“बुढ़ापे में भाभीजी का हाथ पकड़कर दिल्ली के राजपथ पर विचरण करने में मजे कुछ और आएंगे” – आमीन !! 

पटना के राजेन्द्र नगर वाले सुशील कुमार मोदीजी -  तस्वीर: डिक्कन हेराल्ड के सौजन्य से    
पटना के राजेन्द्र नगर वाले सुशील कुमार मोदीजी -  तस्वीर: डिक्कन हेराल्ड के सौजन्य से    

पटना के राजेन्द्र नगर वाले सुशील मोदी जी का अपने पार्टी द्वारा ऊपरी सदन के लिए नाम घोषित होने के साथ ही, पटना के राजनीतिक गलियारे में “छठ”, “दशहरा”, “दिवाली” “भाई-दूज”, “गोवर्धन-पूजा” जैसा माहौल बना दिए हैं स्थानीय नेता के साथ साथ स्थानीय अखबार और टीवी वाले। लेकिन उन्हें कौन बताये की “भय्ये!! बुढ़ापा में पत्नीजी का हाथ पकड़कर रायसीना हिल से लुढ़कते हुए राजपथ पर विचरण करते इण्डिया गेट पर गोलगप्पा खाने का मजा ही कुछ और होता है और हमारे पटना के राजेन्द्र नगर वाले मोदीजी मजे लेने में माहिर हैं।”

उदाहरण स्वरुप: पटना में जब बारिस से शहर पनिया गया, पटना वाले मोदीजी मजे लेने के लिए उपरगामी सड़क पर हाफ़-पैंट में खड़े होकर पत्नीजी के साथ मजे लिए और इस दृश्य को सभी लोगों ने ख़ुशी-ख़ुशी प्रकाशित किये। खैर। 
 
उन दिनों पटना कॉलेज मुख्य द्वार के ठीक सामने चार दूकानें बहुत मशहूर हुआ करती थी: एक: कॉपी-पेंसिल और अन्य पढ़ने-लिखने वाली सामग्रियों के लिए ‘कमाल बाइंडिंग हॉउस’ और ‘ग्रैंड स्टोर’; दो : नास्ता-चाय के लिए ‘शान्ति कैफ़े’ और तीन: पान के लिए बनारसी पान वाला। यह एक ऐसे स्थान था जहाँ पटना विश्वविद्यालय के सभी छात्र-छात्राएं, शिक्षक-शिक्षिकाएं अवश्य आते थे।

इसके बाद दूसरा अड्डा था: नोवेल्टी एंड कम्पनी  (प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता) । नॉवेल्टी उन तीनों दुकानों से कोई पांच सौ कदम पर था। इन दो गन्तब्यो के अलावे एक स्थान था दास स्टूडियो के सामने वाला फुट-पाथ, जो अपना अस्तित्व ऐतिहासिक ब्रह्म-स्थान से जोड़ रखा था। इस स्थान पर सूर्यदेव अपने उदय से अस्त तक विराजमान रहते थे। विश्वविद्यालय क्षेत्र में इन स्थानों को छोड़कर सम्पूर्ण पटना में अगर कोई स्थान था जहाँ बिहार के लोगबाग, छात्र-छात्राएं-शिक्षक-शिक्षिकाएं-मजदूर-मालिक-नेता-अभिनेता-कर्मचारी-अधिकारी या अन्य  लोग भी, अपनी आवाज को गोलबन्द करते थे, वह था गाँधी मैदान के बाएं छोड़ पर स्थित सोडा फाउन्टेन या फिर पटना के डाक बँगला चौराहे के बाएं कोने पर स्थित उडपी, या फेज़र रोड स्थित केंद्रीय कारा के सामने स्थित पिंटू होटल। पटना में नेतागिरी की बुनियाद इन्ही स्थानों पर रखी जाती थी जो बाद में अभ्यास के अनुसार और अभ्यास के अनुपात में फलता-फूलता था। जिनकी बुनियाद जितनी गहरी पड़ी, वे उतने ऊपर यूकिलिप्टस बृक्ष जैसे बढे। इस बृक्ष की विशेषता यह होती है कि अपने आस-पास के इलाके के पानी को अपनी ऊंचाई बढ़ने के लिए जातक जाता है। 

बात सं 1973 की है। हम शांति कैफे की गली में रहते थे। नवमी कक्षा में पढ़ते थे टी के घोष अकादमी में। यह विद्यालय भी उस ब्रह्म स्थान से दस कदम पर था। साथ ही, विद्यालय के बाद वाले समय में नोवेल्टी एंड कम्पनी में लिफ्ट चलाया करता था, आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए। इस दूकान में पिता-पुत्र दोनों को कार्य करने के कारण कभी किताबों की किल्लत नहीं हुई। इस बहु-मंजिले मकान में पटना विश्वविद्याला के छात्र भी रहते थे।स्वाभाविक है, विश्वविद्यालय के छात्र नेताओं का यहाँ आना-जाना लगा रहता था। मैं लिफ्ट में एक कोने में छोटा सा टेबुल लगा रखा था जहाँ बैठे-बैठे पढ़ा  भी करता था। जो भी छात्र, नेता सहित, आते थे मुस्कुरा अवश्य देते थे। जान-पहचान की बुनियाद यहाँ पर जाती थी। उन्ही छात्रों में, या नेताओं में प्रमुख नेता थे – एक लल्लू प्रसाद यादव, अश्विनी चौबे, सुशील मोदी इत्यादि। 

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प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदीजी के साथ पटना वाले सुशील कुमार मोदीजी 

सुशील मोदी बोलने में अच्छे वक्ता थे, लेकिन “एग्रेसिव” नहीं थे लल्लू या चौबेजी जैसा। एक हल्का-पीला रंग का बजाज का स्कूटर था। दाहिने तरफ झुककर बैठते, चलते थे, स्कूटर की सवारी करते थे। कहते हैं ‘बाएं तरफ झुककर बैठना, चलना ‘बाममार्गी’ का निशानी होता है। यह प्रारम्भ से ही स्पष्ट था की सुशील मोदी ‘बाममार्गी’ नहीं हैं। वजह भी था – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अच्छे-खासे सदस्य थे। रविवार को खाकी हाफ़-पैंट, बेदाग़ सफ़ेद कमीज और स्कूटर पर दाहिने झुककर पटना कालेज मैदान में पहुँच जाते थे। कभी कभी राजेंद्र नगर सड़क संख्या – 11 वाले मैदान में भी लोगो को जमा कर, जवान, बड़े, बूढ़े, कसरत कराया करते थे। ठहाका लगाने का अभ्यास करते-कराते थे। कसरत तो महज एक माध्यम था, अंतिम छोड़ तो अपने आवासीय कालोनी में अथवा शैक्षणिक संस्थान वाले इलाके में “रुतवा” ज़माना था, सफ़ेद दूध को दही ज़माने जैसा। 

उन दिनों नेताओं की किल्लत थी जो तत्कालीन व्यवस्था को चुनौती दे। वजह यह था कि बिहार ही नहीं पूरे मुल्क में कांग्रेस का अधिपत्य था और बिहार में तो उस समय जो भी नेता थे, सभी “पैरासाईट” तो थे ही (आज भी हैं), मानसिक और शारीरिक रूप से लंगड़े-लुल्हे (अब दिब्यांग पढ़ें) थे, क्योंकि कांग्रेस में ऐसे लोग आसानी से पल जाते हैं। 

सुशील कुमार मोदी की पैदाईश पटना में ही था।  वे 5 जनवरी 1952 को जन्म लिए, इसलिए पटना के साथ-साथ बिहार को समझने में कोई अधिक मसक्कत नहीं करना पड़ा उन्हें। हां, अभ्यास कभी नहीं छोड़े, न ही राजनीतिक शिक्षा में और न ही सफ़ेद कमीज और खाकी हाफ़ पैंट पहनने में। 

इनके माता का नाम रत्ना देवी तथा पिता का नाम मोती लाल मोदी था। इनका विद्यालय जीवन पटना के सेंट माइकल स्कूल में हुई। इसके बाद इन्होने बी.एस.सी. की डिग्री बी.एन. कॉलेज, पटना से प्राप्त की। बाद में इन्होने एम.एस.सी. का कोर्स छोड़ दिया और कांग्रेस को भारत से उखाड़ फेंकने का स्वप्न लिए सम्पूर्ण क्रांति वाले पटना के कदमकुंआ वाले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में कूद पड़े।  

यदि सच कहा जाय, तो जय प्रकाश नारायण अपने मकसद में तो कामयाब हो गए, कांग्रेस को उखाड़ फेंके भी; परन्तु उस दौर में, उनके राजनीतिक संरक्षण में, पटना की सड़कों पर कुकुरमुत्तों जैसा नेता पैदा लिए, वे सभी के सभी नहीं तो 95 फीसदी से अधिक लोग, प्रदेश में दीमक की तरह प्रदेश की अर्थव्यवस्था को खा लिए।  खटमल जैसा प्रदेश के रक्त को चूस लिए। पटना वाले मोदीजी पर भी अनेकानेक बार स्थानीय लोगों ने, आज नेताओं ने लांछना लगाए तो; लेकिन वे कभी अपने वस्त्र पर दाग नहीं लगने दिए। 

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1990 में, वह सक्रिय राजनीति में शामिल हो गए और सफलतापूर्वक पटना केंद्रीय विधानसभा (जिसे अब कुम्हार (विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र) के रूप में जाना जाता है) से चुनाव लड़ा। 1 990 में उन्हें फिर से निर्वाचित किया गया था। 1 99 0 में, उन्हें भाजपा बिहार विधानसभा दल के मुख्य सचेतक बनाया गया था। 1996 से 2004 तक वह राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता थे। उन्होंने पटना हाईकोर्ट में लालू प्रसाद यादव के खिलाफ जनहित याचिका दायर की, जिसे बाद में चारा घोटाले के रूप में जाना जाता था। 2004 में वह भागलपुर के निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए लोकसभा के सदस्य बने। वह 2000 में एक अल्पकालिक नीतीश कुमार सरकार में संसदीय कार्य मंत्री थे। उन्होंने झारखंड राज्य के गठन का समर्थन किया।

2005 में बिहार चुनाव में, एनडीए सत्ता में आया और मोदी को बिहार बीजेपी विधानमंडल पार्टी के नेता चुना गया। उन्होंने बाद में लोकसभा से इस्तीफा दे दिया और बिहार के उपमुख्य मंत्री के रूप में पदभार संभाला। कई अन्य विभागों के साथ उन्हें वित्त पोर्टफोलियो दिया गया था। 2010 में बिहार चुनावों में एनडीए की जीत के बाद, वह बिहार के उप मुख्यमंत्री बने रहे। मोदी ने 2005 और 2010 के लिए बिहार विधानसभा चुनावों में भाजपा के लिए प्रचार करने में समर्थ नहीं हुए। 2017 में, बिहार में जेडीयू-आरजेडी ग्रैंड एलायंस सरकार के पतन के पीछे सुशील मोदी मुख्य खिलाड़ी थे, उन्होंने अपने बेनामी संपत्तियों और अनियमित वित्तीय लेनदेन के आरोप में चार महीने के लिए राजद प्रमुख लालू प्रसाद और उनके परिवार के खिलाफ लगातार निंदा की।

सुशील कुमार मोदी और नितीश कुमार – जब दोनों भाई बैठेंगे तो एक राज्य सभा जायेंगे 

दस वर्ष की आयु में सुशील मोदी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में प्रवेश किये। कोई सोलह-सत्र वर्ष की आयु में उन्होंने आरएसएस का उच्चतम प्रशिक्षण प्राप्त किये । इस बीच मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पटना शहर के संध्या शाखा का इंचार्ज भी बने।   

 वैसे आज भले सुशील मोदी और लल्लू यादव राजनीतिक मैदान में एक दूसरे के दुश्मन हों, लेकिन उन दिनों वाली मित्रता की बात कुछ अलग थी। पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में उधर लल्लू यादव अध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे तो इधर सुशील मोदी महा-सचिव पद के उम्मीदवार थे। विश्वविद्यालय परिसर सहित, पटना विश्वविद्यालय का शायद ही कोई कालेज या कार्यालय की दीवारें बची होंगे, जहाँ ‘लल्लू यादव’ लटके नहीं होते थे। लल्लू यादव की तुलना में सुशील मोदी की तस्वीरें बहुत कम हुआ करती थी। वजह भी था – लल्लू यादव ‘ग्वाला’ थे और मोदी जी ‘बनिया’ – वेवजह, उजुल-फुजूल पर खर्च करना उनका स्वाभाव नहीं था। सीले-सिलाए कपड़ों का व्यवसायी थे। धागा क्या टांका भी जरुरत से अधिक नहीं लगने देते थे कपड़ों में। क्योंकि वे ‘अंडर-करेंट’ में विस्वास करते थे। परिणाम यह हुआ कि मोदीजी पटना विश्वविद्यालय छतसंघ के महासचिव बन गए। 

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जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में में सबसे अधिक चर्चित हुए “मीसा” के ख़िलाफ़ ‘संवैधानिक वैद्यता को चुनौती देकर’ – ये छात्र आंदोलन के दौरान पांच बार जेल गए और समस्तीपुर, दरभंगा, बक्सर, हज़ारीबाग़, भागलपुर जेलों को कुल 19 महीने बंद भी रहे। सौभाग्य देखिये – लल्लू जी भी इन जेलों में मित्रवत बंद थे। एक बात यहाँ मोदीजी और लल्लू जी में अंतर था।  मोदीजी को शारीरिक यातनाएं जेल में अथवा पुलिस द्वारा कण  ,नहीं के बराबर मिली। परन्तु वह तो लल्लू जी का ही शरीर था, खाया-पीया-कसरत वाला की पटना के पीरबहोर थाना प्रभारी का वह डंडा और अमानुषिक ‘थर्ड-डिग्री’ बर्दास्त कर लिए – दूसरा होता तो थाना में ही तेरहवीं हो जाता। आपको तो ज्ञात होगा ही ही “मीसा” काल में ही लल्लू यादव की गोद “पुत्री” से भरी थी, तभी उसका नाम “मीसा” रखे। आज राजनेता हैं। 
इस आंदोलन के दौरान ही मोदी जी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के प्रदेश सचिव बने। बाद राष्ट्रीय स्तर पर भी विद्यार्थी परिषद् में पद संभाले और संगठन को मजबूत किये। 

खैर। विगत दिनों जब राम विलास पासवान का निधन हुआ तो राज्य सभा का स्थान रिक्त होना स्वाभाविक है। पिछले सप्ताह जब नितीश कुमार शपथ ग्रहण कर रहे थे तो सुशील मोदी को सम्पूर्ण मंत्रिमंडल से दरकिनार कर दिया गया।  बस क्या था पटना से दिल्ली तक अखबार वाले रंगने लगे। लेकिन गुजरती दिमाग तो कहीं और चल रहा था। उधर पासवान पुत्र अलगे उत्पात मचा दिए थे चुनाव में। बस क्या था मुगलसराय, नहीं नहीं दीन दयाल उपाध्याय स्टेशन पर चिराग का टिकट काट गया और सुशील मोदी को राज्य सभा के लिए नाम अनुशंसित हो गया। यानि  सुशील मोदी को एक तरह से प्रमोट कर दिया गया। 
अब दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय मार्ग में चर्चा है कि भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा पटना वाले मोदीजी से “कनिष्ठ” हैं, और आज गुजरात वाले मोदीजी और शाहजी के अन्यन्त करीब हैं – वीएसी स्थिति में भारत के राष्ट्रकवि के घर से तनिक हटकर रहने वाले पटना वाले मोदीजी गुजरात वाले मोदीजी से इतने दूर कैसे रहेंगे? गहन सोच-विचार के बाद यह निर्णय हुआ कि उन्हें दिल्ली ले आया जाय। पटना की तुलना में यहाँ की राजनीतिक आबो-हवा बेहतर है। बस क्या था “चिराग” में तेल डालना कम कर दिया गया। बुझते चिराग “अलबलाने” लगे, “अनाप-सनाप बकने लगे” जो दीनदयाल उपाध्याय मार्ग को अच्छा नहीं लगा। अब “शहंशाह” और  “आलाकमान” को पसंद नहीं तो राष्ट्र को पसंद नहीं – बस चिराग का कद छोटा कर दिया गया। 

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