‘आइडेंटिटी क्राईसिस’: दरभंगा के महाराजाधिराज, वंशज का नाम ‘दिव्यांगों वाली ट्राइस्किल’ पर, वह भी अशुद्ध !!

वंशज का नाम दिव्यांगों के ट्राइस्किल के पीछे, वह भी
वंशज का नाम दिव्यांगों के ट्राइस्किल के पीछे, वह भी "अशुद्ध"   

कभी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना शिला पट्ट पर, तो कभी सुभाष चन्द्र बोस की डायरी में, तो कभी भारत के अन्तिम वाइसरॉय लार्ड माउंटबेटन के साथ, तो कभी महात्मा गाँधी की चिठ्ठी में महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का नाम उद्धृत होता था। कल, अपना और अपने वंशज का नाम, दिव्यांगों के ट्राइस्किल के पीछे लिखा देख, वह भी “अशुद्ध”  महाराजाधिराज की आत्मा बिलख गई होगी। ओह !! इतना “आइडेंटिटी क्राईसिस” हो गया उनका। 

कल दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का 113 वां जन्मदिन था। दरभंगा के रामबाग परिसर में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। चिकित्सा  शिविर का भी आयोजन था। निःशक्तता आयुक्त डॉ शिवाजी कुमार भी मुख्य अथिति थे। महाराजा के परिवार के लोग भी उपस्थित थे। लेकिन शायद महाराजाधिराज स्वर्गलोक  से उस दृश्य को देखकर, पढ़कर अश्रुपूरित हो गए होंगे जब दिव्यांगों को दी जाने वाली ट्राइस्किल के पीछे अपना नाम और अपने पोते का नाम, ‘प्रदाता के रूप में पढ़े होंगे और वह भी अशुद्ध ।” 

ट्राइस्किल के पीछे लिखा था : “प्रदाता: महाराजा कामेश्वर सिंह चैरिटेबुल ट्रस्ट, दरभंगा। सौजन्य से: कुमार राजेश्वर सिंह – कुमार (कपलेश्वर) सिंह, ट्रस्टी । इस शिविर को आयोजित करने वाले, ट्राइस्किल के पीछे नाम लिखवाने वाले अधिकारीवृन्द, महानुभावों से इतनी अपेक्षा तो महाराजाधिराज की आत्मा जरूर की होगी कि वे वितरण से पूर्व अथवा पत्रकारों / छायाकारों के देखने, तस्वीर लेने से पूर्व “नाम की शुद्धता” को परख लें। बहरहाल, “आखिर, नाम तो व्हील-चेयर के पीछे लिखा ही लिखा था।”

इतना ही नहीं, महाराजा साहेब के जन्मदिवस की सूचना स्थानीय अख़बारों के प्रातः संस्करण में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन के रूप में भी प्रकाशित किया गया था। महाराजा साहेब दूसरे अख़बारों में अपने जन्मदिन का विज्ञापन देखकर ‘मुस्कुराते’ भी होंगे। यह भी सोचते होंगे आखिर मेरे द्वारा स्थापित अख़बारों का नामोनिशान मिटाकर दूसरे अख़बारों में मेरे जन्मदिन का इस्तेहार विज्ञापन के रूप में प्रकाशित होता है, अब, ओह !! शायद राज दरभंगा परिवार के लोगों को, पीढ़ियों को अब “आइडेंटिटी क्राईसिस” हो गया है तभी अपना अखबार बंद कर, मिटाकर, दूसरे अख़बारों में विज्ञापन देकर, दिव्यांगों को दी जाने वाली व्हील चेयर के पीछे नाम लिखने-लिखवाने की परम्परा की शुरुआत हुई है। 

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एक बाती - सात हाथ 
एक बाती – सात हाथ 

महाराजाधिराज की मृत्यु 55 साल की उम्र में कोई 58 वर्ष पहले सन 1962 में हुई थी। आज महाराजा साहेब  दरभंगा के लोग एक ओर जहाँ महाराजा की कीर्तियों का व्याख्यान कर स्थानीय अख़बारों में स्थान सुरक्षित करने की अनवरत कोशिश कर रहे हैं, वहीँ महाराजा साहेब द्वारा प्रदेश की राजधानी पटना में स्थापित दो प्रमुख अख़बारों – आर्यावर्त और इण्डियन नेशन – को नेश्तोनाबूद कर नामोनिशान मिटा दिया। इतना ही नहीं, प्रदेश में अतः महाराजा साहेब की मृत्यु के पश्चयात उनके द्वारा स्थापित सभी उद्योगों की ईंट प्रदेश की मिट्टी में मिल गई । विगत दिनों न्यूज़क्लिक वेबसाईट पर तारिक अनवर ने “दरभंगा की अशोक पेपर मिल के बंद होने की कहानी को बहुत ही मार्मिक तरीके से शब्दबद्ध किये हैं। 

न्यूज़क्लिक वेबसाईट पर तारिक अनवर ने अशोक पेपर मिल की लूटपाट की कहानी  इस कदर प्रस्तुत किये हैं: “योजना के तहत, निवेशकों को अशोक पेपर मिल को उबारने के लिए 504 करोड़ रुपये इकट्ठे करने थे। यह पैसा 36 महीनों में इकट्ठा किया जाना था, नहीं तो समझौते को अमान्य करार दे दिया जाता। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुमति प्राप्त, 38 बिंदुओं वाली इस योजना के तहत दो चरणों में मिल को उबारना था। पहले चरण के तहत निवेशकों को सरकार के साथ समझौता करने के 18 महीनों के भीतर मिल में दोबारा काम चालू करवाना था।

दूसरी शर्तों के बीच एक शर्त मिल में मौजूद पूरी श्रमशक्ति को काम देने और उनका पिछला बकाया चुकाने की की भी थी। साथ में, बिगड़े हुए कलपुर्जों को ठीक करवाने के अलावा, मिल की किसी भी संपत्ति को परिसर के बाहर नहीं ले जाया जा सकता था। यहां गौर करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करते हुए, असली मायनों में पहला चरण कभी शुरू ही नहीं हुआ। नवंबर 1988 में एक तकनीकी सलाहकार की देखरेख में कारखाने का एक ट्रॉयल रन करवाया गया। तकनीकी सलाहकार ने कहा कि कारखाने की 95 फ़ीसदी मशीनरी ठीक ढंग से काम कर रही है, बाकी में भी हल्के-फुल्के सुधार की ही जरूरत है। इस प्रमाणीकरण से गोधा के दूसरा फर्जी प्रमाणपत्र बनवाने का मौका मिला।

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उस प्रमाणपत्र में कहा गया कि अशोक पेपर मिल ने उत्पादन शुरू कर दिया है। इसके आधार पर दो सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों (IDBI से 19 करोड़ रुपये और यूनाईटेड बैंक ऑफ इंडिया से 9 करोड़ रुपये) से कर्ज़ ले लिया गया। मिल में काम चलाने के नाम पर लिया गया यह पैसा कभी कारखाने में निवेश ही नहीं किया गया। न्यूज़क्लिक को पता चला है कि प्रायोजकों ने 2012 तक सरकार को पहली दो किश्तों का पैसा दे दिया है, लेकिन बाकी के पैसे की स्थिति का पता नहीं चल पाया। कर्मचारियों ने कहा अधिग्रहण के बाद कर्मचारियों को उनकी सेवाओं के लिए भुगतान तक नहीं किया गया, जबकि NC&FL ने 28 करोड़ रुपये इकट्ठा किए थे। कंपनी के रिकॉर्ड के मुताबिक, कारखाने पर 179 कर्मचारियों के 2।50 करोड़ रुपये बकाया हैं। यह राशि 18 अगस्त, 1997 से 31 दिसंबर, 2002 के बीच की है। इस पूंजी में इंक्रीमेंट और प्रोमोशन जैसे दूसरे फायदे शामिल नहीं हैं।”  

बिहार के मुख्य मंत्री श्रीकृष्ण सिंह और महाराजाधिराज दरभंगा में - जन्मदिन मंगलमय हो महाराजाधिराज साहेब। 
बिहार के मुख्य मंत्री श्रीकृष्ण सिंह और महाराजाधिराज दरभंगा में – जन्मदिन मंगलमय हो महाराजाधिराज साहेब। 

बहरहाल, अशोक पेपर मिल तो महज एक दृष्टान्त है, इसके अलावे मिथिलांचल क्षेत्र अथवा बिहार प्रदेश में महाराजा सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित सभी उद्योंगों की स्थिति अशोक पेपर मिल से बेहतर नहीं रहा। इण्डियन नेशन – आर्यावर्त अखबार में कार्य करने वाले सैकड़ों लोगों की यही दशा हुई। कई कर्मचारी और परिवार ईश्वर को प्राप्त हुए। 

ज्ञातब्य हो कि 1 अक्टूबर, १९६२ को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में महाराजाधिराज मृत पाये गए थे और आनन फानन में माधवेश्वर में इनका दाह संस्कार दोनों महारानी की उपस्थिति में कर दिया गया। बड़ी महारानी को देहांत की सूचना मिलने पर अंतिम दर्शन के लिए सीधे शमशान पहुंचना पड़ा था। महाराजा कामेश्वर सिंह को संतान नहीं था। इनके उतराधिकार को लेकर उनके कुछ प्रिय व्यक्तियों के मन में आशा थी उनमे छोटी महारानी जो महाराजा के साथ रहती थी और महाराजा के भगिना श्री कन्हैया जी झा, जो इंडियन नेशन प्रेस के मैनेजिंग डायरेक्टर थे, प्रमुख थे।

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कहा जाता है कि राजकुमार शुभेश्वर सिंह और राजकुमार यजनेश्वर सिंह वसीयत लिखे जाने के समय नाबालिक थे और उनकी शादी नहीं हुई थी सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह की दूसरी शादी नहीं हुई थी। शायद महाराजा को अपनी मृत्यु की अंदेशा था । मृत्यु से पूर्व 5 जुलाई 1961 को कोलकाता में उन्होंने अपनी अंतिम वसीयत की थी, जिसके एक गवाह पं. द्वारिकानाथ झा थे, जो महाराज के ममेरा भाई थे और दरभंगा एविएशन, कोलकाता में मैनेजर थे ।मृत्यु का समाचार मिलने पर वे कोलकाता से दरभंगा पहुंचे और वसीयत के प्रोबेट कराने की प्रक्रिया शरू करवा दी ।

कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा वसीयत सितम्बर 1963 को प्रोबेट हुई और पं. लक्ष्मी कान्त झा , अधिवक्ता, माननीय उच्चतम न्यायालय, पूर्व मुख्यन्यायाधीश पटना हाई कोर्ट ग्राम – बलिया ,थाना – मधुबनी पिता पंडित अजीब झा वसीयत के एकमात्र एक्सकुटर बने और एक्सेकुटर के सचिव बने पंडित द्वारिकानाथ झा । वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवाशी होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सा में बाँटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवाशी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह ,राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था ।

बहरहाल, आर्यावर्त इण्डियन नेशन डॉट कॉम को प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन की वर्तमान स्थिति भी बेहतर नहीं है। फॉउंडेशन के ‘पर्मानेंट लाईफ-टाईम ट्रस्टी प्रोफ़ेसर हेतुकर झा की मृत्यु के बाद ट्रस्ट और महारानी की सम्पति की ओर लोगों की निगाह चतुर्दिक लगी हुई है। दिल्ली स्थित सम्पतियों के अलावे, अन्य सम्पत्तियों पर भी निगाहें अटकी हैं।  

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