​भारत ​की ​चार लाख से भी अधिक वेश्याएं समाज को ‘अपनी ह्रदय की धड़कन सुनाना चाहती हैं’- लेकिन कौन सुनता है ?

मणिकर्णिका घाट पर नृत्य करती नगरवधुएं - तस्वीर : संजय गुप्ता जी द्वारा
मणिकर्णिका घाट पर नृत्य करती नगरवधुएं - तस्वीर : संजय गुप्ता जी द्वारा

बनारस : ​हरेक लड़कियों, महिलाओं की ईक्षा होती है कि विवाह से पूर्व कोई भी पुरुष उसके शरीर को स्पर्श नहीं करें। लेकिन भारत के समाज में कोई चार लाख महिलाएं ऐसी हैं जिनके जिस्म को भारत के ही लोग नित्य नोचते हैं और वह मूक-बधिर रहकर उस अन्याय को सहती रहती है।

कहीं किसी के पिता उसे बाजार में बेच देते हैं, तो कहीं भाई बेच देते है। कहीं उसे चुराकर इस बाज़ार में लाकर पटक दिया जाता है, तो कहीं जीवन जीने के लिए उसके पास शरीर बेचने के अलावे और कुछ नहीं रहता – समाज, शाशन, व्यवस्था, ज्ञानी, विद्वान, विदुषी, महात्मा सभी मूक-बधिर होते हैं – आज से ही नहीं, सदियों से । सबों की निगाहें उसके काले-गोरे-श्याम चमड़े की ओर होती है, सभी यही देखकर उसे अपने पास लाते की उसके चमड़े गठे हैं या नहीं। ह्रदय कोई नहीं देखता। शरीर के ऊपरी हिस्से में स्तन के पीछे चमड़े से कोई आठ सेन्टीमीटर नीचे शरीर के अन्दर धक्-धक् करते ह्रदय को कोई नहीं सुनता, बढ़ते रक्त-चाप को कोई महसूस नहीं करता – क्योंकि वे पैसा देते हैं कुछ समय के शारीरिक सुख के लिए। ।

मणिकर्णिका घाट, बनारस का वह घाट है जहां पर्यटक मौत पर्यटन करते है। कई पर्यटक यहां हिंदू धर्म के दाह संस्‍कार को देखने और रीति – रिवाजों को समझने के वास्‍ते भी आते है। वैसे इस घाट पर महिलाओं को जाना वर्जित माना जाता है, लेकिन ऐसी कोई बात नहीं है क्योंकि पार्वती तो महिला ही थीं। काशी का मणिकर्णिका श्मशान घाट के बारे में मान्यता है कि यहां चिता पर लेटने वाले को सीधे मोक्ष मिलता है। दुनिया का ये इकलौता श्मशान जहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती। जहां लाशों का आना और चिता का जलना कभी नहीं थमता। यहाँ प्रत्येक दिन करीब 300 शवों का अंतिम संस्कार होता है।

इसी मणिकर्णिका घाट पर चैत्र नवरात्री के सप्तमी को नगर-वधुएं (वेश्याएं) धधकती चिताओं के बीच, चिताओं से निकलने वाले चट-चट-फट-फट-धुक-धुक ध्वनियों के साथ अपने-अपने धुंधरूओं की आवाज मिलाते, तबला पर निकलने वाला थाप और ठप्पा के आवाज को अपने पैरों की एड़ियां और तलबों की ध्वनियों से सजाते-संवारते लय-सूर-ताल में तारतम्य लगाते महादेव से कामना करती है: “हे महादेव !! अगले जन्म में इस नारकीय जीवन से कोसों-मीलों दूर रखना। हमें भी समाज की आम महिलाओं की तरह जीने का सम्मान देना। हमें भी ऐसे परिवारों में जन्म देना जहाँ हमारे ह्रदय की आवाज को, आत्मा की आवाज को कोई सुनने वाला हो, शरीर को जीवन-पर्यन्त हमारा पति ही स्पर्श करें, स्पन्दित करें। हमारा संसार हो, हमारा परिवार हो।”

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और, महादेव भी उन नगर-बधुओं की कामना को स्वीकार करते उसे इस जीवन में उस अमानवीय, अमानुषिक व्यवहार को बर्दास्त करने की शक्ति प्रदान करते रहते हैं। जहां सभी के मन में महादेव से यही चाह रहती है कि अगले जन्म में उन्हें ऐसी गति न मिले, वो भी समाज के सामने सर उठा के जिएं।

महाश्‍मशान में उत्सव की इस परम्परा के पीछे एक कहानी भी है। कहते हैं कि पंद्रहवीं शताब्‍दी में आमेर के राजा और अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने इस पौराणिक घाट पर मंदिर का जीर्णोधार कराया और इस मौके पर वो संगीत का कार्यक्रम करना चाहते थे। संगीत के लिए कई कलाकारों को राजा मान सिंह ने निमंत्रण भेजा, लेकिन चिताओं और लाशों के बीच कलाकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन करने से इनकार कर दिया था।

जब कलाकारों ने प्रस्तुति देने से इनकार कर दिया तो संगीत का निमंत्रण वेश्याओं को भेजा गया और पहली बार वो यहां आने को तैयार हो गईं। पूरे देश से आकर नगरवधुओं ने नृत्य किया और उसके बाद से आज तक ये परंपरा चली आ रही है – निर्बिघ्न । चिताओं के बीच नगरवधुएं रात भर घूंघरूं पहन कर नाचती है। उनका महादेव पर अटूट विस्वास है और उन्हें भरोसा है कि अगले जन्म में उन्हें नारकीय जीवन से निजात मिल जाएगी।

मणिकर्णिका घाट पर नृत्य करती नगरवधुएं - तस्वीर : संजय गुप्ता जी द्वारा
मणिकर्णिका घाट पर नृत्य करती नगरवधुएं – तस्वीर : संजय गुप्ता जी द्वारा

बहरहाल, समाज का कोई अंग एवं इतिहास का कोई काल वेश्याओं से विहीन नहीं रहा है । या यूँ कहें की वेश्याओं के विकास का इतिहास समाज के विकास का इतिहास है। वैदिक काल की अप्सराएँ और गणिकाएँ, मध्य-युग में देवदासियां और नगरवधुएँ तथा मुसलिम काल में वारांगनाएँ और वेश्याएँ बन गर्इं। प्रारंभ में ये धर्म से संबद्ध थीं और चौंसठ कलाओं में निपुण मानी जाती थीं। मध्युग में सामंतवाद की प्रगति के साथ इनका पृथक् वर्ग बनता गया और कलाप्रियता के साथ कामवासना संबद्ध हो गर्इं, पर यौनसंबंध सीमित और संयत था। कालांतर में नृत्य-कला, संगीत-कला एवं सीमित यौन-संबंध द्वारा जीविकोपार्जन में असमर्थ वेश्याओं को बाध्य होकर अपनी जीविका हेतु लज्जा तथा संकोच को त्याग कर अश्लीलता के उस पर उतरना पड़ा जहाँ पशुता प्रबल है। स्वामि दयानंद सरस्वती ने इस कूप्रथा का विरोध किया तो उनकी हत्या नन्हीजान द्वारा करा दी गयी।

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स्वामी जी की मृत्यु ३० अक्टूबर १८८३ को दीपावली के दिन सन्ध्या के समय हुई थी। उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। यदाकदा महाराज जसवन्त सिंह भी उनके चरणों में बैठकर वहां उनके प्रवचन सुनते। दो-चार बार स्वामी जी भी राज्य महलों में गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए।

इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया। थोड़ी ही देर बाद स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उसके लिए क्षमा मांगी। उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। बाद में जब स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था।

एक रिपोर्ट के अनुसार देश में यौनकर्मियों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है की भारत में ४ लाख ​ से भी अधिक महिलाएं वेश्यावृति की अँधेरी कोठरियों में जीवन यापन कर रही हैं और इनमे करीब ४० प्रतिशत १८ वर्ष की उम्र से कम में ही इस क्षेत्र में धकेल दी जाती हैं – परिस्थितियां चाहे जो भी हों। देश में १० ऐसे क्षेत्र हैं जो वेश्यावृति के लिए मशहूर हैं। दिल्‍ली का जीबी रोड, कोलकाता का सोनागाछी, मुंबई का कमाठीपुरा, पुणे का बुधवारपेट, ग्‍वालियर का रेशमपुरा, इलाहाबाद का मीरगंज, वाराणसी का शिवदासपुर एरिया, नागपुर का गंगा-जमुना, मुजफ्फरपुर का चतुरभुज स्‍थान और मेरठ का कबाड़ी बाजार।

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“भारतीय दंडविधान” 1860 से “वेश्यावृत्ति उन्मूलन विधेयक” 1956 तक सभी कानून सामान्यतया वेश्यालयों के कार्यव्यापार को संयत एवं नियंत्रित रखने तक ही प्रभावी रहे हैं। वैसे वेश्यावृत्ति का उन्मूलन सरल नहीं है, पर ऐसे सभी संभव प्रयास किए जाने चाहिए जिससे इस व्यवसाय को प्रोत्साहन न मिले, समाज की नैतिकता का ह्रास न हो और जनस्वास्थ्य पर रतिज रोगों का दुष्प्रभाव न पड़े। ऐसा माना जाता है कि भारत में नित्य कोई 2000 लाख रूपये से अधिक का देह व्यापार होता है।

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