उन्होंने ‘बिहार’ को ‘अस्तित्व’ दिया, वे ‘गुमनाम’ हो गए; वे भा.प्र.से. क्या बने, लोग बाग़ ‘बिहारी है…बिहारी है’ कहते नहीं थकते

काश, बिहार के लोग कभी डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा, वे भी बिहारी ही थे, संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे, आज का विधानसभा जहाँ स्थित है, वह भूमि उन्ही की है,; जहाँ पटना का अंतरष्ट्रीय हवाई अड्डा है, वह भूमि भी उन्ही की है, बिहार को बिहार का अस्तित्व उन्होंने ही दिलाया था - उनके द्वारा स्थापित ऐतिहासिक पुस्तकालय के लिए भी आवाज उठाते, कहते "बिहारी का है...बिहारी का है। परन्तु ...तस्वीर राजीव कुमार पटना से

पटना : लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 151A के अनुसार भारत के निर्वाचन आयोग के लिए यह बाध्यकारी है कि वह भारतीय संसद और राज्य विधानसभाओं में ‘सदस्यों के रिक्त पदों’ को अधिकाधिक छः माह के अधीन ‘उप-चुनाव’ करा कर रिक्तता की पूर्ति कर ले; बसर्ते उक्त रिक्तता की आगामी अवधि न्यूनतम एक वर्ष और अधिक अवश्य हो। इसके अलावे बहुत सारे अन्य नियम और कानून हैं ताकि देश में, प्रदेश में प्रजातंत्र का सम्मान सम्मानित रहे। उम्मीद है भारतीय संसद और प्रदेश के विधानसभाओं की तरह देश के वे सभी संस्थाएं, जो जन-प्रतिनिधियों के चुनावोपरांत चयनित प्रतिनिधियों द्वारा चलाये जाते हैं, मसलन पंचायत, जिला परिषद; उन संस्थाओं में ‘रिक्तता’ होने पर कुछ ऐसे ही नियम होंगे, जो बाध्यकारी होंगे। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि विश्व के इतने बड़े प्रजातंत्र में कार्यपालिका, विधानपालिका, न्यायपालिका, सरकारी विभागों, शैक्षणिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, अस्पतालों आदि क्षेत्रों में, जहाँ नित्य-प्रतिदिन देश की जनता को अपनी समस्याओं के निदान के लिए मुंह-बाए सर्दी-गर्मी-बरसात में उम्र से लम्बी कतार में पंक्तिबद्ध रहना पड़ता है; ऐसी कोई भी बाध्यकारी नियम नहीं है जिससे अधिकारियों, न्यायमूर्तियों, शिक्षकों, प्राध्यापकों, चिकित्सकों के पदों की रिक्तता को समाप्त किया जा सके – एक समय सीमा के अधीन।

चकित नहीं हों। विगत दिनों सोशल मीडिया पर संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संचालित परीक्षा, जो भारत के युवाओं को, युवतियों को ‘प्रशासन-प्रमुख’ बनाता है, ताकि भारत के लोगों को सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, व्यावसायिक क्षेत्रों में ‘न्याय’ मिले – बिहार के मामले में जितना उछल-कूद देखा, देश के किसी अन्य राज्यों अथवा केंद्र शासित प्रदेशों के लोगों द्वारा कुश्ती नहीं लड़ा गया, शायद वे बिहार के लोगों से अधिक ‘सचेष्ट’ नहीं हैं। उम्मीद करते हैं कि आज कुल 448 मिलियन सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों में बिहार के अलावे अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के भी लोग बाग़ होंगे। यह संख्या और अधिक होने की सम्भावना है क्योंकि जब से राज्य सरकारें अपने-अपने प्रदेशों के लोगों को लुभाने के लिए ‘इंटरनेट की सुविधा मुफ्त’ में कर दी है।

अब मतदाताओं को कौन समझाए की भैय्ये !!!! सरकार में बैठे लोग बाग, अधिकारी ‘मुफ्त में कउनो चीज नहीं’ देते। आज जिनकी-जिनकी सफलता को लेकर गली-मोहल्ले-चौराहे पर ढ़ोल-ताशा बजा रहे हैं, तुरतुरी बजबा रहे हैं; बिहार के 38 जिलों की बात छोड़िये; ये सभी अधिकारीगण जैसे ही भारत सरकार द्वारा संचालित ‘प्रशिक्षण’ समाप्त कर भारत के कुल 741 जिलों के विभिन्न विभागों में लगी कुर्सियों पर बैठेंगे; बैठते ही वे समाज का कम, नेताओं और राजनीतिक पार्टियों का अधिक हो जायेंगे। विश्वास नहीं होता न। सं 1947 के बाद इण्डियन सिविल सर्विस (आई.सी.एस.) से लेकर वर्तमान के भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई, ए. एस.), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस), भारतीय रेवेन्यू सेवा (आईआरएस) और अन्य सेवाओं के लिए अपने-अपने गाँव के, जिले के, राज्य के, देश के, प्रदेश के अधिकारियों को उँगलियों पर गिनना शुरू कर दें और फिर उनके गाँव में, जिलों में भ्रमण-सम्मेलन कर स्वयं को आश्वस्त भी करें कि अपनी सेवा-काल के दौरान उन्होंने अपने प्रदेश के विकास के लिए क्या किया? विगत 75-वर्षों में ऐसे अधिकारियों की संख्या शायद आपके हाथ-पैर की सम्पूर्ण उंगलियों की गिनती भी समाप्त नहीं कर पाएंगे।

आप विश्वास नहीं करेंगे, मत करिये। शायद आपको मालूम नहीं है, या फिर मालुम है भी तो आप चुप-चाप हैं। देश के अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की बात नहीं करें। हमारे बिहार में कोई 359 भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का स्थान है। लेकिन उसमें 157 पद खाली है। यह बात आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम नहीं, बल्कि प्रदेश के सम्मानित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी के आला-विभाग के आला अधिकारी कहते हैं, सरकार का दस्तावेज करता है और गृह मंत्रालय का दस्तावेज करता हैं। भारत के संसद का उत्तर-प्रतिउत्तर करता है। जब अधिकारी को कमर-तोड़ काम करना पड़ा तो विधान सभा में सरकार को भी मुंह खोलना पड़ा कि प्रदेश में कुल 359 भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों पदों के विरुद्ध महज 202 अधिकारी दंड-बैठकी कर रहे हैं। किन्ही के मथ्थे पांच, तो किन्ही के मथ्थे पंद्रह विभागों की चावी जड़ दिया गया है।

एक समय का इतिहास – सिन्हा लाइब्रेरी

सोमवार से शुक्रवार तक उन अधिकारियों की स्थिति वैसी ही होती है जैसे एक व्यक्ति जब चार-पांच विवाह कर लेता है। दर्जनों विभागों का भार माथे पर, कंधे पर लिए, कमर में लटकाये ये अधिकारीगण पटना ही नहीं, सभी जिलों में झूझुर-कोना-झूझुर-कोना-कौन-कोना खेलते हैं। अब जो विवाहित नहीं हैं, उनकी बात तो पटना विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विषय के विभागाध्यक्ष समझ सकते हैं; लेकिन जो अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लिए हैं; उनके बारे में, उनके जीवन के बारे में, परिवार के बारे में, बाल-बच्चों के बारे में, बृद्ध माता-पिता के बारे में न तो सम्मानित नीतीश बाबू समझते हैं और न दिल्ली के गृह मंत्रालय में बैठे, कार्मिक विभाग में बैठे आला-अधिकारी ही। बिहार के अलावे देश में कुल 1510 भारतीय प्रशासनिक सेवा और 908 भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की कुर्सियां खाली हैं।

फेसबुक पर मित्र कमला कांत पाण्डेय जी का एक पोस्ट देखा। पोस्ट का आकर्षण हमारे पटना विश्वविद्यालय का भवन और साइन बोर्ड था। सम्मानित कमलाकांत बाबू सम्भवतः पटना में ही रहते हैं। उन्होंने बहुत ही मर्यादित शब्दों में लिखा है: ‘एक दौर था जब पटना विश्वविद्यालय को ‘ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईस्ट’ कहा जाता था। स्थापना के शुरुआती दिनों में वकालत और मेडिकल की पढ़ाई के क्षेत्र में देश और दुनिया में पटना विश्वविद्यालय ने अलग पहचान स्थापित किया। बाद के दिनों में रामशरण शर्मा जैसे इतिहासकार की वजह से पटना विश्वविद्यालय की पहचान इतिहास लेखन के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हुआ था। सन 60 के दशक में इस विश्वविद्यालय की पहचान यूपीएससी के फैक्ट्री के रूप में स्थापित हुआ। 1960 में जगन्नाथन मुरली बिहार से यूपीएससी के पहले टॉपर बने। उन्होंने पटना में रहकर ही पढ़ाई की थी और उनके पिता भी आइसीएस (ब्रिटिश काल) थे और तब पटना में पदस्थापित थे। बिहार के दूसरे टॉपर छह साल बाद 1966 में पूर्णिया के आभास चटर्जी यूपीएससी टॉपर बने। 1970 में पटना विश्वविद्यालय के तीन छात्र यूपीएससी में पहला स्थान श्याम शरण दूसरा स्थान अनुराधा मजूमदार और तीसरा स्थान लक्ष्णी चक्रवर्ती ने प्राप्त की थी। बाद में श्याम शरण विदेश सचिव बने थे। पटना विश्वविद्यालय से पढ़े आमिर सुबहानी 1987 में टॉप किये थे। आमिर सुबहानी पटना विश्वविद्यालय के सांख्यिकी विभाग से स्नातकोत्तर में गोल्ड मेडलिस्ट थे।

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आमिर सुबहानी के बाद अभी तक कोई दूसरा पटना विश्वविद्यालय से पढ़कर यूपीएससी में टॉप नहीं किया है। सन 1988 में यूपीएससी में प्रशांत कुमार टॉपर रहे। इनकी प्रारंभिक पढ़ाई पटना में हुई थी। उच्च शिक्षा सेंट स्टीफेंस कालेज, दिल्ली से हुई। सन 1997 में सुनील कुमार बर्णवाल टॉपर रहे। सुनील बर्णवाल की प्रारंभिक शिक्षा भागलपुर में हुई। आइएसएम धनबाद से बीटेक के बाद उन्होंने गेल में भी सेवा दी। सन 2001 के टॉपर आलोक रंजन झा ने हिंदू कॉलेज से स्नातक करने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमफिल किया। इसके बाद फिर टॉपर के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा और 20 साल बाद कटिहार के शुभम कुमार यूपीएससी में टॉप किया है। शुभम ने बोकारो से 12वीं किये, फिर बॉम्बे आईआईटी से सिविल इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन किया है। 1961 बैच के सेवानिवृत्त आइएएस अधिकारी आइ.सी. कुमार का कहना है कि 1960 से पहले बिहार से करीब 26 आइसीएस थे। इसके बाद 1960 में प्रथम स्थान पर पटना के जगन्नाथन मुरली, पांचवें स्थान पर रामास्वामी और 12वें स्थान पर पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा थे।

एक समय का इतिहास – सिन्हा लाइब्रेरी

सन 1977 बैच के आईपीएस अधिकारी बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद का कहना है कि पटना विश्वविद्यालय उस समय पढ़ाई के हर क्षेत्र में देश और दुनिया में पहचान स्थापित कर लिया था. यूपीएससी को तो मक्का कहा जाता था.हर बैच में 25 से 30 छात्र यूपीएससी करता था। सन 1980 बैच के आईपीएस अधिकारी रहे राजवर्धन शर्मा, जो 1967 में पटना साइंस कॉलेज के छात्र थे, उनका कहना था कि फिजिक्स, अर्थशास्त्र और इतिहास विभाग का टॉपर का यूपीएससी तय माना जाता था। पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. रास बिहारी प्रसाद सिंह ने बताया कि 1960 के बाद यूपीएससी में बिहार के रिजल्ट में काफी सुधार देखने को मिला। सन 1966 से 1986 के बीच टॉपर नहीं निकले, लेकिन हर साल दो अंकों में रिजल्ट रहा। पिछले तीन-चार साल से बेहतर रिजल्ट हो रहा है। लेकिन आज बिहार के स्कूल कॉलेज से पढ़े बच्चों के पास कर्मचारी बनने लायक भी योग्यता नहीं है। पिछले 10 वर्षों का बिहार बोर्ड का टॉपर का लिस्ट निकाल लीजिए देखिए वो क्या कर रहा है।

पटना विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले पूर्ववर्ती छात्रों का कहना है कि एक रणनीति के तहत बिहार के नेताओं ने पटना विश्वविद्यालय को बर्बाद किया है। और इस बर्बादी के ताबूत में आखिरी कील इंटरमीडिएट की पढ़ाई खत्म करने का निर्णय रहा। आज बिहार के बजट की बात करें तो सबसे अधिक राशि (17 प्रतिशत) 38035.93 करोड़ रुपये खर्च शिक्षा पर ही हो रहा है और परिणाम आपके सामने हैं। बिहार में जहां कहीं से भी उम्मीद की छोटी सी किरणें दिखायी दे रही है, उसके निर्माण में बिहार के किसी भी संस्थान का कोई योगदान नहीं है। छात्र, मजदूर, किसान और व्यापारी जो बिहार का नाम रोशन कर रहा है, वो सभी व्यक्तिगत प्रयास से सफलता हासिल किया है। सवाल यह है कि क्या प्रदेश की वर्तमान शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वातावरण ऐसी है जिसके आधार पर देश-विदेश के किसी भी परीक्षा में अव्वल आये छात्र-छात्राओं के ‘उपलब्धि का विपरण’ प्रदेश के राजनीतिक बाज़ार में हम करें? अगर प्रदेश की स्थिति ऐसी होती तो शायद ही कोई छात्र अथवा छात्राएं अपने प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेशों में जीवन की नई शुरुआत करता। पंजाब, बंगाल, चेन्नई, तमिल नाडु, हिमाचल, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा या फिर अन्य प्रदेशों के लोग अपने-अपने प्रदेशों को त्यागकर बिहार में शरण कहाँ लेते हैं?

फिर किस आधार पर हम उन विजेताओं को “अपना” मानकर “ढ़ोल-ताशा-नगारा बजाने लगते हैं? आज अगर सिर्फ शिक्षा को “विकास का आधार माना जाय” तो 29 अक्टूबर, 1891 में मुरार गांव (चौंगाईं-डुमराव) ज़िला- आरा (अब बक्सर) में जन्म लिए, भारत के संविधान सभा के अध्यक्ष, संविधान पर पहला हस्ताक्षर करने वाले, बिहार को ‘बिहार का अस्तित्व’ देने वाले, छपरा में जन्म लिए न्यायमूर्ति खुदाबक्श के अभिन्न मित्र, विश्वसनीय मित्र, बिहार विधानसभा जिस भूमि पर स्थित है उसके स्वामी, पटना का अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा जी व्यक्ति की भूमि थी, उसका स्वामी और सच्चिदानंदसिन्हा लाइब्रेरी का यह हाल नहीं होता। पहले जहाँ हज़ारों-हज़ार की संख्या में विद्वान, विदुषी, शिक्षा प्रेमियों का आकर्षण था इस भवन की ओर, आज अपने अस्तित्व पर रो रहा है। खुदाबक्श ओरिएंटल लाइब्रेरी के साथ-साथ पुरे प्रदेश के शैक्षिक संस्थाओं के पुस्तकालयों, निजी / सार्वजनिक पुस्तकालयों का हाल भी बेहाल ही है। वैसी स्थिति में हम किस शिक्षा-व्यवस्था की बात करते हैं, किसके उत्तीर्णता का खिताब हड़पने के लिए ढ़ोल-ताशा-नगारा पीटते हैं । किस मुख से आप शुभकामनाएँ देते हैं उसी अपने प्रदेश का होने के लिए – महज इसलिए कि उसके निर्धन, निरीह, गरीब माता-पिता ने उसे बिहार में जन्म दिया और देश के दूसरे प्रदेशों में खून-पसीना बहाकर और शिखर पर पहुंचा।

अगर ऐसा नहीं होता तो शायद पटना के सच्चिदानन्द सिन्हा पुस्तकालय का, खुदाबक्श ओरिएंटल पुस्तकालय का यह हस्र नहीं होता। एक रिपोर्ट के अनुसार 1894 में सच्चिदानंद सिन्हा की मुलाकात जस्टिस खुदाबक्श खान से हुई। जस्टिस खुदाबक्श छपरा के थे। उन्होंने पटना में 29 अक्टूबर, 1891 में खुदाबक्श लाइब्रेरी की बुनियाद रखी, जो भारत के सबसे प्राचीन पुस्तकालयों में से एक है। जब जस्टिस खुदाबक्श खान से सच्चिदानंद जुड़े उसके बाद बहुत सारे कामों में डॉ सिन्हा उनकी मदद करते थे। जब उनका तबादला हो गया तो उनकी लाइब्रेरी की पूरी जिम्मेबारी सिन्हा ने अपने कन्धों पर ले ली। उन्होंने 1894-1898 तक खुदाबक्श लाइब्रेरी के सेक्रेटरी के हैसियत से नई जिम्मेदारी को संभाला।

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खुदाबक़्श पुस्तकालय की शुरुआत मौलवी मुहम्मद बक़्श जो छपरा के थे उनके निजी पुस्तकों के संग्रह से हुई थी। वे स्वयं कानून और इतिहास के विद्वान थे और पुस्तकों से उन्हें खास लगाव था। उनके निजी पुस्तकालय में लगभग चौदह सौ पांडुलिपियाँ और कुछ दुर्लभ पुस्तकें शामिल थीं। खुदाबक्श खान को यह संपत्ति अपने पिता से विरासत में प्राप्त हुई जिसे उन्होंने लोगों को समर्पित किया। खुदाबक़्श ने अपने पिता द्वारा सौंपी गयी पुस्तकों के अलावा और भी पुस्तकों का संग्रह किया तथा 1888 में लगभग अस्सी हजार रुपये की लागत से एक दो मंज़िले भवन में इस पुस्तकालय की शुरुआत की और 1891 में 29 अक्टूबर को जनता की सेवा में खुदाबक्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी के रूप में समर्पित किया। उस समय पुस्तकालय के पास अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी की चार हजार दुर्लभ पांडुलिपियां थीं। सन 1969 में भारत सरकार ने संसद में पारित एक विधेयक के जरिये खुदा बख्श लाइब्रेरी को राष्ट्रीय महत्व के संस्थान के तौर पर मान्यता दी। लाइब्रेरी में फ़िलहाल अरबी, फारसी, संस्कृति और हिंदी की लगभग 21,000 से अधिक पांडुलिपियां और 2.5 लाख से अधिक किताबें हैं- उनमें से कुछ बहुत ही दुर्लभ हैं। फिर  अपनी पति के नाम से ‘श्रीमती राधिका सिन्हा संस्थान एवं सचिदानंद सिन्हा पुस्तकालय की स्थापना की।

इसी तरह, जब संविधान की पहली बैठक हुई जिसमें कांग्रेस के अध्यक्ष जे बी कृपलानी अस्थायी अध्यक्ष के लिए डॉ सच्चिदानंद सिन्हा के नाम का प्रस्ताव रखा, जिसे आम सहमति से पारित किया गया। डॉ सिन्हा पहले और एक मात्र भारतीय थे जिसे सरकार में एक्ज्यूक्युटिव काउंसिलर के बतौर फाइनेंस मेंबर बनने का अवसर मिला था। जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुयी तब डॉ सिन्हा की तबियत काफी ख़राब हो गई थी। उनके हस्ताक्षर के लिए मूल प्रति दिल्ली से विशेष विमान से डॉ राजेंद्र प्रसाद पटना लाये। डॉ राजेंद्र प्रसाद डॉ सिन्हा को अपना गुरु मानते थे। फरवरी 14, 1950 को डॉ सिन्हा ने संविधान की मूल प्रति पर डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने हस्ताक्षर किये। बीस-दिन बाद, 6 मार्च, 1950 को डॉ सिन्हा अंतिम सांस लिए।

वैसे आज के समय में बिहार में तो “लैंड-ग्रेबरों” की संख्या बिहार सरकार के गृह मंत्रालय, मुख्य मंत्री कार्यालय के पास भी नहीं होगी और शायद बिहार विधान सभा के नव निर्वाचित 243 सदस्यों के साथ-साथ विधान परिषद् के माननीय सदसयगण भी इस बात से अनभिज्ञ होंगे की जिस भवन में बैठकर वे सभी कुर्सी तोड़ते हैं, गीता पर हाथ रखकर शपथ तो खाते हैं लोक-कल्याण का लेकिन “लोक” और “कल्याण” का कभी “मिलन” नहीं हो पाता यह जमीन डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा ने दान दिया था। या फिर जय प्रकाश नारायण अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से देश के विभिन्न शहरों, दूसरे देशों के लिए हवाई यात्रा करते हैं, यह जमीन भी डॉ सिन्हा साहेब की ही थी, दान दे दिए। या फिर बिहार से प्राथमिक शिक्षा उत्तीर्ण किये हैं – जिस कार्यालय से डिग्री हस्तगत करते हैं – वह भवन डॉ सिन्हा का आवास था, बहुत प्रेम से सन 1924 में उन्होंने बनबाया था, दान दे दिए। 

खैर। वैसे अभिभाजित भारत राष्ट्र के मानचित्र पर बक्सर का नाम बिहार के नामकरण के कोई 148 वर्ष पहले आ गया था जब ईस्ट इण्डिया कंपनी के हेक्टर मुर्नो की अगुआई में बक्सर में मीर कासिम, सुजाउद्दौला शाह आलम – II के बीच सं 1764 में युद्ध हुआ था, जिसे बैटल ऑफ़ बक्सर के नाम से जाना जाता है । बाद में सं 1912 में अंग्रेज सरकार बंगाल प्रेसीडेन्सी को काटकर 22 मार्च, 1912 को बिहार को अपना एक अलग पहचान दिया। लेकिन शायद बहुत कम लोग जानते होंगे कि 1912 से कोई 19-वर्ष पहले बक्सर का ही एक व्यक्ति बिहार का नामकरण कर दिए थे। वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि पटना के टी के घोष अकादमी के पूर्ववर्ती छात्र और भारत के संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा थे। 10 नवंबर 1871 को मुरार गांव, (चौंगाईं- डुमराव) ज़िला आरा (अब बकसर) के एक मध्यम वर्गीय सम्मानित कायस्थ परिवार में उनका जन्म हुआ और प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हासिल कर मैट्रिक की परीक्षा उन्होंने ज़िला स्कूल आरा से अच्छे नम्बरों से पास किया। डॉ सिन्हा  देश का प्रसिद्द सांसद, शिक्षाविद, पत्रकार, अधिवक्ता, संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष, प्रिवी काउन्सिल के सदस्य, एक प्रान्त का प्रथम राज्यपाल और हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स का सदस्य डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा आज तक एकलौता बिहारी रहे जिनका नाम प्रदेश के नाम से पूर्व आता है यानि बिहार का इतिहास सच्चिदानन्द सिन्हा से शुरू होता है क्योंकि राजनीतिक स्तर पर सबसे पहले उन्होंने ही बिहार की बात उठाई थी। 

कहते हैं, डा. सिन्हा जब वकालत पास कर इंग्लैंड से लौट रहे थे। तब उनसे एक पंजाबी वकील ने पूछा था कि मिस्टर सिन्हा आप किस प्रान्त के रहने वाले हैं। डा. सिन्हा ने जब बिहार का नाम लिया तो वह पंजाबी वकील आश्चर्य में पड़ गया। इसलिए क्योंकि तब बिहार नाम का कोई प्रांत था ही नहीं। उसके यह कहने पर कि बिहार नाम का कोई प्रांत तो है ही नहीं, डा. सिन्हा ने कहा था, नहीं है लेकिन जल्दी ही होगा। यह घटना फरवरी, 1893 की बात है। डॉ. सिन्हा को ऐसी और भी घटनाओं ने झकझोरा, जब बिहारी युवाओं (पुलिस) के कंधे पर ‘बंगाल पुलिस’ का बिल्ला देखते तो गुस्से से भर जाते थे। डॉ. सिन्हा ने बिहार की आवाज को बुलंद करने के लिए नवजागरण का शंखनाद किया। इस मुहिम में महेश नारायण,अनुग्रह नारायण सिन्हा,नन्दकिशोर लाल, रायबहादुर, कृष्ण सहाय जैसे मुट्ठी भर लोग ही थे। उन दिनों सिर्फ ‘द बिहार हेराल्ड’ अखबार था, जिसके संपादक गुरु प्रसाद सेन थे। तमाम बंगाली अखबार बिहार के पृथक्करण का विरोध करते थे। पटना में कई बंगाली पत्रकार थे जो बिहार के हित की बात तो करते थे लेकिन इसके पृथक् राज्य बनाने के विरोधी थे। बिहार अलग राज्य के पक्ष में जनमत तैयार करने या कहें माहौल बनाने के उद्देश्य से 1894 में डॉ. सिन्हा ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ ‘द बिहार टाइम्स’ अंग्रेज़ी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। स्थिति को बदलते देख बाद में ‘बिहार क्रानिकल्स’ भी बिहार अलग प्रांत के आंदोलन का समर्थन करने लगा। 

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इसी बीच 26-29 दिसम्बर 1888 के दौरान इलाहाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन में उनकी गहरी रुचि को देखते हुए उनके परिवार ने उन्हें 1889 में बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया। वे पहले बिहारी कायस्थ थे, जो पढ़ने के लिए विदेश गए। वहाँ उनकी जान पहचान मज़हरुल हक़ और अली इमाम से हुई, और वे उनकी संस्था अंजुमन-ए- इस्लामिया की बैठकों में भाग लेने लगे। जब वे बैरिस्टर बनकर भारत वापस लौट रहे थे तभी पानी के जहाज़ में उनकी बहस कुछ लोगों से हो गयी जब उन्होंने अपना परिचय “ बिहारी “ के रूप में दिया। उन्हें चिढ़ाने के लिये लोगों ने पूछा कि “ बिहार कहाँ है? नक़्शे पर दिखाओ?” जब उन्होंने भारत के नक़्शे पर आरा दिखाया तब लोगों ने मज़ाक़ किया , “अरे , यह तो बंगाल राज्य के सबसे पिछड़े इलाकों में एक है। डॉक्टर सिन्हा ने उसी समय ठान लिया कि वे बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनाकर ही दम लेंगें। 1893 में भारत वापिस आ कर उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस शुरू कर दी। भारत वापस आते ही उन्होंने अलग बिहार राज्य के लिये आंदोलन शुरू कर दिया और वकालत के अतिरिक्त पूरा समय उसी में देने लगे।अपनी वकालत की ज्यादा आमदनी भी बिहार आंदोलन पर ही खर्च करते। अंततः 1912 में उन्होंने बिहार को बंगाल से अलग करवा कर ही दम लिया। उन्होने बिहार आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिये ही ‘द बिहार टाइम्स’ के नाम से एक अंग्रेज़ी अख़बार भी  निकाला जो 1906 के बाद ‘बिहारी’ के नाम से जाना गया। 

सच्चिदानन्द सिन्हा। तस्वीर: हेरिटेज टाइम्स के सौजन्य से

सन 1907 में महेश नारायण की मृत्यु के बाद डॉ. सिन्हा अकेले हो गए। इसके बावजूद उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा। 1911 में अपने मित्र सर अली इमाम से मिलकर केन्द्रीय विधान परिषद में बिहार का मामला रखने के लिए उत्साहित किया। 12 दिसम्बर 1911 को ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर इन काउंसिल की घोषणा कर दी। यह डॉ. सिन्हा और उनके समर्थकों की बड़ी जीत थी। डॉ. सिन्हा का बिहार के नवजागरण में वही स्थान माना जाता है जो बंगाल नवजागरण में राजा राममोहन राय का। उन्होंने न केवल बिहार में पत्रकारिता की शुरुआत की बल्कि सामाजिक चेतना और सांस्कृतिक विकास के अग्रदूत भी । 1908 में बिहार प्रोविंशियल कांफ़्रेंस का गठन हुआ और 1910 में हुए चुनाव में सच्चिदानन्द सिन्हा इम्पीरियल विधान परिषद मे बंगाल कोटे से निर्वाचित हुए। फिर 1921 में वे केन्द्रीय विधान परिषद के मेम्बर के साथ इस परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे। उनकी अनुशंसा पर ही सर अली इमाम को लौ मेंबर बनाया गया, फिर काफ़ी जद्दोजहद के बाद जब हिंदुस्तान की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली कर दी गयी और 22 मार्च 1912 को बिहार को बंगाल से अलग कर दिया गया। फिर 1916 से 1920 तक डा. सिन्हा बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। 

1918 में उन्होंने अंग्रेजी का अख़बार सर्चलाइट निकाला, तथा 1921 में 5 वर्षों के लिए अर्थ सचिव और कानून मंत्री बनाए गए। वे पहले हिंदुस्तानी थे जो इस पद तक पहुँचे। फिर वे पटना विश्वविद्यालय के प्रथम उपकुलपति बनाए गए। 1924 में उन्होंने अपनी स्वर्गीय पत्नी राधिका सिन्हा की याद में राधिका सिन्हा इंस्टीट्यूट और सिन्हा लाइब्रेरी की बुनियाद रखी, और 10 मार्च 1926 को एक ट्रस्ट की स्थापना कर लाइब्रेरी की संचालन का जिम्मा ट्रस्ट को सौंप दिया। उन्होंने एमिनेंट बिहार कौनटेम्पोररीस और सम एमिनेंट इंडीयन कौनटेम्पोररीस के नाम से दो किताबें भी लिखीं। 9 दिसम्बर 1946 को जब भारत के संविधान का निर्माण प्रारम्भ हुआ तो उन्हें उनकी काबिलियत की वजह से ही सर्वसम्मति से उसका अध्यक्ष मनोनीत किया गया। उन्होंने ही डॅा. भीमराव अम्बेडकर को ड्राफ्टिंग कमेटी का सॅंयोजक चुना। जब संविधान की मूल प्रति तैयार हुई उस समय उनकी तबियत काफ़ी ख़राब हो गई थी , तो मूल प्रति को दिल्ली से विशेष विमान से पटना लाया गया और 14 फरवरी 1950 को उन्होंने उस मूल प्रति पर संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने हस्ताक्षर किए। 6 मार्च 1950 को 79 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया।

बहरहाल, 1955 में बिहार राज्य सरकार ने सिन्हा लाइब्रेरी को अपने अधिकार में ले लिया। सूत्रों के अनुसार, यहां एक लाख 80 हजार पुस्तकें हैं। कहा जाता है कि लगभग 20 माह से यहां के कर्मियों को वेतन या मानदेय नहीं मिला है।

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