तीन करोड़ मैथिल या मैथिलीभाषियों की जनसंख्या बचपन से सुन रहा था। लेकिन पिछले करीब दो दशकों से यह आबादी चार करोड़ बताई जा रही है। दरभंगा, मधुबनी, झंझारपुर और सुपौल में खासतौर पर, और इसके अलावा बिहार के कई जिलों और दूसरे राज्यों में भी मैथिल या मैथिलीभाषी बसे हुए हैं।
‘मैथिल’ शब्द दरअसल एक सामुदायिक पहचान है, जिसका सीधा संबंध मिथिला की सांस्कृतिक अस्मिता से है, किसी जाति, धर्म, संप्रदाय से नहीं। हर क्षेत्र के नागरिकों की सामुदायिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय पहचान के साथ-साथ उन सबकी अलग-अलग जातीय पहचान भी होती है। कोई भी सामुदायिक पहचान उस क्षेत्र की जातीय पहचान पर सवाल नहीं उठाती। पर मिथिला में ऐसा दिखता है।
दरअसल, पिछले दिनों समाचार माध्यमों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘पाग’ पहनी हुई तस्वीर प्रकाशित-प्रसारित हुई। पहले दिन की तस्वीर में उनके सिर पर पाग और हाथों में राम-जानकी की वरमाल की फ्रेम में मढ़ी मिथिला-पेंटिंग थी। पाग के अग्रभाग में मिथिला-पेंटिंग शैली की कुछ चित्रकारी थी। दूसरे दिन की तस्वीर में वे ‘लाल पाग’ और भारी-भरकम माला पहने हुए थे। जाहिर है, कटिहार, पूर्णिया, मधुबनी के मैथिलों ने पाग पहना कर प्रधानमंत्री का सम्मान किया होगा और उक्त मिथिला-पेंटिंग उन्हें भेंट की होगी। इन तस्वीरों से मैथिल-व्यवस्था पर कुछ सवाल उपजते हैं।

क्या सर्वजन मैथिलों ने आम सहमति से अपने पारंपरिक प्रतीक ‘पाग’ के स्वरूप में यह फेरबदल स्वीकार कर लिया? अब तक पाग पर किसी तरह की चित्रकारी की मान्यता नहीं थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि बाजार की चमक-दमक ने मैथिलों के सांस्कृतिक संकेत पर अपना कब्जा बना लिया!
दूसरा सवाल पाग की पारंपरिक मान्यता को लेकर है। बचपन से देखता आ रहा हूं कि अनेक शहरों में मैथिल जनता अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए महाकवि विद्यापति की बरसी मनाती है। उन आयोजनों में आमंत्रित विशिष्ट जनों का पाग-डोपटा से सम्मान करते और अपने सांस्कृतिक उत्कर्ष का दावा करते हुए मैथिल आत्ममुग्ध होते हैं।
गीत, कविता, चुटकुला, नाच-नौटंकी सब आयोजित करते हैं। आयोजन का नाम रहता है ‘विद्यापति स्मृति पर्व’, पर विद्यापति वहां सिरे से गायब रहते हैं। आयोजन का लक्ष्य शायद ही कहीं साहित्य और संस्कृति का उत्थान या अनुरक्षण रहता हो!
सतही मनोरंजन के अलावा वहां ऐसा कुछ भी नहीं दिखता, जिसमें ‘मैथिल’ का कोई वैशिष्ट्य सिर उठाए। ‘पाग’ जैसे सांस्कृतिक प्रतीक की अधोगति भी ऐसे अवसरों पर भली-भांति हो जाती है। दरअसल, मिथिला में ‘पाग’ का विशष्ट महत्त्व है। पर उल्लेखनीय है कि यह पूरी मिथिला का सांस्कृतिक प्रतीक नहीं है।
‘पाग’ की प्रथा मिथिला में सिर्फ ब्राह्मण और कायस्थ में है। इन जातियों के भी ‘पाग’ की संरचना में एक खास किस्म की भिन्नता होती है, जिसे बहुत आसानी से लोग नहीं देख पाते। पाग के अगले भाग में एक मोटी-सी पट्टी होती है, वहीं इसकी पहचान-भिन्नता छिपी रहती है। इससे आगे की व्याख्या यह है कि इन दो जातियों में भी सारे लोग पाग नहीं पहनते। परिवार या समाज के सम्मानित व्यक्ति इसे अपने सिर पर धारण करते हैं। यह उनके ज्ञान और सामाजिक सम्मान का सूचक है।
समय के ढलते बहाव में धीरे-धीरे यह प्रतीक उन सम्मानित जनों के लिए भी विशिष्ट आयोजनों-अवसरों का आडंबरधर्मी प्रतीक बन गया। संरचना के कारण इसे धारण करना बहुत कठिन है। विनीत भाव से भी इसके धारक कहीं थोड़ा झुक जाएं, तो यह सिर से गिर जाता है। मैथिली में ‘पाग गिरना’ एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है ‘पगड़ी गिरना’, ‘इज्जत गंवाना’। लिहाजा, संशोधित परंपरा में आस्था रखने वाले आधुनिक सोच के लोगों के सामने इसने बड़ी दुविधा खड़ी कर दी है।
दूसरा प्रसंग ‘लाल पाग’ का है। ‘लाल पाग’ विशुद्ध रूप से उक्त दोनों जातियों के लिए वैवाहिक प्रतीक है। इसे केवल विवाह या विवाह से संबद्ध लोकाचारों में दूल्हा पहनता है। लेकिन अब अपनी संरचनात्मक असुविधा के कारण दूल्हे भी इसे खानापूर्ति या रस्मअदायगी के लिए धारण करते हैं। ऐसे में ‘पाग’ को पूरी मिथिला की सांस्कृतिक पहचान मानना शायद सही नहीं होगा। उसमें पूरे मैथिल-समाज की भागीदारी नहीं होगी।
इसके अलावा, यह भी समझा जाएगा कि सिर्फ दो जातियां पूरे मिथिला की सभी जातियों पर अपनी परंपरा थोप रही हैं। सामुदायिक स्तर पर देखें तो इसका बेहतरीन विकल्प ‘मखाना’ है, जो मिथिला की जल-कृषि का प्रतीक है। मिथिला के उन्नायकों को जाति-विशेष की लकीर पर डटे रहने के बजाय इस दिशा में सोचना चाहिए। अपनी सांस्कृतिक धरोहरों पर गर्व करना अच्छी बात है, पर उन्हें जानना जरूरी है। परंपरा को जाने बगैर कोई उसका समुचित सम्मान नहीं कर सकता। (अतिथि देवोभवः)