गजब की है दिल्ली। यहाँ की पत्रकारिता के बारे में तो पूछिए ही नहीं। अच्छे-अच्छे लोग यहाँ गच्चा खा जाते हैं। यहाँ चिकनी-चुपड़ी सड़क, उपगामी-अधोगामी सड़क, मेटो रेल, गगनचुम्बी इमारतों को देखकर यह कतई नहीं सोच सकते हैं कि यहाँ पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने वाले, काम सीखने वालों को उनके वरिष्ठ या संपादक उनके कार्य सम्बन्धी पुरुषार्थ का क़द्र करते हों, उन पर विश्वास करते हों।
देश में तक़रीबन 125000 से अधिक समाचार पत्र/पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है। वैसे 900+ निबंधित निजी टीवी चैनल हैं, लेकिन भारत के आसमानों के रास्ते कोई 4000 चैनेल्स 140 करोड़ लोगों के टीवी स्क्रीन पर पहुँचता है। आज जिस तरह देश की सड़कों पर चार पहिया वाहनों में, दो-पहिया वाहनों में नंबर प्लेट के आगे, शीशों पर, अतिरिक्त प्लेट लगाकर ‘पत्रकार’, ‘संपादक’, ‘संपादक के सहयोगी’, ‘पत्रकार संघ के अध्यक्ष’ लिखा उसी प्रकार दिख रहा है जैसे ‘पार्षद के मित्र’, विधायकजी का साला’ ‘मंत्री जी का पोता’, ‘मंत्री जी के दूर के रिस्तेदार, ‘थाना प्रभारी का दामाद / साला’ आदि लिखा दिख रहा है। आज तो स्थिति ऐसी है कि वास्तविक रूप में बेहतरीन पत्रकार होने के बावजूद दफ्तरों में आपकी पूछ नहीं होती होगी, अगर आप सिर्फ अपने कार्य से, अपनी कहानियों से मतलब रखते होंगे। आपको सभी लोग कहते होंगे ‘बहुत एटीट्यूड’ रखती है/रखता है।
दिल्ली से प्रकाशित इण्डियन एक्सप्रेस में कार्य की शुरुआत करने के साथ ही, सर्वप्रथम देर रात तक रहने की आदत डाल लिया। रात्रिकालीन सत्र में जो भी सहकर्मी होते थे उन्हें आठ-साढ़े आठ बजते बजते घर जाने को कह देते थे। परिणाम यह हुआ कि समय के साथ-साथ सभी को ‘यह आदत’ से हो गई आठ-साढ़े आठ तक निकलना। एक्सप्रेस ब्यूरो में तो बड़े-बड़े संवाददाता थे, उसमें एक ‘सर्वोच्च न्यायालय’ कवर करते थे। श्री नायर साहब नाम था उनका। मैं निचली अदालत के साथ साथ दिल्ली उच्च न्यायालय कवर करता था।
उस रात कोई साढ़े-बारह के करीब ‘एक्सप्रेस बम्बई’ कार्यालय से एक फोन आया, साथ ही, कम्प्टयूटर पर संवाद भी। संवाद था कि बम्बई उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए एम भट्टाचार्जी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अज़ीज़ मुसब्बर अहमदी (25 अक्टूबर, 1994 से 24 मार्च, 1997) को अपना त्यागपत्र प्रेषित करना। न्यायमूर्ति ए एम भट्टाचार्जी के विरुद्ध चर्चा हो गई थी कि वे मुस्लिम लॉ और संविधान से सम्बंधित एक किताब के लिए एक लन्दन स्थित प्रकाशक से $ 80 000 स्वीकार किये थे, साथ ही, एक दूसरे ‘मैन्युस्क्रिप्ट’ के लिए $ 75 000 का ऑफर भी स्वीकार के अधीन था।” उस ज़माने में यह एक बहुत बड़ी घटना थी।
एक्सप्रेस के सम्पादकीय कक्ष में सहायक समाचार संपादक श्री राजेश्वर प्रसाद साहब ड्यूटी पर थे। वे संवाददाता कक्ष में दौड़ते-भागते आये। मुझे देख लम्बी सांस लेते कहते हैं: “ओ माई गॉड !!!! शिवनाथ !!! यह कहानी बम्बई से है। तुम सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से बात कर इसे ‘कंफर्म’ करो और कोई 1500 + शब्दों में कहानी लिखकर तत्काल प्रेषित करो। यह आज का लिड है और बम्बई कार्यालय बैठा है इस कहानी के लिए।”
प्रसाद साहेब सारी बातें एक सांस में बोल गए। सम्पादकीय विभाग (डेस्क) पर भूचाल आ गया था। प्रथम पृष्ठ का ले-आउट बदल गया था। उन दिनों श्री पी सी एम त्रिपाठी जी समाचार संपादक थे (त्रिपाठी जी आपको श्रद्धांजलि) । मैं श्री प्रसाद साहेब का अपने प्रति यह विश्वास देखकर उछल गया। प्रसाद साहेब कहते हैं: “तुम अपने काम में लग जाओ पहले। मैं तुम्हारे काम में हाथ बंटाता हूँ।” उधर श्री प्रसाद साहब लाइब्रेरी जाकर न्यायमूर्ति ए एम भट्टाचार्जी से सम्बंधित जितने भी समाचार प्रकाशित हुए थे, का कतरन लाने में लग गए। अब तक रात का कोई 12 बजकर 40 मिनट हो गया था और छोटी-बड़ी सुइयों की रफ़्तार भी ह्रदय गति जैसी बढ़ गई थी ।
इस घटना से कोई एक महीना पहले सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति अज़ीज़ मुसब्बर अहमदी साहब से मेरी मुलाककट हुई थी एक कार्यक्रम में। मैं उनसे निजी तौर पर मिला था। जब मैं बताया कि मैं “एक्सप्रेस” का रिपोर्टर हूँ, वे मुझे पीठ ठोके और कहे कभी भी, किसी भी समय आप बात कर सकते हैं। उनका इतना बोलना था कि मैं अपनी डायरी और कलम उनके तरफ कर दिया ताकि ‘अंदर वाला नंबर’ मिल जाय। वे अपने शयन कक्ष वाला नंबर लिख दिए। एक रिपोर्टर को और क्या चाहिए। शायद यही मेरा प्रारब्ध था और समय भी यह चाह रहा था। अब तक प्रसाद साहब मेरे सामने बैठ गए थे ‘पैडिंग’ वाला अंश कंप्यूटर पर लिख रहे थे। नीचे डेस्क से लोगों का आना जाना बढ़ गया था।
मैं डायरी में न्यायमूर्ति अज़ीज़ मुसब्बर अहमदी द्वारा लिखित नंबर निकला। सामने ऊँगली घुसाकर डॉयल करने वाला फोन को अपनी ओर खिंचा और फिर सात अंकों पर सात बार ऊँगली घुसाकर गोल चक्कर को घुमाया। तत्काल दूसरे छोड़ पर ‘ट्रिंग-ट्रिंग’ होने लगी। कुछ ही सेकेण्ड बाद दूसरे छोड़ से आवाज आई “हेल्लो” – इससे पहले की दूसरे छोड़ से मुझसे पूछा जाता, न्यायमूर्ति का ‘हेल्लो’ शब्द को पहचान लिया और सुनते ही मैं अंग्रेजी को दरभंगा में छोड़कर हिंदी में बोल पड़ा: “सर प्रणाम। मैं एक्सप्रेस वाला शिवनाथ झा बोल रहा हूँ। माफ़ कर देंगे इतनी रात फोन करने के लिए। लेकिन नौकरी का सवाल है।” मेरी बात वे समझ गए थे। आखिर देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे वे।
मैं बोलता रहा: “सर !! बम्बई कार्यालय से अभी एक संवाद आया है कि न्यायमूर्ति ए एम भट्टाचार्जी अपना त्यागपत्र आपके पास प्रेषित कर दिए हैं?”
न्यायमूर्ति अज़ीज़ मुसब्बर अहमदी कहते हैं: “उस दिन का नंबर आज आपको काम आ गया …. जी। वे अपना त्यागपत्र शाम में भेजे हैं। शेष कहानी आप जानते ही हैं। लेकिन आप मुझे उल्लेखित नहीं करेंगे।”
न्यायमूर्ति का ‘हाँ’ शब्द मेरे लिए दिल्ली सल्तनत का किला फ़तेह जैसा था। ऐसा लग रहा था कि लाल किले पर मैं अपना झंडा गाड़ दिया हूँ आज रात। प्रसाद साहब का चेहरा चमक रहा था। वे झट से उठे और कहते नीचे डेस्क की ओर भागे : “शिवनाथ !!!! तुम्हारे लॉगिन में टाइप किया है। उसे निकालकर कहानी में जोड़ लेना। शेष और बातें जोड़ते दस मिनट के अंदर स्टोरी रिलीज कर देना। मैं बम्बई ऑफिस को बताता हूँ। वह इंतज़ार कर रहा है। वेल डन शिवनाथ।”
उस रात मैं “शेर” था “एक्सप्रेस” में। अभी तक रात का 1.10 हो गया था। कोई 1800 शब्दों की कहानी बन गई थी। श्री प्रसाद साहेब का चेहरा चमक रहा था। कहानी को मेरे नाम से तत्काल बम्बई कार्यालय प्रेषित किया गया। बम्बई कार्यालय उस समाचार को देखकर बहुत खुश हुआ। वहां यह समाचार ‘डीप डबल कॉलम (ऊपर से नीचे बॉटम तक) मेरे नाम से प्रकाशित हुआ By Shivnath Jha ।
इधर दिल्ली में घड़ी की सुइयाँ आपसे में लड़ रही थी। कभी छोटी सुई ऊपर तो कभी बड़ी सुई ऊपर। फोन चार कोने पर चार लोग बैठे थे। राजनीति हो रही थी क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय कवर करने वाले संवाददाता (श्री नायर साहब) और दिल्ली संस्करण की सम्पादिका श्रीमती कुमी कपूर मुझ जैसे छोटे से रिपोर्टर के वजूद पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे थे। कह रहे थे कि लोवर जुडिसियरी कवर करने वाला रिपोर्टर का क्या वजूद है की देर रात सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश फोन पर इस कहानी को कन्फर्म करे।” श्री प्रसाद साहेब ‘हताश’ हो गए। श्रीमती कुमी कपूर मेरी कहानी को ‘अंडर प्ले’ कर दी – 1800 शब्दों की कहानी ‘एक पैरा’ में सुबह के दिल्ली संस्करण के प्रथम पृष्ठ पर एक कोने में प्रकाशित हुआ।
अगले दिन सुबह की मीटिंग में अश्विनी सरीन के साथ-साथ मेरे मेट्रो के सभी रिपोर्टर उपस्थित थे। सरीन साहब ‘शेर’ की तरह गरज रहे थे। वजह भी था – उनके रिपोर्टिंग रूम और रिपोर्टर को ‘अंडर एस्टीमेट’ किया गया। तभी श्रीमती कुमी कपूर का प्रवेश हुआ। कुमी कपूर के चेहरे के भाव से यह विदित था कि वे ‘राजनीति’ में फंस गई थी रात को। अपना निर्णय लेने में चूक गयी थी वे। इससे पहले भी कुमी कपूर एक गलती की थी उसका जिक्र बाद में करूँगा। उनकी नजर उठ नहीं रही थी। मैं तो उनके सामने बहुत छोटा सा रिपोर्टर था, लेकिन वे भी समझ रही थी कि ‘मैं उन्हें आंक लिया हूँ’ अब तक, जहाँ तक पत्रकारिता का सवाल है।
इससे पहले की रिपोर्टर कक्ष में श्री सरीन साहब का गर्जन तेज हो – श्रीमती कुमी कपूर कहती हैं: “सॉरी शिवनाथ, आप सही थे, आपकी कहानी सही थी। आपकी बात देर रात जस्टिस अहमदी से हुई थी। दिल्ली में आपकी कहानी के साथ जस्टिस नहीं हुआ । सॉरी। ” दिल्ली के सम्पादकीय विभाग में, चाहे अखबार हो या आज का टीवी, प्रधानमंत्री कार्यालय से अधिक राजनीति होती है