अँग्रेजी कैलेण्डर में जिस तारीख़ को दरभंगा के कुमार साहेब जन्म लिए, उसी तारीख़ को डॉ जगन्नाथ जी का निधन हुआ, माह में ही तो अंतर था 

आदरणीय कुमार शुभेश्वर सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा और हमारे ज़माने के पत्रकार मगनदेव जी 

पटना : विगत दिनों पटना के एक अखबार का दरभंगा संस्करण हाथ में लिए मजहरुल हक़ पथ यानि फ़्रेज़र रोड में एक दक्षिण भारतीय भोजनालय के चबूतरे पर पूरब दिशा की ओर मुख कर बैठा था। मुझे बैठा देखकर आने-जाने वाले लोग-बाग़, युवक-युवतीगण, स्मार्ट-शहर के स्मार्ट लोग शायद “पटनिया ढ़क्कन” समझ कर मुस्कुराते निकल रहे थे। मैं भी अपने क्रिया-कलाप से उन्हें निराश नहीं करना चाहता था। वैसे भी आज के इस दौड़ती-भागती जिन्दगी में हँसने का भी अवसर कहाँ मिल रहा है लोगों को, वजह की बात तो बेवजह नहीं करेंगे। 

सामने  सड़क दो फाँक में लोहे के पाईपों से विभक्त था। आम तौर पर बिहार में पिता के मरने के बाद भाइयों में इसी तरह एक-कठ्ठा ज़मीन का बँटबारा होता है। जमीन को लोहे के सिक्कड़ से बाँध दिया जाता है और जो हिस्सा जिसके हिस्से में आती है, उसके चारो ओर कँटीले तार लगा दिया जाता है, भले ही जंजीर और कँटीले तार की कीमत जमीन की कीमत से अधिक हो जाय । यहाँ सड़क को बांटने वाले लोहे को कोई हिला न सकें, उसके नीचले हिस्से को कंक्रीट के सहारे जमीन में जड़ दिया गया था। सड़क के दोनों तरफ का वातावरण शांत था। अभी पेट्रोल पम्प के ऊपर से डी-लाल एण्ड सन्स की गलियों में स्थित भवनों की छतों के ऊपर से भगवन सूर्यदेव का प्रकाश आने लगा था। ऐसा लग रहा था कहीं दूर, बहुत दूर बहुत प्रकाश हुआ है जिसका प्रभाव पाटलिपुत्र की धरती पर, मजहरुल हक़ पथ यानि फ़्रेज़र रोड पर दिख रहा था। या फिर यह भी सम्भव था कि भगवान् सूर्यदेव को इस बाद का ज्ञान था कि उनका बच्चा आज शहर में है, इसलिए स्वच्छ और तेज प्रकाश मेरी ओर दे रहे हों। 

सडकों पर लोगों का, वाहनों का आना-जाना बहुत कम था। वैसे भी सुवह-सवेरे कौन निकलता शहरों में, उस पर भी रविवार को। डी लाल एण्ड सन्स की गली की नुक्कड़ पर दशकों पुरानी परम्परों का निर्वहन करते रेड़ी पर चाय की दूकान चकाचक चल रही थी। “सफेदपोश” नेताजी लोग चाय की चुक्सी लेते अपने-अपने गाँव के बारे में, जिलों के बारे में, विधायकों के बारे में चर्चाएं कर रहे थे। कुछेक नेताजी तो पटना के प्रातःकालीन संस्करणों की प्रतियां भी खोलकर, मोड़कर अपने-अपने बाँहों में जकड़ रखे थे; जहाँ उनके जिले के बारे में खबर छपी थी। यह आम बात है। ताकि विधायक जी को अगर दिखाना पड़े तो तुरंत अखबार आगे कर दें। 

हमारे सामने कोई 75 डिग्री कोण पर एक विशालकाय भवन, जिसके बाहरी दीवारों पर रंग-बिरंगे कच्छा-बनियान पहने अर्धनग्न महिला-पुरुषों की विशालकाय तस्वीरें, पोस्टरों के रूप में लटका था। लगता था पटना के लोगबाग उन्हीं तस्वीरों को देखकर शरीर का आन्तरिक वस्त्र खरीदते होंगे। कुछेक मेरे जैसा ही मुच्छड़ सुरक्षा-पोशाक में चहलकदमी कर रहे थे। हाथ में कोई तीन-फुट का डंडा इस कदर घुमाते स्वयं घूम रहे थे, जैसे ए के 47-56 से सज्ज हों। आम तौर पर दिल्ली में भारत सरकार के गृह मंत्रालय के मुख्य द्वारा पर खड़े सुरक्षा कर्मियों में भी इतना “एटीच्यूड” नहीं होता। वे लोगों को देखकर मुस्कुराते जरूर हैं ताकि उनका मानसिक तनाव काम रहे। यहाँ तो स्थिति विपरीत थी। वैसे भी खाली-कनस्तर बहुत आवाज करता है, बड़े-बुजुर्ग कहते हैं, भले उनकी बातों को कोई तबज्जो नहीं देता हो आज के माहौल में। 

इन समस्त दृश्यों को देखकर मैं कोई साढ़े चार दसक पहले चला गया जब इस सड़क पर हम लोगों की तूती बोलती थी। पेट्रोल पम्प के कोने पर पामट्री। इसी पेड़ से यह स्थान विख्यात था। दाहिने कोने पर तिवारी का बेटा – बारम्बार चूने वाले वर्तन को टन-टन करता था । यहीं से प्रारम्भ हो जाता था आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बार का सीमा। पीला रंग में रंगा दीवार। दीवार और सड़क के बीच कोई 10 फीट खाली जगह। चूँकि उन दिनों भारत में ऐसा कोई अभियान प्रारम्भ नहीं हुआ था, जो सड़क पर लघु अथवा दीर्घ शंका के निवारण के लिए लोगों को दण्डित किया जाय  । दीर्घ की तो संभावनाएं रात्रि बेला में भी संभव नहीं होता था, लेकिन दिन में क्या शिक्षित, क्या अशिक्षित, क्या रिक्शावाला, क्या गाड़ीवाला सभी निवृत होते थे। 

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कई विधायकों, सांसदों, नेताओं को इन दीवारों पर पानी छोड़ते देखा था उस ज़माने में जब वे अन्दर दफतर से पत्रकारों से, सम्पादकों से मिलकर बाहर निकलते थे। ऐसा लगता था पत्रकार बंधू, सम्पादकजी क्या कह दिए उन्हें की उन्हें लघु-शंका से निवृत होने की नौबत आ गयी।  सभी सम्पादकों के सामने बौने होते थे। दफ्तर में आकर संपादक से मिलते थे, वार्तालाप करते थे। प्रदेश की समस्याओं पर बात करते थे – अगर सकारात्मक प्रतीत हुआ तो दूसरे दिन अखबार के पन्ने पर दीखते थे। इसी सड़क पर हमारा अखबार का दफ्तर हुआ करता था – आज वहां की जमीन के पचास फीट नीचे भी उसका नामोनिशान नहीं मिलेगा। 

आदरणीय कुमार शुभेश्वर सिंह दफ़्तर में 

खैर। अपने हाथ में लिए अखबार को देखकर आँखें अश्रुपूरित था। आज कई वर्षों / दसक बाद दरभंगा के एक अखबार में कुमार शुभेश्वर सिंह का नाम पढ़े थे, कोई 100 शब्दों की कहानी में किसी और बनिए के अखबार में।  एक जमाना था जब इस शख्श के ऊँगली के इशारे पर हज़ारों-हज़ार रोटरी मशीन पर छपता अखबार रुक जाता था। देर रात वरिष्ठ पत्रकार, संवाददाता साईकिल से, स्कूटर से, रिक्शा से दफ्तर आते थे, नई कहानियां लिखी जाती थी, जिंक का प्लेट बनता था, सफाई होती थी, अखबार पुनः छपता था और अगले सुवह पटना शहर में कोहराम मचाता था – सरकार गिरती थी, सरकार बनती थी। इन विगत वर्षों में कभी इनका नाम पढ़ा नहीं था किसी अखबार में, किसी सोसल मीडिया पर। सब समय है। 

तकलीफ़ तो उस समय और ह्रदय-विदारक हो गयी जब श्री शुभेश्वर सिंह साहेब के नाम के आगे कहीं लिखा देखा: “महाराजकुमार” तो कहीं देखा: “राजकुमार” – कोई समरूपता नहीं शब्दों में। काश! मन में जिज्ञाषा भी हुआ की छपने से पूर्व अब तो शब्दों को प्रूफ-रीडर नहीं पढ़ता होगा, लोग-बाग़ पैसे बचाने के लिए या तो खुद प्रूफ-राइडिंग करते होंगे, या फिर कंप्यूटर बाबू के पेट में रखे गए हार्ड-सॉफ्ट सञ्चालन-पद्धति। खैर। मैं व्याकुल तो जरूर था अपने पूर्व के संस्थान के प्रबन्ध-निदेशक के नाम के आगे-पीछे लिखा देखकर। 

वैसे हमारे प्रबन्ध निदेशक साहेब क्रिकेट के बहुत शौकीन थे। अपने संस्थान में भी कर्मचारियों को टीम में रखे थे। जब भी क्रिकेट मैच होता था, पटना से घोती-वाले पण्डित जी खिलाड़ी के रूप में दरभंगा पहुँचते थे। मालूम होता था की इधर पहले मैच में दस रन बनाये, उधर पटना में उनकी प्रोन्नति बण्डल उठाने से सीधा हेड-क्लर्क में हो गया। एक बार पटना की सड़क पर केंद्रीय रिजर्व पुलिस का लाठी चार्ज की थी। बहुत भागम-भाग था। कई घायल हुए थे। उस भीड़ में हमारे संस्थान का एक खिलाड़ी जो दरभंगा में मैच के दौरान स्लीप पर खेलता था और पटना में छायाकार था, भीड़ में खटाखट – खटाखट कैमरे का बटन दबा रहा था। मैं भी अपने छोटका डायरी पर स्थिति को लिख रहा था। शाम में कोई 500-शब्दों की कहानी लिखा और रिपोर्ट के नीचे उक्त खिलाड़ी छायाकार का नाम लिख दिया, जिन्हे फोटो देते थे। उन दिनों फोटो का पहले निगेटिव और फिर जिंक का प्लेट बनता था। देर शाम जब छायाकार महोदय आये तो सबों की निगाहें एक साथ उनकी ओर उठी – फोटो के लिए। स्लिप पर खेलने वाला खिलाड़ी अपना चौबीस दाँत निपोड़ दिए और कहे: “कैमरा में फिल्म नहीं था, हम समझ नहीं पाए।” यानि स्लिप पर स्लिप। 

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तभी हाल में मृत्यु को प्राप्त किये श्री मोतीलाल वोहरा साहेब याद आ गए। सन 2005 में जब डॉ मनमोहन सिंह प्रधान मंत्री बने थे, हम एक किताब पर कार्य कर रहे थे – प्राइमिनिस्टर्स ऑफ़ इण्डिया: भारत भाग्य विधाता। यह किताब आज़ादी के एक क्रांतिकारी के वंशज के निमित्त था। इस किताब में अनेकानेक गणमान्य व्यक्ति लिखे थे। इसी किताब का डमी लेकर श्री वोहरा साहेब के घर गया था। बहुत ही सम्मान के साथ उन्होंने स्वागत किया, गप-शप किये। बहरहाल, काँग्रेस के बुजुर्ग लोगों का कहना है कि आज़ादी के कोई तीन साल बाद, यानि सन 1950 में, जब जमींदारी प्रथा समाप्त हो गई थी, देश के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दरभंगा के अंतिम राजा सर कामेश्वर सिंह को कहा था कि वे काँग्रेस पार्टी में आ जाएँ। नेहरू के इस प्रस्ताव से महाराजा स्तब्ध नहीं हुए, परन्तु उन्होंने अनेकानेक तर्क दिए और विस्वास दिलाए की जमीन्दारी समाप्त होने के बाद भी काँग्रेस को जब भी मदद की जरुरत पड़ेगी, दरभंगा राज और वे ससम्मान हाज़िर रहेंगे मदद करने के लिए। 

आदरणीय कुमार शुभेश्वर सिंह दरभंगा में – नमन आपको, मुद्दत बाद जन्मदिन की शुभकामनायें स्वीकार करें 

महाराजा सर कामेश्वर सिंह ने यह भी कहा कि अर्थ के लिए काँग्रेस कभी कमजोर नहीं होगी जब तक वे जीवित हैं। देश में, लोगों के आर्थिक-औद्योगिक विकास के लिए जब भी धन की जरुरत होगी, दरभंगा राज सबसे आगे रहेगा, वे सबसे आगे रहेंगे  – भारतीयों के कल्याणार्थ, उसके विकास के लिए। यह विस्वास सिर्फ और सिर्फ उनके जीवित रहने तक का है। जब तक वे शरीर से पार्थिव नहीं होंगे, उनकी आत्मा काँग्रेस के लिए, भारत के लोगों के लिए जीवित रहेगी। लेकिन वे इस बाद पर अडिग रहे की काँग्रेस में विधिवत नहीं आएंगे और इसका वजह यह है कि प्रत्येक कांग्रेसी को शराब का सेवन न करने की शपथ लेनी होती थी, और जमींदार इसके शौकीन होते हैं।

सन 1962 में दरभंगा के अंतिम महाराजा द्वारा अंतिम सांस लेने, उनके शरीर को पार्थिव होने के कोई चार-दसक बाद आर्यावर्त – इण्डियन नेशन अखबार के प्रबन्ध निदेशक, जिनके कार्यकाल में महाराजा द्वारा स्थापित बिहार का इन दो अख़बारों का पन्ना भी पार्थिव हुआ, अखबारों ने अंतिम सांस ली, महाराजा साहेब के भतीजे श्री शुभेश्वर सिंह ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि वे विवाह के साथ अपने सभी अवगुणों को त्याग दिए, लेकिन एक अवगुण को नहीं छोड़ सके – शराब पीना। श्री शुभेश्वर सिंह की मृत्यु एक दसक पूर्व हुई।

कहा जाता है कि सं 1980 में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि महारानी-अधिरानी कामसुन्दरी “रेसिडुअरी इस्टेट” का एक-तिहाई हिस्से का हक़दार होंगी।  कलकत्ता उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध कुमार शुभेश्वर सिंह सर्वोच्च न्यायालय गए और न्यायालय को बताया की वे अपने दो अवयस्क बच्चों के हितों के रक्षार्थ कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ लड़ रहे हैं। शुभेश्वर सिंह को अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए महाराजा की जीवित पत्नी महारानी अधिरानी कामसुन्दरी के साथ अनेकानेक मुक़दमे लड़ने पड़े। सम्भवतः आज भी कई मुक़दमे माननीय न्यायालय में लंबित होंगे। शुभेश्वर सिंह महाराजा के छोटे भतीजे थे। 

इसका वजह यह था कि महाराजा के वसीयत के क्लॉज 4 में इस बात को स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि शुभेश्वर सिंह के बच्चे उसी हालात में महाराजा की सम्पत्तियों के लिए दावा कर पाएंगे अगर उनकी माँ ब्राह्मण परिवार की होंगी। शुभेश्वर सिंह सन 1965 में महाराजा की इक्षा और उनके वसीयत में लिखे शब्दों के सम्मानार्थ “ब्राह्मण महिला” से ही विवाह किये और उनके दो पुत्र – श्री राजेश्वर सिंह और श्री कपिलेश्वर सिंह – हुए । लेकिन उन्होंने इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया था की “वे बहुत ही तेज जीवन जीये हैं। उनकी जितनी भी बुराईयां थीं, अवगुण थे; सभी के सभी विवाह के साथ समाप्त हो गए, छोड़ दिए। लेकिन एक कमजोरी है जिसे वे नहीं त्याग नहीं सके, और वह है – शराब पीना। 

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यह भी कहा जाता है की दरभंगा के महाराजा की मृत्यु के बाद दरभंगा राज की सम्पत्तियों पर कई लोगों की निगाहें टिकी थी – कुछ राजनीति में थे तो कुछ न्यायपालिका में, कुछ आम तो तो कुछ ख़ास। उसी राजनीतिक नेताओं में एक थे डॉ जगन्नाथ मिश्र जिन्होंने महारानी को ताड़ के पेड़ पर चढ़ाया था कुमार शुभेश्वर सिंह के खिलाफ। डॉ मिश्र उन दिनों प्रदेश में मुखिया थे और शुभेश्वर सिंह महाराजा द्वारा सन 1930-1940 में स्थापित आर्यावर्त – इण्डियन नेशन समाचार पत्रों के अध्यक्ष – सह – प्रबंध निदेशक थे। यह दोनों अख़बार उन दिनों डॉ मिश्र के ख़िलाफ़ एक श्रृंखलाबद्ध आंदोलन चलाया था। राजनीतिक वजह चाहे जो भी हो, डॉ मिश्र अपने सीमा-क्षेत्र में बिहार के कई पत्रकारों को, यहाँ तक की आर्यावर्त-इण्डियन नेशन संस्थान के पत्रकारों को भी घुटी पिलाकर सम्मोहित कर लिया था। उन दिनों एक चर्चा भी बहुत प्रमुखता के साथ डॉ मिश्र के तरफ से फैलाया गया था की शुभेश्वर सिंह महाराजा की दूसरी पत्नी महारानी अधिरानी कामसुन्दरी को मारने का भी ब्यूहरचना तैयार कर रहे हैं। महारानी दरभंगा राज की बहुत सम्पत्तियों की मालिकन थीं, और आज भी हैं। 
उन दिनों बिहार में श्रोत्रिय वनाम ब्राह्मणों के बीच एक शीत-युद्ध चल  रहा था। कहा जाता है कि महाराजाधिराज के समय में भी और शुभेश्वर सिंह के समय में भी, श्रोत्रियों को एक विशेष महत्व दिया जाता था, जो डॉ मिश्र ही नहीं, बिहार के अन्य मैथिल ब्राह्मणों को अपच्य था । डॉ मिश्र को मिलने वाला  सभी सहयोग समाप्त कर दिया गया। परिणाम यह हुआ था कि डॉ मिश्र शुभेश्वर सिंह को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो के गिरफ्त में लाने का सभी द्वार खोल दिए।  उन्हें शाम-दण्ड-भेद सभी हथियारों का उपयोग कर दरभंगा राज की वित्तीय अनियमितताओं के अधिक सी बी आई जांच के घेरे में लाना चाहते थे। इसके पीछे महारानी अधिरानी के नजदीक के लोग तो थे ही, कांग्रेस पार्टी के भी बहुत लोग थे जो बिहार की पत्रकारिता के साथ-साथ डॉ मिश्र से भी बहुत नजदीक थे। इस जंग का बज्रपात अख़बारों पर पड़ा। श्री शुभेश्वर सिंह और दरभंगा राज के तत्कालीन ट्रस्टी श्री द्वारकानाथ झा के बीच जंग छिड़ा ।  कंपनी को दस लाख से भी अधिक के घाटे हो गए थे। श्री शुभेश्वर सिंह डॉ मिश्र को खुलेआम चुनौती दिए। श्री शुभेश्वर सिंह की बहुत इक्षा थी कि वे डॉ जगन्नाथ मिश्र को उनके राजनीतिक क्षेत्र में ही उठाकर पटकें ताकि उन्हें इस बात का आभास हो की “छल-प्रपञ्च” रचना स्वास्थ के लिए हानिकारक होता है। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। 

बिहार और मिथिलाञ्चल के बहुत कम लोग फरवरी और अगस्त महीने के 19 तारीख को ऐतिहासिक दृष्टि से देखे होंगे। जी-हुजूरी करने वालों की तो बात ही नहीं करें। क्योंकि वे तो उतना ही देखते, सुनते, बोलते हैं जितना नेताजी चाहते हैं। अब प्रारब्ध देखिए तारीखों का – कुमार शुभेश्वर सिंह साहेब का जन्मदिन 19 फरवरी को है और महज माह और साल में अन्तर के साथ 19 अगस्त को डॉ मिश्र का शरीर और आत्मा पार्थिव हुआ। कुमार साहेब आपको नमन – डॉ साहेब आपको श्रद्धांजलि। 

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