लालकृष्ण आडवाणी देश का 50वें ‘भारत रत्न’ बने। जब प्रधानमंत्री उन्हें ‘स्टेट्समैन’ शब्द से अलंकृत किये, ‘दी स्टेट्समैन’ की वह कहानी याद आ गई

लालकृष्ण आडवाणी की ऐतिहासिक रथ यात्रा। तस्वीर: बिहार टाइम्स

नई दिल्ली: भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक नेताओं में से एक, अयोध्या में राम मंदिर बनाने संबधी प्रयास के प्रणेता 96-वर्षीय लाल कृष्ण आडवाणी को भारत रत्न से अलंकृत किया जायेगा। आज जब प्रधानमंत्री उन्हें भारत रत्न से अलंकृत करने का ऐलान किये और यह कहे कि ‘वे हमारे देश के सबसे सम्मानित स्टेट्समैन है,’ मुझे दो दशक से अधिक समय पहले आडवाणी के घर की एक घटना याद आ गयी। और वह घटना ‘स्टेट्समैन’ अखबार से संबंधित था। आडवाणी उन दिनों भारत के उप-प्रधान मंत्री के साथ-साथ केंद्रीय गृह मंत्री भी थे। 

उस दिन पंडारा पार्क स्थित अपने घर पर एक खास वजह से स्थानीय पत्रकारों को, जो भारतीय जनता पार्टी तो देखते ही थे, गृह मंत्रालय भी देखते थे, आमंत्रित किया था। सैकड़ों सम्मानित पत्रकार, महिला, पुरुष, युवक, युवती, वृद्ध सभी तरह के लोग उपस्थित थे। जिन्हे कम तनखाह मिलता था उनके पोशाक भी मेरे ही तरह थे। जो धनाढ्य थे, अपने-अपने संस्थानों में ऊँची-ऊँची कुर्सियों पर बैठकर मोटी मोटी रकम उठाते थे, उनके पोशाक मुग़ल कालीन, अंग्रेजी हुकूमत के समय का था। सम्पूर्ण परिसर गमागम सुगन्धित था। अंग्रेजी पोशाक में (शूट -बूट ) में आडवाणी जी भी सजे थे। आज 96 – वर्ष के हो गए हैं, आज यादास्त कितनी है नहीं कह सकते, लेकिन उन दिनों आडवाणी जी की एक खास विशेषता यह थी कि वे पहचानते सभी को थे, नाम  के साथ। और भूलते किसी को नहीं थे। 

उस दिन देखते ही कहने लगे कि आज सुबह-सवेरे आपके संपादक (स्टेट्समैन के संपादक) सी आर ईरानी को फोन करके बताया कि आपके अख़बार में जो खबर प्रकाशित हुई है वह गलत है। मोहन सहाय जिन्होंने कहानी लिखे हैं, गलत कहानी लिखे हैं। सभी लोग मुंह फाड़े आडवाणी जी को सुन रहे थे। उनके सामने कई ऐसे लोग भी थे जो उनके पत्रकार समूह के हिस्सा थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आडवाणी जी मुझे कहानी बता रहे हैं या अन्य पत्रकारों को सुना रहे हैं ताकि अन्य अख़बारों में जगह मिले। हम सिर्फ सुन रहे थे और अन्य उनकी बातों पर उत्तर-प्रतिउत्तर भी दे रहे थे। 

मैं कहानी की अंदर की कथा-व्यथा से उस क्षण बहुत वाकिफ नहीं था। मोहन सहाय पटना के दिनों से, यानी सत्तर के दशक से पटना के पत्रकारों से लेकर दिल्ली तक, उस ज़माने के सभी सहकर्मियों के बीच बहुत ही सम्मानित थे, आज भी हैं। पटना में उन्हें उनके हम उम्र के लोगों से लेकर हमारे उम्र के लोग “देवानंद” कहते हैं, आज भी। वजह यह है कि वे देवानंद के बहुत बड़े शुभेक्षु तो हैं ही, एक-एक गीत उनके होठों पर है। वे देवानंद वाला ही प्लेड कैप, जिसे देवानंद ‘ज्वेलथीफ’ फिल्म में पहने थे, आज भी पहनते हैं। वापस दफ्तर आने पर सहाय बाबू को पंडरा रोड की कहानी बताये। वे हंस दिए। आडवाणी ऐसे ही हैं। 

परन्तु बात यह थी कि उन दिनों पश्चिम बंगाल में विधानसभा का चुनाव होना था और ममता बनर्जी की तृणमूल पार्टी केंद्र में अटल बिहारी के साथ सरकार में थी।  उसी समय 24-परगना में कुछ लोगों को मार दिया गया था। इस घटना पर आडवाणी और जॉर्ज फर्नाडिस पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने के मांग कर दिए। आडवाणी और फर्नाडिस के उक्त वक्तव्य पर तत्कालीन राष्ट्रपति ‘सुओ-मोटो’ लिए। शाम में प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया ने एक कहानी चला दी जिसमें लिखा था कि अडवाणी राष्ट्रपति से मिले और स्थिति की जानकारी दिए। जो कि गलत था।

उन दिनों नम्बूदरीपाद डिप्टी प्रेस सचिव थे। मोहन सहाय उन्हें फोन करके इस बात से आश्वस्त होना चाहते थे कि क्या सच में आडवाणी राष्ट्रपति से मिले थे? जबाब ‘ना’ था। फिर मोहन सहाय कोई चार बार आडवाणी के घर पर फोन किये कहानी लिखने से पहले पक्का करने के लिए। किसी भी बार फोन का जवाब नहीं मिला। बार बार यह कहा गया कि मीटिंग में हैं। यह भी कहा गायणा कि यह ‘प्रोटोकॉल’ मीटिंग था राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की यात्रा के बारे में बताने के लिए। 

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दिनों वाजपेयी जी विदेश यात्रा पर थे। आम तौर पर ‘प्रोटोकॉल’ यह कहता है कि जब देश का प्रधानमंत्री किसी विदेश के यात्रा पर जाते हैं तो वे जाने से पहले निजी तौर पर राष्ट्रपति से मिलकर उन्हें अपनी यात्रा के बारे में बताते हैं, यात्रा का उद्देश्य बताते हैं। जब प्रधान मंत्री वापस आते हैं तो पुनः ‘डिब्रिफ’ करते हैं यात्रा के बारे में। आडवाणी कहीं भी नहीं थे। 

बाद में तत्कालीन वरिष्ठ सम्पादकों, खासकर चन्दन मित्र को फोन किया गया मोहन सहाय के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए। मित्रा साहेब मोहन सहाय को कई दशकों से जानते थे। स्वाभाविक है सहाय जी के बारे में कुछ भी नकारात्मक सोच रख ही नहीं सकते थे। फिर आडवाणी जी दी स्टेट्समैन के संपादक सी आर ईरानी को कलकत्ता फोन किये और उस कहानी के बारे में बताये। आडवाणी जी बार बार कहते रहे कि कहानी ‘बेसलेस’ है। ईरानी बहुत बेहतर संपादक थे। वे आडवाणी को सुने और फिर कहे कि “अगर यह कहानी बेसलेस है तो आप लिखित में पूरा वृतांत दें। हमारा अखबार उसी प्राथमिकता के साथ उसे प्रकाशित करेगा। ” आडवाणी जी पीछे हट गए। लिखित में नहीं दे सकते थे क्योंकि उनकी बातें ही गलत थी और स्टेट्समैन की कहानी बिल्कुल सच्ची थी। मोहन सहाय की पत्रकारिता पर ऊँगली उठाना गलत था। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी PIC NDTV

बहरहाल, आज जब प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने X पर लिखा कि “देश के विकास के लिए उनका योगदान कोई भूल नहीं सकता। वे हमारे समय के सबसे सम्मानित ‘स्टेट्समैन’ हैं। देश के विकास के लिए उनका योगदान कोई भूल नहीं सकता। उन्होंने जमीनी स्तर से काम शुरू किया था और वे देश के उपप्रधानमंत्री पद तक पहुंचे। वे देश के गृहमंत्री और सूचना-प्रसारण मंत्री भी रहे। उनकी  संसदीय कार्यशैली हमेशा अनुकरणीय रहेगी। 

सार्वजनिक जीवन में आडवाणी जी दशकों तक पारदर्शिता और अखंडता के प्रति अटूट प्रतिबद्ध रहे। उन्होंने राजनीतिक नैतिकता में एक अनुकरणीय मानक स्थापित किया है। उन्होंने राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक पुनरुत्थान को आगे बढ़ाने की दिशा में अभूतपूर्व प्रयास किए हैं। उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया जाना मेरे लिए बहुत भावुक क्षण है। मैं इसे हमेशा अपना सौभाग्य मानूंगा कि मुझे उनके साथ बातचीत करने और उनसे सीखने के अनगिनत मौके मिले।’ पंडारा रोड की कहानी को लिखे बिना नहीं रहा गया। 

नरेंद्र मोदी ने व्यक्तिगत रूप से मुलाकात कर लालकृष्ण आडवाणी को बधाई दी। कुछ दिन पहले ही केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित करने का फैसला किया था। भारत रत्न अलंकरण श्रृंखला में आडवाणी जी का नाम 50 वे स्थान पर दर्ज हो गया। साल 2014 में सत्ता संभालने के बाद बीजेपी ने आडवाणी समेत कुल सात लोगों को भारत रत्न दिया है, जिनमें से पांच लोगों को यह पुरस्कार दिया जा चुका है। 

बीजेपी समर्थक लंबे समय से लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देने की मांग कर रहे थे। वे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और भाजपा के संस्थापक सदस्य नाना जी देशमुख के बाद ये सम्मान पाने वाले भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े तीसरे नेता हैं। उन्होंने अपने सियासी जीवन में आधा दर्जन यात्राएं निकालीं। इनमें राम रथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा, भारत सुरक्षा यात्रा, जन चेतना यात्रा शामिल हैं।

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उधर  आडवाणी ने भारत रत्न मिलने पर कहा- ‘मैं अत्यंत विनम्रता और कृतज्ञता के साथ भारत रत्न स्वीकार करता हूं जो आज मुझे प्रदान किया गया है। यह न सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में मेरे लिए सम्मान की बात है, बल्कि उन आदर्शों और सिद्धांतों के लिए भी सम्मान है, जिनकी मैंने अपनी पूरी क्षमता से जीवन भर सेवा करने की कोशिश की। 2015 में आडवाणी को देश के दूसरे सबसे नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था। इसी साल पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिया गया था। तब के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी खुद उनके घर गए थे और उन्हें यह सम्मान दिया।’

आडवाणी ने कहा- जब से मैं 14 साल की उम्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुआ, तब से मैंने केवल एक ही कामना की है। जीवन में मुझे जो भी कार्य सौंपा गया है, उसमें अपने देश की समर्पित और निस्वार्थ सेवा की। जिस चीज ने मेरे जीवन को प्रेरित किया है वह आदर्श वाक्य है ‘इदं न मम’ ─ ‘यह जीवन मेरा नहीं है, मेरा जीवन मेरे राष्ट्र के लिए है। ‘उन्होंने कहा, आज मैं उन दो व्यक्तियों को कृतज्ञतापूर्वक याद करता हूं जिनके साथ मुझे करीब से काम करने का सम्मान मिला – पंडित दीनदयाल उपाध्याय और भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी।आडवाणी ने सम्मान के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और पीएम मोदी को भी धन्यवाद दिया। साथ ही भाजपा संघ और दिवंगत पत्नी कमला आडवाणी को भी याद किया। 

आडवाणी राम जन्मभूमि आंदोलन में भाजपा का चेहरा बने। 80 के दशक में विश्व हिंदू परिषद ने ‘राम मंदिर’ निर्माण आंदोलन शुरू किया। 1991 का चुनाव देश की सियासत का टर्निंग पॉइंट रहा। भाजपा मंडल कमीशन की काट के रूप में मंदिर मुद्दा लेकर आई और राम रथ पर सवार होकर देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी।

बहरहाल, वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव ने लिखा है भारत रत्न मिल जाना चाहिए था आडवाणी जी को 20 वर्ष पूर्व ही (अप्रैल 1999 पर)। तब दिल्ली के तख्त पर लालचंद्र किशनचंद्र आडवाणी ने एक विदेशी को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने और तीन मूर्ति भवन पर कब्जा करने से रोका था। आडवाणी जी के साथ समाजवादी विपक्ष के पुरोधा, लोहियावादी, मुलायम सिंह यादव को भी तभी पद्म विभूषण मिलना चाहिए था। सैफई (इटावा) के इस पहलवान ने कुश्ती वाले दांव धोबी पाटा से ही सोनिया गांधी को पटखनी दी। उनके अरमान दिल में मर गए। वर्ना इतिहास लिखता कि लॉर्ड माउंटबेटन के बाद दूसरा यूरोपीय राष्ट्राध्यक्ष इटली से आया था।

यह घटना अप्रैल 1999 की है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार, अटल बिहारी वाजपेई वाली, बस एक वोट से गिर गई थी। उड़ीसा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग द्वारा भुवनेश्वर से दिल्ली लाकर वोट डलवाया गया। उन्हीं का एक वोट था। राष्ट्रपति के. आर. नारायण ने अटलजी से लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने का आदेश दिया था। कारण था कि अन्नाद्रमुक नेता की जे. जयललिता ने राजग सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। बहुमत नहीं रहा।

मगर ऐसी स्थिति आई कैसे ? धोखा देने के खेल में सरकार के चेहरे पर वक्त से पहले ही मुस्कान आ गई थी। लेकिन कुछ लोगों ने नोट किया कि किसी ने लोकसभा के सेक्रेट्री जनरल एस गोपालन की तरफ़ एक चिट बढ़ाई है। गोपालन ने उस पर कुछ लिखा और उसे टाइप कराने के लिए भेज दिया। उस कागज़ में लोकसभाध्यक्ष जीएमसी बालयोगी द्वारा दी गई रूलिंग थी जिसमें काँग्रेस साँसद गिरधर गोमाँग को अपने विवेक के आधार पर वोट देने की अनुमति प्रदान की गई थी। गोमाँग फ़रवरी में ही ओडिशा के मुख्यमंत्री बन गए थे लेकिन उन्होंने अपनी लोकसभा की सदस्यता से तब तक इस्तीफ़ा नहीं दिया था।

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अटलजी की सरकार गिरने के पीछे एक नारी का हाथ था। राजग सरकार को समर्थन देने के ऐवज में अन्ना द्रमुक के नेता जे. जयललिता ने संकट पैदा कर रखा था। जयललिता चाहती थीं कि उनके ख़िलाफ़ सभी मुकदमे वापस लिए जाएं। तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार को बर्ख़ास्त किया जाए। इसके अलावा वे सुब्रमण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनवाने पर भी ज़ोर दे रही थीं। वाजपेयी इसके लिए तैयार नहीं हुए। जयललिता चाहती थीं कि उनके ख़िलाफ़ चल रहे इन्कम टैक्स केसों में उन्हें मदद मिले।

इतना सारा नाटक होने के बाद 21 अप्रैल को सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति नारायणन से मिलकर दावा किया कि उन्हें 272 साँसदों का समर्थन प्राप्त है। लगभग उसी समय मुलायम सिंह यादव ने एक बार फिर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव आगे किया।

सीपीएम 1996 के विपरीत इसके लिए तैयार भी दिखी लेकिन काँग्रेस इस बार किसी दूसरी पार्टी को नेतृत्व देने के लिए राज़ी नहीं हुई। बाद में मुलायम सिंह ने काँग्रेस का साथ देने से साफ़ इंकार कर दिया। इस फैसले में बहुत बड़ी भूमिका रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस की रही। लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई कंट्री, माई लाइफ़’ में इसका ब्योरा देते हुए लिखा है : “21 या 22 अप्रैल को देर रात मेरे पास जॉर्ज फ़र्नांडिस का फ़ोन आया। उन्होंने कहा लालजी मेरे पास आपके लिए अच्छी ख़बर है। सोनिया गाँधी अगली सरकार नहीं बना सकतीं। विपक्ष के एक बड़े नेता आपसे मिलना चाहते हैं। लेकिन ये बैठक न तो आपके घर पर हो सकती है और न ही मेरे घर पर।”

आडवाणीजी ने लिखा : “तय हुआ कि ये मुलाकात जया जेटली के सुजान सिंह पार्क वाले घर में होगी। जब मैं जया जेटली के घर पहुंचा तो वहाँ मैंने मुलायम सिंह यादव और जॉर्ज फ़र्नांडिस को बैठे हुए पाया। फ़र्नांडिस ने मुझसे कहा कि मेरे दोस्त ने मुझे आश्वस्त किया है कि उनके 20 साँसद किसी भी हालत में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने के प्रयास को समर्थन नहीं देंगे। मुलायम सिंह यादव ने भी ये बात मेरे सामने दोहराई। लेकिन उन्होंने ये भी कहा कि आडवाणी जी इसके लिए मेरी एक शर्त है। मेरी इस घोषणा के बाद कि हमारी पार्टी सोनिया गांधी को सरकार बनाने में मदद नहीं करेगी, आपको ये वादा करना होगा कि आप दोबारा सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करेंगे। मैं चाहता हूँ कि अब नए चुनाव करवाएं जाएं।”

तब तक एनडीए के घटक दलों का भी मन बन चुका था कि फिर से सरकार बनाने के बजाए मध्यावधि चुनाव का सामना किया जाए। राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी को राष्ट्रपति भवन तलब किया और उनको सलाह दी कि वो लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश करें। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश की लेकिन इस सिफ़ारिश में साफ़ लिखा गया कि वो ऐसा राष्ट्रपति नारायणन की सलाह पर कर रहे हैं। राष्ट्रपति भवन इससे खुश नहीं नज़र आया लेकिन तब तक वाजपेयी को इस बात की फ़िक्र नहीं रह गई थी कि राष्ट्रपति इस बारे में क्या सोच रहे हैं।

इस सारी उठापटक के दौरान सोनिया गांधी के मैके से सारे कुटुंब जन 10 जनपथ, नई दिल्ली आ गए थे। कहावत है कि प्याले और ओंठ के दरम्यान फासला होता है। सत्ता का प्याला छूट गया। सोनिया जहां थीं वहीं रह गईं। मगर लालकृष्ण आडवाणी ने जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह के साथ भारत पर दुबारा यूरोपीय राज नहीं आने दिया।

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