
अगर बिहार के किसी भी विद्वान-विदुषी के पास, दरभंगा राज परिवार से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सम्बन्ध रखने वाले महानुभावों के पास ऐसी कोई तस्वीर हो जहाँ महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, महाराजा सर कामेश्वर सिंह, राजा बहादुर विशेश्वर सिंह अथवा तत्कालीन राज परिवार के गणमान्य व्यक्ति अपने प्रदेश, राज्य में आये किसी भी गणमान्य महानुभावों को “मिथिला का पाग”, “सम्मानार्थ ही सही” पहनाए हों।
अगर वे “मिथिला का पाग उन आंगतुकों को नहीं पहनाए तो क्या हम समझेंगे कि उन दिनों “आगंतुकों का सम्मान नहीं होता था राज दरभंगा में, मिथिलाञ्चल में ? या यह समझा जा सकता है कि दरभंगा राज अथवा उनकी नजर में “मिथिला-पाग” पहनने के लायक आगंतुक नहीं होते थे ?
आज़ादी के बाद, या यूँ कहें कि महाराजा कामेश्वर सिंह की मृत्यु तक मिथिला की संस्कृति जितनी मजबूत और सुरक्षित थी, आज नहीं है। यानि. अक्टूबर 1962 के बाद मिथिलाञ्चल में मिथिला की संस्कृति को संरक्षित रखने वाला नहीं रहा। आज भले हम मिथिला लोक-चित्रकला को विश्व में प्रचार-प्रसार के माध्यम से फैलाएं, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मिथिला लोकचित्रकला के कलाकार आज मृतप्राय हो गए हैं। समाज, सरकार अथवा मिथिलाञ्चल के जिला प्रमुखों से इस ऐतिहासिक लोकचित्रकला को उतना संरक्षण नहीं मिलता है जितने का वह हकदार हैं।
आज स्थिति ऐसी हो गयी है की मिथिलाञ्चल के लोग, विशेषकर पुरुष समुदाय, न केवल “पाग के वास्तविक महत्व” से अपरिचित हैं, बल्कि उसका सम्मान भी नहीं कर पाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इस पाग को “सब धन बाईस पसेरी” जैसा सबों के माथे पर सजाकर फोटो-सेशन नहीं करते, सोसल मीडिया पर या भारत की सड़कों पर “पाग का राजनीतिकरण नहीं होने देते, नहीं करते।”
‘मैथिल’ शब्द दरअसल एक सामुदायिक पहचान है, जिसका सीधा संबंध मिथिला की सांस्कृतिक अस्मिता से है, किसी जाति, धर्म, संप्रदाय से नहीं। हर क्षेत्र के नागरिकों की सामुदायिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय पहचान के साथ-साथ उन सबकी अलग-अलग जातीय पहचान भी होती है। कोई भी सामुदायिक पहचान उस क्षेत्र की जातीय पहचान पर सवाल नहीं उठाती। पर मिथिला में ऐसा दिखता है। कहा जाता है कि भारत सहित विश्व में कोई चार करोड़ से अधिक मैथिल हैं। दरभंगा, मधुबनी, झंझारपुर और सुपौल में खासतौर पर, और इसके अलावा बिहार के कई जिलों और दूसरे राज्यों में भी मैथिल या मैथिलीभाषी बसे हुए हैं।
अगर मिथिलांचल के लोग, विशेषकर जो “पाग की अहमियत” समझते हैं, अपने ही घरों में, अपने ही समाज में, टोले-मुहल्लों में एक सर्वे करें की किनके – किनके घरों में “वास्तिविक पाग (सफ़ेद रंग का अथवा भटमैला रंग का) है ? हाल, पीला, हरा, ब्लू, रंग-बिरंगा, सतरंगी, लोकचित्रकला वाला नहीं; तो औसतन सैकड़े घरों की बात नहीं करें, हज़ार घरों में शायद दस अथवा बीस घरों में पाग की उपस्थिति दर्ज होगी। विस्वास नहीं तो हो आजमा कर देखिए।
अब स्थिति यह है कि हम अपने घरोंमें, मिथिला के समाजों में पाग के महत्व को नहीं बता सके, वर्तमान पीढ़ी को नहीं बता सके, लेकिन देश के मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई, बंगलुरु, मंगलुरु, कानपूर, नागपुर, बराकर के अतिरिक्त देश के 718 जिलों में “पाग से अर्थ कमाने के लिए पाग का विपरण करने में जुटे हैं।”
देवशंकर नवीन का कहना है : इसके अतिरिक्त, क्या सर्वजन मैथिलों ने आम सहमति से अपने पारंपरिक प्रतीक ‘पाग’ के स्वरूप में यह फेरबदल स्वीकार कर लिया? अब तक पाग पर किसी तरह की चित्रकारी की मान्यता नहीं थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि बाजार की चमक-दमक ने मैथिलों के सांस्कृतिक संकेत पर अपना कब्जा बना लिया!
दूसरा सवाल पाग की पारंपरिक मान्यता को लेकर है। बचपन से देखता आ रहा हूं कि अनेक शहरों में मैथिल जनता अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए महाकवि विद्यापति की बरसी मनाती है। उन आयोजनों में आमंत्रित विशिष्ट जनों का पाग-डोपटा से सम्मान करते और अपने सांस्कृतिक उत्कर्ष का दावा करते हुए मैथिल आत्ममुग्ध होते हैं।
गीत, कविता, चुटकुला, नाच-नौटंकी सब आयोजित करते हैं। आयोजन का नाम रहता है ‘विद्यापति स्मृति पर्व’, पर विद्यापति वहां सिरे से गायब रहते हैं। आयोजन का लक्ष्य शायद ही कहीं साहित्य और संस्कृति का उत्थान या अनुरक्षण रहता हो!
सतही मनोरंजन के अलावा वहां ऐसा कुछ भी नहीं दिखता, जिसमें ‘मैथिल’ का कोई वैशिष्ट्य सिर उठाए। ‘पाग’ जैसे सांस्कृतिक प्रतीक की अधोगति भी ऐसे अवसरों पर भली-भांति हो जाती है। दरअसल, मिथिला में ‘पाग’ का विशष्ट महत्त्व है। पर उल्लेखनीय है कि यह पूरी मिथिला का सांस्कृतिक प्रतीक नहीं है।
‘पाग’ की प्रथा मिथिला में सिर्फ ब्राह्मण और कायस्थ में है। इन जातियों के भी ‘पाग’ की संरचना में एक खास किस्म की भिन्नता होती है, जिसे बहुत आसानी से लोग नहीं देख पाते। पाग के अगले भाग में एक मोटी-सी पट्टी होती है, वहीं इसकी पहचान-भिन्नता छिपी रहती है। इससे आगे की व्याख्या यह है कि इन दो जातियों में भी सारे लोग पाग नहीं पहनते। परिवार या समाज के सम्मानित व्यक्ति इसे अपने सिर पर धारण करते हैं। यह उनके ज्ञान और सामाजिक सम्मान का सूचक है।
समय के ढलते बहाव में धीरे-धीरे यह प्रतीक उन सम्मानित जनों के लिए भी विशिष्ट आयोजनों-अवसरों का आडंबरधर्मी प्रतीक बन गया। संरचना के कारण इसे धारण करना बहुत कठिन है। विनीत भाव से भी इसके धारक कहीं थोड़ा झुक जाएं, तो यह सिर से गिर जाता है। मैथिली में ‘पाग गिरना’ एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है ‘पगड़ी गिरना’, ‘इज्जत गंवाना’। लिहाजा, संशोधित परंपरा में आस्था रखने वाले आधुनिक सोच के लोगों के सामने इसने बड़ी दुविधा खड़ी कर दी है।
दूसरा प्रसंग ‘लाल पाग’ का है। ‘लाल पाग’ विशुद्ध रूप से उक्त दोनों जातियों के लिए वैवाहिक प्रतीक है। इसे केवल विवाह या विवाह से संबद्ध लोकाचारों में दूल्हा पहनता है। लेकिन अब अपनी संरचनात्मक असुविधा के कारण दूल्हे भी इसे खानापूर्ति या रस्मअदायगी के लिए धारण करते हैं। ऐसे में ‘पाग’ को पूरी मिथिला की सांस्कृतिक पहचान मानना शायद सही नहीं होगा। उसमें पूरे मैथिल-समाज की भागीदारी नहीं होगी।
इसके अलावा, यह भी समझा जाएगा कि सिर्फ दो जातियां पूरे मिथिला की सभी जातियों पर अपनी परंपरा थोप रही हैं। सामुदायिक स्तर पर देखें तो इसका बेहतरीन विकल्प ‘मखाना’ है, जो मिथिला की जल-कृषि का प्रतीक है। मिथिला के उन्नायकों को जाति-विशेष की लकीर पर डटे रहने के बजाय इस दिशा में सोचना चाहिए। अपनी सांस्कृतिक धरोहरों पर गर्व करना अच्छी बात है, पर उन्हें जानना जरूरी है। परंपरा को जाने बगैर कोई उसका समुचित सम्मान नहीं कर सकता।