अशोक राजपथ (पटना) से: यह अलग बात है कि बिहार में लम्बे समय तक कुर्सी पर बैठे रहने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ‘यौन शिक्षा’ के मामले में प्रदेश के विधान सभा में सार्वजनिक रूप से दिए गए ‘संभोग’ सम्बन्धी शारीरिक भाषा के साथ बयान वापस ले लिए हैं, अपनी निंदा भी किये और माफ़ी भी मांगे। लेकिन बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, विश्व में रहने वाली समस्त महिलाओं का उन्होंने उन शब्दों से जो अपमान किया – क्या उनकी उस निर्लज्जता के लिए भारत की महिलाएं, बिहार की महिलाएं माफ़ कर सकती हैं? शायद नहीं। महिलाओं सहित प्रदेश के लोगों का मानना है कि ‘इतनी स्थिरता भी अच्छी बात नहीं है। स्थिर पानी जैसा हाल है। अब महकने लगी है सरकार।’
लेकिन अपनी ‘राजनीतिक छवि’ को बनाए रखने के निमित्त प्रदेश की महिलाओं के ‘तथाकथित उत्थान’ के लिए (जैसा वे और उनकी सरकार दावा करती है) अनेकानेक योजनाएं चला रही है। उन्हीं योजनाओं में एक है विद्यालयों में 7वीं कक्षा से 12वीं कक्षा तक की बालिकाओं के लिए मासिक धर्म स्वास्थ्य योजना जिसके तहत प्रत्येक बालिका को 300 रुपये प्रति वर्ष दिया जाता है। राजनीतिक लाभ की दृष्टि से भले इसे ‘महत्वपूर्ण’ माना जाय, सामाजिक दृष्टि से यह ‘निर्लज्जता का पराकाष्ठा’ प्रतीत होता है। इतना ही नहीं, इन योजनाओं के नाम पर ‘सरकारी कोष से पैसों का इस कदर बंटवारा किया जा रहा है जैसे मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के लोग, अधिकारी, पदाधिकारी अपने-अपने वेतन से दे रहे हों।
बहुत सी बातें हैं जिसे अपने जन्म से 104 वर्ष एक दिन पहले स्थापित (9 जनवरी, 1863) पटना कॉलेज प्रवेश द्वार के सामने खड़ा होकर देख रहा हूँ । सं 1965 से लगातार पटना कालेज का सम्पूर्ण परिसर तत्कालीन विद्यार्थियों के लिए आज महत्वपूर्ण हो अथवा नहीं, उनके ह्रदय में इसकी मिट्टी की इज्जत हो अथवा नहीं, लेकिन हम मोहल्ले वालों के लिए आज भी पटना कॉलेज का परिसर पूज्यनीय है, वंदनीय है। क्योंकि हम सभी यहाँ पढ़े अथवा नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं होता, यहीं की मिट्टी में खेलकूद कर पले-बड़े हुए, संवेदनशील हुए, सामाजिक सरोकार के प्रति सचेष्ट बने तभी तो आज पचास साल बाद भी खुलकर, जमकर, स्पष्ट लिखने की क्षमता रखता हूँ।
आज पटना कॉलेज के प्रवेश द्वार के सामने खड़ा होकर सं 1974 का वह दृश्य देख रहा हूँ जब पटना पुलिस आंदोलनकारियों को भागने के लिए अशोक राजपथ से महाविद्यालय परिसर में अश्रु गैस के गोले फेंक रही थी। आंदोलनकारियों का उद्देश्य था बिहार और अन्य राज्यों के साथ-साथ केंद्र में सत्ता का परिवर्तन। उस दिन कॉलेज परिसर का प्रवेश द्वार मोटे लोहे के जंजीर से बंद था और उसमें कोई दो किलो वजन का ‘नवताल’ ताला लटका था। ताला बांधने का कार्य महाविद्यालय के तत्कालीन चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी श्री रामाशीष जी किये थे। इधर बाहर सड़क पर सैकड़ों केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कर्मी लाठी, डंडा, अश्रु गैस छोड़ने वाले मशीन और राईफल कंधे पर लटकाये आदेश का प्रतीक्षा कर रहे थे। प्रशासन भी दो फांक में बंटी थी। जातिगत आधार पर सहस्त्र फांक अलग। उधर महाविद्यालय परिसर से ईंट, पत्थर हवा के रास्ते सड़क पर बिछ रही थी। इसी बीच सुरक्षा के मद्दे नजर खाकी वर्दीधारी अश्रु गैस के गोले महाविद्यालय परिसर में फेंकने लगे।
उन दिनों मैं पटना महाविद्यालय प्रवेश द्वार के ठीक सामने श्री ननकूजी के होटल के ऊपर जगदीश जी पान वाले के मकान में किराये पर रहता था माँ, बाबूजी, भाई-बहनों के साथ। दसवीं कक्षा में पढ़ता था और पटना से प्रकाशित अख़बारों को बेचा करता था ताकि पेट भी भरे और पेट के ऊपर के हिस्से जिसे विद्वान-विदुषी मस्तिष्क कहते हैं, उसे परिपक्क करने के लिए पढ़-लिख सकूँ, आगे बढ़ सकूँ। हमारे मालिक मकान श्री जगदीश जी की पान की दूकान घर से पंद्रह कदम बाएं कमाल बाइंडिंग हॉउस के पास थी। उनकी दूकान से दस कदम आगे पीपुल्स बुक हॉउस था जहाँ सन 1974 आंदोलन के तत्कालीन क्रांतिकारी खड़े होकर प्रदेश और देश से कांग्रेस की सरकार को पदच्युत कर सिंहासन पर विराजमान होना चाहते थे।
हम सभी चश्मदीद गवाह हैं उस आंदोलन के और आंदोलनकारियों और नेताओं द्वारा जनता को विश्वासघात करने का। सन 1974 से आज 2024 हो गए । पटना कालेज प्रवेश द्वार के बाहर से जितने भी अश्रु गैस के गोले परिसर के परिसर के अंदर फेंके जा रहे थे, कोई भी गोला परिसर के अंदर दाहिने हाथ भूगोल विभाग के जालीदार नुमा दीवार के अंतिम छोड़ को भी पार नहीं कर पाता था। यानी अधिकाधिक 25 फुट अंदर पहुँचता था। उस दिनों भूगोल विभाग के विभागाध्यक्ष थे डॉ. परमेश्वर दयाल साहब। हम मोहल्ले के बच्चों को बहुत लाड़-प्यार करते थे। जब वे सुने कि सीआरपीएफ द्वारा छोड़े गए अश्रु गैस के गोले उनके विभाग की दीवारों को भी पार नहीं कर पाता था, वे बहुत हँसे थे।
उसका दो कारण था – एक: जंगे आज़ादी में अंग्रेजी हुकुमनामों के जो अस्त्र-शास्त्र बच गए थे वही आज़ादी के बाद बिहार पुलिस और केंद्रीय रिजर्व पुलिस को मिला था। सभी गांधी मैदान के पास गंगा के तट पर स्थित पुलिस लाइन में रखे थे। शहर में कभी गोली-बारूद की जरुरत हुई नहीं थी। श्री कृष्णबल्लभ सहाय के कालखंड में जो गोली कांड हुआ, सीधा आंदोलनकारियों के माथे को सहस्त्र फांक में फाड़ते निकल गयी थी। जयप्रकाश नारायण के कालखंड में आंदोलनकारियों से निपटने के लिए अस्त्र-शस्त्र में भी राजनीति हो गई थी। यह सभी बातें गहन शोध का विषय है। उसी तरह जैसे हम कल कारगिल दिवस मनाये। लेकिन शायद भारत के 90 से अधिक फीसदी लोगों को मालूम नहीं होगा कि कारगिल युद्ध काल में जितने अस्त्र-शस्त्र मंगाए गए थे, सभी युद्ध के बाद आया था। यह बात मैं नहीं, भारत का महा अभिलेखागार कहता है।
दूसरे – उचित प्रशिक्षण के अभाव में सभी गोले आसमान की ओर निशाना साधकर फेंका जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि आम और जामुन के मौसम में जिस कदर हम पत्थर या ढ़ेला फल को तोड़ने के लिए ऊपर फेंकते हैं या फुलबॉल खेल में गोलपोस्ट पर पास देते हैं – लम्बा फेंक कर – वैसे में जैसे ही अश्रु गैस का गोला परिसर के अंदर गिरता था, आंदोलनकारी छात्र तक्षण उसे उठाकर या तो वापस फेंक देते थे यह बगल के नाले में भरे पानी में फेंक देते थे या फिर कोई न कोई उस पर पेशाब कर उसे शांत कर देता था। उधर प्रवेश द्वार के बाहर सड़क पर खड़ी सुरक्षा कर्मी इस क्रिया-कलाप को देखकर मुस्कुराते भी थे और कुछ उत्तेजित भी हो रहे थे। यह क्रिया तब तक जारी रहा जब तक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी प्रवेश द्वार के ताला को एक गोली से तोड़कर आंदोलनकारियों को पीछे गंगा तट को ओर खदेड़े नहीं था। सन 1974 के आंदोलन से जन्म लिए प्रदेश और देश के नेता प्रदेश और देश के विकास के लिए कितने संवेदनशील होंगे यह तो द्वितीय स्वाधीनता आंदोलन के बाद नेताओं के विरुद्ध दर्जनों नहीं सैकड़ों, हज़ारों दर्ज आपराधिक मामले, हत्या, लूट-पाट, भ्रष्टाचार गवाह हैं। वैसे यह अलग बात है कि इस आंदोलन के बाद जब गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी जय प्रकाश नारायण स्वयं विधानसभा और लोकसभा चुनाव में अभ्यर्थियों का नाम उत्तीर्ण करबाते थे जो उनके आंदोलन में साथ थी, प्रमुख थे। खैर।
जय प्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति और उसके बाद लगातार बिहार के आज के मठाधीश पटना से प्रकाशित आर्यावर्त इण्डियननेशन सर्चलाइट प्रदीप अख़बारों और आकाशवाणी के समाचार कक्षों में नित्य उसी तरफ मत्था टेकते थे, जिस तरह बनारस-मथुरा और अन्य तीर्थ स्थलों में दर्शनाभिलाषी। मार्च 18, 1975 से पहले एक अखबार विक्रेता के रूप में और इस ऐतिहासिक तारीख के बाद समाचार पत्र कार्यालय का एक कर्मचारी होने के नाते मैं चश्मदीद गवाह हूँ। आज जो मठाधीश बने हैं राजनीतिक गलियारे में वे कोई साइकिल से, कोई वेस्पा-बजाज स्कूटर से, कोई लेम्ब्रेटा से, कोई फिएट से, कोई रिक्शा से इन अख़बारों के दफ्तरों में संपादक और संवादाताओं के सामने मत्था टेकने सभी आते थे। किन्ही के पैजामा फटे होते थे तो कोई समाचार के लिए पैजामा-कुर्ता में छिद्र बना लेते थे। आज वे सभी लोग भले स्वयंभू राजा, महात्मन समझें, खुद को समाज के संभ्रांतों और बड़े लोगों की श्रेणी में स्थापित कर लें – लेकिन मुझे विश्वास है कि जब अपनी नजर में देखते होंगे तो शायद स्वयं से भी लज्जित होते होंगे। किसने किसको मुर्ख बनाया ? वैसे कलयुग है और लज्जा अब किसे आती है, खासकर राजनीति में।
यह भी सोचता हूँ कि आज अगर इण्डियन नेशन अखबार के संपादक श्री दीनानाथ झा, श्री सीताशरण झा, श्री गजेंद्र नारायण चौधरी, आर्यावर्त अख़बार के श्री हीरानंद झा ‘शास्त्री’, ‘परमानन्द झा ‘शास्त्री’, श्रीकांत ठाकुर ‘विद्यालंकार’, सर्चलाइट अख़बार के श्री के.के.मक्कड़, इंडियन एक्सप्रेस के श्री कृपाकरण जी, हिन्दू अख़बार के श्री रमेश उपाध्याय, यूएनआई के श्री डी.एन. झा, श्री बी.ऍन. झा आदि होते तो नीतीश कुमार को देखकर यह कहते “पगला गया है नीतीश। लालू तो प्रदेश को सत्यानाश कर ही दिया, शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, खेती-बारी, व्यापार, उद्योग का सत्यानाश कर ही दिया, अब प्रदेश के मतदाताओं से सडकों पर भीख मंगबायेगा। लूट-खसोट का जो कार्य जगन्नाथ मिश्र ने शुरू किया, लालू-नितीश उसे गोलघर बना दिया।”
आज स्थिति ऐसी है जैसे बिहार के गंगा तराई, खासकर बेगूसराय, मुंगेर, बाढ़, बख्तियारपुर, खगड़िया, मोकामा आदि इलाकों में एक कहावत प्रचलित है – किसी पुरुषार्थ वाले कार्यों संपन्न करने की जब बात होती थी, गाँव-घर-अंचल-जिला की रक्षा करने की जब बात होती थी तो बूढ़-पुरैनिया कहती थी: “पुरुख के बजा, पुरुख के बजा (पुरुष को बुलाओ, पुरुष को बुलाओ) ।” आज प्रदेश को मजबूत बनाने की आड़ में चिल्लाते हैं “पैसा लाओ, पैसा लाओ” चाहे प्रदेश के मुख्यमंत्री हों, ‘इच्छाधारी नेता हों, मंत्री हों, संत्री हों।” क्योंकि सभी जानते हैं कि पैसा का उपयोग कैसे होने वाला है और उसमें भी जब चुनाव सर पर हो।
वैसे डाक बंगला चौराहे इस बात की चर्चा खुलेआम है कि जिस प्रकार आपातकाल के समय पुरुषों को पकड़कर-पकड़कर ‘बधिया’ किया जाता था और फिर उनके लाभार्थ कम्बल, पांच किलो आटा, दो किलो आलू, कमीशन काट काट 70 रूपया नकद दिया जाता था ताकि लोग बाग़ ‘बधिया केंद्रों’ की ओर आएं, जबरदस्ती पकड़कर लाये जाएँ – कुछ अपने, कुछ उनके लाभार्थ । आज सामाजिक और आर्थिक परिभाषा तनिक बदल सा गया है और गरीब एक किलो आटा और एक किलो आलू के लिए आजकल अपना बहुमूल्य मत देता हैं। उन दिनों लोगों को जनसँख्या बिस्फोट से अवगत कराने के वजाय, परिवार में अधिक बच्चे/ सदस्य होने से होने वाली तकलीफों से अवगत करने के वजाय उन्हें लोभ के जाल में फंसाया जाता था। पचास वर्ष बाद भी राजनेताओं, अधिकारियों, पदाधिकारियों, मंत्रियों, संतरियों की सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। बच्चों को विद्यालय बुलाने के लिए लोभ दीजिये – खिचड़ी से लेकर किताब-कॉपी-पेन्सिल तक (सभी निजी क्षत्र के व्यापारियों द्वारा उत्पादित) ताकि सरकारी कोष से पैसे निकले, मंत्री से अधिकारी तक बन्दर-बाँट हो।
जो आई.ए तक पढ़ी और वियाह नहीं की उसे 25000, जो बीए तक पढ़ी और वियाह नहीं की उसे 50000 नकद दीजिये। जो भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रिलिमिनरी में उत्तीर्ण की, भले राज्य सरकार उन्हें चपरासी की नौकरी भी मुहैय्या करने में असमर्थ रहे, उसे एक लाख दीजिये – क्योंकि पैसा दे दिए, विकास हो गया। जबाड़ेही सम्पत । इतना ही नहीं सार्वजनिक रूप से महिलाएं अपने पति के साथ कैसे रहते हैं, कैसे सम्भोग करते हैं, आवादी कैसे बढ़ती है इसका सार्वजनिक रूप से शारीरिक इशारों से ज्ञान दीजिये और उपस्थित लोगों, यहाँ तक कि पत्रकारों से पूछिए भी – आप लोग भी समझिये इस बात को !! अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा ‘सोच बदलो-देश बदलेगा’ का बिहार में यही प्रभाव है तो निश्चित रहिये नीतीश बाबू की स्थिति भी उसी जमाव वाला पानी जैसा हो गया है जो अधिक दिनों तक जमाव होने से महकने लगता है।
डाक बंगला चौराहे पर तो मगही पान में तुलसी, 120, खुशबू डालने के बाद भी पान खाने वाले मतदाता कहते हैं ‘पता नहीं पटना नगर निगम वाले इस जमाव वाला पानी को साफ़ मैं नहीं करता, मतदाता विचार क्यों नहीं करता और मोदी जी पैसा देकर कब तक मतदाता को लुभाते रहेंगे। इस बजट में जो पैसे दिए प्रदेश के सभी विधायक, चाहे सत्तारूढ़ हों या विपक्ष या बिना किसी पार्टी के, टकटकी निगाह से देख रहे हैं कि कब चेक राज्य सरकार के कोष में आये और विकास के नाम पर पैसा लिया जाय। वैसे भी कहावत है ‘गए माघ बस उन्तीस बाकि’, विधान सभा का चुनाब तो अगले वर्ष ही है। ”
कल तक नरेंद्र मोदी का प्रत्यक्ष रूप से आलोचना करने वाले नीतीश बाबू आजकल पैर सहला कर हँसते हैं। उम्र में अधीन फासला नहीं है, लेकिन सोच में तो पूछिए ही नहीं। कुर्सी के लिए कुछ भी करेंगे । उधर मोदी जी भी देख रहे हैं कि बिहार का ‘कनिष्ठ मोदी’ अब रहे नहीं, जिन्हें आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया जाय और बिहार में शेष जो है भाजपा के नेता, उनकी अपनी छवि उतनी बेहतर नहीं है कि उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया जा। प्रयोग की शुरुआत तो हो गयी है। वैसे लोग बाग कहते हैं कि मोदी जी पार्टी में ‘एक आदमी – एक पद’ की बात कर रहे हैं, लेकिन प्रदेश के ज्ञानी-महात्मा जो मोदी जी को जानते हैं, वे कहते हैं की ‘मोदी जी अभी मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक फ्रायड की तरह ट्रायल एंड एर्रर सिद्धांत’ का प्रयोग कर रहे हैं।
बिहार के लोग बाग़ तो यह भी कहते हैं कि प्रदेश में भाजपा के दो चेहरा है – एक बाबू नित्यानंद राय और बाबू नन्द किशोर यादव – अच्छे छवि वाले लेकिन दुर्भाग्य यह है कि दोनों जैसे मिथिलाकी कहावत – ‘सुतल छी आ वियाह होइए (सोये हुए हैं और शादी हो रही है) – को अधिक चरितार्थ करते हैं। बाबू नित्यानंद राय दिल्ली से उजियारपुर और उजियारपुर से दिल्ली – इसके अलावे उनका प्रदेश के लोगों से उनका कोई ताल्लुकात नहीं है । इसी तरह बाबू नन्द किशोर यादव जैसे मन से शांत हैं वैसे ही शरीर से भी शांत हैं। ये सभी न तो प्रत्यक्ष रूप से सशरीर दीखते हैं और ना ही अख़बारों के पन्नों पर, टीवी के स्क्रीनों पर। अगर यह हालात रहा तो समय दूर नहीं है जब लोगबाग़ चेहरा भी भूल जायेंगे।”
विगत दिनों जब भाजपा ने विधान पार्षद व राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग के मंत्री डॉ. दिलीप जायसवाल को नया प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत किया जाना मोदी जी के उसी प्रयोग का नतीजा है। लोग बाग़ भले जायसवाल जी को माला पहनाएं, अंदर से फूल के एक-एक पत्ती को अलग-अलग कर देख रहे हैं। उनका तो यह भी कहना है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी बिना रीढ़ के हड्डी वाले हैं। पार्टी के अध्यक्ष के रूप में फैसला लेने का अधिकार उन्हें नहीं है। प्रधानमंत्री या गृह मंत्री का जो आदेश होता है उसे अमल में ला देते हैं, कागज पर हस्ताक्षर कर देते हैं। वैश्य में कलवाड़ समुदाय से आने वाले दिलीप जायसवाल पूर्व में पार्टी के प्रदेश कोषाध्यक्ष रह चुके हैं।
उधर नीतीश कुमार सोचते हैं कि अब संख्या 45-46 होने तक तो मुख्यमंत्री बन ही गए, आगामी चुनाव में सागर सन्यास ले भी लेते हैं तो उनके रिकॉर्ड को तोड़ने में बहुत समय लगेगा। स्वाभाविक भी है। नेता इतना निर्लज्ज होगा भी नहीं कि कुर्सी के लिए सभी शर्त मान्य है कहता चला जाय। लोग बाग़ तो यह कह रहे हैं कि आगामी वर्ष होने वाले विधान सभा के चुनाव में सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के दावेदार नहीं होंगे – यह तय हो गया है दिन दयाल उपाध्याय मार्ग पर जहाँ भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय कार्यालय है। विगत पांच दशकों में, खासकर सन 1974 के आंदोलन के बाद प्रदेश का राजनीतिक दृष्टि से कितना पतन हुआ है, नेता लोग अपने-अपने क्षेत्रों के विकास की तुलना में, अपना-अपना कितन विकास किये हैं, यह तो उनका आकार-प्रकार से लेकर धन-संपत्ति-बैंक राशि, माकन, मॉल आदि बताता है। उससे भी अधिक बताता है उनके द्वारा जो कागजात निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत किया जाता है।
वैसे नीतीश कुमार के मुताबिक बजट 2024 से उनकी उम्मीदें पूरी हुई है। आम बजट 2024 में बिहार के लिए विशेष राहत पैकेज का ऐलान किया गया है और कुमार साहब केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का धन्यवाद भी दिया है। वित्त मंत्री ने बजट में बिहार में चार नए एक्सप्रेस-वे बनाने के प्रस्ताव दिए हैं। आम बजट में बिहार में सड़क प्रोजेक्ट के लिए 26 हजार करोड़ के पैकेज की घोषणा की गई। इसके अलावा 21 हजार करोड़ के पावर प्लांट का भी ऐलान किया गया। केंद्र सरकार ने पटना से पूर्णिया के बीच एक्सप्रेस-वे बनाने के लिए फंड देने का ऐलान किया है। इसके अलावा बक्सर से भागलपुर के बीच हाईवे बनाया जाएगा। साथ ही बोधगया से राजगीर, वैशाली होते हुए दरभंगा तक हाईवे बनेगा। बक्सर में गंगा नदी पर दो लेन का एक पुल भी बनाया जाएगा। केंद्र सरकार बिहार में कई एयरपोर्ट, मेडिकल कॉलेज और स्पोर्ट्स इंफ्रास्ट्रक्चर की स्थापना करेगी। पीरपैंती में 2,400 मेगावाट का पावर प्लांट स्थापित किया जाएगा।
आश्चर्य तो यह है कि एक तरफ नीतीश कुमार महिलाओं की मर्यादा को तोड़ने में तनिक भी बिलम्ब नहीं करते, चाहे ‘सम्भोग और बच्चा जन्म देने की बात हो,’ या सदन के पटल पर खुलेआम एक महिला विधायिका को कहें कि ‘आप महिला हैं, बैठ जाओ, नहीं समझोगी’, लेकिन प्रदेश में महिला सशक्तिकरण के लिए अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति का ढिंढोरा पीटने में कोई कोताही नहीं कर रहे हैं। उनके मंत्री और अधिकारी कहते हैं कि “उन्होंने महिलाओं के लिए कई अग्रणी कदम उठाकर बिहार अन्य राज्यों के लिए एक ट्रेंडसेटर बनने की ओर अग्रसर है। इसे पंचायती राज संस्थाओं और शहरी निकायों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण प्रदान करने के कदम से देखा जा सकता है, जिसने एक सामाजिक क्रांति की नींव रखी। इस क्रांति को कई नई योजनाओं और नीतिगत पहलों द्वारा पूरक बनाया गया है – मुख्यमंत्री बालिका साइकिल योजना, मुख्यमंत्री बालिका पोशाक योजना, मुख्यमंत्री अक्षर आंचल योजना , जिनमें से महिला साक्षरता योजनाओं में मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना का एक अलग स्थान है।”
इतना ही नहीं, महिलाओं को सार्वजनिक रूप से भले ‘सम्भोग कैसे करते हैं’ का ज्ञान दें, लेकिन यह कहते नहीं थकते महिलाओं से सम्बंधित विकास योजना उनके और उनकी सरकार के लिए एक ‘गेम-चेंजर’ योजना है, जिसमें जीवन चक्र दृष्टिकोण शामिल है और यह सार्वभौमिक’ है। अब सवाल यह है कि जब अपनी योजनाओं को ‘गेम चेंजर’ शब्द से अलंकृत करते हैं तो व्यावहारिक रूप से इसका जो भी असर पड़े, हकीकत यह है कि यह प्रदेश के मतदाताओं के साथ, खासकर महिलाओं के साथ खेल खेल रहे हैं और उन्हें विस्वास है कि यह खेल उनके पक्ष में ही बदलाव लाएगा।’
बिहार सरकार के अधिकारी कहते है कि ‘समग्र योजना’ के तहत ‘बालिका के जन्म से लेकर उसके स्नातक होने तक 54,100 रुपये की वित्तीय सहायता प्रदान करना है। इंटरमीडिएट स्तर पास करने पर बालिका को स्नातक में दाखिला लेने के लिए प्रोत्साहन के रूप में 10,000 रुपये की आर्थिक सहायता प्रदान की जाएगी। इसके बाद, स्नातक की पढ़ाई पूरी करने पर 25,000 रुपये की पुरस्कार राशि दी जाएगी। जीवन के विभिन्न चरणों में विभिन्न चरणों में दी जाने वाली वित्तीय सहायता, शिक्षा की लागत के कारण पढ़ाई छोड़ने की संभावना के खिलाफ निवारक उपाय के रूप में उपयुक्त रूप से काम करेगी।’ इसी तरह, ‘समावेशी दृष्टिकोण’ वाली योजना की कोई सीमा नहीं है क्योंकि यह जाति, आय या धर्म पर आधारित नहीं है। इस प्रकार, यह कार्यक्रम वास्तव में सार्वभौमिक है, अन्य योजनाओं के विपरीत जो मुख्य रूप से हाशिए पर पड़े छात्रों को लक्षित करती हैं।’
आधिकारिक सूत्र यह कहता है कि ‘इससे पहले किसी भी योजना ने शिक्षा में मासिक धर्म प्रबंधन के मुद्दे को एमकेयूवाई की तरह संबोधित नहीं किया है। यह न केवल संबोधित करता है बल्कि इसे सुनिश्चित करने की दिशा में एक ठोस कदम भी उठाता है। यह योजना मासिक धर्म के दिनों में स्वच्छता सुनिश्चित करने के लिए सातवीं से बारहवीं कक्षा तक की प्रत्येक बालिका को प्रतिवर्ष 300 रुपये प्रदान करती है। सरकार मानती है कि ‘यह नकद हस्तांतरण प्रदान करके गरीबी, विवाह और मासिक धर्म संबंधी समस्याओं के कारण पढ़ाई छोड़ने के खिलाफ एक निवारक उपाय के रूप में काम करता है, कक्षा 12 पूरी करने पर अविवाहित होने की शर्त सुनिश्चित करता है।’ आज़ादी के 76 वर्ष बाद बिहार के मुख्यमंत्री, मंत्री, अधिकारी, पदाधिकारी की सोच ‘नैपकिन पैड’ तक ही सीमित रहेगी, यह जानकार तकलीफ होती है। धन्यवाद के पात्र हैं आप नीतीश बाबू।
अधिकारी कहते हैं कि “मुख्यमंत्री बालिका प्रोत्साहन योजना” के तहत, बिहार सरकार लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने और स्कूलों में लैंगिक अंतर को पाटने के लिए समर्पित है। यह योजना आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों की लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय सहायता और प्रोत्साहन प्रदान करती है। यह छात्रवृत्ति, मुफ़्त पाठ्यपुस्तकें, यूनिफ़ॉर्म और साइकिल प्रदान करती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि लड़कियों को स्कूल जाने और अकादमिक रूप से उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के समान अवसर मिलें। इसी तरह, “बिहार स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड” योजना का उद्देश्य मेधावी छात्रों को बिना किसी वित्तीय बाधा के उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम बनाना है। इस योजना के तहत, छात्र बिना किसी जमानत के कम ब्याज दर पर ₹4 लाख तक का शिक्षा ऋण प्राप्त करने के पात्र हैं। यह पहल छात्रों को अपने सपनों को पूरा करने, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने और बिहार के विकास में योगदान करने का अधिकार देती है।’
अधिकारी आगे कहते हैं कि “मुख्यमंत्री अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति उच्च शिक्षा प्रोत्साहन योजना” का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के छात्रों का उत्थान करना है। यह योजना पेशेवर पाठ्यक्रमों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले एससी/एसटी छात्रों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है। इसमें ट्यूशन फीस, किताबें, आवास और अन्य शैक्षिक आवश्यकताओं जैसे खर्चों को शामिल किया जाता है। यह पहल हाशिए के समुदायों के छात्रों के लिए समान अवसर प्रदान करती है और समावेशी विकास सुनिश्चित करती है। इसी तरह, “मुख्यमंत्री बालक/बालिका प्रोत्साहन योजना” डिजिटल शिक्षा को अपनाती है और इसका उद्देश्य बिहार में डिजिटल विभाजन को पाटना है। इस योजना के तहत, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के छात्रों को प्री-लोडेड शैक्षिक सामग्री के साथ टैबलेट/लैपटॉप मिलते हैं। यह पहल न केवल छात्रों के सीखने के अनुभव को बढ़ाती है बल्कि उन्हें 21वीं सदी के नौकरी बाजार के लिए आवश्यक डिजिटल कौशल से भी लैस करती है।’