13 अक्टूबर : श्रद्धांजलि गायक किशोर कुमार को, आएं भागलपुर का आदमपुर इलाका चलें, गंगा के किनारे 

अशोक कुमार - किशोर कुमार 
अशोक कुमार - किशोर कुमार 

किशोर कुमार का चौथा वर्षी कुछ दिन पहले समाप्त हुआ था। मैं सन्डे पत्रिका में था। साल था सं 1991 – एक कहानी के क्रम में भागलपुर गया था। दो साल पहले यहाँ साम्प्रदायिक दंगे हुए थे। सारा भागलपुर दंगे में नेश्तोनाबूद हो गया था। भागलपुर का कोई भी ब्लॉक ऐसा नहीं था जो दंगों से अछूता रहा हो। लगभग 200 गाँव, बारह हज़ार के आस-पास घरें, हज़ारों पॉवर लूम्स, हैंडलूम्स जलकर राख हो गए थे। मस्जिदों और मज़ारों की तो बात ही छोड़ें । सैकड़ों अग्नि को सुपुर्द कर दिए गए थे। कारण तो मुझसे अधिक बिहार के लोग और दिल्ली के राजनेता जानते हैं आखिर दंगा क्यों हुआ । दंगे के दौरान भी दो दिन के लिए भागलपुर गया था। यहाँ मेरी बड़ी बहन रहती थी (पिछले वर्ष उसकी मृत्यु हो गयी और चार माह बाद उसके पति भी उसके पास पहुँच गए।) दोनों का मिलन हो गया होगा।

उस दिन जब भागलपुर पहुंचा तो साथ में कुछ भी नहीं था सिवाय पहने हुए वस्त्र के अलावे । कंधे पर एक बैग था और एक फुच्की (बहुत छोटा) सा कैमरा यासिका का और एक डायरी। बहन आश्चर्यचकित थी। पटना से ट्रेन छः घंटे होते-होते भागलपुर स्टेशन पहुंचा देती थी। बहन से मिलकर मैं छोटी खंजरपुर इलाके में अपने एक मित्र के पास पहुंचा जो गंगा किनारे स्थित सुन्दरवती महिला कालेज के पास रहता था। बहुत भाग्यशाली मानता था स्वयं को। सुवह आँख खोलते ही शहर की सुन्दर-सुन्दर बालाओं का दर्शन होता था। मुझे देखते ही भड़क गया – खलल होना था।

मैं अधिक समय नहीं लेकर उससे दादामुनि में मामा गाँव का पता-ठिकाना लिया और अपने गंतब्य की ओर निकल पड़ा। अगर आप भागलपुर के इस इलाके से वाकिफ़ हैं तो आप भी मेरे साथ भ्रमण कीजिये। आज इस क्षेत्र में जो भी देख रहे हैं, समझिये नहीं है। मैं छोटी खंजरपुर के चौराहे पर खड़ा हूँ और मेरा सुन्दर सा मुख गंगा की ओर है।

खैर, जब कचहरी क्षेत्र से आप सैंडिस कम्पाऊण्ड की सीमा समाप्त कर दाहिने मेडिकल कालेज की ओर जाने वाली सड़क को छोड़कर सीधा रुख लेते हैं तो समझिये आप गंगा की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ दूर आगे बढ़ने पर अगर आपको हनुमानजी का दर्शन हो, दर्जनों नहीं, सैकड़ों में तो समझिये आप ठीक चल रहे हैं। एक बात और, यहाँ आपके दाहिने हाथ पर लोहे के एक गेट में लिखा मिलेगा: “कुत्तों से सावधान” – इस गेट के अंदर ऊपर जाने वाली सीढ़ियों से जब कोई घर के चौहद्दी में पहुँचता है तो यहाँ कुत्तों का दर्शन होता हैं, विदेशी नश्ल का। अगर आपको भी यह साईन बोर्ड दिख गया तो आप आस्वस्त हो जाएँ, आप ठीक चल रहे हैं। खंजरपुर चौराहे पर पहुँचने के बाद मैं बाएं हाथ जाने वाली सड़क पर लुढ़क गया। लुढ़कना स्वाभाविक था।

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यहाँ की सड़कें समतल नहीं हैं, लोगबाग भी नहीं हैं, समतल – अब शायद हो गए हों। यहाँ तीन तरफ सड़कें जाती हैं – एक महिला कालेज होते गंगा की ओर और एक बाएं तथा दूसरा दाहिना ।पीछे से तो आ ही रहा था। बाएं हाथ कुछ दूर लुढ़कने के बाद मैं दाहिने तरफ एक खुले मैदान के अंतिम छोड़ से मुड़ गया। यह रास्ता भी गंगा किनारे तक ले जाती है। अंतर सिर्फ इतना था की इस सड़क के अंतिम छोड़ पर दो ऐसे विभूतियों का आवास था जो सरस्वती के वरदपुत्र थे – बाएं तरफ श्री शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, यानि शरत बाबू का घर और और दाहिने तरफ सुधींद्र बाबू (सुधींद्रनाथ जी) का घर। अशोक कुमार का जन्म इसी राजबारी में हुआ था। दिन था अक्टूबर 13 और साल 1911, यानि आज की तारीख से 109 वर्ष पहले।

मैं उन दोनों घरों के मुख्य द्वार के बीच कोई 10 -फीट का फालसा, कच्ची सड़क, धुप के कारण हवा के साथ मिटटी को फांकते खड़ा था। बीच-बीच में गंगा के तरफ से ठंढी हवा का झोंका मन को शांत कर देता था। दरवाजे पर खड़े एक बुजुर्ग को नमस्कार करते मैं निवेदन किया: “क्या मुझे शरत बाबू और दादामुनि का घर कौन है, बता सकते हैं? मैं आनन्द बाजार पत्रिका का साम्वादिक हूँ।” बुजुर्ग मेरी उम्र से तीन गुना था। “आपनि साम्वादिक !!! आसूंन।”इससे पहले की वे बांग्ला में कुछ और कहना प्रारम्भ करते, मैं बहुत विनम्रता से कहा: “बांग्ला मुझे आता नहीं……… ”

इससे पहले की मैं कुछ और कहूं, वे बोले: “आत्मीयता की कोई भाषा नहीं होती। जो ह्रदय के तक्षण करीब आ जाते हैं वे होठों के स्पंदन से भी समझ जाते हैं की सामने वाला क्या बोल रहा है। आप आनन्द बाज़ार पत्रिका समूह के साम्वादिक हैं, इस धरती के लिए महान हैं, पूज्यनीय हैं। आपको पता है हम बंगालियों के घर में तीन चीजें मशहूर है – एक: माँ काली की तस्वीर, दो: स्वामी विवेकानंद की तस्वीर और तीन: आनन्द बाज़ार पत्रिका कागज़ (समाचार पत्र) ।

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ह्रदय से उनकी बातों का अभिनन्दन करते उन्हें पैर छूकर प्रणाम किया और फिर शरत बाबू के घर के चौखट के अंदर प्रवेश लिया। एक बड़ा सा आँगन। आँगन से सीढ़ी से चढ़कर लाल सीमेंट वाला बरामदा जिसके खम्भे गोल-गोल थे। वे बता रहे थे यह दो भवन मात्र है, दो आँगन देखने को हैं – दोनों घरों के लोगों आत्मा एक ही है। मैं उनकी बातों की मार्मिकता को ह्रदय से समझ रहा था। कितना अटूट विस्वास। कितना अटूट प्रेम।इसी बरामदे पर घंटों बैठकर सभी नाटक का संवाद बोलते थे, लिखते थे। हंसी-मजाक चलता था। आँगन में तुलसी का पौधा लगा था। उस दिन भी वह हरा-भरा था। गोबर से तुलसी पौधा के जमीन को पोछा गया था ,पौधे की ऊंचाई कोई चार फीट की होगी। मैं दरवाजे के समीप खड़ा होकर दो-चार तस्वीर लिए। इस बीच एक युवक को संवाद देकर सामने भवन में भेजे। उस भवन में दादा मुनि की मामी रहती थी।

वे सज्जन मुझे सामने घर के दरवाजे तक ले गए और फिर दरवाजे की कुण्डी को पीटकर किसी के आने सूचना भी दिए। सामने कोई छः फीट ऊँची, दूध जैसा सफ़ेद जिसमें सूर्य की लालिमा दिख रही हो, वैसी त्वचा वाली एक पचास-पचपन साल की संभ्रांत महिला, साडी की पल्लू को गर्दन से घुमाकर कमर में दबायी, काले-सफ़ेद लम्बे बाल, लाल होठ – सुंदरता का पराकाष्ठा – सामने खड़ी थीं। मैं अपने अब तक उतनी सुन्दर, सौम्य महिला आज तक नहीं देखा।

बहुत ही मीठी आवाज में कहतीं हैं: “आसूंन” वे मुझे कमरे में ले गयीं। कोई 80-90 साल पुराना चमचमाता हुआ, बेहतरीन पलंग, जिसपर सफ़ेद और ब्लू रंग का चादर बिछा था, पलंग के चारो तरफ चौकोर आकार का लकड़ी का चमचमाता डंडा स्क्रू से कैसा था। यह मच्छरदानी लटकाने सहायक होता था। पलंग के नीचे फर्श पर मोटा कालीन बिछा था। महिला टेक लेते बैठीं। मैं सामने कुर्सी पर बैठा। सामने कमरे के एक कोने में विशाल यंत्र रखा था, संगीत सुनने के लिए। ग्रामोफोन का मुख दरवाजे के तरफ था। दीवारों पर ऐतिहासिक तस्वीरें टंगी थी। सामने आँगन में चतुर्दिक फूल लगे थे।

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फिर मुस्कुराते कहतीं हैं: “आप बांग्ला नहीं समझते? मुझे बताया गया है। बहुत मधुर भाषा है एकदम “सन्देश” जैसा। इस बीच एक बेहतरीन तस्तरी में सन्देश मिठाई और शीतल पानी बगल में रखे ,,मेज पर आ गया था। भागलपुर का सन्देश विख्यात था। फिर दादामुनि, किशोर कुमार, अनूप कुमार की बहुत सारी बातें बतायीं। उनके कमरे के बाएं तरफ जमीन से कोई पांच फीट नीचे एक विशाल कक्ष था जिसमें एक मंच बना था। सामने स्टेडियम जैसा अर्ध-चंद्राकार आकार में घुमावदार कुर्सियां थीं जो एक-दूसरे से जुडी थी। सभी लकड़ी के बने थे। स्टेज पर रौशनी लिए कमरे के विभिन्न क्षेत्रों से बड़े-बड़े लाइटों का बंदोबस्त था। वे बता रही थीं की कैसे सभी यहाँ नाटक का मंचन करते थे।

फिर मुझे पकड़कर गंगा की ओर निकलीं। उनके घर का पिछला हिस्सा। गंगा के तरफ आते ही दाहिने हाथ पर एक विशाल पीपल का बृक्ष था जिसके जड़ों को मिटत–पथ्थर-सीमेंट-बालू के मिश्रण अच्छा-खासा गोलाकार बैठकी बना दिया गया था जहाँ शरत बाबू बैठा करते थे। अनंत बातें हुईं। आज भी मानस-पटल पर छायीं हैं।

ईश्वर आप सबों की आत्मा को शांति दें क्योंकि उस पीढ़ी बाद दूसरी-तीसरी पीढ़ी या फिर आने वाली पीढ़ियां न तो उस जमीन की सांस्कृतिक मूल्य को आंक सकती हैं, इसलिए भौगोलिक मूल्य के तहत आज सुनने की एक विशाल गगनचुम्बी अट्टालिका वहां कड़ी है – जहाँ न तो कोई वेदना समझने वाला है और न ही संवेदना ।

इस घटना के दसकों बाद एक बार फिर फोन के माध्यम से इस परिवार की तीसरी पीढ़ी के वंशज से संपर्क साधने का यत्न किया। अब तक इस भूभाग पर स्थानीय ताकतवर लोगों की निगाह पर चुकी थी। हो भी क्यों न। जब स्वामी कमजोर हो जाता है अथवा जब किसी को मुफ्त पैतृक संपत्ति प्राप्त होती है तब उस संपत्ति का “वास्तविक मोल” वह नहीं समझ पाता और तत्कालीन धाराओं में बाह जाता है इतिहास को मिटाते। यहाँ भी यही हुआ।

बाद में सुनने को आया की भागलपुर के कुछ ताकतवर लोग, ठेकेदार इस भूमि पर अपना निशाना साध लिए थे। शायद आज वहां कोई गगनचुम्बी ईमारत बन गयी है ईंट-पथ्थर का। लेकिन उस मानवता को, उस मानवीयता को कहाँ से लाएंगे।  

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