आपको पता है रुसी साँड़ ‘कम्युनिस्ट’, अमेरिकी ‘पूंजीवादी’, हिंदुस्तानी ‘सफेदपोश’ होते हैं और बनारस में साँड़ को बधिया नहीं बनाया जाता 

बनारस में सांड़ 

बात कुछ वर्ष पहले की है। मैं तत्कालीन बिहार के दक्षिणायण, यानि धनबाद में सन 1988 में था। पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के मालिक-मुख़्तार यत्र-तत्र-सर्वत्र “लाल फीता” लटकाने लगे थे। राजा-महाराजा शब्द सरकार के शब्दकोष में समाप्त हो गए थे मुद्दत पहले। जो स्वम्भू मानते भी थे, उनके पास सिर्फ मुफ्त में मिली सम्पत्तियाँ थी पूर्वजों का अर्जित, मानसिकता और मानवीयता ऐसे लोगों में नहीं होती। घर में जहाँ चार रोटी, एक कटोरा दाल और एक सब्जी खाते थे माँ-बाबूजी-भाई-बहनों के साथ भरपेट।  परन्तु इस लालफीता के कारण न केवल थालियों में रोटियों की संख्या उत्तरोत्तर कम होती गयी, बल्कि पहले सब्जी हटी, फिर भर कटोरा दाल पेंदी तक सिमटने लगा। पेट भी बिना व्यायाम के सुटुकने लगा। सुवह-सुवह नित्य सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ याद आने लगे। 

इस क्रिया के कोई तीन दसक पूर्व बिहार के इन ऐतिहासिक अख़बारों – जिसे बिहार के लोगों की आवाज भी कहा जाता था – के संस्थापक बनारस के अधिष्ठाता के पास चले गए थे।  ऐसा लग रहा था की जैसे ही उनका शरीर पार्थिव हुआ, घर-परिवार के लोगबाग, गली-मोहल्ले के लोगबाग, दूर-दरस्त के सम्बन्धी सभी लपककर दौड़ पड़े, ताकि संपत्ति के बंटवारे में, हिस्सा मिलने में पीछे नहीं रह जायँ । उन्हें कोई चिंता तो थी ही नहीं की अखबार बंद होने का असर क्या होगा बिहार के परिवारों पर। आज तो पटना के किसी भी कोने में एक ईंट ढूंढ लीजिये, आपका नाम गिनीज बुक में दिखेगा। खैर, कहते हैं कि “लोभी गाँव में ठग कभी भूखा नहीं मरता और उसमें भी अगर मुफ्त में साम्राज्य मिले तो किसे ख़राब लगेगा। जिन्हे जाना था, वे तो आँख मूँद लिए। आनन्-फ़ानन में दाह-संस्कार भी कर दिया गया। खैर – ई बहुत शोध का विषय है। 

धनबाद में हीरापुर चौराहे के पास जो सड़क बिजली कार्यालय के सामने से उस क्षेत्र का बेहतरीन महिला कालेज एस एस एल एन टी महिला कालेज के मुख्यद्वार की ओर जाती थी, उसी सड़क पर मुख्य सड़क से 24-हाथ अन्दर दाहिने तरफ एक उप-समाहर्ता के निवास के आउट-हॉउस में रहता था। अंग्रेजों के ज़माने में इस आउट-हॉउस में अंग्रेजी अधिकारी के ड्राईवर रहते होंगे।  वजह यह था की कमरा के सरहाने में मोटर गाडी रखने का पर्याप्त जगह था। ऊपर छत के रूप में एस्बेस्टस का चादर था और उसके ऊपर गुल्लड़ का बृक्ष। सुवह-सवेरे-रात-दोपहर “एस्बेस्टस पर गिरते गुल्लड़ से विभिन्न प्रकार के स्वर-व्यंजन निकलते थे। कभी राग मल्हार तो कभी तबला का थाप  । बाद में तो पके गुल्लड़ से हम सभी चटनी और आंचार भी बनाकर खाने लगे। हमारे इस ऐतिहासिक आवास के सौ गज आगे उस शहर के छोटे साहेब का आशियाना था।  बिहार में राज्यपाल को “लाट साहेब” कहते हैं और जिलों में समाहर्ता को बड़े साहेब और पुलिस अधीक्षक को छोटे साहेब।  

कुछ वर्ष पहले सम्मानित उप-समाहर्ता का छोटका बेटा जो महादेव की नगरी में रहता है, उसे एक सांढ़ उठाकर पटक दिया, हुरपेट मारा। हाल-चाल पूछने के लिए जब फोन किया तो कहा कि लंका में एटीएम से पैसा निकाल कर जैसे ही बाहर आये, इलाका तो देखने में सन्नाटा दिखा, लेकिन पता नहीं कहाँ से एक   साँड़ सीधा हमला बोल दिया, हुरपेट दिया, उठाकर पटक दिया, हड्डी-पसली तोड़ दिया। वह एक सांस में सब कुछ बता दिया और मैं भी एक सांस में उसकी बातों को सुना।  फिर सांस छोड़ते कहा: “ई बनारस हव –   साँड़ के शहर, संभल के।” कई महीनों तक बिस्तर पर पड़ा रहा। लेकिन फिर उठकर समय से युद्ध प्रारम्भ किया और आज विजयश्री भी प्राप्त किया। 

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बहरहाल, बना रहे बनारस के संस्थापक सम्मानित श्री विश्वनाथ मुखर्जी साहेब की जय-जयकार करते बनारस के ‘साँड़’ से मतलब उस चौपाये से है, जिसे पूँछ तो रहती है, साथ ही त्रिशूल के फल की तरह दो सींग भी है, जिन्हें बधिया नहीं बनाया जाता। नगरपालिका की कूड़ा गाड़ी को कौन कहे, बैलगाड़ी अथवा हल में भी जो कभी जोते नहीं जा सकते। जो हर गली और हर सडक पर मस्ती के साथ झूमते हुए चलते हैं। जिन्हें दायें-बायें की कोई फ़िक्र नहीं रहती, जो दफा 144, कर्फ्यू अथवा मार्शल लॉ के कानून के पाबन्द नहीं हैं। ‘यह सड़क मरम्मत के लिए बन्द है’, ‘यहाँ मल-मूत्र करना मना है’—इन कानूनों का उल्लंघन करना जिनका जन्मसिद्ध अधिकार है, ऐसे ही एक दर्शनीय जीव को हम साँड़ के नाम से सम्बोधन करते हैं।

साँड़ एक ऐसी नस्ल का, एक ऐसी कौम का और ऐसे निरीह किस्म का जानवर है जो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में ही नहीं, बल्कि दुनिया के तमाम मुल्कों में पाया जाता है। फर्क सिर्फ रंग और डील-डौल का होता है। रूसी साँड़ चितकबरे और प्रकृति से कम्युनिस्ट होते हैं, अमेरिकी साँड़ बादामी रंग के पूँजीवादी टाइप के होते हैं, फ्रांसीसी जरा दुबले-पतले और नाजुक होते हैं। पाकिस्तानी साँड़ बुर्कापोश और हिन्दुस्तानी साँड़ सफेदपोश होते हैं। कहने का मुख्य मतलब यह है कि जंगल और मैदानी इलाकों में हर जगह हर किस्म के साँड़ पाये जाते हैं।

बहरहाल, दुनिया में पाये जानेवाले किसी भी स्थान से कहीं अधिक साँड़ बनारस में हैं। कम्युनिस्ट, पूँजीवादी, आतंकवादी, समाजवादी, गाँधीवादी और सर्वहारा—सभी प्रकार के साँड़ यहाँ घूमते रहते हैं। कहा जाता है कि तीन लोक में एक ही साँड़ था जिस पर बाबा विश्वनाथ सवारी करते थे। आज के जितने साँड़ सारे संसार में हैं, वे सब उसी साँड़ की औलाद हैं, जैसे आदम की औलाद आदमी और मनु के पुत्र मनुष्य दुनिया में बिखर गये हैं। काशी तीन लोक से न्यारी है। वह शेषनाग के फन पर अथवा शंकर के त्रिशूल पर स्थित है। चूँकि काशी बाबा की राजधानी है, जाड़े के दिनों में वे यहीं रहते हैं, गर्मी में पहाड़ पर आबोहवा बदलने चले जाते हैं, इसलिए यह जरूरी है कि साँड़ अपने मालिक के राज्य में काफी तादाद में रहें, क्योंकि ज़माना तटस्थ रहते हुए भी गुर्राहट और हमले की आशंका से भयभीत है। ऐसी हालत में पता नहीं, कब किसकी और कितनी संख्या में जरूरत पड़ जाए। यही कारण है कि काशी को अपना अस्तबल समझकर साँड़ इतनी आजादी से रहते हैं।

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इसके अलावा काशी में साँड़ों की अधिकता होने का दूसरा कारण यह है कि कुछ लोग बगैर इनकम टैक्स, सेल टैक्स और सुपरटैक्स अदा किये बेरोक-टोक शिवलोक जाना पसन्द करते हैं। मुमकिन है ऐसे ही शरीफों के लिए तुलसीदासजी ने काशी को मुक्ति, ज्ञान की खान कहा है। हर तरह के जरायम यानी हत्या करने के बाद भी काशी में चले जाइए। यह निश्चित है कि आपको मुक्ति मिल ही जाएगी, बशर्ते आप गोदान न कराकर अपने जीवित काल में ही वृषोत्सर्ग करा दें अथवा अपने वारिस को चेतावनी दे दें कि गया में पिंडदान, तेरही का भोज, बर्सी और गोदान भले न करें, लेकिन वृषोत्सर्ग अवश्य कर दें। इससे आपको दोहरा पुण्य लाभ होता है। पहला यह कि वृषोत्सर्ग से शिवलोक का रास्ता खुल जाता है, यह शास्त्रीय मत से पुण्य है। दूसरे एक बेचारे निरीह पशु को जिसे ये नरपिशाच बधिया बनाकर आजीवन किसी हल या बैलगाड़ी के नीचे जोत देते हैं, उसे मुक्ति मिल जाती है।

कहा जाता है बनारस नगरपालिका के किसी सदस्य ने एक बार यह सुझाव दिया था कि काशी की सडकों पर जो बहुत-से साँड़ लावारिस घूमते हैं उनका उपयोग कूड़ागाड़ी खींचने में किया जाए। इसकी सूचना काशी के साँड़ों को मिल गयी। एक दिन जब वे स्टेशन से घर वापस आ रहे थे तब दो साँड़ों ने उनकी ऐसी खातिर की कि बेचारे महीनों अस्पताल में पड़े रहे। इस घटना के बाद किसी सदस्य ने इन साँड़ों के प्रति आक्षेप नहीं किया। खैर, यह कहानी कहाँ तक सच है, कहा नहीं जा सकता। लेकिन यह स्पष्ट है कि नगरपालिका भूलकर भी कभी इनका उपयोग नहीं करती। दुनिया के तमाम चौपायों के लिए कांजीहौज का दरवाजा खुला रहता है, लेकिन इन साँड़ों के लिए खुला दरवाजा भी बन्द हो जाता है। अगर कहीं आँख बचाकर चले भी गये तो मारकर भगा दिये जाते हैं।

दो-चार साँड़ों को छोडकर, जो ग्वाल के खास हैं, बाकी सभी दगे हुए साँड़ वास्तव में बनारसी साँड़ हैं। यों मनौती मनानेवाले बकरे का भी कान काटकर छोड़ देते हैं। वृषोत्सर्ग किये साँड़ों के पीठ पर छोटा त्रिशूलवाला लोहा दागकर छोड़ा जाता है। बकरा छोड़ देने के बाद कुछ दिनों तक इधर-उधर दिखाई देता है, फिर कहीं गायब हो जाता है। लेकिन साँड़ों की संख्या ज्यों-की-त्यों बनी रहती है। बनारस यदि पाकिस्तान में होता तो शायद साँड़ों की संख्या इतनी न होती।

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काशी के साँड़ों की पूजा होती है। शिव-वाहन होने के कारण ही वे पूज्य हैं। क्योंकि उनकी पीठ पर कूबड़ के रूप में स्वयं शिव जी विराजमान रहते हैं। जो साँड़ जितना मोटा होगा, उसका कूबड़ उतना ही बड़ा होगा। इनसान को भले ही खाने को न मिले, लेकिन इन्हें फल, मीठा और फूल खिलाया जाता है। बाकायदे पाँव दबाये जाते हैं, नमस्कार किया जाता है। जैसे किसी मन्त्री से काम निकालने के लिए उनके प्राइवेट सेक्रेटरी की खातिर की जाती है ठीक उसी प्रकार शिव भक्ति का प्रदर्शन साँड़ों के जरिये किया जाता है। कुछ ऐसे भी साँड़ हैं जो भोजन न पाने पर किसी … में घुस जाते हैं, भर पेट न सही, भर मुँह अवश्य खा लेते हैं। खोमचों वालों का थाल उलट देना, किसी होटलवाले के यहाँ मेहमान बन जाना मामूली बात है। मजा यह कि इतना होने के बावजूद इन्हें सजा नहीं दी जाती।

जब किसी साँड़ को लड़ने की इच्छा होती हैं तब वह गधे की तरह चिल्लाता नहीं। एक मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि गधे हर घंटे पर इस तरह चिल्लाते हैं कि जनता को समय का अन्दाजा लग जाए। लेकिन साँड़ उस समय गरजेगा जब उसका सिर खुजलाएगा। किसी गली की मोड़ पर आकर गरज उठेगा अर्थात ‘है कोई लड़ने वाला’? अगर उस गली में कोई हुआ तो एक बार निगाह उठाकर गरजनेवाले की ओर देखेगा। अगर वह यह समझ जाता है कि मैं इसे पछाड़ दूँगा तो वह विपक्षी से भी तेज आवाज में गरज उठेगा—‘आओ बेटा, एक हाथ हो जाए’। वरना चुपचाप चल देगा। कभी-कभी दो साँड़ सड़क के दोनों ओर से केवल फुँकारते हुए गुजर जाते हैं, दोनों ही एक-दूसरे को पहलवान समझते हैं, लेकिन एक दूसरे की बेइज्जती करना नहीं चाहते।

अगर लड़ने की इच्छा हुई तो एक बार फुत्कारा और खटाक् से, जैसे दो प्रेमियों की आँखें या दिल आपस में टकरा जाते हैं, इसके बाद आगे-पीछे खिसकते रहते हैं, उस समय सारा आवागमन रुक जाता है। यदि कोई साँड़ कमजोर होता है और भागने की फिक्र में रहता है तो दूसरा ज्यों ही यह भाँप लेता है त्यों ही जहाँ मौका मिला सींग से मारना शुरू कर देता है। अगर उस समय ‘हुर्र छे’ की आवाज़ हुई तो कायर साँड़ भी शेर बन जाते हैं। इस तरह इनकी लड़ाई केंचुए-सी लसड़-पसड़ चलती रहती है और तब तक चलती है जब तक कि दोनों लहू-लुहान न तो जाएँ। बहादुरी और ज़िन्दादिली के ये जीते-जागते प्रतीक हैं।

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