हिंदी पत्रकारों को ‘चमचा’ नहीं, ‘काँटा’ बनना होगा, अन्यथा ‘अंग्रेजी’ पत्रकार ‘ब्रितानिया’ सरकार जैसा कब्ज़ा कर लेंगे।

हिंदी पत्रकारों को 'चमचा' नहीं, 'काँटा' बनना होगा, अन्यथा अंग्रेजी पत्रकार ब्रितानिया सरकार जैसा कब्ज़ा कर लेंगे।

विगत दिनों ‘जनसत्ता’ अखबार के मूर्धन्य पत्रकार और वर्तमान में अनुवाद कम्युनिकेशंस के अधिष्ठाता संजय कुमार सिंह लिखित कुछ शब्द फेसबुक पर पढ़ा। उस लेख में मूलतः दो पत्रकारों द्वारा एक छोड़ से दूसरे छोड़ पर फोन पर बातचीत हो रही थी। वाचक की छोड़ से आने वाले प्रत्येक शब्द में वेदन, रुदन, त्रादसी तो थी। अगर मोबाईल के रास्ते नाक और आँख से निकलने वाले जल का आवागमन होता, तो शायद श्रोता के छोड़ पर बाल्टी में पानी एकत्रित हो जाता। वेदना का मूल सार था – अवकाश प्राप्त हिंदी पत्रकार अपने जीवन के अंतिम बसंत कैसे जिएं ?

संजय सिंह लिखते हैं: “छह आठ महीने पहले एक अनजान नंबर से फोन आया था। फोन करने वाले ने पूछा कि संजय जी आपका नंबर मेरे पास काफी समय से सेव है मैं पहचान नहीं पा रहा हूं कि आप कौन हैं। सभ्य और बुजुर्ग सी आवाज थी तो मैंने अपना परिचय बता दिया। उन्होंने भी अपना नाम और हाल-चाल सब बताया। मैंने उनका नंबर सेव कर लिया। लंबी बात हुई। मैं भी रिटायर, बेरोजगार की ही श्रेणी में हूं सो अच्छा ही लगा। उसके बाद शायद दो बार या एक ही बार फोन आया था। हालचाल और पत्रकारिता राजनीति पर बात हुई। रिटायरमेंट के बाद बुढ़ापे में परेशानी झेल रहे हैं वह भी मुद्दा था। बच्चों के बारे में मैंने पूछा नहीं, उन्होंने बताया नहीं या बताया भी हो तो मुझे याद नहीं है। पर वे साथ नही रहते हैं। शायद खबर भी नहीं लेते हैं या हों ही नहीं।

आज फिर उनका फोन आया था। रुआंसे लग रहे थे। मैंने उत्साहपूर्वक बात कर स्थिति समझने और संभालने की कोशिश थी। अंदाजा तो था पर मैं भी किसी की कितनी मदद कर सकता हूं। बातचीत में उन्होंने कहा कि कई दिनों बाद आज ठीक से खाना खाया हूं। चूंकि नियमित खाना नहीं खाता इसलिए खाना था भी तो खा नहीं पाया और ऐसी ही बातें। काम नहीं है। तुम्हारा काम कैसा चल रहा है आदि। अंत में उन्होंने कहा कि किसी से कुछ पैसे दिलवा सको तो दिला दो। मैंने उनसे उनका शहर पूछा। बातचीत में जिन नामों की चर्चा आई थी उनसे बात करने के लिए कहा। पर वे यही कहते रहे कि कितना मांगू। सब से मांग चुका हूं। शर्म आती है। और फलां तो फोन भी नहीं उठाता। उसके पास काम हैं, पैसे होंगे तो व्यस्त रहता है। उससे बात नहीं हो पाती। आदि आदि। मतलब संकट सिर्फ अभी का नहीं है।

कुछ पैसे मैं उन्हें अभी दे दूं तो फिर अगली बार वो मुझसे मांगने में हिचकेंगे या दो-चार बार मैं दे दूं तो मुझे ही फोन उठाना बंद करना पड़ेगा। क्या गोबर पट्टी में जहां हिन्दी वालों की और भिन्न पार्टियों की सरकार है। पत्रकारों को खिलाने-पिलाने को बुरा नहीं माना जाता रहा है वहां किसी बूढ़े-बुजुर्ग पत्रकार के लिए कोई व्यवस्था नहीं हो सकती है? अगर सरकार नहीं कर रही हैं तो कौन करेगा? क्या यह हमारा काम और हमारी जिम्मेदारी नहीं है? हो सकता मुझे जरूरत ना पड़े पर क्या मुझे अपने बुढ़ापे में किसी साथी की मदद न कर पाने का अफसोस नहीं रहे इसके लिए अभी कुछ नहीं करना चाहिए। किसी एक साथी की मदद करने से कब तक काम चल पाएगा। मुझे लगता है कि रिटायर, बुजुर्ग या अक्षम पत्रकारों के लिए कुछ किया जाना चाहिए। फिलहाल तो उक्त पत्रकार को भी सहायता की जरूरत है।

क्या हम कुछ करेंगे या ताली-थाली ही बजाते रहेंगे। जो पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं वही कुछ दान सुख प्राप्त कर लें। चारण पत्रकारिता की स्थायी -कमाऊ व्यवस्था कर दें जिससे साथियों का जीवन आराम से निकल सके। जिनका समय निकल गया वो तो अब अफसोस ही कर सकते हैं। हमारी अपनी स्थिति वैसी ही नहीं हो यह कैसे तय होगा? पहले लोकोपकार करने वाले बहुत सारे लोग और संस्थाएं होती थीं। अब सब पीएम केयर्स में समाहित है। विदेशी दान उड़ाने की संभावनाओं पर सरकार की नजर है। ऐसे में यह काम करना तो सरकार को ही चाहिए पर सरकार के समर्थक करवा सकते हैं या इसे गैर जरूरी बता सकते हैं?” खैर।

मेरी जिंदगी अख़बारों के पन्नों के बीती हैं। उन दिनों पटना में प्रकाशित अख़बारों की कीमत छः पैसे से 15 पैसे के बीच ही कुस्ती-कबड्डी करती थी। वजह भी था – मालिक को समाज का सरोकार था और वह बनिया जाति से नहीं आते थे । जीवन के प्रारंभिक दिनों में पटना की सड़कों पर कभी अपने कन्धों पर, तो कभी साईकिल के हैंडिल और कैरियर पर, अख़बारों को बांधकर, रखकर अख़बारों के थोक विक्रेता के रास्ते प्रकाशक से पाठक तक पहुँचाया हूँ। स्वतंत्र भारत में हिंदी के मूर्धन्य ज्ञानी-महात्मा उसे ‘अखबार विक्रेता’ कहते हैं; जबकि अंग्रेजी साहित्य के विशारद ‘हॉकर’।

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बात साठ के दशक के उत्तरार्ध और सत्तर के दशक के मध्य की है। उन दिनों पटना ही नहीं देश के किसी भी शहर की सड़कों पर न तो कुकुरमुत्तों की तरह पत्रकार जन्म लिए थे, और ना ही पत्रकारों मालिकों के द्वारा, शासन-प्रशासन के द्वारा, सत्ताधारियों के द्वारा उनका मानसिक-आर्थिक-बौद्धिक बलात्कार ही होता था। विदेशी मुद्राओं द्वारा भारतीय मुद्राओं का भी बलात्कार प्रारम्भ नहीं हुआ था। भारतीय मुद्रा भी पटना के सड़कों पर, कालिदास रंगालय में बेखौफ ‘कत्थक नृत्य’ करते थे। परिणाम यह था की गरीब भी अमीरों के सामने अपने 56 इंच सीने को 66, 76 इंच बनाकर दिखाने में तनिक भी हिचकी नहीं लेते थे। गरीब और धनि समाज में थे तो जरूर उन दिनों भी, लेकिन 36 का आंकड़ा शब्दकोष में दीखता नहीं था।

जब कदमकुंआ वाले लालाजी, आप उन्हें जयप्रकाश नारायण भी कहें (पटना के नेता तो उन्हें लोकनायक’ कहते नहीं थकते) पटना की सड़कों पर आंदलन का नेतृत्व किये, हमारी तो निकल पड़ी। टीवी का जमाना नहीं था। सोशल मीडिया भारतीय मीडिया घरानों के गर्भ में पनपा भी नहीं था । न तो समाज ‘स्मार्ट’ हुआ था और ना ही ‘शहर’ – क्योंकि नेताओं की सोच कोइलवर से आगे दिल्ली की ओर नहीं निकली थी। वह तो सम्मानित प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी को धन्यवाद दीजिए कि ‘दिव्यांग’ शहरों को भी ‘स्मार्ट’ शहर बनाकर धन्य-धान्य कर दिए। नारा भी बुलंद कर दिए – सोच बदलो , देश बदलेगा।

अब उन्हें कौन समझाए कि भूखा पेट तो भगवान् का भी भजन नहीं होता, भूखा पेट पत्रकार क्या लिखेगा, समाज का सोच क्या बदलेगा ? लेकिन सम्मानित प्रधानमंत्री जानते थे कि उन्हें अब पत्रकारों की कोई जरुरत नहीं हैं, भारत सरकार में भी पत्र और सूचना कार्यालय की जरूरत नहीं है – क्योंकि वे खुद एक पत्रकार हैं। खुद प्रेस रिलीज बनाते हैं, अपनी बातें लिखते हैं, अपनी तस्वीरों के साथ ‘ट्वीट’ कर देते हैं। भारत स्थित मीडिया घरानों के मालिकों, उसमें कार्य करने वाले पत्रकारों को लपकना है तो लपक लो, छापना है तो छाप लो – क्योंकि उनके करोड़ों अनुयायी हैं।

स्थिति बद से बत्तर तब हो गयी, जब अंग्रेजी माध्यम के पत्रकारों ने अंग्रेजी मीडिया घरानों को ‘नमस्कार’ कर ‘हिंदी’ बोलने लगे, ‘बतियाने’ लगे और हिंदी मीडिया में ढुकने लगे। अंग्रेजी पत्रकारों की एक आदत हिंदी अख़बारों के मालिकों पर बहुत भारी पड़ा – उन्हें प्रभावित करने में। अंग्रेजी अखबार वाले ‘कमर’, ‘कन्धा’ अधिक हिलाते हैं। बीड़ी नहीं पीते चाहे क्रेडिट कार्ड पर लोन लेकर ही सिगरेट पीना पड़े, फ़िल्टर वाला। सड़क के किनारे चाय की दूकान पर बैठकर चाय नहीं पीते। मोदी जी अपने बचपन में जिस चाय की दूकान पर काम करते थे, उसके बारे में बेहतरीन शब्दों का विन्यास कर, लिखकर उसे भी बेच देते हैं, क्योंकि अंग्रेजी मीडिया घरानों के पत्रकारों पर बनिया मालिकों का विशेष प्रभाव होता है। विश्वास नहीं हो तो पटना के अशोक राज पथ से लेकर डिक्की के राजपथ तक भ्रमण-सम्मलेन कर आंक लीजिये।

हिंदी मीडिया घरानों के मालिकों को कन्धा-कमर हिलाकर, उन्हें पत्रकारिता के साथ घर के लिए आलू, पियाज, मटर, साग-सब्जी लाने के साथ-साथ ‘स्मार्ट शहरों के आलीशान होटलों में बैठकर शराब पीने का भी मार्ग बना लेते हैं। यानी हिंदी मीडिया घरानों पर अंग्रेजी हुकूमतों का कब्ज़ा हो जाता है। इसका मूल कारण यह है कि हिंदी मीडिया घराने के मालिक चाहे खरबपति क्यों न हों, वे “इंट्रोवर्ट” होते हैं।

ये सब कार्य ‘शिष्टता’ से भी हिंदी मीडिया घरानों में कार्य करने वाले हिंदी में बोलने-बतियाने वाले पत्रकार ‘स्टाईल’ से नहीं कर पाते। अगर कमर और कन्धा हिलाने की कोशिश किये भी तो शरीर के 206 हड्डियां में कोई न कोई खिसक जाती है। अब सब तो ‘समूह’ में विश्वास करते हैं कि जब तक अंतिम सांस नहीं ले लेंगे तब तक न तो मीडिया को छोड़ेंगे और ना ही ‘डिमॉनेटाइजेशन’ के बाद भी भारतीय मुद्रा के आगमन श्रोत का मार्ग अवरुद्ध करेंगे। कभी मौका मिले तो ऐसे महान पत्रकारों से वार्तालाप अवश्य कर लें – ज्ञान का पिटारा है इनके पास। लेकिन व्यवहार में दूसरे की थाली को भी छीन कर बिना डकार लिए गटकने में कोई कसर नहीं छोड़ते। खैर।

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पिछले दिनों हिन्दी के एक लेखक एक जलेबी की दूकान पर गए। लेखक ने दुकानदार से कहा: “पाँच जलेवी देना भैय्या।” दुकानदार बोला: पन्द्रह रुपये देना। लेखक बहुत ही मायूसी के साथ दूकानदार को कहते हैं: मैं तो सिर्फ चार शब्द में याचना किया, और इन चार शब्दों को जब मैं लिखकर किसी पत्र-पत्रिका या कारपोरेट घरानों में हिंदी नहीं जानने वाले पैजामा का नारा पकडे अधिकारी को दूंगा, तो वे मुझे ३० पैसे प्रतिशब्द के हिसाब से (वह भी बहुत याचना के बाद) भुगतान करेंगे, यानी मुझे १ रुपये २० पैसे मिलेंगे। मैं इन पांच जलेबी के लिए पन्द्रह रुपये कहाँ से लाऊंगा ? दुकानदार लेखक की स्थिति को समझते हुए लेखक के हाथ में “एक पाव जलेवी” रखते कहता है: “तभी तो हिन्दी साहित्य की माँ – बहन हो रही है। 

वह तो धन्यवाद दीजिये  जिस समय रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, मधुशाला, अलंकार, आनन्द मठ, एक गधे की वापसी, गबन, गोदान, गोरा, निर्मला, कबुलीबाला, जीना तो पड़ेगा, अंधायुग, मुद्रा राक्षस उखड़े खम्बे आदि कहानियों, कविताओं की रचना की गई, उन दिनों भारतीय भाषाओँ में लेखक, लेखनी और शब्दों की कीमत थी । लेकिन आज आज़ादी के 75 वर्ष बाद, जबकि देश में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, भारतीय मुद्राओं का मोल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लुढ़का, बल्कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओँ के शब्दों की कीमत तो लुढ़की ही नहीं; लोगों ने तो उसे “चरित्रहीन” बना दिया नहीं तो आज अपने ही देश में, अपनी ही भाषा २० पैसे से ३० पैसे प्रतिशब्द कैसे बिकती। बाजार में क्रेताओं की संख्या तो भरमार है ही, लेखकों की तो बाढ़ से है – बारहो महीना, छतीसो दिवस। वैसी स्थिति में “मेरे प्यारे देश! देह या मन को नमन करूँ मैं ? किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं? 

हिंदी के पत्रकार इस बात को मानते हैं कि हिन्दी में लिखने की संभावना बहुत कम है और लिखने के पैसे तो नहीं के बराबर हैं। इसलिए कई लोग जो ‘बाममार्गी’ थे, वे दक्षिणपंथी’ हो गए, कई ‘मध्यमार्ग’ अपना लिए। लिखने में एक बड़ा झंझट यह है कि आपके नाम से छपेगा। पाठक वही होंगे। इसलिए कोई भी बहुत ज्यादा नहीं छापेगा। जब अच्छे पैसे मिलते थे तो एडिट पेज के एक लेख के 1000 रुपए मिलते थे। महीने के चार-छह हजार में क्या होता है। और जो इतने पैसे देता था वो इतना बिकता था कि आप कहीं और नहीं लिख सकते थे। उन दिनों बैंक में खाता खोलना आसान था। किसी भी नाम से खाता खुल सकता था। हम लोग दो-चार नाम से लिखते थे। रेडियो से भी पैसे मिलते थे और अनुवाद भी करता था। सब मिलाकर चल जाता था। अब काम लगातार कम हुआ है। दूसरे नाम से खाता ही नहीं खुलेगी। आयकर और जीएसटी के नियमों का उल्लंघन है। इसलिए संभावना लगातार कम हुई है जबकि काम करने वाले बढ़े हैं। नौकरियां भी कम हुई हैं। जहां पहले 50 लोग होते थे वहां 10 हैं वो भी सस्ते वाले। पुराने अनुभवी लोग बेरोजगार हैं। सस्ते या मुफ्त में काम करने के लिए तैयार। इसलिए यह हाल हुई है। 

यदि देखा जाय तो हिंदी का गला घोटने का प्रयास आज़ादी के बाद से लगातार किया जाता रहा है। जिम्मेदार लोगों द्वारा, अंग्रेजी अनिवार्यता कई परीक्षाओं से लेकर योग्यता का एक अनुचित मापदंड आज भी बनी हुई है। भारतीय समाज में, ऐसे में हिंदी भाषा का जो भी उत्कर्ष हो सका हैं वो इसके अपने विशाल पाठक वर्ग व बड़ी आबादी की बोलचाल की भाषा होने से हो सका हैं जिसके मूल में कहीं न कहीं बाज़ारवादी मजबूरी भी हैं जिसमें ग्राहक की रुचि,भाषा आदि सर्वोपरी हैं! लेकिन बड़ा प्रश्न ये हैं कि हिन्दी लेखन को प्रोत्साहन देना आवश्यक हैं आर्थिक व जनजागरण दोनों स्तर पर क्योंकि हिंदी पत्र पत्रिकाओं में लेखन पर जो पारिश्रमिक दिया जा रहा हैं वो बेहद कम हैं।  इससे न तो हिंदी बचेगी और ना ही लेखक। इतना ही नहीं, हिंदी भाषा प्रेमियों और मर्मज्ञों की उदासीनता के चलते भाषा की मूल आत्मा अपने स्वरूप को खो देगी, वैसे भी देवनागरी लिपि को आज हिंगलिश लिपि सोशल मीडिया के दौर में अतिक्रमण कर रही है। 

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हिंदी के प्रबुद्धों का कहना है कि हिंदी वालों का सबसे ज्यादा शोषण किया हैं। हिंदी गुटबाजी से निकले तो कुछ हो, नए लोगों को कोई प्रोत्साहित करे तो कुछ हो। आजकल तो एक गुट नयी हिंदी का भी नारा लगाने लगी है, यहाँ भी बंटवारा! सबको मुफ्त में लिखने वाले चाहिए। हिंदी वाले केवल उसी को पैसा देते हैं जो पहले से ही समर्थ और समृद्ध या लोकप्रिय है। बेडा गर्क करके रखा है! लेकिन, उम्मीद है कि ये हालत बदलेंगे! हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं। 

इनके अलावा जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है वह यह कि इनके द्वारा लेखकों को कितना भुगतान किया जा रहा है । आजकल जैसा कि देखने में आ रहा है, पाठकों की तुलना में लेखकों की संख्या में अपार वृद्धि हुई है । और यही कारण है कि पत्र पत्रिकायें ज्यादा शब्द समृद्ध लोगों से लिखवाने से बच रहे हैं और जिनसे लिखवाया जा रहा है, उनको बीस से तीस पैसे प्रति शब्द दिये जा रहे हैं, और यही वो कड़ी है जिसके कारण हिन्दी की दुर्दशा हुई है, क्योंकि ज्यादा शब्द संपन्न लेखक इस काम से हाथ खींच रहे हैं। इससे हाथ खींचना इसलिये उनकी मजबूरी बन चुकी है क्योंकि यह किसी भी तरह उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में सक्षम नहीं है, और बेहतर लोगों के लेखन के क्षेत्र में ना रहने से हिन्दी को जो नुकसान हुआ है वह दयनीय है। 

बहरहाल, सुधीश पचौरी साहब, हिंदी साहित्यकार हैं, लिखते हैं: साहित्य क्या राजनीति से कम है? वहां जाति है, तो यहाँ भी जाती है। वहाँ धर्म है, तो यहाँ भी है। वहां विचारहीनता है, तो यहाॅ॑ भी है। वहां परिवारवाद है, तो यहाँ भी है। वहाॅ॑ ललित और दलित विमर्श है, तो यहाँ भी है। वहां स्त्री विमर्श है, तो यहाँ भी है। वहां सबका साथ, सबका विकास है, तो यहाँ भी है।‌ वहां झूठ-सच है, तो यहां सचमुच का “झूठा-सच” है। 

इतना ही नहीं, अब तो अखिल भारतीय साहित्यकार मोर्चा भी बन गया है और नारा भी है ‘हर पुस्तक एक मशाल’ है। लेकिन उन्होंने यह भी लिखा कि “जब एक काव्यात्मक पंक्ति राजनीति को बदलने का दावा कर सकती है, तब साहित्य राजनीति को बदलने का दावा क्यों नहीं कर सकता?” इसलिए उन्होंने हरेक छोटे-बडे़, अच्छे-बुरे साहित्यकारों से अपील कर दिए, ‘आवहु मिलकर सब रोवहु भारत आई। हा हा! साहित्य की दुर्दशा न देखी जाई।’ आओ, सब मिलकर चुनाव लड़ो, जीतो और अपनी साहित्यिक सरकार बनाकर दिखा दो कि अब साहित्य ही है, जो समाज, जनतंत्र और आप सबकी रक्षा कर सकता है। यही सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा व स्वास्थ्य दे सकता है। राजनीति की बनाई सड़क टूट सकती है, घर फूट सकता है, लेकिन साहित्य में बनी सड़क न कभी टूटती है, न ही घर फूटता है।”

वे आगे लिखित हैं: “बहुत हो लिया इस-उसके दस्तखत के नीचे अपने दस्तखत करना। माँ सरस्वती के वरद पुत्र-पुत्रियों, किस-किस के पिछलग्गू बने रहोगे और कब तक? ये एक्शन के दिन हैं। हे मेरे लेखक, अपने को देख। सब नेता भ्रष्ट और कलंकी। अकेला तू अभ्रष्ट और निष्कलंकी। तू होता भी कैसे? तुझे मौका ही नहीं मिला। एक मौका तो लेकर देख। तेरी सात पुश्तें तर जाएंगी। इसलिए अपनी पार्टी बना। चुनावों में कूद। टिकट दे। टिकट ले। सोच तो। न जाने कितने बजर बट्टू तेरी कविताओं की एक एक दो-दो लाइनें गलत-सलत सुना-सुनाकर गद्दीनशी हो गए। जब कबीर, सूर, तुलसी, रहीम, निराला, दिनकर, गालिब, फैज, दुष्यंत, राहत इंदौरी और नजीर बनारसी की दो-चार लाइनें जपकर मामूली नेता सत्ता तक पहुॅ॑च सकते हैं, तो तू क्यों नहीं पहुॅ॑च सकता?

बहुत रो चुका कि कविता नहीं छपती। कहानी नहीं छपती। राॅयल्टी नहीं मिलती। एक बार कमान हाथ में ले, फिर देख बड़े से बड़ा प्रकाशक तेरी ग्रंथावली छापने के लिए एक लाइन लगाएगा। नोबेल वाले हाथ जोड़े खड़े होंगे। साहित्य का नया युग आएगा। तभी वह राजनीति का चमचा बनने की जगह उसके आगे जलने व चलने वाली मशाल बन सकेगा। इसीलिए मैं ‘जाली नोट’ के गाने की तर्ज पर चेतातू हूॅ॑ कि हे कलम के धनी प्रतिभा पुंज, तू लुंज-पुंज मत बन। ‘छुरी बन कांटा बन ओ माई सन, सब कुछ बन किसी का चमचा नहीं बन!’

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