कोयला तो गुण से ‘हीरा’ है, लेकिन लोगों ने उसे ‘काला’ शब्द से अलंकृत कर दिया इसलिए जिसे कोयले की नजर लग गई वह गया ‘समय से पहले’, आज झरिया मोड़ और कतरास मोड़ गवाही देता है

धनबाद का जलता कोयला खदान

धनबाद (झारखण्ड) : बाबूजी कहते थे कि कोयला काला होता है। काजल भी काला होता है। लेकिन दोनों में मौलिक अंतर यह है कि काजल ‘नजर न लगे’, और ‘सुन्दर’ भी दिखें, इसलिए लगाते हैं। जबकि कोयले की नजर बहुत तीख़ी होती है। कोयला को उसके गुण से नहीं, बल्कि संस्कार से लोग उसे ‘काला’ शब्द से अलंकृत कर दिए। वह तो हीरा होता है। और हीरा अपने अपमान का बदला लेने में कोई क्षण नहीं छोड़ता। मौके की तलास उसे हमेशा होता है। यही कारण है कि जिस किसी को कोयले की नजर लग गई उसका अंत निश्चित है – समय से पूर्व, गाँठ बाँध लो। और इसका गवाह है धनबाद-झरिया का कोयला क्षेत्र उस दिन भी था और आज भी है । जिन्होंने धनबाद को देखा है वे इस बात से भी अवगत होंगे। 

पटना की सड़कों पर साठ के ज़माने से अखबार बेचने और फिर सत्तर के दशक के मध्य से अख़बार में नौकरी शुरू कर पत्रकारिता की नींव रखने के क्रम में ‘अर्थ’ से धनाढ्य तो नहीं हो पाया, लेकिन विगत वर्षों में जिसे एक बार देख लिया, दशकों बाद भी भुला नहीं पाया। धनबाद का ठांये भी उसी श्रृंखला का एक हिस्सा है। 

कोयलांचल की काली, लेकिन रक्तरंजित मिट्टी आज भी पिछले छह दशकों का खुनी इतिहास याद रखे है। धनबाद-झरिया कोयलांचल के बारे में जब भी कोई अख़बार वाला, शोधकर्ता, पत्रकार, लेखक, विश्लेषक धनबाद की खुनी होली के बारे में जानना चाहता है तो वह धनबाद समाहरणालय के वातनुकूलत कक्ष में बैठे अधिकारियों के पास नहीं पहुंचकर, कतरास मोड़ की काली मिट्टी पर पालथी मारकर बैठते हैं। चाय की चुस्की के साथ वहां की मिटटी एक-एक घटना को प्रत्यक्षदर्शी होने का गवाही देती है। उस ज़माने में इतने मंहगे हथियार भी उपलब्ध नहीं थे। उधर विदेशी मौद्रिक बाजार में भारतीय रुपये का मोल बढ़ रहा था, स्थित होता था, इधर कोयलांचल में कोयले की नजर लगे लोगों की जिंदगी सस्ती होती जा रही थी –  ठांये ठांये ठांये। 

कतरास मोड़ की मिटटी कहती है कि सन 1967 में रामदेव सिंह, फिर 1967 में ही चमारी पासी, 1977 में श्रीराम सिंह की हत्या हुई। सं 1978 में बीपी सिन्हा को गोली मारी गयी। पांच साल बाद सन 1983 में शफी खान, फिर 1984 में मो असगर, 1985 में लालबाबू सिंह, 1986 में मिथिलेश सिंह, 1987 में जयंत सरकार की हत्या हुई। 

हत्या का सिलसिला अभी रुका नहीं था। इसके बाद 1986 में अंजार, 1986 में शमीम खान, 1988 में उमाकांत सिंह, 1989 में मो सुल्तान की हत्या हुई। उसी वर्ष 1989 में ही राजू यादव को मौत के घाट उतारा गया। 15 जुलाई, 1998 को धनबाद जिले के कतरास बाजार स्थित भगत सिंह चौक के पास दिन के उजाले में मारुति कार पर सवार कुख्यात अपराधियों ने अत्याधुनिक हथियारों से अंधाधुंध गोलियां चलाकर विनोद सिंह की हत्या कर दी। 

चाय की चुस्की लेते कतरास मोड़ की मिट्टी आगे कहती है कि 25 जनवरी, 1999 को दोपहर के लगभग साढ़े बारह बजे सकलदेव सिंह सिजुआ स्थित अपने आवास से काले रंग की टाटा जीप पर धनबाद के लिए निकले ही थे। हीरक रोड पर पहुंचते ही दो टाटा सूमो (एक सफेद) सकलदेव सिंह की गाड़ी के समानांतर हुई। सूमो की पिछली खिड़की का काला शीशा थोड़ा नीचे सरका और उसमें से एक बैरेल सकलदेव सिंह को निशाना साधकर दनादन गोलियां उगलने लगी। जवाब में सकलदेव सिंह की गाड़ी से भी फायरिंग होने लगी। दोनो गाड़ियां काफी तेज चल रही थी और साथ में फायरिंग भी हो रही थी और अंतत : बंदूक की गोलियों ने सकलदेव सिंह को हमेशा के लिए खामोश कर दिया। 

कतरास मोड़ की मिटटी का मानना है कि कोयलांचल में खून की होली के लिए ‘होली पर्व’ का होना आवश्यक नहीं है। यहाँ वर्चस्व स्थापित काने के लिए, वर्चस्व बनाये रखने के लिए कभी भी, कहीं भी खून की होली हो जाती है। सं 1994 में मणींद्र मंडल, 1998 मो नजीर, 1998 में ही विनोद सिंह की हत्या हुई। सन 2000 में रवि भगत, 2001 जफर अली और नजमा व शमा परबीन, 2002 गुरुदास चटर्जी की हत्या हुई। उसी वर्ष 2002 में ही सुशांतो सेनगुप्ता की हत्या हुई। सन 2003 प्रमोद सिंह, फिर 2003 में राजीव रंजन सिंह, 2006 में गजेंद्र सिंह, 2009 में वाहिद आलम, 2011 में इरफान खान, सुरेश सिंह, 2012 में इरशाद आलम उर्फ सोनू और 2014 में टुन्ना खान तथा 2017 में रंजय सिंह की हत्या हुई। 

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आठ दिसंबर, 2011 की रात लगभग साढ़े नौ बजे करोड़पति कोयला व्यवसायी और कांग्रेस नेता सुरेश सिंह (55) की धनबाद क्लब में गोली मार कर हत्या कर दी गयी। इतना ही नहीं, अनेकों बार एस के राय जो इंटक के नेता भी थे, पर हमला हुआ। कोयलांचल की इसी खुनी होली और कोयले से कमाई के कारण ही बिनोद बिहारी महतो,  शिबू सोरेन आदि नेता भी बने। इसी कमाई के कारण अविभाजित बिहार और बाद में झारखण्ड के साथ-साथ देश के सभी राज्यों के नेताओं की नजर, केंद्र में बैठे मंत्रियों की पैनी नजर इस काले सोने की ओर लगी होती है। काला होने के बाद भी सभी इसे प्यार करते हैं। 

धनबाद का जलता कोयला खदान

बहरहाल, आज जब सुना की तत्कालीन कोयला माफिया सूर्यदेव सिंह के भाई को बाहुबली रामधीर सिंह को धनबाद की एक अदालत ने विनोद सिंह हत्याकांड के मामले में कोई रियायत नहीं दी, कोयलांचल में प्रचलित शक्क्ति-युद्ध याद आ गया। रामधीर सिंह धनबाद के एक अन्य कोयला माफिया और सत्तर-अस्सी-नब्बे के ज़माने के बाहुबली सकलदेव सिंह और उनके भाई बिनोद सिंह की हत्या का अपराधी थे। 

वैसे 25 जनवरी 1999 को भूली मोड़ के पास सकलदेव सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी, उस मुकदमें में धनबाद के जिला एवं सत्र न्यायाधीश, रिजवान अहमद की अदालत ने संदेह का लाभ देते हुए उनकी रिहाई का फैसला सुनाया था, लेकिन आज वे बिनोद सिंह हत्या कांड के अपराध में कारावास में ही रहे। उन्हें उम्र कैद की सजा है। बिनोद सिंह बिहार जनता खान मजदुर संघ के महामंत्री और जनता दल के नेता सकलदेव सिंह के भाई थे। उनकी हत्या 15 जुलाई, 1998 को की गई। कहते हैं सकलदेव सिंह – विनोद सिंह के पिता मुखराम सिंह अविभाजित बिहार के छपरा ज़िले के उरहर पुर गांव से धनबाद के सिजुआ आये थे रोजी-रोटी की तलाश में। 

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार 15 जुलाई, 1998 को कतरास हटिया शहीद भगत सिंह चौक के पास ताबड तोड़ गोलियों से हमला कर विनोद सिंह और उनके चालक मन्नु अंसारी को मौत के घाट उतार दिया गया था। उस समय सुबह का कोई 8.40 बजा था। विनोद सिंह कोल डंप जाने के लिए अपनी नई एम्बेस्डर कार से निकले थे। उस कार को मन्नु अंसारी चला रहा था।  पंचगढी बाजार में गाडियां जाम में थोडी देर फंसी रही। सुबह-सवेरे जैसे ही कतरास हटिया भगत सिंह चौक के पास जैसे ही पहुंचे, एक सादे रंग की मारुति कार दोनों गाडियों को ओवरटेक कर आगे रुकी, मारुति से तीन लोग उतरे और विनोद सिंह की गाड़ी पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। विनोद सिंह और मन्नु खून से लथपथ गिरे हुए थे। कहते हैं उस हमलावरों में रामधीर सिंह और राजीव रंजन सिंह शामिल थे। रामधीर सिंह झरिया के पूर्व विधायक स्वर्गीय सूर्यदेव  सिंह के पांच भाइयों में सबसे छोटे है।  रामधीर  सिंह को ‘सिंह मेन्शन’   के रणनीतिकार के रूप में देखा जाता रहा है। 

कहते हैं वे सूर्य देव सिंह के द्वारा स्थापित जनता मजदूर संघ के वह अध्यक्ष भी रह चुके है। लेकिन सजायाफ्ता होने के बाद उन्हें इस पद से हटा दिया गया। विनोद सिंह हत्याकांड में लोअर कोर्ट ने 2015 में रामधीर सिंह को उम्र कैद की सजा सुनाई थी। डेढ़ साल से अधिक समय तक फरार रहने के बाद उन्होंने धनबाद कोर्ट में सरेंडर किया था। विधि का विधान देखिये उनकी पत्नी इंदू देवी धनबाद नगर निगम की मेयर रह चुकी हैं। विनोद सिंह हत्याकांड में विगत 25 अगस्त को झारखंड हाईकोर्ट की डिवीजन-बेंच ने रामधीर सिंह की अपील पर सुनवाई पूरी कर ली थी और फैसला सुरक्षित रख लिया था। इतना ही नहीं, रामधीर सिंह के बेटे शशि सिंह पर कोयला कारोबारी व कांग्रेस नेता सुरेश सिंह की हत्या का भी आरोप है। सुरेश सिंह की हत्या 7 दिसंबर 2011 को हुई थी। इस हत्या के बाद शशि  सिंह धनबाद से फरार हो गए। धनबाद पुलिस अभी भी शशि सिंह को ढूंढ रही है। सुरेश सिंह कांग्रेस के टिकट पर झरिया से चुनाव भी लड़ चुके थे। 

रामधीर सिंह

बहरहाल, धनबाद की काली, लेकिन रक्तरंजित मिट्टी इस बात की गवाही आज भी देती है कि कोयले की अवैध कमाई की पृष्ठभूमि 1950 में बिंदेश्वरी प्रसाद सिन्हा @बीपी सिन्हा ने डाली थी। उन दिनों सम्पूर्ण कोयलांचल में  सिन्हा साहब का एकछत्र राज था। सिन्हा साहेब बरौनी के रहने वाले थे और राजनीति में उनकी विशेष पकड़ थी। वे सर्वप्रथम सं 1950 में धनबाद पदार्पित हुए। उनमें बहुत बातें ईश्वरीय थी। लिखना, बोलना जैसा सरस्वती की देन थी। उनका वही आकर्षण तत्कालीन कोलियरी मालिकों को आकर्षित किया। वे इंटक से जुड़े और ताकतवर मजबूत नेता के रूप में उदित हुए। 

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उसी समय उन्होंने कोयलांचल में युवा पहलवानों की फौज बनाई, जिसमें सूर्यदेव सिंह इनके सबसे विश्वासपात्र थे। इनका इतना दबदबा था कि इन्हीं की मर्जी से कोयला खदान चलती थी। सिन्हा का आवास व्हाईट हाउस के रूप में मशहूर हुआ करता था और पूरे इलाकेे में माफिया स्टाइल में उनकी तूती बोलती थी। 

उस दिन मार्च महीने का 29 तारीख था और साल 1978 था। धनबाद के गांधी नगर स्थित आवास सह कार्यालय में सिन्हा साहेब रेकर्ड प्लेयर पर अपने पोते गौतम के साथ गाना सुन रहे थे। घर में उस वक्त आसपास के चार-पांच लोग अपनी फरियाद लेकर पहुंचे। अचानक दो-तीन लोग बरामदे में पहुंचे और एक ने पूछा साहेब हैं? जवाब हां में मिलने पर वे लोग लौट गये। 

इस बीच अचानक बिजली गुल हो गयी और कुछ सेकेंड में बिजली आ भी गयी।  सिन्हा साहेब को पूछने वाले लोग इतने में ही 10-11 व्यक्तियों को साथ ले कर बरामदे में शोर करते हुए प्रवेश किये। शोर सुन कर साहेब पूछते हैं कौन आया है? क्या हो रहा है? जवाब मिलता है डाकू आये हैं। 

इतने में सिन्हा साहेब जैसे ही कमरे से बाहर निकलते हैं मोटा सा एक आदमी लाइट मशीन गन से गोलियों की बौछार करने लगा । करीब सौ गोलियां चली । सिन्हा साहेब के शरीर को तब तक कई गोलियां बेध चुकी होती थी। सिन्हा साहेब खून से लथपथ होकर जमीन पर गिर पड़े थे। शरीर पार्थिव हो गया था। उस वक्त उनकी उम्र करीब 70 साल रही होगी। पूरे धनबाद ही नहीं, कोयलांचल से लेकर कलकत्ता तक, धनबाद से लेकर पटना के रास्ते दिल्ली तक कोहराम मच गया। 

सिन्हा साहेब की हत्या धनबाद कोयलांचल में कोयला माफिया और राजनीति के गंठबंधन के इतिहास की पहली बड़ी घटना थी। बंदूक व बाहुबल की ताकत के समानांतर ताकत रखने वाले सिन्हा साहेब की हत्या में उनके करीबी कई लोगों का नाम आया। सिन्हा साहेब का ‘अंत’, सूर्यदेव सिंह का ‘सूर्योदय’ था। सम्पूर्ण कोयलांचल सूर्यदेव सिंह की ऊँगली पर चलने लगी और भारत कोकिंग कोल मुख्यालय जाने के प्रवेश द्वार से कोई 100 कदम पर स्थित सिंह मैंशन इतिहास रचना प्रारम्भ कर दिया। 

कहा जाता है कि मजदूरों को काबू में रखने के लिए इन्होंने पांच लठैतों की एक टीम बनाये थे। इसमें बलिया के रहने वाले सूर्यदेव सिंह और स्थानीय वासेपुर के शफी खान आदि शामिल थे। उसी समय से उनकी दुश्मनी वासेपुर के शफी खान गैंग्स से शुरू हुई। सिन्हा साहेब की हत्या में सूर्यदेव सिंह का नाम आया था, लेकिन कुछ समय बाद वे इस काण्ड से बरी हो गए।

सूर्यदेव सिंह (दिवंगत)

उन दिनों सूर्यदेव सिंह अपने उत्कर्ष पर थे। उत्तर प्रदेश के बलिया से आकर एक साधारण कोयला मजदूर के रूप में काम शुरू करने वाले सूर्यदेव सिंह ने कोयला मजदूरों की ट्रेड यूनियन की अगुवाई कर इतनी शोहरत हासिल की कि धनबाद की धरती पर पत्ता भी उनकी इक्षा के बिना नहीं हिलता था। जितने दबंग, उतने ही सामाजिक कार्यों में रुचि दिखाने वाले सूर्यदेव सिंह की लोकप्रियता का आलम रहा। चंद्रशेखर अब तक प्रधान मंत्री बने नहीं थे और जब प्रधानमंत्री बने तब भी सूर्यदेव सिंह को अपना परम-मित्र ही माना और कहा भी। चंद्रशेखर से नजदीकी के कारण उनका राजनीतिक रसूख परवान पर था। 1977 में सूर्यदेव सिंह पहली बार झरिया से विधायक बने। 

उनकी मौत के बाद बच्चा सिंह उस सीट से विधायक बने। उसके बाद सूर्यदेव सिंह की पत्नी कुंती सिंह और अभी उनके बेटे संजीव सिंह झरिया से विधायक बने। सन 1977 से 2014 तक के विधान सभा चुनाव में झरिया विधान सभा सीट पर हमेशा सिंह मेंशन परिवार का ही कब्ज़ा रहा। केवल 1995 में राजद के टिकट पर आबो देवी को इस सीट से जीत मिल सकी थी। नवम्बर 1990 में जब चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे, तब वह सूर्यदेव सिंह से मिलने धनबाद आये थे। जून 15 सन 1991 में हार्ट अटैक से हुई उनकी मौत के बाद परिवार के बीच ही विवाद हो गया और सभी भाइयों के बीच वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई।  

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सूर्यदेव सिंह के निधन के बाद उनकी पत्नी कुंती देवी को लोगों ने धनबाद जिले के झरिया विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक बनाया। उनकी राजनीतिक जमीन झरिया में इतनी पुख्ता थी कि उनके बेटे संजीव सिंह को लोगों ने विधानसभा भेजा। सूर्यदेव सिंह का धनबाद में बना आवास सिंह मेंशन आज भी है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि सिंह मेंशन में रहने वाले पांच भाइयों में चार का कुनबा आज बिखर गया है। सूर्यदेव सिंह पांच भाई थे। विक्रमा सिंह अपने पैतृक गाँव बलिया में ही रह गये। जबकि राजन सिंह, बच्चा सिंह और रामधीर सिंह सूर्यदेव सिंह के साथ रहे। बाद में बच्चा सिंह ने सूर्योदय बना लिया तो राजन सिंह के परिवार ने रघुकुल। रामधीर सिंह का बलिया-धनबाद आना-जाना लगा रहा, लेकिन उनकी पत्नी इंदू देवी और बेटा शशि सिंह मेंशन में ही रहते हैं। 

सिंह मेंशन हमेशा सुर्खियों में रहा और कोयला कारोबार से लेकर राजनीति तक इस परिवार का दबदबा रहा। एक रिपोर्ट के अनुसार सियासत में मजबूत दखल का प्रमाण यह है कि धनबाद नगर निगम की कुर्सी इन्हीं परिवारों के बीच रही। धीरे-धीरे नीरज सिंह भी राजनीति में तेजी से उभरने लगे। पिछले विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस के टिकट पर झरिया से खड़े हुए थे, जबकि उसके चचेरे भाई संजीव सिंह भाजपा के टिकट पर।  इस चुनाब के बाद परिवार के बीच विवाद और खुलकर सामने आ गया। नीरज सिंह 2019 के लोकसभा चुनाव में खड़े होने वाले थे, लेकिन नीरज सिंह की हत्या करा दी गई। 

माना जा रहा है कि कोयले की लोडिंग प्वाईंट पर आउटसोर्सिंग कंपनियों पर कब्जे को लेकर हत्या हुई। आउटसोर्सिंग पर वर्चस्व के लिए बात-बात पर खून की होली खेली जाती है। यह भी कहा जाता है कि आउटसोर्सिंग कम्पनियां कमीशन के रूप में करोड़ों रुपए माफिया को देती हैं और इसके बदले माफियाओं द्वारा इनको सुरक्षा प्रदान की जाती है। यह भी कहा जाता है कि कोयलांचल में पदस्थापित पुलिस अधिकारियों की कमाई करोड़ों में होती है और ये धंधा बेरोकटोक चलता है।

एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार कोयलांचल में आठ बड़े गैंग में चार सौ करोड़ रुपए से भी अधिक की रंगदारी को लेकर खूनी खेल चलता रहता है। पिछले तीन दशकों में 350 से भी ज्यादा लोगों की हत्याएं माफियाओं ने कर दी, जबकि छोटे-छोटे प्यादे तो लगभग रोज ही मारे जाते हैं। कोयलांचल में 40 वैध खदाने हैं, जबकि इससे कहीं अधिक अवैध खनन। इन वैध खदानों से लगभग 1.50 लाख टन कोयले का उत्पादन होता है, जबकि इस उत्पादन में लोडिंग, अनलोडिंग और तस्करी में लगभग 400 करोड़ रुपए की रंगदारी माफिया के गुर्गे करते हैं। वैसे पिछले 50 साल से कोयलांचल में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है,  हर रोज एक छोटा गैंग उभरकर सामने आ जाता है। पर कोयलांचल में अभी भी ‘‘सिंह मेंशन’’ का ही दबदबा है, अब फर्क सिर्फ यह हो गया है कि सिंह मेंशन में भी बंटवारा हो गया और चारों भाईयों एवं उनके बेटों का अलग गैंग हो गया है। 

इतने समय के बाद भी, इतने पैसे के बाद भी, इतनी हत्याओं के बाद भी, इतने नेताओं की उपस्थिति के बाद भी धनबाद में कोई ‘आमूल’ परिवर्तन नहीं हुआ। जिस अधिकारी के सेवा काल में सूर्यदेव सिंह पर कमान कैसा गया, सैकड़ों अधिकारी आये, दर्जनों डिप्टी कमिश्नर बदले गए, दर्जनों पुलिस अधीक्षक आये-गए; सैकड़ों – हज़ारों नेता बने, कोई पटना एक्सपोर्ट हुए तो कोई रांची और कोई दिल्ली; लेकिन हमारे शहर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। आज भी गरीबी उतनी है है, आज भी कुत्तों के साथ जी बच्चे खाते हैं। पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेज पाते माता-पिता। इन सभी दृश्यों को अपने कैमरे में क्लिक-क्लिक करते, अख़बारों में छापते लगता जीवन गुजर गया, लेकिन उनके चेहरों पर आज तक हंसी नहीं देख पाया हूँ। 

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