उस दिन दरभंगा राज को बिस्मिल्लाह खान का श्राप लग गया 😢

शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

👁यह तस्वीर आज से 49-वर्ष पूर्व की है। स्थान है #रामबागपैलेस, दरभंगा और अवसर है कुमार जीवेश्वर सिंह की बड़ी बेटी सुश्री कात्यायनी जी का विवाह। यह तस्वीर शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की है। बिस्मिल्लाह खान कभी भी दरभंगा राज के महाराजाओं, महारानियों के सामने गर्दन नहीं उठाये – उनके सम्मानार्थ। अपनी शहनाई की ‘रीड’ और ‘पोली’ से अपनी साँसे फूंक कर, शहनाई की धुन से दरभंगा के लाल किले के अंदर रहने वाले लोगों का सम्मान करते रहे अपनी अंतिम सांस तक 🙏 लेकिन उस दिन दरभंगा राज को बिस्मिल्लाह खान का श्राप लग गया 😢

आप माने अथवा नहीं। उस दिन भले भारत के शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान “भारत रत्न” से अलंकृत नहीं हुए थे, लेकिन उनकी आत्मा से निकली आवाज दरभंगा के लाल किले की ईंट को हिला दिया। वहां उपस्थित मिथिलाञ्चल के विद्वानों, विदुषियों के बीच इधर ‘उस्ताद की शहनाई’ और ‘मंगल ध्वनि’ का अपमान हुआ, उधर दरभंगा राज की कुल-देवता ‘रूठ’ गईं। राजा महेश ठाकुर से लेकर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह तक दरभंगा राज के 20 राजाओं, महाराजाओं द्वारा 410-साल की अर्जित संपत्ति और शोहरत सुपुर्दे ख़ाक की ओर अग्रसर होने लगी। कहाँ भगवान्, कहाँ भगवती, कहाँ पूजा, कहाँ पाठ, कहाँ प्रसाद, कहाँ आरती, कहाँ पंडित, कहाँ पुरोहित – सभी समाप्त हो गए। मंदिर की घंटी की आवाज शांत हो गई। शंखनाद समाप्त हो गया। शायद आप विश्वास नहीं करेंगे – परन्तु सच यही है। अक्षरों के “अधिपति” “प्रथम-पूज्य” और माँ सरस्वती भी परिसर से बाहर निकल गई। कभी फुर्सत हो तो आराम से विचार करेंगे।

आज से कोई 49-वर्ष पूर्व सन 1974 में भारत के शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान दरभंगा किले के अंदर अपनी साँसों को रोकते, शहनाई की धुन को कुछ पल ‘वाधित’ करते दरभंगा राज के तत्कालीन सभी ‘धनाढ्यों’ के सम्मुख, वहां उपस्थित मिथिलाञ्चल के तथाकथित ज्ञानी-महात्माओं के सम्मुख बिना किसी भय के कहते हैं: “मैं राजा बहादुर की शादी में शहनाई बजाया, मैं युवराज (राजकुमार जीवेश्वर सिंह) के विवाह में शहनाई से नई बहु का स्वागत किया। आज उसी शहनाई के धुन से युवराज की सबसे बड़ी बेटी (कात्यायनी देवी) की मांग में उसके शौहर (प्रोफ़ेसर अरविन्द सुन्दर झा) द्वारा सुंदर भरते समय सुखमय जीवन का आशीर्वाद देता हूँ और आज से यह प्रण लेता हूँ कि आज के बाद कभी दरभंगा राज परिसर में, इस लाल किले के अंदर नहीं आऊंगा, कभी शहनाई नहीं बजाऊंगा। आज महाराजाधिराज के लिए, राजाबहादुर के लिए मन ब्याकुल हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति खल रही है। आज उनके बिना रोने का मन कर रहा है। आज इस भूमि पर उन दो महारथियों की अनुपस्थिति ने संगीत की दुनिया को अस्तित्वहीन महसूस कर रहा हूँ। आज शहनाई का मंगल ध्वनि बिलख गया है। आज युवराज को देखकर दरभंगा राज का भविष्य देख रहा हूँ। इस लाल किले की दीवारों के ईंटों से सरस्वती जाती दिख रही हैं। इस दीवार का रंग और भी लाल होना इसका प्रारब्ध है। आज बड़ी महारानी को छोड़कर कोई भी बिस्मिल्लाह खान की शहनाई को देखने वाला, पूछने वाला, समझने वाला नहीं रहा …… और वे फ़ुफ़क फ़ुफ़क कर रोने लगे।”

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उनकी साँसे जिस रफ़्तार से ”रीड” के रास्ते ”पोली” होते हुए ”शहनाई” तक पहुँच रही थी, और जिस प्रकार का धुन निकल रहा था, वह न केवल महाराजाधिराज, राजाबहादुर और युवराज के लिए समर्पण था, बल्कि जीवन में कभी फिर दरभंगा के उस लाल किले में पैर नहीं रखने का वादा भी था। मंगल ध्वनि बजाने वाला वह नायक अपने शब्दों पर जीवन पर्यन्त खड़ा उतरा – कभी पैर नहीं रखा।

शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

बिस्मिल्लाह खान अपनी शहनाई से राजकुमार जीवेश्वर सिंह और उनकी प्रथम पत्नी श्रीमती राजकिशोरी जी की पहली बेटी कात्यायनी देवी का विवाह संस्कार में मङ्गल ध्वनि बजा रहे थे । सुश्री कात्यायनी की शादी अरविन्द सुन्दर झा से हो रही थी। वैसे श्रीमती राज किशोरी जी के जीवन काल में ही कुमार के जीवन में एक और महिला आयी जिनसे पांच बेटियां – नेत्रायणी देवी, चेतना, द्रौपदी, अनीता, सुनीता – हुई, लेकिन बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की मङ्गल ध्वनि नहीं बजी।

महाराजाधिराज के समय में या उसके पूर्व भी दरभंगा और दरभंगा राज, भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रमुख केंद्रों में से एक था । दरभंगा राज के राजा संगीत, कला और संस्कृति के महान संरक्षक थें। दरभंगा राज से कई प्रसिद्ध संगीतकार जुड़े थे। उनमें प्रमुख थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, उस्ताद गौहर जान, पंडित राम चतुर मल्लिक, पंडित रामेश्वर पाठक, पंडित सियाराम तिवारी इत्यादि। दरभंगा राज ध्रुपद के मुख्य संरक्षक थे, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक मुखर शैली थी। ध्रुपद का एक प्रमुख विद्यालय आज दरभंगा घराना के नाम से जाना जाता है। आज भारत में ध्रुपद के तीन प्रमुख घराने हैं: डागर घराना, बेतिया राज (बेतिया घराना) के मिश्र और दरभंगा (दरभंगा घराना) के मिश्र।

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कहा जाता है कि महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह एक अच्छे सितार वादक थें। इतना ही नहीं, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कई वर्षों तक दरभंगा राज के दरबारी संगीतकार भी रहे। उन्होंने अपना बचपन दरभंगा में बिताया। महाराजा और राजा बहादुर के अलावे कुमार जीवेश्वर सिंह उनके बचपन के मित्र थे। दरभंगा राज ने ग्वालियर के नन्हे खान के भाई मुराद अली खान का समर्थन किया। मुराद अली खान अपने समय के सबसे महान सरोद वादकों में से एक थे। मुराद अली खान को अपने सरोद पर धातु के तार और धातु के तख्ती प्लेटों का उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति होने का श्रेय दिया जाता है, जो आज मानक बन गया है। इतना ही नहीं, कुंदन लाल सहगल महाराजा कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा विश्वेश्वर सिंह के मित्र थे। जब भी दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिले, गजल और ठुमरी की बातचीत और गायन के लंबे सत्र देखे गए। कुंदन लाल सहगल ने राजा बहादुर की शादी में भाग लिया, और शादी में अपना हारमोनियम निकाला और “बाबुल मोरा नैहर छुरी में जाए” गाया।

कहा जाता है कि दरभंगा राज का अपना सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और पुलिस बैंड था। मनोकामना मंदिर के सामने एक गोलाकार संरचना थी, जिसे बैंड स्टैंड के नाम से जाना जाता था। बैंड शाम को वहाँ संगीत बजाता था। आज बैंडस्टैंड का फर्श अभी भी एकमात्र हिस्सा है। लेकिन आज दरभंगा राज में संगीत को समझने वाला, सुनने वाला कोई नहीं है। बिस्मिल्लाह खान उन दिनों मल्लिक जी के घर पर रहे थे। आज क्या संगीत, क्या घराना – आज तो राज दरभंगा में कुछ और ही संगीत बज रहा है – संपत्ति का, दौलत एकत्रित करने का। संस्कृति और संस्कार अब नहीं है।

उससे भी बड़ी बात, छोटा कुमार, यानी कुमार शुभेश्वर सिंह को संगीत-शिक्षा से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। कहा जाता है कि जब कोई संगीतज्ञ उनके ज़माने में भी रामबाग परिसर आते थे, तो वे निजी तौर पर खुद कभी बाहर निकलकर उनका स्वागत या सम्मान नहीं करते थे। कभी किसी नौकर को भेज दिए तो कभी किसी जी-हुजूरी करने वाले को। जबकि महाराजाधिराज या राजबहादुर या फिर बड़ी महारानी के समय काल में संगीतज्ञ, विद्वानों की बात छोड़िये, कोई भी साधारण मनुष्य उनके सामने बहुत सम्मानित होता था। आज “सम्मान” शब्द का महत्व दरभंगा राज परिसर में नहीं है।

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कहते हैं दरभंगा राज का पतन का कारण जो भी हो, बिस्मिल्लाह खान का शब्द दरभंगा राज का ईंट हिला दिया। इसके अलावे राज परिवार में शिक्षा का पतन भी मूल कारण रहा । शिक्षा एक तरफ़ा रहा। महाराजाधिराज, राजाबहादुर तक दरभंगा राज में शिक्षा “कुछ पुरुषों” तक ही सीमित रहा। यह अलग बात है कि उस समय भी “पर्दा-प्रथा” का प्रचलन था, लेकिन देश के अन्य भागों के राजा-महाराजाओं के परिवार, उनके बाल-बच्चों, महिलाओं की तुलना में दरभंगा राज में शिक्षा को जीवन का मूल-मन्त्र नहीं समझा गया। महिलाओं में शिक्षा की तो बात ही नहीं करें। पुरुषों में भी कुमार जीवेश्वर सिंह की शिक्षा कुछ अलग थी, कुछ आधुनिक भी थी। उनके अनुज को अपने जीवन के प्रारंभिक अवस्था से ही शिक्षा का महत्व नहीं रहा। घर-परिवार के लोग भी शिक्षा को कभी महत्व नहीं दिए। यहाँ तक सबसे छोटे कुमार यानी कुमार शुभेश्वर सिंह पढ़े-लिखे थे भी या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है।

ज्ञातव्य हो कि भारत में शिक्षा के क्षेत्र के विकास में दरभंगा के महाराजाओं, महाराजाधिराज की भूमिका भले अक्षुण हो, दरभंगा राज के चहारदीवारी के बाहर महाराजाधिराज चाहे शिक्षा के क्षेत्र में जो भी भूचाल लाये हों, जितने भी महत्वपूर्ण कार्य किये हों; चहारदीवारी के भीतर अपने ही परिवार की महिलाओं को आधुनिक शिक्षा, आधुनिक सोच से वंचित रखे। इसे पर्दा प्रथा नहीं माना जायेगा। यह आधुनिकता से बहुत पीछे होने का संकेत था। फिर भी कोई सचेत नहीं हुए। कभी यह महसूस नहीं किया गया कि महिलाओं में भी शिक्षा का विकास होना चाहिए।

बहरहाल, मुझे अपने आप पर, अपने प्रयास पर, अपने माता-पिता द्वारा प्रदत संस्कार पर फक्र है, गर्व है। मिथिला के कोई साढ़े तीन करोड़ आबादी में हम (मेरी पत्नी, मेरा पुत्र और मैं) अकेला परिवार हैं, हमारा प्रयास अकेला था जो उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के जीवन के अंतिम वसंत में, उनकी अंतिम सांस के समय खड़े थे। यही कारण है कि जिस दिन उस्ताद बिस्मिल्लाह खान बनारस के हेरिटेज अस्पताल में अंतिम सांस लिए, भारत का प्रमुख संवाद एजेंसी ‘प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया’ द्वारा लिखित और प्रसारित मृत्यु-लेख में 72 शब्द हमारे बारे में था – यह सम्मान दरभंगा के महाराजाधिराज को समर्पित🙏

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