लालू के ‘छोटका’ ननकिरबा ‘दर्जनों’ बच्चा के ‘बाबू’ बने, मिथिला-पाग का हश्र “कांग्रेस” जैसा नहीं हो, क्योंकि तस्वीर बहुत कुछ कहती हैं

मिथिला, मिथिला का पाग, मिथिला के सम्मानित नेता और कांग्रेस पार्टी

नई दिल्ली: बिहार विधान सभा से लेकर, विधान परिषद्, राज्य सभा और लोक सभा में कांग्रेस पार्टी के सम्मानित सदस्यों के संख्या को मद्दे नजर रखते, दिल्ली के 10-जनपथ सहित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय आला नेताओं के बीच इस तस्वीर की चर्चा है। चर्चा करने वाले एक ओर जहाँ लालू प्रसाद यादव के नवमी कक्षा ‘उत्तीर्ण’ कनिष्ठ पुत्र तेजस्वी यादव को उनके नवीन वैवाहिक जीवन पर अन्तःमन से बधाई दे रहे हैं, वही लोगों का यह भी कहना है कि प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की स्थिति ऐसी क्यों हुई, मिथिला के नेता के सामने “मिथिला-पाग” की यह दशा एक दृष्टान्त हैं। यह दशा न केवल पार्टी की भविष्य को ‘वर्त्तमान के रास्ते भूत से भविष्य की दिशा को दर्शा रहा है, बल्कि इस बात का भी जीता-जागता उदाहरण भी है कि मिथिला के लोग मिथिला की संस्कृति के नाम पर मिथिला के पाग का राजनीतिक में कैसे इस्तेमाल करते हैं।

10-जनपथ से दस-कदम दूर स्थित एक सरकारी बंगला के मुख्य द्वार पर खड़े गैर-कांग्रेसी नेता आर्यावर्तइण्डियननेशन को कहते हैं: “पाग मिथिला का एक सम्मान है। मिथिला के प्रत्येक लोगों की इज्जत है। मिथिला का एक-एक बच्चा पाग के सांस्कृतिक गरिमा को समझता हैं। पाग के रंगों की महत्ता को समझता है। वह यह भी समझता है कि किस रंग का पाग किस अवसर पर कौन पहनता है। पाग किसे पहनाया जाय। पाग पहनाने का शाब्दिक अर्थ और वास्तविक अर्थ क्या है। परन्तु, तकलीफ इस बात कि है कि मिथिला में अब राजनीति होती है और उस राजनीति में मिथिला का पाग धरल्ले से इस्तेमाल होता है । अन्यथा आज मिथिला पाग की यह स्थिति नहीं होती। मिथिला की संस्कृति की यह स्थिति नहीं होती।

नेताजी मुस्कुराते कहते हैं : “कांग्रेस आला कमान अपनी राजनीतिक पार्टी के सबल (ध्यान रहे इसमें चापलूस, चाटुकार, जीहुजूरी इत्यादि करने वाले नेतागण शामिल नहीं हैं) नेताओं द्वारा खुले मन और आत्मा से अपनी पार्टी की दशा का मंथन करे तो प्रदेश के कांग्रेस पार्टी के ही आला अधिकारी के समक्ष मिथिला-पाग की वर्तमान स्थिति की ‘दशा’ और ‘दिशा’ सम्पूर्णता के साथ प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की स्थिति को बताता है।

नेताजी आगे कहते हैं: मिथिला में तो करवा चौथ नहीं होता है, वहां की महिलाएं अपने पति के लिए मधुश्रावणी पूजा करती हैं; लेकिन हमारे इलाके की महिलाएं लोग करवा चौथ करती हैं। अगर कांग्रेस पार्टी की बुनियाद और वर्तमान स्थिति के साथ, पार्टी की भविष्य के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो 10-जनपथ के अंदर बैठी मोहतरमा के अलावे कांग्रेस के राष्ट्रीय नेताओं से लेकर कानपुर, बनारस, दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन और बक्सर के रास्ते पाटलिपुत्र स्थित कांग्रेसी नेतागण के सामने बिहार में कांग्रेस की वर्तमान और भविष्य को कारवाँ-चौथ वाली छलनी से छना चन्द्रमा जैसा साफ़ दिखेगा।

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बहरहाल, 243 सदस्यों वाली बिहार विधान सभा में कांग्रेसियों स्थिति का वास्तविक परिचय यह आंकड़ा करा रहा है। वर्तमान में कांग्रेस विधायकों की संख्या 19 है जबकि 75 संख्या वलिव विधान परिषद् में कांग्रेस 3 की संख्या पर टिमटिमा रही है। बिहार से दिल्ली के ऊपरी सदन यानी राज्य सभा में 16 सदस्यों की सख्या में 1 ‘सम्मानित’ सांसद है और लोक सभा के 40 सदस्यों में भी अंक 1 ही है।

ज्ञातव्य को कि कुछ वर्ष पूर्व कांग्रेस के करीब 23 नेताओं ने, जिसमें पांच पूर्व मुख्यमंत्री, कई पूर्व केंद्रीय मंत्री मसलन गुलाम नवी आज़ाद, आनंद शर्मा, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, शशि थरूर, मुकुल वासनिक, भूपिंदर हुडा, पृथ्वीराज चवण, राज बब्बर भी थे, सबों ने 10-जनपथ के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी में आमूल परिवर्तन के लिए हल्ला बोले थे।

बहरहाल, महोदय हँसते कहते हैं: “लालू प्रसाद यादव के छोटका ननकिरबा और उसकी कनिया का वैवाहिक जीवन लड्डू जैसा मीठा हो, जीवन पर्यन्त। पिता के सभी गुणों को ग्राह्य करे छोटका ननकिरबा । राजनीतिक जीवन में उत्कर्ष पर पहुंचे (सजग मतदाता अधिक ज्ञानी हैं) । घर में दर्जनों बच्चों का सूर्योदय से अर्ध-रात्रि तक कलरव होता रहे। माता-पिता-दादा-दादी बच्चों की शोरगुल से अपने तत्कालीन युग में जियें, हँसे, आनंद लें। महादेव से प्रार्थना करुंगा । लेकिन सीता-विवाह भी तो कुछ दिन पहले ही मिथिला में संपन्न हुआ है। मिथिला के लोगों को ऐसे नेताओं से एक बित्ता की दूरी अवश्य रखना चाहिए जिन्होंने “पाग” को “मजाक” बना दिया है। यह तस्वीर जीता-जागता उदाहरण हैं।”

खैर, आज़ादी के बाद, या यूँ कहें कि महाराजा कामेश्वर सिंह की मृत्यु तक मिथिला की संस्कृति जितनी मजबूत और सुरक्षित थी, आज नहीं है। यानी अक्टूबर 1962 के बाद मिथिलाञ्चल में मिथिला की संस्कृति को संरक्षित रखने वाला नहीं रहा। आज भले हम मिथिला लोक-चित्रकला को विश्व में प्रचार-प्रसार के माध्यम से फैलाएं, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मिथिला लोकचित्रकला के कलाकार आज मृतप्राय हो गए हैं। समाज, सरकार अथवा मिथिलाञ्चल के जिला प्रमुखों से इस ऐतिहासिक लोकचित्रकला को उतना संरक्षण नहीं मिलता है जितने का वह हकदार हैं।

आज स्थिति ऐसी हो गयी है की मिथिलाञ्चल के लोग, विशेषकर पुरुष समुदाय, न केवल “पाग के वास्तविक महत्व” से अपरिचित हैं, बल्कि उसका सम्मान भी नहीं कर पाते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो इस पाग को “सब धन बाईस पसेरी” जैसा सबों के माथे पर सजाकर फोटो-सेशन नहीं करते, सोसल मीडिया पर या भारत की सड़कों पर “पाग का राजनीतिकरण नहीं होने देते, नहीं करते।”

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‘मैथिल’ शब्द दरअसल एक सामुदायिक पहचान है, जिसका सीधा संबंध मिथिला की सांस्कृतिक अस्मिता से है, किसी जाति, धर्म, संप्रदाय से नहीं। हर क्षेत्र के नागरिकों की सामुदायिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय पहचान के साथ-साथ उन सबकी अलग-अलग जातीय पहचान भी होती है। कोई भी सामुदायिक पहचान उस क्षेत्र की जातीय पहचान पर सवाल नहीं उठाती। पर मिथिला में ऐसा दिखता है। कहा जाता है कि भारत सहित विश्व में कोई चार करोड़ से अधिक मैथिल हैं।दरभंगा, मधुबनी, झंझारपुर और सुपौल में खासतौर पर, और इसके अलावा बिहार के कई जिलों और दूसरे राज्यों में भी मैथिल या मैथिली भाषी बसे हुए हैं।

अगर मिथिलांचल के लोग, विशेषकर जो “पाग की अहमियत” समझते हैं, अपने ही घरों में, अपने ही समाज में, टोले-मुहल्लों में एक सर्वे करें की किनके – किनके घरों में “वास्तविक पाग (सफ़ेद रंग का अथवा भटमैला रंग का) है ? हाल, पीला, हरा, ब्लू, रंग-बिरंगा, सतरंगी, लोकचित्रकला वाला नहीं; तो औसतन सैकड़े घरों की बात नहीं करें, हज़ार घरों में शायद दस अथवा बीस घरों में पाग की उपस्थिति दर्ज होगी। विस्वास नहीं तो हो आजमा कर देखिए। अब स्थिति यह है कि हम अपने घरोंमें, मिथिला के समाजों में पाग के महत्व को नहीं बता सके, वर्तमान पीढ़ी को नहीं बता सके, लेकिन देश के मुंबई, दिल्ली, कलकत्ता, चेन्नई, बंगलुरु, मंगलुरु, कानपूर, नागपुर, बराकर के अतिरिक्त देश के 718 जिलों में “पाग से अर्थ कमाने के लिए पाग का विपरण करने में जुटे हैं।”

देवशंकर नवीन का कहना है : इसके अतिरिक्त, क्या सर्वजन मैथिलों ने आम सहमति से अपने पारंपरिक प्रतीक ‘पाग’ के स्वरूप में यह फेरबदल स्वीकार कर लिया? अब तक पाग पर किसी तरह की चित्रकारी की मान्यता नहीं थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि बाजार की चमक-दमक ने मैथिलों के सांस्कृतिक संकेत पर अपना कब्जा बना लिया!

दूसरा सवाल पाग की पारंपरिक मान्यता को लेकर है। बचपन से देखता आ रहा हूं कि अनेक शहरों में मैथिल जनता अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए महाकवि विद्यापति की बरसी मनाती है। उन आयोजनों में आमंत्रित विशिष्ट जनों का पाग-डोपटा से सम्मान करते और अपने सांस्कृतिक उत्कर्ष का दावा करते हुए मैथिल आत्ममुग्ध होते हैं। गीत, कविता, चुटकुला, नाच-नौटंकी सब आयोजित करते हैं। आयोजन का नाम रहता है ‘विद्यापति स्मृति पर्व’, पर विद्यापति वहां सिरे से गायब रहते हैं। आयोजन का लक्ष्य शायद ही कहीं साहित्य और संस्कृति का उत्थान या अनुरक्षण रहता हो!

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सतही मनोरंजन के अलावा वहां ऐसा कुछ भी नहीं दिखता, जिसमें ‘मैथिल’ का कोई वैशिष्ट्य सिर उठाए। ‘पाग’ जैसे सांस्कृतिक प्रतीक की अधोगति भी ऐसे अवसरों पर भली-भांति हो जाती है। दरअसल, मिथिला में ‘पाग’ का विशष्ट महत्त्व है। पर उल्लेखनीय है कि यह पूरी मिथिला का सांस्कृतिक प्रतीक नहीं है। ‘पाग’ की प्रथा मिथिला में सिर्फ ब्राह्मण और कायस्थ में है। इन जातियों के भी ‘पाग’ की संरचना में एक खास किस्म की भिन्नता होती है, जिसे बहुत आसानी से लोग नहीं देख पाते। पाग के अगले भाग में एक मोटी-सी पट्टी होती है, वहीं इसकी पहचान-भिन्नता छिपी रहती है। इससे आगे की व्याख्या यह है कि इन दो जातियों में भी सारे लोग पाग नहीं पहनते। परिवार या समाज के सम्मानित व्यक्ति इसे अपने सिर पर धारण करते हैं। यह उनके ज्ञान और सामाजिक सम्मान का सूचक है।

समय के ढलते बहाव में धीरे-धीरे यह प्रतीक उन सम्मानित जनों के लिए भी विशिष्ट आयोजनों-अवसरों का आडंबरधर्मी प्रतीक बन गया। संरचना के कारण इसे धारण करना बहुत कठिन है। विनीत भाव से भी इसके धारक कहीं थोड़ा झुक जाएं, तो यह सिर से गिर जाता है। मैथिली में ‘पाग गिरना’ एक मुहावरा है, जिसका अर्थ है ‘पगड़ी गिरना’, ‘इज्जत गंवाना’। लिहाजा, संशोधित परंपरा में आस्था रखने वाले आधुनिक सोच के लोगों के सामने इसने बड़ी दुविधा खड़ी कर दी है।

दूसरा प्रसंग ‘लाल पाग’ का है। ‘लाल पाग’ विशुद्ध रूप से उक्त दोनों जातियों के लिए वैवाहिक प्रतीक है। इसे केवल विवाह या विवाह से संबद्ध लोकाचारों में दूल्हा पहनता है। लेकिन अब अपनी संरचनात्मक असुविधा के कारण दूल्हे भी इसे खानापूर्ति या रस्मअदायगी के लिए धारण करते हैं। ऐसे में ‘पाग’ को पूरी मिथिला की सांस्कृतिक पहचान मानना शायद सही नहीं होगा। उसमें पूरे मैथिल-समाज की भागीदारी नहीं होगी।

इसके अलावा, यह भी समझा जाएगा कि सिर्फ दो जातियां पूरे मिथिला की सभी जातियों पर अपनी परंपरा थोप रही हैं। सामुदायिक स्तर पर देखें तो इसका बेहतरीन विकल्प ‘मखाना’ है, जो मिथिला की जल-कृषि का प्रतीक है। मिथिला के उन्नायकों को जाति-विशेष की लकीर पर डटे रहने के बजाय इस दिशा में सोचना चाहिए। अपनी सांस्कृतिक धरोहरों पर गर्व करना अच्छी बात है, पर उन्हें जानना जरूरी है। परंपरा को जाने बगैर कोई उसका समुचित सम्मान नहीं कर सकता।

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