दो हाफ पैंट, बुशर्ट ले लिया था और एक किताब भी – मनोहर पोथी, बाबूजी पटना से लाये थे। जब घर से बाहर ट्रेन पकड़ने लोहना रोड स्टेशन की ओर अग्रमुख था, अपने शरीर के बाएं तरफ स्थित यह ‘इनार (कुआं)’ टकटकी निगाह से देख रहा था। उन दिनों पानी लबालब भरा हुआ था। मेरी आंखों में भी पानी सूखा नहीं था। ‘इनार’ को देखकर मैं अश्रुपात हो रहा था। पिता स्वरुप एक ब्रह्माण्ड के रूप में वह कुआं जानता था कि अगर हम गाँव में रह गया तो सांसों की गिनती सिमटने लगेगी। वह यह भी जानता था कि वह अपने आँगन का पानी पिलाकर मुझे सप्ताह, महीना पाल सकता है, मैं जीवित रह सकता था, लेकिन मष्तिष्क की भूख को बढ़ाने के लिए पेट में अन्न का दाना होना नितांत आवश्यक है और गाँव में, मेरे घर में अन्न का दाना मानो अजायबघर का वस्तु थी उन दिनों मेरे लिए। भात देखें / खाये मुद्दत हो जाता था। गेहूं की रोटी देखे महीनों बीत जाते थे। हाँ, सब्जियां प्रचुर मात्रा में मिल जाती थी। यह सभी बातें यह ‘इनार’ जानता था, चश्मदीद गवाह भी था मेरे जन्म काल से, इसलिए अपने ह्रदय पर पत्थर रखकर मुझे ‘विदा’ किया, लेकिन ‘अलविदा’ नहीं किया एक विश्वास के साथ – न खुद और ना ही मुझे।

उन दिनों गाँव में एक रुपये में बारह-कनमा (16 कनमा/छटाक का एक सेर होता है) चावल मिलता था। लेकिन मडुआ, जौ, मकई भरपूर मिलता था। वजह भी था। वह सभी खाद्यान्न एक रुपये में न्यूनतम पांच सेर मिलता था। स्वाभाविक है, मकई, मड़ुआ की रोटियों को ईश्वर का प्रसाद समझकर माँ देती थी और कहती भी थी आज यह रोटियां खा लो, अपने ‘इनार (कुएं)’ का पानी पी कर मन की तृप्त कर लो। कभी-कभी वह मकई को मोटा-मोटा दररकर उसे भात-नुमा बना देती थी। आज शहर में संभ्रांत लोग उसे ‘दलिया’ कहते हैं और यह भी कहते नहीं थकते कि वह ‘बहुत पौष्टिक’ होता है। माँ अपने ज़माने में गेहूं, मकई, बाजरा के दर्रा (दलिया) में सभी सब्जियां भी मिला देती । बेहतरीन स्वाद होता था। कहती थी, यह बहुत ताकत भी देगा और पेट भी बहुत देर तक भरा रहेगा। माँ कहती थी तो गलत तो हो नहीं सकती थी।

उस उम्र में हम बच्चे इस ‘इनार’ से दो छोटे-छोटे बाल्टी में पानी भरकर घर ले जाते थे और यह भी ध्यान रखते थे कि किसी के बाल्टी से एक बून्द पानी छलक कर नीचे नहीं गिरे। उन दिनों मेरे दो दिन भतीजे थे – भुन्नी, गुन्नी, सुशील, बेचन, जो हमउम्र के थे और वे जब तक गाँव में रहा, ‘भात’ के लिए, ‘अरहर’ दाल के लिए कभी कलपने नहीं दिया। उसकी माँ हमेशा इस बात का ध्यान रखती थी। मैं सबों का चहेता भी था। भुन्नी-गुन्नी की माँ मुझे अपना दूध भी पिलाई थी जब भोजन नहीं मिलने के कारण माँ को दूध नहीं होता था। जागब की जिंदगी थी। लेकिन माँ हमेशा कहती थी खाने के लिए, अन्न के लिए हमेशा महादेव को धन्यवाद देना। आज जो मिलता है, खा लो, मन को तृप्त कर लो, पेट की क्षुधा शांत कर लो। देखना एक दिन तुम्हारे पास खाने के रंगबिरंगे, स्वादिष्ट पकवान होंगे, तुम भी खाना और लोगों को भी भूखा नहीं रहने देना। लेकिन ध्यान रहे ‘मस्तिष्क की भूख कभी शांत नहीं होने देना, मेहनत करने में, मसक्कत करने में कभी कोताही नहीं करना। कामचोर कभी नहीं होना और बहुत सारी बातें हिदायत स्वरुप समझाती थी ।”

आज पांच दशक बाद जब दिल्ली के मदर डेयरी का ‘मिक्स्ड वेजिटेबल’ का पैकेट देखता हूँ, बड़े-बड़े कंपनियों के मुहर लगे रंगबिरंगे पैकेटों में दलिया (गेहूं, मकई, बजरा) देखता हूँ, सोने के भाव में बिकते तो न केवल माँ याद आती है, बल्कि यह ‘इनार’ भी याद आता है। आज इसका याद आना शायद किसी ‘नेक वजह’ के कारण, कुछ अच्छा होने के कारण हुआ है, ऐसा आभास हो रहा है। उस दिन गाँव से निकलते समय इस ‘इनार’ के पास आकर कुछ देर रुका था। आज भी याद है। दोनों एक दूसरे को देख रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे यह ‘इनार’ बिलखते हुए कह रहा हो, ‘मैं तुम्हें पाताल की गहराई से, अपने अस्तित्व (पानी) की कसम खाकर कहता हूँ, मैं तुम्हें अन्तःमन से आशीष देता हूँ, तुम अपने जीवन में सफल हो। जिस यात्रा के लिए तुम आज पहला कदम उठा रहे हो, अपने मकसद को जरुर हासिल करोगे। जीवन में बहुत मित्र मिलेंगे जो मित्रता निभाने में कभी कोताही नहीं करेंगे, जैसे मैं। जब तुम मनुष्य हो जाओ, मुझे मत भूलना। मुझे अभी बहुत दिन जीवित रहने की चाहत है। मैं तुम्हारे पूर्वजों को भी देखा हूँ। तुम्हें भी देख रहा हूँ। गाँव के, टोले के बच्चों के साथ खेलना-कूदना है, हंसना-मुस्कुराना है मुझे अभी। समाज के लोग भले मुझे, मेरे अस्तित्व (पानी) को ‘अछूत समझकर तिरस्कृत कर दें, लोग अपने-अपने घरों में पानी का बंदोबस्त भले कर लें; लेकिन उस दिन तक मैं अपने अंदर पानी की बुँदे समेट कर रखूँगा – एक विश्वास के साथ।” मुद्दत बाद शायद उसकी बातें सच होने वाला है। साठ-साल पहले इसका जीर्णोद्धार मेरे दादाजी की इकलौती बहन की थी, साल 1964 था। हम इसे एक नई जिंदगी देना चाहते हैं ताकि आज ही नहीं, आने वाली पीढ़ियां भी इसके मीठे पानी का स्वाद लेकर अपनी आत्मा को तृप्त कर सके।”

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कुछ समय पूर्व ‘जागरण’ समाचार पत्र में एक कहानी पढ़ा था जिसमें लिखा था ‘मिथिला में एक कहावत मशहूर है – पग-पग पोखरि माछ मखान’ – लेकिन यह आज महज एक इतिहास के पन्नों में है और अगर मिथिला के लोग आज भी इन कहावतों को दुहरा रहे हैं तो हमें स्पष्ट रूप से समझना चाहिए कि ‘वे झूठ बोल रहे हैं, लोगों को अपने लाभ के लिए बरगला रहे हैं। क्योंकि किसी ज़माने में भले मिथिला क्षेत्र के गाँव-जिले-प्रखंड तालाबों, पोखरों, कुओं के लिए विश्वविख्यात रहा हो, वर्तमान काल में यह विशिष्ट पहचान खतरे में है। आज जिस कदर लोगों की आखों में पानी सुख रहा है, लोगों की संवेदना समाप्त हो रही है, तालाब, पोखर, कुएं, इनारों की स्थिति ‘ह्रदय विदारक’ है। कई ऐतिहासिक तालाब आज समतल हो गए हैं। गाँव की आर्थिक उन्नति का स्त्रोत लगभग सूख सा गया है।

दिल्ली के जंतर-मंतर पर मिथिला के लोग भले स्वयं को ‘अपने प्रदेश के तालाब-पोखरों की मछली’ की संस्कृति के साथ जोड़कर राजनीतिक गलियारे में कहावतों का बाजारीकरण करते हों, हकीकत यह है कि आज मिथिला में जितनी मछली उपलब्ध है, वह अपने क्षेत्र के दो-फीसदी लोगों का उदर नहीं भर सकती है। और यही कारण है कि आज मिथिला के लोगों को आंध्र प्रदेश और बंगाल की मछलियों पर, समुद्री मछलियों पर निर्भर होना पड़ता है। कहते हैं उन दिनों यहां तालाबों की संख्या अधिक रहने के कारण एक साथ कई तरह के पैदावार होते थे। लोगों का जीवन खुशहाल था। तालाबों से आर्थिक उन्नति का गणित इसे सबसे अलग करता था। तालाब खुदवा कर उसके मुहाने पर पान की खेती, तालाब में मछली व मखान व कहीं -कहीं मुहाना पर आम की खेती करते थे। तालाब के पानी से खेतों में सचाई भी करते थे। लेकिन अब वैसी बात नहीं है।

मिथिला क्षेत्र में प्राचीन काल से ही बड़े-बड़े तालाब खुदवाने की परंपरा थी। जिसे मध्यकाल ले दरभंगा महाराज ने बरकरार रखा। जिले में उनके द्वारा अनेकानेक तालाब खुदवाए गए जो आज भी विद्यमान हैं। हमारे गाँव उजान का शंकड़ी पोखर, महाशय झा पोखर, चंदा झा पोखर, दुर्गा-स्थान का पोखर, अवाम गाँव का भिखिया झा पोखर, लखनौर, रहिका, कपिलेश्वर, अररिया संग्राम, चनौरागंज, वीरसायर, मंगरौनी, बासोपट्टी का बभनदेई तालाब, सतलखा का पद्मसागर तालाब इसका ज्वलंत उदहारण है।

परन्तु, मिथिला क्षेत्र में तालाब का रख रखाव नहीं होने से कालांतर में यह अपना अस्तित्व समाप्त करने लगा। यह भी कहा जाता है कि जिसने भी इन पोखरों और तालाबों का सरकार से बंदोवस्ती ली वह सिर्फ उसका दोहन ही किया। इसके रखरखाव पर न तो सरकार और न ही बंदोवस्ती वालों ने ध्यान दिया। जिस कारण तालाबों की दशा दिन प्रतिदिन खराब होती चली गई। इसके सूखने से पानी की कमी के कारण मुहाना पर पान की खेती भी समाप्त सी हो गई। नए वृक्ष लगाने की ओर नई पीढी ने ध्यान नहीं दिया। जिस कारण तालाबों-मछलियों-पानों-मखानों के जरिए मिथिला को मिली पहचान पर भी ग्रहण लग गया। इतना ही नहीं, आज जिस कदर मिथिला के लोग ‘मिथिला के पाग’ का ‘व्यापारीकरण’ और ‘राजनीतिकरण’ कर रहे हैं, आने वाले दिनों में इसकी स्थिति वैसी ही होगी, जैसी पोखरों की, तालाबों की, कुओं की, इनारों की।

मिथिला को तालाबों की भूमि कहा जा सकता है। कागजों पर दरभंगा जिले में 9115 और मधुबनी जिले में 10,746 तालाब हैं। इसी तरह, उत्तरी बिहार के सुपौल, सीतामढ़ी, समस्तीपुर और अन्य जिलों में तालाबों की संख्या 5000 से 9000 तक है। लेकिन तालाब का अस्तित्व, एक बहुमूल्य जल संसाधन, भूमि/तालाब माफियाओं, अपराधियों, लालची और भ्रष्ट व्यक्तियों के बीच गठजोड़ के कारण खतरनाक खतरे में है। डॉ. एस एच बज्मी की रिपोर्ट के अनुसार, 1989-90 में दरभंगा शहर में 213 तालाब थे। उल्लेखनीय है कि 50 से अधिक तालाबों को पूरी तरह से समतल कर दिया गया है, और उन पर मकान, होटल, दुकानें, व्यावसायिक परिसर, निजी अस्पताल, कोचिंग सेंटर और कार्यालय बनाए गए हैं। आज भी, माननीय उच्च न्यायालय और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न आदेशों की घोर अवहेलना करते हुए तालाब के क्षेत्र और उसके पानी के बिस्तर पर अतिक्रमण और कब्जा किया जा रहा है।

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तालाब अपने इतिहास की शुरुआत से ही भारतीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है। तालाब और जल निकाय के निर्माण और रखरखाव के लिए विस्तृत निर्देश और मानदंड हैं। ऋग्वेद में हमें इसके बारे में सबसे प्रारंभिक जानकारी मिलती है। गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र के संकलन के दौरान, 800 से 300 ईसा पूर्व के बीच, तालाब की खुदाई और संरक्षण ने धार्मिक महत्व प्राप्त किया। इन धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति, पुरुष या महिला, जाति, पंथ या वर्ग के बावजूद, तालाब की खुदाई और समाज और सभी प्रजातियों की भलाई के लिए संबंधित यज्ञ (धार्मिक अनुष्ठान) करने के लिए सराहना की जाती है। विष्णुधर्मसूत्र ऐसे व्यक्तियों को आशीर्वाद और वरदान के योग्य मानता है। एक प्रख्यात संस्कृत कवि, बन्न भट्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक कादंबरी (700 ईस्वी) में तालाब को सबसे पवित्र कार्यों में से एक माना है।

संस्कृत विद्वानों के साथ चर्चा पर आधारित तथ्यों के आधार पर डॉ. सदा नंद झा, डॉ. विद्याेश्वर झा, डॉ. विश्वेश्वर झा, और डॉ. हेतुकर झा द्वारा ‘मिथिला के ग्रामीण जीवन में तालाब का महत्व’ से सम्बंधित एक प्रकाशन के आधार पर कहा जा सकता है कि किसी को अपनी परंपरा और संस्कृति की अच्छी प्रथाओं और महान विचारों को संरक्षित, अनुकूलित और बढ़ावा देना चाहिए। वर्धमान उपाध्याय ने तालाब के धार्मिक अनुष्ठानों (यज्ञ) के लिए 11 वीं और 12 वीं ईस्वी के बीच कहीं दो किताबें, अर्थात् तारगमृतलता और जलाशायदिवस्तुपधाति लिखीं। इन पुस्तकों का मुख्य संदेश इस प्रकार है “त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु और महेश नाम के तीन देवता) की उपस्थिति में, मैं (तालाब-निर्माता) इस तालाब को सभी जीवित प्राणियों (मानव, पशु, पक्षी कहते हैं) को प्रस्तुत करता हूं। और कीट) पीने, नहाने, जीवित रहने और ताकत के लिए पानी की उनकी विभिन्न जरूरतों को पूरा करने के लिए। धार्मिक अनुष्ठानों की प्रक्रिया के दौरान, धातु से बनी मछली, घोंघा, केकड़ा, कछुआ, सांप और मगरमच्छ को उनके पानी की स्वच्छता (निर्मल जल) बनाए रखने के लिए विनम्र अनुरोध के साथ नव निर्मित तालाब में विसर्जित किया जाता है। पुस्तक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि जब एक तालाब निर्माता अपने तालाब को सभी जीवित प्राणियों को प्रस्तुत करता है, तो वह तालाब पर स्वामित्व का दावा नहीं कर सकता है। तालाब बनाने वाले को तालाब का लाभ प्राप्त करने का उतना ही अधिकार है जितना कि अन्य व्यक्ति या जीवित प्राणी को।

बहरहाल, माननीय सर्वोच्च न्यायालय भी देश झीलों और अन्य सार्वजनिक तालाबों, पोखरों, कुओं या जल के अन्य साधनों की रक्षा करने की भयानक स्थिति को पीड़ा के साथ देख रहा है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार यह माना है कि वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए हमें इन प्राकृतिक संसाधनों को सुरक्षित और संरक्षित रखना होगा। ताकि सभी के लिए जल सुरक्षा का निर्माण किया जा सके और पारंपरिक आजीविका का समर्थन करने और जैव विविधता के संरक्षण के लिए भी।

ज्ञातव्य हो कि ‘हिंच लाल तिवारी बनाम कमला देवी व अन्य (अपील (नागरिक) 2001 का 4787) में माननीय न्यायालय ने आदेश दिया था कि ‘यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि समुदाय के भौतिक संसाधन जैसे जंगल, तालाब, तालाब, पहाड़ी, पहाड़ आदि प्रकृति की देन हैं। वे नाजुक पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखते हैं। उन्हें एक उचित और स्वस्थ वातावरण के लिए संरक्षित करने की आवश्यकता है जो लोगों को एक गुणवत्तापूर्ण जीवन का आनंद लेने में सक्षम बनाता है जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकार का सार है।’ इसी तरह ‘जगपाल सिंह और अन्य’ बनाम पंजाब राज्य और अन्य (सिविल अपील संख्या 1132/2011) में माननीय न्यायालय ने झीलों/तालाबों के प्रबंधन और संरक्षण के संबंध में कानून और व्यवहार की व्याख्या को सार्वजनिक रूप से मौलिक रूप से निर्धारित किया। इसके अलावा, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिए ऐसे जल निकायों के संरक्षण के कार्य पर विचार करते हुए, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने निम्नानुसार निर्देश दिया है: “इस आदेश की एक प्रति भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के सभी मुख्य सचिवों को भेजी जाए जो इस आदेश का कड़ाई से और शीघ्र अनुपालन सुनिश्चित करेंगे और समय-समय पर इस न्यायालय को अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे।

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