दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल तो मैथिल-भोजपुरी चाटुकारों/चापलूसों के चक्कर में फंसे हैं ‘वोट बैंक’ के लिए

दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल तो  चाटुकारों/चापलूसों के चक्कर में फंसे हैं 'वोट बैंक' के लिए 

यह तो अच्छा हुआ कि ‘विद्यापति’ और ‘भिखारी ठाकुर’ पहले मृत्यु को प्राप्त किये। आज अगर जीवित होते तो सर पटक-पटक कर रोते दारुखाना में अपनी-अपनी भाषाओं को देखकर।

#विगत दिनों #अखबारवाला001 यूट्यूब और #आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम के लिए कहानी के क्रम में दिल्ली की सड़कों पर पैदल था। बाबूजी कहते थे कि ‘जहाँ तक संभव हो सके पैदल चलो आँख खोलकर। तुम्हें इतने तरह के विषय दिखेंगे कि लिखते-लिखते जीवन निकल जायेगा और लिखने की भूख समाप्त नहीं होगी।’ कितनी सच्चाई थी बाबूजी की बातों में। आज भी यह बात तरो-ताजा हैं उन सभी के लिए जो लिखने के लिए, सीखने के लिए पैदल चलते हैं।

चलते-चलते सोच रहा था कि हमारे प्रदेश (बिहार) के करीब 45000+ गावों में शिक्षा को विकसित करने के लिए प्रदेश के नेता-मंत्री लोग भले ‘खिचड़ी’ खिलाकर बच्चों को विद्यालय की ओर आकर्षित करें, वास्तविक तौर पर शिक्षा का विकास गाँव-गाँव तक उतना नहीं पहुँच पाया जितना आज़ादी के बाद पहुंचना चाहिए था। जब देश गुलाम था तब देश-प्रदेश-गाँव-मोहल्ला के लोग अंग्रेजी हुकुमतानों को दोषी ठहराते थे। जब देश आज़ाद हुआ तो देश को नोचने में सभी लोग लग गए। अगर ऐसा नहीं होता तो बिहार वेटनरी कालेज के चपरासी क्वार्टर में रहने वाले लालू प्रसाद यादव, जगन्नाथ मिश्र, केदार पाण्डे और अन्य नेता तथा उनके छोटे-छोटे बच्चे इतने धनाढ्य कैसे हो जाते ? दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह की इमारतों की ईंट-से-ईंट कैसे बजती? आखिर धनवान होने के लिए गलत तो करना ही पड़ता है अन्यथा देश का प्रत्येक नागरिक करोड़पति होता। आज भी शिक्षा के मामले में पुरुष:महिला का शिक्षा दर अनुपात में 20 फीसदी की खाई है बोट क्लब के इसी तालाबों की तरह।

मन में फिर विचार आने लगा कि 2014 में देश के लोगों को लुभाकर कैसे सम्मानित श्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए। दस साल बीत गए। श्री रामनाथ कोविंद साहब भी बिहार के राज्यपाल से देश के राष्ट्रपति बनकर अवकाश का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अवकाश प्राप्त करने के बाद सम्मानित कोविंद साहब को जीवन पर्यन्त लुट्येन्स दिल्ली में (12 जनपथ) सुरक्षित है। यह आवास पहले बिहारी नेता राम विलास पासवान (अब दिवंगत) जिनका नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज है अधिकतम मत प्राप्त करने के लिए, रहते थे। सम्मानित कोविंद साहब को प्रतिमाह 250000 रूपये पेंशन मिलता है। इसके अलावे, एक प्राइवेट सचिव, एक निजी सचिव, एक अतिरिक्त प्राइवेट सचिव, दो चपरासी और कार्यालय खर्च के लिए एक लाख रुपये प्रति माह सुनिश्चित है। मकान के लिए कोई किराया नहीं देय होगा। दो टेलीफोन, मुफ्त इंटरनेट, एक चार-पहिया वाहन की सुविधा अतिरिक्त मुफ्त चिकित्सा सुविधा, मुफ्त यात्रा सुविधा इत्यादि-इत्यादि। लेकिन आज तक देश का मतदाता अपने-अपने बैंकों से एसएमएस आने का इंतज़ार कर रहा है – आपके लेखा में पंद्रह लाख रुपये जमा हो गए जिसका वादा किया गया था। बाबूजी सच में कहते थे “लोभी गाँव में ठग भूखा नहीं मरता।”

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मन में यह भी सोच रहा था कि आज से कोई आठ वर्ष पहले, उस दिन शायद शिक्षक दिवस (5 सितम्बर) था और साल 2015 था, जब टटका-टटका बने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी हमारे बिहार के बोध गया गए थे। सम्मानित श्री कोविंद साहब उन दिनों हमारे प्रदेश के राज्यपाल थे। उस दिन यह कहा गया कि बोध गया को सांस्कृतिक शहर के रूप में बसाया जायेगा, विकसित किया जायेगा ताकि विश्व के लोग अधिकाधिक यहाँ आएं। मैं कहानी भी लिखा था ख़ुशी-ख़ुशी – कुछ अच्छा होने वाला है । शहर का विकास होने से और कुछ हो न हो, युवकों को, युवतियों को, राजनीतिक पार्टियों के मतदाताओं को रोजगार मिलेगा। समय का चक्र देखिये – सम्मानित श्री कोविंद साहब राज्यपाल से राष्ट्रपति बनकर अवकाश का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । सम्मानित मोदी जी प्रधानमंत्री कार्यालय में दूसरी पारी खेल रहे हैं और तीसरी पारी के लिए अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन बेचारा बोध गया और महाबोधि वृक्ष, जिसके तले कोई 2,550 साल पहले भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था, वह ज्ञान आधुनिक नहीं हो सका। हमारा शहर सांस्कृतिक शहर का दर्जा नहीं पा सका, विकसित नहीं हो सका। इसे कहते हैं प्रारब्ध और इसे कहते हैं राजनीति। खैर !! सभी समय के नजर में हैं।

हम भी अपना गाँव नहीं छोड़ना चाहते थे। बपौती संपत्ति तो नहीं थी, लेकिन मन में इस इक्षा जरूर थी कि गाँव का विकास होने से यहीं शिक्षा प्राप्त करूँगा, यहीं कार्य करूँगा। लेकिन वैसा हो नहीं सका। हम तो खेत खरीद नहीं सके, लेकिन सन 1959 के बाद प्रदेश में जितने भी नेता जन्म लिए सभी दरिद्र से धनाढ्य हो गए (अपवाद छोड़कर) और हमारे प्रदेश का उतना विकास नहीं हो सका जितना आज़ादी की लड़ाई में प्रदेश की भूमिका रही। कैसे कहूं कि यही प्रदेश मोहनदास करमचंद गांधी को ‘महात्मा गांधी’ बनाया। खैर।

महादेव मेरा प्रारब्ध और कर्म-भाग्य रेखा खुद खींच रहे थे, स्वाभाविक था मेरा गाँव से निकलना। फिर गाँव से निकला और मगध की राजधानी पटना पहुंचा। आज भी मानस पटल पर दरभंगा से मुजफ्फरपुर-हाजीपुर-सोनपुर के रास्ते पहलेजा घाट वाली ट्रेन याद है। कैसे पहलेजाघाट से उफनती गंगा में पानी वाला जहाज से महेन्द्रू घात आये थे। उस दिन तो गंगा का पानी महेन्द्रू घाट के बहुत ऊपर तक पहुँच गया था। घाट तक पहुँचने में कई मर्तबा जहाज पानी के बहाव के साथ बह गया था। सभी यात्री भगवान्-भगवान कर रहे थे। फिर जीवन की शुरुआत हुई। पटना की सड़कों पर अखबार बेचने के साथ-साथ पटना से प्रकाशित ‘आर्यावर्त’ और ‘दी इण्डियन नेशन’ पत्र समूह कार्य करते धनबाद के हीरापुर के रास्ते, कलकत्ता के प्रफुल्ल सरकार स्ट्रीट होते दिल्ली के तत्कालीन राजपथ पर पहुंचा। इन यात्रा के दौरान पत्रकारिता को इतना रगड़ा, इतना रगड़ा, अभ्यास किया कि कल के अखबार बेचने वाले, कल अख़बारों में कहानी लिखने वाला आज खुद एक कहानी बन गया। लोग उस पर कहानी लिखने लगे। सब समय है।

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फिर भारत के संसद के सामने, विजय चौक के इस नव-निर्मित बैठकी पर बैठकर सोचने लगा कि मिथिला के लोग अगर वास्तविक रूप में मिथिला के विकास के लिए प्रखर होते तो आज मिथिला वहां तो अवश्य नहीं होता, जहाँ आज है। मिथिला के राजा और उनके पूर्वज भी स्वर्ग से अपने मिथिला को देखकर अश्रुपूरित होते होंगे। कल के मिथिला में विद्वानों-विदुषियों का भरमार था, आज चापलूसों, चाटुकारों की बाढ़ है। हज़ारों-हज़ार संस्थाएं मिथिला के विकास करने में लगे हैं। लेकिन खुद मेहनत से अधिक विकसित हो रहे हैं और मिथिला अपने भाग्य पर रो रही है।

अब दृष्टान्त देता हूँ। दिल्ली सल्तनत में तो मिथिला के लोग, मैथिली भाषा भाषी का उफान है, लेकिन मैथिली बोलने वालों की किल्लत ही नहीं, अकाल है। जिस स्थान पर दिल्ली सरकार का दारू-शराब का रखरखाव किया जाता है, पैसा-कौड़ी का लेखा-जोखा रखा जाता है, उसी भवन में ‘अछूत’ जैसा एक कमरा में ‘मैथिली-भोजपुरी अकादमी’ बना दिया गया। भवन का नाम है – 7-9 आपूर्ति भवन, आराम बाग़, पहाड़गंज, नई दिल्ली। विगत वर्ष दिल्ली सरकार 2022-2023 वित्तीय वर्ष में 762 करोड़ और अधिक शराब से भरी बोतलों को बेचकर 6,821 करोड़ रुपये सरकारी कोष में जमा की। यह दृष्टान्त काफी है यह कहने के लिए की दिल्ली सल्तनत में मिथिला के लोगों की मानसिक क्षमता।

इतना ही नहीं, दिल्ली सल्तनत में कुल 573+12 = 585 शराब के ठेके हैं। कुछ ठेके/दुकानें दिल्ली के मॉलों में भी स्थित है। दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय द्वारा संचालित कुल 2400 विद्यालय हैं और नगर निगम द्वारा संचालित विद्यालयों की संख्या 1735 है। यानी कुछ 4135 विद्यालय हैं। अगर नगर निगमों के विद्यालयों को तत्काल छोड़ भी दिया जाए तो दिल्ली सल्तनत में शिक्षा निदेशालय के क्षेत्राधिकार वाले प्रत्येक चार विद्यालयों पर दिल्ली सरकार द्वारा संचालित दारू का एक ठेका है।

वैसी स्थिति में दिल्ली सरकार के लिए ‘मैथिली’ और ‘भोजपुरी’ भाषा की क्या अहमियत है आप स्वयं निर्णय करें। यह तो अच्छा हुआ कि ‘विद्यापति’ और ‘भिखारी ठाकुर’ पहले मृत्यु को प्राप्त किये। आज अगर जीवित होते तो सर पटक-पटक कर रोते। कांग्रेस के ज़माने से, यानि श्रीमती शीला दीक्षित के ज़माने से आज तक, इन दो समुदाय के लोगों का उपयोग महज राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए होती आई है। मैथिली और भोजपुरी भाषा के विकास से इन अकादमी का कुछ भी लेना देना नहीं है। महज यह एक राजनीतिक लाभ हेतु मंच बनाया गया है।

पिछले दिनों भारत सरकार के साहित्य अकादमी में मैथिली भाषा की हस्ताक्षर डा. वीणा ठाकुर कहती हैं: “कोनो भाषासँ सम्बद्ध संस्था-संगठनक स्थापनाक मूलमे निहित होइत अछि ओहि भाषा-साहित्यक संरक्षण आ संवर्द्धन। ई तखने सम्भव होइत अछि जखन मौलिक दृष्टि सम्पन्न तटस्थ आ कुशल नेतृत्व होय। ओहि भाषा-साहित्य लेल मौलिक काज कयल जाय-करबायल जाय। ई तखने सम्भव होयत जखन एहन व्यक्तित्वक कुशल मार्गदर्शन भेटय जे मूलतः साहित्यकार होथि आ जिनकामे भाषा सेहो पचल होनि। किछु कविता, गीत, कथा आदि रचिकऽ कोनो गोटे साहित्यकारक शृंखलामे भने परिगणित होइत होथु, हुनक रचनो उत्कृष्ट होइत होइनि, मुदा तकर अर्थ ई कदापि नहि जे ओ भाषिक दृष्टिसँ सेहो क्षमतावान होथि।ओना तँ भाषाक ज्ञाता ओ सभ सर्वसाधारण होइत छथि जिनकर ओ मातृभाषा होइत छनि, मुदा ठोस विकास लेल साहित्यिक आ भाषिक दृष्टिकोणसँ एतबे टा होयब उपयुक्त नहि होइत अछि। भाषाक स्थायी ओ सर्वांगीण विकास लेल चाही विशेष-दृष्टि सम्पन्नता जकर अभाव दिल्लीक मैथिली-भोजपुरी अकादमीमे मैथिली लेल नजरि अबैत अछि। एकरा तँ मैथिलीक सिरमौर होयबाक चाही। एहि लेल सभक प्रति समभाव आ पारदर्शिता तँ चाहबे करी, जकर घोर अभाव बुझना जाइत अछि। लगैत अछि जेना ईहो गुटबाजीक शिकार भऽ गेल अछि। जेना सोशल मीडियापर अपन खायब-पियब, टहलब-बुलब आ अन्य अनावश्यक गतिविधिकेँ पल-पल पोस्ट कयनिहारकेँ भेटैत ‘लाइक्स’केँ लोकप्रियताक नपना मानि लेल जाइत अछि तहिना कविता-गीतक नामपर परसल जायवला अलर-बलरकेँ सेहो साहित्य मानबाक भ्रम पोसल जाय लागल अछि….

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मैथिली-भोजपुरी अकादमीकेँ सेहो एहिसँ फराक रहबाक चाही। अकादमीमे मैथिली लेल नेतृत्वकर्त्ताक दायित्व छनि जे ओ बुझथु जे साहित्य-लेखन आ ओकर आकलन दुनू फराक-फराक विषय थिक। ई सभक लेल कदापि सम्भव नहि जे ओ दुनूमे क्षम होथि। अकादमीमे मुख्य भूमिका निमाहनिहारकेँ ई अनिवार्य रूपसँ ध्यान राखऽ पड़तनि तखने मैथिलीक यथार्थ विकासमे संस्था अपन असल भूमिकाक निर्वाह कऽ सकत। विचारणीय ईहो थिक जे आइ धरि मैथिली अकादमी अपन स्वतंत्र स्वरूप किए ने पाबि सकल। स्थापनाक डेढ़ दशक बादो मैथिली लेल कोनो सार्थक प्रयास नहि कऽ सकल सेहो चिन्ता आ चिन्तनक कारण बनैत अछि।”

अब सवाल यह है कि दिल्ली सरकार को, मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल को ‘ज्ञान’ नहीं है, यह मान नहीं सकते। मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल देश के किसी भी मुख्यमंत्री से, यहाँ तक कि बिहार के श्री नितीश कुमार बाबू से, अधिक शिक्षित हैं। नीतीश जी तो एक अभियंता है। लेकिन श्री केजरीवाल अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा में उत्तीर्ण हैं। वे ‘भाषा’ के महत्व को नहीं समझते होंगे, यह अखबारवाला001 नहीं मान सकता है। हाँ, जिस तरह चापलूसों, चाटुकारों, खुशामदियों, धूर्तों के चक्कर में पड़कर मिथिला राज समाप्त हो गया, दरभंगा राज का नामोनिशान मिट गया, समय दूर नहीं है कहीं केजरीवाल की कुर्सी भी खिसक न जाए – क्योंकि मैथिल किसी का नहीं हुआ है। अगर होता तो दरभंगा राज समाप्त नहीं होता, आर्यावर्त-दी इण्डियन नेशन अख़बार, मिथिला मिहिर पत्रिका का नामोनिशान समाप्त नहीं होता।

हम तो एक श्रृंखला लिखने जा रहे हैं दिल्ली के मैथिलों पर, दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल के मानसिक स्थिति पर – आखिर दारुखाना में भाषा कैसे जीवित रहेगी। मुझे न तो विधायक बनना है और ना ही केजरीवाल जी की मदद से किसी संस्था का अध्यक्ष और ना ही कोई सरकारी लाभ लेना है। न मैं चापलूस हूँ, न चाटुकार हूँ। पत्रकार हूँ तो हुमचकर लिखूंगा, लिखता रहूँगा जबतक मैथिली-भोजपुरी अकादमी दारुखाना से निकलकर आईटीओ स्थित विशालकाय किसी भवन में नहीं आ जाता – सम्मान के साथ

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