प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया चुनाव के बहाने: अपने ह्रदय को टटोलिये, जिसने पहचान दिया कहीं उस पत्रकारिता को लतिया कर राजनीतिक पार्टी का पिछलग्गू तो नहीं बन रहे हैं ‘स्वहित’ में

विजय चौक नुक्कड़ की तस्वीर है। यहाँ भारत के बड़े-बड़े वीर-बाँकुड़े मुड़कर अपना जीवन-मार्ग बदल देते हैं। आप दाहिना हाथ मुड़ सकते हैं क्योंकि दाहिना संसद की ओर है और संसद में अक्सरहां 'संख्या का खेल' खेला जाता है। शेष आप विद्वान हैं ही क्योंकि यहाँ से महज दो सौ कदम पर प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया भी है

दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया में क्लब के पदाधिकारियों के चयन हेतु ‘प्रत्यक्ष मतदान’ का दिन था। ऐतिहासिक भीड़ थी। ‘अपरिचितों’ की भीड़ में ‘जाना-पहचाना’ चेहरा ढूंढ रहा था। पत्रकारों की पीढ़ियां बदल गई थी। कितनों के माथे के ‘बाल’ अपने अस्तित्व से अलग हो गया था। कितनों के चेहरे जो मुद्दत पहले मूंछों’ के कारण पहचाने जाते थे, निमोछिया हो गए थे। कल तक जो 120-किलो शरीर का वजन दिल्ली की सड़कों पर रखे थे, सुटुक का सूखे ‘अल्हुए’ जैसा हो गए थे। कई के वक्ष जो सम्मानित नरेंद्र मोदी के दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा करने से बहुत पहले भी 56 इंच से भी अधिक नापे जाते थे, कल ‘उदर की चौड़ाई’ 65 इंच से पार दिख रहा था। महिला पत्रकारों की घोर किल्लत थी, जैसे अकाल पड़ा हो। सुनने में यह भी आ रहा था कि भारत के महिला पत्रकार पुनः मुसको भवः होना चाहती हैं इस प्रेस क्लब में, लेकिन ‘प्रवेश शुल्क’ अधिक होने के कारण कदम आगे नहीं बढ़ा पा रही हैं। हो भी कैसे ? आखिर वे ‘पत्रकार’ भले हैं, ‘महिला’ भी हैं और ‘माँ’ भी – अतः परिवार की जिम्मेदारी ‘भारतीय पुरुष पत्रकारों’ की तुलना में उन पर तो अधिक है। 

मैं उस भीड़ में अपनी मोटी-घनी मूंछ लिए चतुर्दिक जाना-पहचाना चेहरा ढूंढ रहा था, काम से कम 35-साल पुराना । गनीमत थी की विगत साढ़े तीन दशक से भी अधिक समय से दिल्ली में रहते हुए मूंछ पर कभी आंच नहीं आने दिए। जो पहचान उन दिनों थी, वही मूंछ आज भी ‘आधार कार्ड’ कहिये या ‘पहचान पत्र’ लोगों की निगाहों को आकर्षित कर रहा था। महिला मित्रों की कमी ह्रदय के कोने-कोने तक महसूस हो रही थी। जो मिलते थे, शारीरिक दूरियां बरकरार रखते एक-दूसरे से ‘बतिया’ रहे थे – कह रहे थे कि महादेव को धन्यवाद देते हैं कि हम सभी जीवित हैं, साँसे ले रहे हैं और आज मतदान करने भी उपस्थित हुए हैं। अन्यथा दस हज़ार से भी अधिक सदस्यों वाली प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया में कौन किसे जानता हैं, नाम से, चेहरे से – अगर आप ‘उनके मंच के सदस्य’ नहीं हैं। उन दिनों भी क्लब में प्रवेश तक ‘औपचारिकता’ निभाने के लिए ‘हाय-हेलो’ होता था, जैसे ही ‘दो-घूंट’ अंदर उतरता था, अच्छे-अच्छे पहचान वाले अन्जान जैसा व्यवहार करने लगते थे। खैर। 

कल प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया में पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्मानित पत्रकारों का उदय ‘ध्यान आकर्षण’ योग्य दिखा। नए-नए चेहरे दिखे।  उनके चेहरों पर रुतबा दिखा, ‘एटीच्यूड’ दिखा । कहीं उम्मीदवार अपना पर्चा सुन्दर-सुन्दर महिलाओं के हाथों बंटवा रहे थे तो कहीं इवेंट-मैनेजमेंट के लोग पीला-पीला कपड़ा पहने ‘मतदाताओं’ को आकर्षित कर रहे थे। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव, सुश्री मायावती, दिवंगत राजीव गांधी, भी कभी मतदाताओं को ‘इस कदर आकर्षित नहीं किये होंगे’, चुनाब के समय। सभी मोहतरम ‘सज-धज’ कर मतदान हेतु आये थे। कोई किसी का पीठ ठोकने, तो कोई किसी का पैर खींचने । बड़ी-बड़ी लाखों-करोड़ों कीमत की गाड़ियां रायसीना रोड के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पंक्तिवद्ध थी। पत्रकारों की ऐसी-ऐसी गाड़ियों को देखकर भारत की पत्रकारिता खुद पर हंस रही थी। दिल्ली की यह पत्रकारिता देश की पत्रकारिता को दर्शा रहा था। दिल्ली पुलिस के सम्मानित अधिकारी भी इधर-उधर अपनी निगाहें कोने में बैठकर घुमा रहे थे। 

हमारे ज़माने में पत्रकार या तो पटना की सड़कों पर साईकिल से चलते थे या पैदल। उनकी कलमों में इतनी ताकत थी की दिल्ली से 980 किलोमीटर दूर बैठकर भी प्रधान मंत्री कार्यालय में अपनी पत्रकारिता की छाप छोड़ते थे। आज तो आलम यह है कि दिल्ली में बिहार से प्रवासित लोगों को, चाहे वे भारतीय पत्रकारिता का अहम् हिस्सा ही क्यों न हो, सत्ता की गलियारे में खुद हिलते-डोलते नजर आते हैं। बड़े-बड़े ओहदों पर बैठे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के बारे में तो पूछिए ही नहीं। कई पत्रकार तो सफेदपोश नेताओं के ‘अनुयायी’ नहीं, बल्कि ‘पिछलग्गु’ बनकर जीवन यापन का रास्ता ढूंढ रहे हैं। ‘कहीं कोई कुर्सी मिल जाय’ की याचना के साथ सुबह-शाम अपने-अपने इष्ट नेताओं का जाप करते दीखते हैं।  जो सफल हो गए वे प्रदेश में अपने बुढ़ापे के लिए ‘विधायक पेंशन’ निश्चित कर लिए, कई अभी लम्बी कतार में खड़े हैं।  

यह बात सिर्फ बिहार के पत्रकारों के साथ ही नहीं, देश के सभी 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों के पत्रकारों के साथ है – जो अलग-अलग राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा ‘संरक्षित’, ‘सम्पोषित’ हैं। आखिर समय बदल रहा है। एक अमरीकी डालर के लिए जब 73+ भारतीय रुपये देने हों, तो कलम की कीमत भी तो वैसी ही होगी। दिल्ली की सड़कों पर, लाल-बत्तियों पर, चौराहों पर, भीड़-भाड़ वाले इलाकों में ‘पेट-पीठ’ एक किये बच्चे, महिला, वृद्ध कहीं ‘कलम’ बेच रही हैं तो कहीं ‘तिरंगा’ – आखिर पेट तो सबों के है । अब तो पत्रकार बंधु-बांधव भी ‘कलम’ रखना त्याग दिए हैं, ‘वायु त्याग’ जैसा।  कमीजों के ऊपरी जेब में अब कलम नहीं दीखते, उसका स्थान स्मार्ट फोन ले लिया है। लिखने का काम, कथन-वक्तव्यों को रिकार्ड करने के लिए ‘स्मार्ट फोन’ का इस्तेमाल करने लगे हैं। खैर।  

स्थिर पानी और पानी में परछाई – आप भी देख सकते हैं

‘लन्दन’ के छाप पर उस ज़माने के ‘वेटेरन’ पत्रकार श्री दुर्गा दास जी अविभाजित भारत की राजधानी दिल्ली में भी प्रेस प्रतिनिधियों के लिए एक ‘क्लब’ बनाने को ठाने और बनाये भी। श्री दास जी उस समय एसोसिएटेड प्रेस ऑफ़ इण्डिया, जो बाद में प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया के रूप में विख्यात हुआ, के संपादक थे। अच्छा था कि वे सन 1930 के दशक में संपादक थे और सम्मानित भी थे। अन्यथा अगर आज की दौड़ के होते तो अपनी आखों के भारतीय पत्रकारिता की दशा ही नहीं, ‘दुर्दशा’ को देखकर मन-ही-मन इतना रोते की उन्हें हृदयाघात हो जाता, या फिर जीने के लिए ‘ह्रदय में स्टंट’ लगाना होता। खैर। न अब सम्मानित दुर्गा दास जी हैं और न तत्कालीन समय वाली पत्रकारिता। 

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कहते हैं कि 20 दिसंबर, 1957 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की स्थापना हुई और उसका एक कंपनी के रूप में 10 मार्च 1958 को पंजीकरण हुआ। उनके प्रयासों की ही बदौलत भारत में ब्रिटिश हुकमरानी के वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने इसके लिए 1 रायसीना रोड का बंगला आवंटित किया। यह भी कहा जाता है कि तत्कालीन आवंटन रद्द कर दिया गया तहत। जो भी, आज़ाद भारत के गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत 2 फरवरी, 1959 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का उद्घाटन किया। आज भी पंत जी आदमकद तस्वीर प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया में टंगा है। इस क्लब में प्रारम्भ में महज ३० सदस्य थे और तत्कालीन हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक दुर्गा दास इसके पहले अध्यक्ष और दिग्गज पत्रकार डीआर मानकेकर पहले सेक्रेटरी जनरल थे। आज ‘आर्डिनरी’ से लेकर ‘एसोसिएट’ और ‘कॉर्पोरेट’ सदस्यों की संख्या 9000 से अधिक है। 

यही कारण है कि इस बार भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय द्वारा 300 से अधिक पत्रकारों को – जो साठ वर्ष से अधिक उम्र के हो गए हैं,  संस्थानों से अवकाश प्राप्त कर लिए हैं, लेकिन ‘फ्रीलांसर’ के रूप में अपने शब्दों के सहारे दो वक्त की रोटी जुटाकर अपना और परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं – उन्हें ‘पत्र सूचना कार्यालय कार्ड (पीआईबी कार्ड) से मुक्त कर दिया गया है। उन वृद्ध पत्रकारों को उस कार्ड से जीवन के अंतिम वसंत में अपने बाल-बच्चों पर दवा-दारु-अस्पतालों के खर्च से बहुत आराम मिलता था। पिछली सरकार गैर-भाजपा सरकार में सूचना प्रसारण मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय के सहयोग से उन्हें केंद्रीय सरकार स्वास्थ्य योजना के तहत यह सुविधा प्रदान की गई थी, जिसका अस्तित्व पीआईबी कार्ड से ही था। सरकारी मुलाजिम मूक-बधिर हैं। सूचना प्रसारण मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय को क्या कहें, कोई भी मंत्री अथवा मंत्रालय इस विषय पर चूं नहीं कर सकता। सभी कहते हैं “ऊपर का, आला कमान का आदेश” है। ‘आला-कमान’ शब्द कांग्रेस में तो थी ही (परिणाम सामने है), अब भारतीय जनता पार्टी की नेतृत्व वाली सरकार में भी आ गयी है। 

इस मामले में पत्रकार संघों, इकाईयों, यूनियनों से “हल्ला-बोल” की अपेक्षा करना बेकार है क्योंकि सभी अपने-अपने फ़िराक में हैं। सभी तो ‘फ़िराक गोरखपुरी’ हैं नहीं और न सभी सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ हैं। पत्रकारों, उनके संगठनों के बारे में कुछ सोचना मई-जून के महीने में ‘मूली’ रोपने के बराबर है। अगर भारत के पत्रकार बंधु-बांधव कभी अपने समाज के लोगों के लिए, उनके कल्याणार्थ सोचे होते तो शायद आज भारत के चौराहों पर जिस कदर भारत के लोग पत्रकारों का फ़जीहत करते हैं, आलोचना करते हैं, गलियाते हैं – ऐसा नहीं होता। 

एक दृष्टान्त: सत्तर के दशक में पटना रेलवे स्टेशन और डाक बंगला चौराहा को जोड़ने वाली सड़क फ़्रेज़र रोड के बाएं तरफ केंद्रीय कारा हुआ करता था। उस केंद्रीय कारा में आनंद मार्ग के बहुत से कार्यकर्त्ता बंद थे। आनंद मार्ग को ‘बैन’ कर दिया दिया गया था। श्रीमती इंदिरा गांधी देश का कमान संभाली थी। जेल के चारो तरफ केंद्रीय रिजर्व पुलिस वल का पहरा रहता था। पटना के यूनाइटेड न्यूज़ एजेंसी (यूएनआई) के शिक्षक-तुल्य पत्रकार थे डी. एन. झा। झा साहेब अपने जीवन काल में कितने पत्रकार पैदा किये, यह अमूल्य शोध का विषय है। दुर्भाग्य यह है कि आज पटना के पत्रकार भी बाबू डी.एन. झा – बाबू बी.एन. झा को नहीं जानते होंगे। खैर , यह डिजिटल युग की पत्रकारिता हैं। 

सम्मानित झा साहेब देर रात सड़क मार्ग से पैदल अपने घर जा रहे थे। इस बीच उन्हें ‘लघु शंका’ की आवश्यकता हुई और वे आम नागरिक-नेताओं की तरह सड़क के बायीं ओर निवृत होने लगे। उन दिनों पटना की सड़कों पर ‘सुलभ शौचालय’ महज एक ‘नवजात शिशु’ के रूप में ‘रेंगना’ शुरू किया था और ‘स्वच्छ भारत अभियान’ तो भारत के अधिकारियों के ‘मानसिक गर्भ’ में जन्म भी नहीं लिया था। सम्मानित अमिताभ बच्चन साहेब का “खुले में शौच नहीं करें” कथन दूरदर्शन पर भी नहीं आता था। हाँ, बच्चन साहेब पटना ‘वीणा सिनेमा’, एलिफिंस्टन सिनेमा’ गृहों में ‘शोले’ फिल्म में तस्वीर में दीखते थे। 

सीआरपीएफ के जवान झा साहेब को दबोच लिए और कुछ डंडे भी रसीद दिए। अपना परिचय देते देते थक गए ‘झा साहेब’, लेकिन जवान एक भी नहीं सुने। अब तक उसकी बारी थी। यह बात कुछ सेकेण्ड में यूएनआई के दफ्तर में, तत्कालीन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-सर्चलाइट-प्रदीप-कौमी आवाज अख़बारों के दफ्तर में बिजली जैसी कौंध गई। समय पलट गया था, क्योंकि भारत के पत्रकार को इस कदर खुलेआम पीटना, जबकि वह ‘शंका’ से मुक्त हो रहा था, अमानवीय माना गया। प्रदेश के मुख्य मंत्री कार्यालय और आवास की बात छोड़े, दिल्ली का प्रधान मंत्री कार्यालय में भी बत्तियां जल गयी थी। सीआरपीएफ के जवान और उसके आला अधिकारी को अपनी गलतियों का एहसास हो गया था। वजह भी था – उन दिनों सड़कों पर क्या राज नेता, क्या मंत्री, क्या अधिकारी सभी खुलेआम लघुशंका से मुक्त होते थे। गाँव-देहातों में तो ‘दीर्घ’ भी खेतों में खुलेआम करते थे। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो शायद आज प्रदेश का यह हाल भी नहीं होता। 

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बहरहाल, श्री दुर्गा दास का क्लब मेरे जन्म के दस-माह पूर्व यानी 10 मार्च, 1958 को एक कंपनी के रूप में भारतीय कंपनियों की श्रृंखला में पंक्तिबद्ध हो गया। मेरा जन्म तो 10 जनवरी, 1959 को हुआ। मशहूर ‘बॉक्सर’ जॉर्ज फोरमैन, मशहूर गायक जिम क्रॉस, बॉलीवुड के नायक ऋतिक रौशन, नायिका ऐश्वर्या राजेश, मशहूर बास्केट बॉल खिलाडी ग्लेंन रॉबिंसन, मशहूर पार्श्व गायक यसुदास का जन्म 10 जनवरी को ही हुआ था। आश्चर्य तो तब होता है जब भारतीय राजनीतिक मानचित्र पर 10 जनवरी को किसी भी राजनेता का जन्म तारीख नहीं देखता हूँ। कहते हैं 10 जनवरी को जन्म लेने वाले को जीवन में बहुत संघर्ष, मसक्कत करना पड़ता है और भारतीय राजनेता शायद उस श्रेणीं में नहीं हैं। बहरहाल, देश आज़ाद हो गया था। सन 1930 के दशक वाले पत्रकार वृद्ध होने लगे थे। पत्रकारिता में नई पीढ़ियों का अभ्युदय होने लगा था। देश का दो फांक में विभाजन भी हो गया था। रायसीना रोड-राजेंद्र प्रसाद रोड के मिलन-स्थल के कोने पर स्थित प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया उस ऐतिहासिक त्रादसी का चश्मदीद गवाह भी था। 

जो भी हो, सन 1894 भूमि अधिग्रहण कानून के अधीन लगभग 300 से अधिक तत्कालीन लोगों की जमीन को अधिग्रहित किया गया था वायसराय के घर के निर्माण के लिए रायसीना पहाड़ पर । हुकूमत अंग्रेजी थी, स्वाभाविक है भारतीय गरीब लोगों को जमीन का हक़ देना ही पड़ा। अधिक बातें तो शहर के ज्ञानी-महात्मा बताएँगे, लेकिन ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजी हुकूमत के दिनों की बातों को अगर नजर अंदाज कर भी दें, तो स्वतंत्र भारत में इस स्थान पर रहने वाले, दफ्तरों में बैठने वाले, संसद पर आधिपत्य जमाने वाले सम्मानित भारतीय स्वयं को सन 1947 के बाद से भारत के आवाम से न्यूनतम 18+ मीटर यानी 59+ फीट “ऊँचा” समझते हैं।उनकी अन्तःमन की इक्षा होती है कि ‘अगर एक बार ऊपर आ गए तो फिर अंतिम सांस बंद होने के बाद ही नीचे उतरें।’ 

अब स्वाधीनता के 75 वर्ष पर चाहे ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मनाएं’, सच तो यही है कि देश में आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक दृष्टि से गरीब-गुरबा से लेकर दलित, महादलित भारतीयों की औसतन शारीरिक ऊंचाई पांच फुट आठ इंच से अधिक तो हैं नहीं। विज्ञान में चाहे कितना चमत्कार हो जाय, आम भारतीयों की ऊंचाई तो “जिराफ़” जैसी हो नहीं सकती। जो ‘मन से उंचा है भी’, मन पर इतना अधिक बोझ लिए बैठे हैं कि न उठ पाते हैं और ना ही आने वाली पीढ़ियों को उठने देते हैं। वैसी स्थिति में 59 फुट ऊँचे स्थान पर बैठे ‘महामानवों’ को देखने के लिए तो उसे जमीन पर ‘चित्त’ ही लेटना होगा, दूसरा कोई ‘विकल्प’ नहीं है।  यही कारण है कि विगत 75-वर्षों से सन 1947 वाला 23 करोड़ आवाम से लेकर आज की 130+ करोड़ जनता तक सभी “चित” ही हैं। 

“पट्ट” तो भारतीय संसद में ‘प्रत्यक्ष’ और ‘परोक्ष’ रूप से चयनित 545 लोक सभा के सम्मानित सांसद, 245 राज्य सभा के सम्मानित सांसद, राज्यों के विधान परिषदों के करीब 426 सम्मानित सदस्य, और 28 राज्यों तथा आठ केंद्र शासित प्रदेशों के कुल 4121 विधान सभाओं के सम्मानित सदस्य हैं। उन्हीं चयनित सदस्यों में सम्मानित प्रधान मंत्री महोदय हैं, भारतीय कैबिनेट के मंत्रीगण हैं, मुख्यमंत्रीगण हैं, लाट साहेब महोदय हैं । 

खैर, अब अगर भारतीय संसद से दो सौ कदम पर प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया स्थित है। आज़ादी के बाद पूरे देश में कोई दो सौ के आस-पास समाचार पत्र प्रकशित होते थे, जब देश की आवादी 23 करोड़ थी; आज 130+ करोड़ लोगों के लिए एक लाख से अधिक समाचार पत्रों का निबंन्धन है। इसमें करीब 18,000 समाचार पत्र हैं और एक लाख से अधिक पत्रिकाएं हैं। इसके अलावे करीब 900 से अधिक टीवी चैनेल्स, जो 130+ करोड़ भारतीयों को क्षण-प्रतिक्षण की सूचना उपलब्ध कराते हैं। 

स्थिर पानी और पानी में परछाई – आप भी देख सकते हैं

प्रारंभिक काल में तो एक सरकारी टीवी था, भारत के लोग ‘दूरदर्शन’ के नाम से जानते थे। एक रेडियो था। लोग बाग़ ‘ये आकाशवाणी’ है के नाम से परिचित थे। सामाजिक क्षेत्र के डिजिटल मीडिया के जन्म लेने के साथ ही, पारम्परिक संवाद में ‘ग्रहण’ लगने का आभास होने लगा। आखिर समय बदल रहा था। देश को आज़ाद हुए भी सात दशक से अधिक हो गया था। जो उस समय वृद्ध थे, अपनी ‘राष्ट्रीयता’ की मानसिकता को लेकर ‘मृत्यु’ को प्राप्त करते गए। 

आकंड़ों के अनुसार भारत में अभी 75+ वर्ष वाले कोई दो करोड़ 83 लाख लोग हैं जबकि 80+ उम्र के एक करोड़ 32 लाख और 90+ उम्र के बारह लाख के आस पास। अब सवाल यह है कि देश की कुल आवादी में 75 से अधिक उम्र के लोगों की संख्या, 75 से नीचे लोगों की संख्या के सामने ‘नगण्य’ है और जो 75 से कम उम्र के हैं उनका फक्र के साथ यह कहना कि वे आज़ाद देश में जन्म लिए – गर्व की बात है। उनका देश की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति, राजनेताओं के प्रति, राजनीतिक पार्टियों के प्रति ‘वचनबद्धता’, ‘प्रतिवद्धता’ ‘झुकाव’ स्वाभाविक है।  इसे आप उनका ‘जन्म सिद्ध अधिकार’ भी कह सकते हैं । और इन एक लाख से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में, टीवी चैनलों में, सामाजिक क्षेत्र के मीडिया में काम करने वाले सम्मानित पत्रकार बंधु-बांधव’ भी तो इसी समाज के हैं। उनका नाम भी तो भारतीय जनगणना में अंकित है। 

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अब अगर प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया से मात्र दो सौ कदम पर भारत के कुल 3287263 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रों से ‘प्रत्यक्ष’ और ‘परोक्ष’ रूप से निर्वाचित लोग बाग़ आधुनिक ऐसो-आराम से सज्ज जीवन व्यतीत कर रहे हैं। भारतीय संसद के प्रवेश द्वार पर लिखा भी है ‘आम रास्ता नहीं है’, साथ ही प्रवेश द्वार के ठीक सामने सड़कों पर ‘अलकतरा’ का पोचरा करने वाले आम भारतीयों की ‘सुक्खा-सुक्खी’ न्यूनतम मजदूरी 178/- रूपया प्रतिदिन हो और उसकी तुलना में अन्य सभी सुख-सुविधाओं को छोड़कर सम्मानित सांसदों को, मंत्रियों को, मुख्य मंत्रियों को, राष्ट्रपति को, राज्यपालों को, अधिकारियों को, नेताओं को लाखों-लाख रुपयों में वेतन मिलता हो – चाहे अमेरिकन डॉलर की तुलना में भारतीय मुद्रा कितना भी लुढ़के – फिर तो ‘सजग पत्रकार’, ‘पहुँच वाले पत्रकार,’ ‘राजनीतिक गलियारों के नामी पत्रकार’ भी तो इसी समाज के हिस्सा हैं और उन्हें भी सर्वाधिकार है कि वे ‘बल्ले-बल्ले टाईप’ जीवन व्यतीत करें। वैसे भी दिल्ली की हवा बहुत प्रदूषित है और ‘सुगंध’ की तुलना में ‘दुर्गन्ध’ का फैलाव समाज में अधिक होता है।

इतना ही नहीं, ‘बिना एक शब्द गलती के’ हज़ारों-हज़ार शब्दों की कहानी लिखने वाले पत्रकार, जिसके नाम पर समाचार पत्रों के संपादक ‘सम्पादकीय’ लिखते हैं, टीवी चैनलों के ‘प्राइम टाईम’ में ‘कबड्डी का आयोजन करते हैं, उस ‘निरीह’ पत्रकार की कहानी को राजनीतिक बाजार में बेचकर दिल्ली की लक्ष्मी नगर की तंग गलियों से निकलकर स्वम्भू-पत्रकार-संपादक-समाज के अधिष्ठाता दक्षिण दिल्ली के फार्म-हॉउसों में दंड-बैठकी करते नजर आएंगे और ‘सच्चा पत्रकार’ बाहर गेट पर ‘चुपचाप’ खड़ा रहेगा, कोने में। कोई पूछता भी नहीं है। कहते हैं ‘सेल्फ-रेस्पेक्ट’ होनी चाहिए। 

खैर। हम तो बस इतना ही कहेंगे की संस्था को बचाएं चाहे प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया हो या भारत का संसद या 28 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों का विधान सभा। अन्यथा आने वाले दिनों में वास्तविक राजनेताओं, राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ पत्रकार बंधु-बांधव जब अंतिम सांस लेंगे तो संसद में, विधान सभा परिसरों में, प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया के आँगन में उनकी आत्मा की शांति के लिए किसी ‘तुलसी के पौधे’ का रोपण नहीं किया जायेगा; अलबत्ता छोटका-प्रवेश द्वार के कोने पर रखे एक फ्रेम में उनकी तस्वीर बदलती जाएगी। फिर दो मिनट का मौन रखा जायेगा। देश के 130+ करोड़ लोगों के 5337 सांसदों-विधायक प्रतिनिधियों के साथ-साथ दस हज़ार सदस्यों से अधिक संख्या वाले इस क्लब में ‘श्रद्धांजलि’ देने वाले दस लोग भी एकत्रित नहीं होंगे। नेता लोग तो ‘ट्वीट’ भी कर देंगे और उनके ‘पिछलग्गू’ (फॉलोवर्स) उसे ‘रीट्वीट’ भी करेंगे, टिपण्णी भी कर देंगे,  अपनी उपस्थिति दर्ज भी करेंगे वे। पत्रकारों के मामले में क्लब के मुख्य बैठकी से लोग बाहर भी नहीं आएंगे। जो आ भी गए वे जहाँ एक मिनट में औसतन लोग 12 से 16 बार साँस लेते हैं; वे 24 से 32 बार सांस लेकर निकलने की ताक में रहेंगे। कहीं अंदर ‘बार’ में घंटी न बज जाए। 

शोक-संवेदना व्यक्त करने के अवसर पर, शमशानों में, शवदाह गृहों में ‘बार-बार घड़ी की ओर देखना’ एक ‘शरीर से जीवित’, परन्तु ‘आत्मा से मृत’ लोगों में ही देखा जाता है। अगर विश्वास नहीं हो तो किसी की अंतिम यात्रा में चलकर आजमा लीजिए। और सबसे ताजा उदाहरण देखना हो तो ‘दूरदर्शन का फुटेज’ देखिये जब भारत राष्ट्र के महामानव, देश के पत्रकार और पूर्व प्रधानमंत्री सम्मानित श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के पार्थिव शरीर को अग्नि को सुपुर्द किया जा रहा था। अन्य उपस्थित लोगों के अलावे, देश के एक ऐसे व्यक्ति अपनी कलाई पर बंधी घड़ी बार-बार देख रहे थे, जैसे कोई चोरी तो नहीं कर ली। और जैसे ही अग्नि की ज्वाला सम्मानित श्री वाजपेयी जी की शरीर को अपने में समाया, ज्वाला प्रज्वलित हुई, संस्कार स्थल वीरान हो गया। 

अंततः प्रेस क्लब ऑफ़ इण्डिया का इस वर्ष का चुनाव संपन्न हो गया। परिणाम भी आ गया। संख्या अपना खेल खेल गया। जिसे अधिक मिला वे ‘विजयश्री’ का झंडा लहराए, जिन्हें काम मिला वे सफल नहीं हो पाए। सब संख्या का खेल है। भारत के संसद से लेकर प्रदेशों के विधान सभाओं में, जिला परिषदों में ‘विजय’ और ‘पराजय’ का निर्णय ‘संख्या’ ही करता है। कभी कोई संख्या का ‘इंतजाम’ कर लेते हैं प्रधान मंत्री बने रहने के लिए, कोई नहीं कर पाता। लेकिन इस संस्था की गरिमा को बचाना हमारा प्रथम उद्देश्य होना चाहिए। साथ ही, यह भी नितांत आवश्यक है कि ‘पत्रकारिता’ के बहाने हमें अपने-अपने ह्रदय को टटोलना होगा, स्वयं से भी पूछना होगा कि जिस पत्रकारिता ने, जिस संस्था ने हमें पहचान दिया कहीं हम उस पत्रकारिता और संस्था का इस्तेमाल कर, फिर उसे लतिया कर राजनीतिक पार्टी का पिछलग्गू तो नहीं बन रहे हैं ‘स्वहित’ में। 
 

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