अस्सी ​घाट पर कैरमबोर्ड खेलते एक दूकानदार ​ने कहा: “आगे दूकान से ​पानी ​ लय लो, अभी ‘क्वीन को लेना’ है”

​बनारस घाट पर दो नव-विवाहित दंपत्ति ​
​बनारस घाट पर दो नव-विवाहित दंपत्ति ​

बनारस स्टेशन के पास आगे जा रहा था की बगल से १०० ग्राम से अधिक पान का पिरकी पैर के आगे दस्तक दिया। पिरकी फेकने वाले को देखकर पूछा “क्या भाई”! उसने तुरन्त कहा: “इतना सड़क खाली है, किनारे-किनारे काहे चल रहे हैं?

* गदौलिया चलोगे ? एक ऑटो वाला से पूछा। ऑटोवाला बेहिचक कहता है “कउनो दूसरा गाडी लय लो। अभी चाय पीना है फिर तनिक विश्राम।”

* अस्सी पर कुछ लोग कैरमबोर्ड खेल रहे थे। सामने कोल्डड्रिंक की दूकान से पानी का बोतल लेना था। दूकानदार के सामने रखा बोर्ड पर “क्वीन” उसके स्ट्राईकर पर थी। बोर्ड के सामने छेद – क्वीन और स्ट्राईकर एक सीध में। दुकानदार की लम्बाई कम थी इसलिए अपने पैर के नीचे एक पत्थर का टुकड़ा रख खड़ा था। उसने कहा “आगे दूकान से लय लो, अभी क्वीन को लेना है।”

* गदौलिया बाज़ार में एक दुकानदार से पूछा : “रुमाल” है? इससे पहले की अगली साँस लूँ दुकानदार झटपट कहा: “ई गर्दनमा में गमछी लटकाय ल। धूप लगे त माथा पर रखि लिह अउ पसीना चले तो पोछि लिह – एक पन्थ दुहि काज।

* राजेंद्र प्रसाद घाट पर एक नौजवान नाविक जिसका शरीर नाव का पतवार चलाते चलाते ‘मदमस्त’ हो गया था, सामने दूसरे नाव से उसके उम्र से कोई दस साल अधिक का दूसरा नाविक कहता है: “का देहवा त हाथी के बच्चा जईसन लगता।” नौजवान नाविक तुरन्त कहता है: “हाँ तोहरे ससुराल के लोग हमरा घरे बासमती चावल भेजलन हाँ।”
ई है बनारस।

हमारे देश में लड़का-लड़की की शादी हुयी नहीं, अभी वर और वधु के माता-पिता सोनार के यहाँ इंगेजमेंट रिंग बनने का आदेश भी नहीं दिए, ऊँगली की मोटाई को सोनार नापा भी नहीं; की स्मार्ट फोन पर लड़के-लडकियां मध्-चन्द्रमा (हनीमून) के लिए घर से हज़ारो किलोमीटर दूर एकदम शान्त इलाके में स्थित होटल में अपना कमरा सुरक्षित करने के लिए बेचैन हो जाते हैं। लड़का अगर फोन पर मोहतरमा के मैसेज का जबाब देने में ९-सेकेण्ड भी देरी किया, तो “वुड-बी पत्नी” शुतुरमुर्ग की तरह रूठ जाती हैं। लेकिन इस तस्वीर को देखिये। अभी-अभी दोनों की शादी हुयी है। सपरिवार गँगा माय से आशीर्वाद लेने दशाश्वमेध घाट पर मजे में बैठकर आनन्द ले रहे हैं। कउनो परवाह नहीं। केकरो परवाह नहीं। जो देख रहे हैं – खूब निहारें। है हिम्मत दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई, पटना, जयपुर, कानपूर, लखनऊ, शिमला, हिमाचल में रहने वाले नव-दम्पत्तियों का?
ई है बनारस।

ये भी पढ़े   बिस्मिल्लाह खान का नाम फिर सुर्ख़ियों में - 'शहनाई' के लिए नहीं, 'घर के टूटते दीवारों' के कारण 

अगर आपको हिम्मत है तो दिल्ली में राजपथ से ७-लोक कल्याण मार्ग तक बनारस के सांसद से मिलने के लिए गमछी लपेट के निकलकर देखिये। पूरी दिल्ली सल्तनत और दिल्ली पुलिस आपको तिहार में ठूस देगी और जमानत भी नहीं मिलेगा। लेकिन यहाँ आप गमछी लपेट के पूरा ४३ वर्गमील बनारस घूम जाईये कोई नहीं पूछेगा क्या बात है? अपनी मर्जी – अपनी आजादी ।
ई है बनारस।

दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई या भारत का कोई भी शहर हो लोगबाग पुलिस को देखते ही रफू चक्कर होने लगते हैं। कहीं कोई मुकदमा में पूछताछ न कर बैठे, न फंसा दे। यहाँ पुलिस वाले और नागरिक, चाहे सड़क के बीचोबीच कोई खड़ा होकर बतियाते हों या ऑटो वाला सड़क के बीच में अपनी गाडी खड़ी कर उसका पिछला पहिया बदलते रहे और ट्रैफिक जाम भी रहे – कोई फ़िक्र नहीं। पों-पाँ-पों-पाँ-पों-पीं-ट्रिंग-ट्रिंग- के अलावे कुछ नहीं। पैदल चलने वाले भी उसी तरह आपके बगल से निकलेंगे जैसे -४५ डिग्री तापमान पर लोग अपने शरीर को सिकुड़े रखते हैं। कभी-कभी तो आपके माथा के ऊपर से छलांग भी लगाकर पार कर लेंगे। न उन्हें बुरा लगता है और न। है अईसन कोई शहर भारत में?
ई है बनारस।

भारत को सन 1947 में आजादी मिली। अब हम आजाद हैं। आजादी का क्या उपयोग है, इसकी शिक्षा लेनी हो तो बनारस जरूर आएं। ऐसी शिक्षा आपको न तो सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ सेकेंडरी एडुकेशन दे सकती है और न ही विभिन्न राज्यों के बोर्ड। एकदम व्यावहारिक अनुभव के साथ आप दक्षता प्राप्त करेंगे। बनारसवाले 1947 से ही नहीं, अनादिकाल से अपने को आजाद मानते आ रहे हैं। अब ई अलग बात है कि सं १९४७ के बाद विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता वहां जाकर, वहां से चुनते ही “ज्ञान बांटने लगते हैं। आज़ादी का अर्थ समझने लगते हैं। परन्तु वे यह नहीं जानते की पांच साल बाद “ऊ चल जहियैं बनारस के लोग उहें रहियैं।”

ये भी पढ़े   मोदी जी "इन" बनारस या मोदीजी का "डमी" बनारस या मोदीजी का "बाय-बाय" बनारस !!

बनारस में लोगों को नयी व्यवस्था, नया कानून या नयी बात कतई पसन्द नहीं। इसके विरुद्ध वे हमेशा आवाज़ उठाएँगे। बनारस कितना गन्दा शहर है, इसकी आलोचना नेता, अतिथि और हर तरह के लोग कर चुके हैं, करते आ रहे हैं, करते रहेंगे, लिखते रहेंगे, चिचियाते रहेंगे, भौंकते रहेंगे; पर यहाँ की नगरपालिका इतनी आजाद है कि इन बातों का खयाल कम करती है। खास बनारसवाले भी सोचते हैं कि कौन जाए बेकार का सरदर्द लेने।

हिन्दुस्तान में सर्वप्रथम हड़ताल 24 अगस्त, सन 1790 ई. में बनारस में हुई थी और इस हड़ताल का कारण थी — गन्दगी। सिर्फ़ इसी बात के लिए ही नहीं, सन 1809 ई. में जब प्रथम गृहकर लगाया गया तब बनारसी लोग अपने मकानों में ताला बन्द कर मैदानों में जा बैठे। शारदा बिल, हिन्दू कोड बिल, हरिजन मन्दिर प्रवेश, गल्ले पर सेल टैक्स और गीता कांड आदि मामलों में सर्वप्रथम बनारस में हड़तालें और प्रदर्शन हुए हैं। कहने का मतलब बनारसवाले हमेशा से आजाद रहे और उन्हें अपने जीवन में किसी की दखलन्दाजी पसन्द नहीं आती।

यहाँ तक कि वेश-भूषा में परिवर्तन लाना पसन्द नहीं हुआ। आज भी यहाँ हर रंग के, हर ढंग के व्यक्ति सड़कों पर चलते-फिरते दिखाई देंगे। एक ओर ऊँट, बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी है तो दूसरी ओर मोटर, टैक्सी, लारी और फिटन है। एक ओर अद्धी तंजेब झाड़े लोग अदा से टहलते हैं तो दूसरी ओर खाली गमछा पहने दौड़ लगाते हैं।

आप कलकत्ता की सड़कों पर धोती के ऊपर बुशर्ट पहनें या कोट-पैंट पहनकर पैरो में चप्पल पहनें तो लोग आपको इस प्रकार देखेंगे मानों आप सीधे राँची (पागलखाना) से चले आ रहे हैं। यही बात दिल्ली और बम्बई में भी है। वहाँ के कुली-कबाड़ी भी कोट-पैंट पहने इस तरह चलते हैं जैसे बनारस में ई.आई.आर. के स्टेशन मास्टर। यहाँ के कुछ दुकानदार ऐसे भी देखे गये हैं जो ताश, शतरंज या गोटी खेलने में मस्त रहते हैं, अगर उस समय कोई ग्राहक आकर सौदा माँगता है तो वे बिगड़ जाते हैं। ‘का लेब? केतन क लेब? का चाही, केतना चाही?’ इस तरह सवाल करेंगे। अगर मुनाफेदार सौदा ग्राहक ने न माँगा, तबियत हुई दिया, वरना माल रहते हुए वह कह देंगे—नाहीं हव – भाग जा। खुदा न खास्ता ग्राहक की नजर उस सामान पर पड़ गयी तो उस हालत में भी वह कह उठते हैं—‘जा बाबा, जा, हमें बेचे के नाहीं हव।’

ये भी पढ़े   है कोई देखने वाला भारत के इस एकलौते ब्रह्मा मन्दिर को या सभी नोच-खसोट में ही व्यस्त हैं ?

है किसी शहर में ऐसा कोई दुकानदार? कभी-कभी झुँझलाकर वे माल का चौगुना दाम बता देते हैं। अगर ग्राहक ले लेता है तो वह ठगा जाता है और दुकानदार … की उपाधि मुफ्त में पा जाता है।

बनारस की सड़कों पर चलने-फिरने की काफी आजादी है। सरकारी अफसर भले ही लाख चिल्लाएँ, पर कोई सुनता नहीं। जब जिधर से तबियत हुई चलते हैं। अगर किसी साधारण आदमी ने उन्हें छेड़ा तो तुरन्त कह उठेंगे—‘तोरे बाप क सडक हव, हमार जेहर से मन होई, तेहर से जाब, बड़ा आयल बाटऽ दाहिने-बायें रस्ता बतावे।’ जब सरकारी अधिकारी यह कार्य करते हैं तब उन्हें भी कम परेशानियाँ नहीं होतीं। लाचारी में हार मानकर वे भी इस सत्कार्य से मुँह मोड़ लेते हैं।

सडक पर घंटों खड़े होकर प्रेमालाप करना साधारण बात है, भले ही इसके लिए ट्रैफिक रुक जाए। जहाँ मन में आया लघुशंका करने बैठ जाते हैं, बेचारी पुलिस देखकर भी नहीं देखती। डबल सवारी, बिना बत्ती की साइकिल चलाना और वर्षों तक नम्बर न लेना रोजमर्रे का काम है। यह सब देखते-देखते यहाँ के अफसरों का दिल पक गया है। पक क्या गया है, उसमें नासूर भी हो गया है। यही वजह है कि वे लोग साधारण जनता की कम परवाह करते हैं। परवाह उस समय करते हैं जब ये सम्पादक नामधारी जीवाणु उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। कहा गया है कि खुदा भी पत्रकारों से डरता है।

मतलब यह कि हिन्दुस्तान का असली रूप देखना हो तो काशी अवश्य देखें। बनारस को प्यार करनेवाले कम हैं, उसके नाम पर डींग हाँकनेवाले अधिक हैं। सभ्यता-संस्कृति की दुहाई देकर आज भी बहुत लोग जीवित हैं, पर वे स्वयं क्या करते हैं, यह बिना देखे नहीं समझा जा सकता। सबके अन्त में यह कह देना आवश्यक समझता हूँ कि बनारस बहुत अच्छा भी है और बहुत बुरा भी। (बना रहे बनारस के सम्मानित श्री विश्वनाथ मुखर्जी साहेब के मदद से)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here