प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया ‘बार’ के ‘काउंटरटॉप’ से: जब ‘बाघा जतिन’ के पोते ने कहा: ‘आप अपने कार्य में बंगाल की कला और संस्कृति को भी जोड़ें

ओह!!! कोलकाता - तस्वीर: दी टेलीग्राफ के सौजन्य से

नई दिल्ली: पिछले दिनों महान क्रान्तिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी यानि ‘बाघा जतीन साहेब’ के पोते श्री पृथ्वीन्द्रनाथ मुखर्जी साहेब इंटरनेट पर बात हो रही थी। श्री पृथ्वीन साहेब ने कहा: “शिवनाथ जी आप शहीदों के वंशजों के लिए कार्य कर रहे हैं, मैं शब्दों में नहीं बाँध सकता क्योंकि मैं उसी परिवार से हूँ। आप अपने कार्य के साथ-साथ बंगाल की कला और संस्कृति को भी जोड़ें, साथ ही, बंगाल के ऐतिहासिक घरोहरों को भी उजागर करें। मैं आपके बारे में इंटरनेट पर पढ़ा हूँ। पिछले कई वर्षों से आपके कार्यों को देख रहा हूँ, परख रहा हूँ। 

मैं श्री पृथ्वीन साहेब की बातों को पढ़ रहा था और मन-ही-मन अपने गाँव का वह ‘डबरा’ (एक बड़ा गड्ढ़ा जिसमें पानी अनवरत एकत्रित रहता है और परिणाम स्वरुप उसमें जलकुम्भी का जन्म जो जाता है) याद आ रहा था। उस डबरे की और डबरे में जन्म लिए ‘जलकुम्भी’ का मेरे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। दशकों पहले उस जलकुम्भी के डंठल से माँ कैसे दिवाली में ‘टेमी’ के सहारे /मोमबत्ती’ नुमा कुछ बनाती थी, जिसे किरासन तेल में डुबोकर घर में रौशनी फैलाते थे।  

पृथ्वीन साहेब की बातों को सुनकर बहुत अदब से मैंने कहा: कोशिश जारी है सर, लेकिन भारत में ‘मददगारों’ की किल्लत ही नहीं ‘सुखाड़’ है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि ‘बंजर भूमि, फटी-भूमि, खुखी भूमि के बीच मैं बैठा हूँ और मेरे ऊपर चील, गिद्ध इस कदर विचरण कर रहे हैं, मानो सांस रुकी और वे झपट कर सम्पूर्ण प्रयास को अपने नाम कर लें। शहीदों और संस्कृति को भारतीय बाज़ार के साथ-साथ विश्व बाजार में बेचकर मालामाल हो जायँ। वे हमारी पीड़ा को समझ रहे थे। 

श्री पृथ्वीन साहेब की बात सुनकर उस दिशा में और अधिक कार्य करने के लिए मन में रेहु मछली जैसा उथल-पुथल होने लगा था । मन करता था कि दिल्ली के उसी पुरानी लोहे के पुल से, जिसका निर्माण सन 1857 विद्रोह के बाद हुई थी, से पाऊँ-पैदल उम्र से लम्बी रेल लाइन पर गाज़ियाबाद, अलीगढ़, कानपूर सेन्ट्रल, बनारस, बक्सर, गया, पटना के रास्ते बरकार नदी पार करते बंगाल की धरती पर अवतरित हो जाऊं। फिर क्रन्तिकारी बटुकेश्वर दत्त के जन्मस्थान ‘बर्द्धमान’ के रास्ते कलकत्ता पहुँच जाऊं। 

क्योंकि सच पूछिए तो भारत में सिर्फ और सिर्फ बंगाल ही एक ऐसा प्रदेश हैं और उसमें भी कलकत्ता शहर, जहाँ लोगों के ह्रदय में कला आज भी जीवित है चाहे बच्चे हो या बूढ़े। शेष जगहों, चले मिथिला ही क्यों न हो, कला, संस्कृति का व्यापार होता है। आप विश्वास नहीं करेंगे लेकिन मिथिला की संस्कृति की बचने की बात करने वाले लोग बाग़ को पतलून, कमीज, टीशर्ट. बुशर्ट आदि वस्त्रों पर ‘पाग’ पहनते देखा हूँ। कई तस्वीरों को भी एकत्रित कर रखा हूँ। मिथिला में तो आजकल ‘पाग’ पर ‘कसीदाकारी’ की प्रथा जोड़ों पर है। खैर। 

कलकत्ता से मेरा सम्बन्ध बहुत पुराना है। मैं तो दरभंगा महाराजा परिवार से हूँ नहीं कि यह दावा करते फिरूं कि हमारे पूर्वज की प्रतिमा कलकत्ता शहर में स्थापित है। यह अलग बात है कि आज उस प्रतिमा को धोने-पोछने के लिए दरभंगा राज परिवार के लोगबाग कभी मुड़कर भी नहीं देखते। एक ज़माने में कलकत्ता में दरभंगा की तूती बोली जाती थी, आज तो लोग नाम भी नहीं लेना चाहते हैं। लेकिन कलकत्ता से मेरा सम्बन्ध वैसा ही है जैसे हावड़ा ब्रिज – दो शहरों को ही नहीं, दो आत्माओं को जोड़ना और उसे जीवित रखना। 

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बाबूजी कहते थे ‘गरीब व्यक्तियों में अर्थ की किल्लत होती है, तभी वह गरीब होता है। लेकिन गरीबों के समाज में आन बहुत होती है। इतिहास के पन्नों को जब उलटकर देखोगे तो तुम्हें विश्वास हो जाएगा कि भारत ही नहीं, विश्व के इतिहास के रचयिताओं में गरीब और गरीबों का परिवार सबसे आगे है। कभी सोचता हूँ कि अगर ‘कलकत्ता’ नहीं होता तो मैं कहाँ होता। जिस तरह इस 1900 के दशक में अविभाजित परन्तु ‘परतंत्र’ भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली आई; उसी तरह आज़ाद भारत में मैं भी तो कलकत्ता से दिल्ली आया इतिहास रचने के लिए – स्वाधीनता संग्राम के वंशजों को ढूंढने, उन्हें नया जीवन देने का दायित्व भी तो ‘समय’ ने मेरे ही हाथों में लिखा। 

हुगली नदी के तट पर बसा भारत का एक प्राचीनतम शहर जो अपने उद्गम के समय से अपने साहित्यिक, क्रांतिकारी और कलात्मक धरोहरों के लिए जाना जाता है। इतना ही नहीं, यह शहर, भारत की पूर्व राजधानी होने के कारण आधुनिक भारत की साहित्यिक और कलात्मक सोच का जन्मस्थान भी रहा है और आज भी अपने ह्रदय में उसे धरोहर बनाकर रखा है । इस शहर, इस प्रान्त में जन्म लिए हरेक व्यक्ति, चाहे इस प्रान्त में आज रहते हों अथवा विश्व के किसी कोने में प्रवासित हो गए हों; अपने मानस पटल पर सदा ही कला और साहित्य को विशेष स्थान दिए हैं। यही कारण है की इसे भारत का सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है।आधिकारिक रूप से इस शहर का नाम कोलकाता पहली जनवरी 2001 को रखा गया। इसका पूर्व “कलकत्ता’ था लेकिन बांग्ला भाषा इसे सदा कोलकाता के नाम से ही जानते है।

नाम की कहानी और विवाद चाहे जो भी हों इतना तो तय है कि यह आधुनिक भारत के शहरों में सबसे पहले बसने वाले शहरों में से एक है। सन 1690 में ईस्ट इंडिया कंपनी “जाब चारनाक” ने अपनी कंपनी के व्यापारियों के लिये एक बस्ती बसाई थी, आठ साल बाद, कंपनी ने एक स्थानीय जमींदार सावर्ण रायचौधरी से तीन गाँव (सूतानुटि, कोलिकाता और गोबिंदपुर) लिया इन तीन गांवों का विकास प्रेसिडेंसी सिटी के रूप में करना शुरू किया।

कहते हैं 1756 में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने कलकत्ता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उसने इसका नाम “अलीनगर” रखा। लेकिन साल भर के अंदर ही सिराजुद्दौला की पकड़ यहाँ ढीली पड़ गयी और अंग्रेजों का इस पर पुनः  अधिकार हो गया। सन 1772 में वारेन हेस्टिंग्स ने कलकत्ता को ब्रिटिश शासकों के लिए भारत की राजधानी बना दी जो 1912 तक भारत में अंग्रेजों की राजधानी बनी रही, बाद में भारत की राजधानी दिल्ली बनी।

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ये बात तो राजनीतिक है, परन्तु जो तथ्य है वह यह की बंगाल की कला में कला के विभिन्न रूप हैं। मसलन नृत्य, पेंटिंग्स, मूर्तिकला आदि। वे पर्यटक जो पश्चिम बंगाल की कला को जानना चाहते हैं उनकी पहली पसंद शांति निकेतन होती है। मेले और त्योहार पश्चिम बंगाल पर्यटन का महत्वपूर्ण भाग है जिसमें दुर्गा पूजा, काली पूजा, सरस्वती पूजा, लक्ष्मी पूजा, जगदधात्री पूजा आदि प्रसिद्ध त्योहार शामिल हैं जिसमें विभिन्न रूप में स्त्री शक्तियों की पूजा की जाती है। गंगा सागर मेला प्रतिवर्ष हज़ारों पर्यटकों को आकर्षित करता है।

बंगाल में साहित्य, कला और संगीत की त्रिवेणी बहती है। यहाँ जनसामान्य में साहित्य, कला, नाटक और संगीत के प्रति जैसा अनुराग है वह भारत के अन्य प्रान्तों में दुर्लभ है। 1911 तक कोलकाता देश की राजधानी थी। राजाराम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों के कारण बंगाल में सामाजिक रूढ़ियाँ कमजोर हुईं जिसके कारण बंगाल में राष्ट्रवादी आन्दोलन की राजनीतिक चेतना विकसित हुई। रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे सांस्कृतिक पुरुषों के प्रयास से जन सामान्य में साहित्य और संस्कृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। कला संस्कृति से जोड़ना सुसंस्कृत होने की शर्त बनी।

20 वीं सदी की शुरुआत में बंगाल में नवजागरण और जातीय चेतना के उन्मेष के कारण कला में भी भारतीयता की तलाश शुरू हुई। इसके पूर्व केरल में राजा रवि वर्मा यूरोपियन कला के सम्मिश्रण से, कला के क्षेत्र में नवजागरण का सूत्रपात्र कर चुके थे। वे ब्रिटिश शासन काल में यूरोपीय कलाकारों की शैली में, भारतीय जनमानस में गहरे पैठी देवी देवताओं और पौराणिक आख्यानों पर आधारित चित्र बनाकर अकेले ही उन यूरोपीय कलाकारों के सामने चुनौती पेश कर रहे थे।

राजा रवि वर्मा के चित्र तत्कालीन राजा महाराजा के महलों से लेकर जनसाधारण के घरों में कैलेंडर के रूप में मौजूद और काफी लोकप्रिय था। आज हिंदुस्तान में जन मानस में देवी देवताओं की जो छवि निर्मित है, वह राजा रवि वर्मा की ही देन है। अवनीन्द्रनाथ टैगोर जो कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे, यूरोपीय शैली के बरक्स जिस भारतीय शैली की तलाश कर रहे थे, उसका एक रास्ता यह था कि वे राजा रवि वर्मा की शैली को ही आगे बढ़ते जैसा कि हेमन मजूमदार ने किया परंतु तब कला में जिस भारतीयता की तलाश की जा रही थी वह अधूरी रह जाती।

19वीं सदी के अंतिम दशक में कोलकाता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट एवं क्राफ्ट में ई.वी. हैवल प्रिंसिपल बनकर आये। हैवल पहले विदेशी थे जिन्होंने सही परिप्रेक्ष्य में भारतीय कला का मूल्यांकन किया था। उनके विचार भारत की कला और भारत के इतिहास दोनों के संबंध में सुलझे हुए थे। उन्होंने विदेशी संस्कारों से ग्रसित और हीन भावनाओं से पीड़ित भारतीय मानस को एक नई कला चेतना दी। हैवल का मत था कि भारत की चित्रकला और मूर्तिकला मात्र प्रतिरूप नहीं है,वह व्यक्ति विशेष के दैहिक रूप मात्र का प्रतिनिधित्व नहीं करती बल्कि उसके अंतर्निहित आध्यात्मिक भावों को भी उजागर करती है।

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इसी तरह यामनी राय बंगाल-स्कूल को पश्चिमी शैली से प्रभावित मानते थे। पश्चिमी शैली के अंधानुकरण को वे हेय दृष्टि से देखते थे। विदेशों में आज भी यामिनी राय के चित्रों की मांग है क्योंकि वे एकमात्र भारतीय कलाकार हैं जिनमें शत-प्रतिशत भारतीयता है।यामिनी राय के बाद आधुनिक भारतीय चित्रकला में अमृता शेरगिल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।अमृता ने अपनी छोटी सी आयु में भारतीय चित्रकला को अपनी मौलिक प्रतिभा से एक नई दिशा और ऊँचाई दी। उसने अपनी चित्रकला के लिए भारतीय विषयों खासकर आम महिलाओं के जीवन को आधार बनाया।

1942 में भारत में स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर था । 1943 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा । जनजीवन अस्त- व्यस्त हो गया, लेकिन बंगाल स्कूल के प्रशिक्षित कलाकारों ने तत्कालीन समाज के कटु यथार्थ को चित्रित नहीं कर पाये । जिन कलाकारों ने बंगाल के दुर्भिक्ष का अपनी कलाकृतियों में चित्रण किया उनमें प्रमुख थे — जैनुअल बैदिन, आदिनाथ मुखर्जी,चित्तोप्रसाद, रामकिंकर बैज, सोमनाथ होर, प्राणनाथ मागो। आजादी के बाद बंगाल में शुरुआती दौर की चित्रकला में पाश्चात्य और भारतीय शैलियों के मिश्रण की अधिकता थी। बंगाल में जोगेन चौधुरी, गणेश पाइन, कार्तिक चन्द्र पाइन और गणेश हालोई जैसे बहुत से कलाकार हैं जिन्होंने अपने बचपन में भारत विभाजन का दंश को भोगा हैं, शरणार्थी जीवन के संघर्ष के ताप को महसूस किया है। शैशवास्था का तनाव इन कलाकारों का कामों में झलकता है।

गणेश हालोई अद्भुत शैली में लैंडस्केप को चित्रित करते हैं। इनका लैंडस्केप देख कर ऐसा लगता है जैसे काफी ऊँचाई से अवलोकन कर चित्रित किया गया हो। गणेश हालोई बंगाल में अमूर्त शैली में काम करने वाले गिने चुने कलाकारों में से एक हैं।विकास भट्टाचार्य ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने मुख्यधारा सेमी-ऐब्सट्रैक्ट के विपरीत जाकर आकृति मूलक ओर पोर्ट्रेट में अपना विशिष्ट मुकाम बनाया है। ये कला में यथार्थ शैली के पक्षधर हैं।बी आर पनेसर’कोलाज शैली’ के महत्वपूर्ण कलाकार हैं। रंगों के वजाय वे कागज़ के टुकड़ों को चिपकाकर पेंटिंग बनाते हैं। उन्होंने ग्राफ़िक माध्यम में भी बहुत अच्छे काम किये है।

पनेसर जी ने शकीला जैसे फुटपाथ पर रहने वाले बच्चे को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार बनाने में योगदान दिया है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है।बी आर पनेसर इसे ‘ह्यूमन कोलाज’ कहते हैं। अरिंदम चटर्जी अमूर्त शैली में लैंडस्केप चित्रित करते हैं। अमूर्त दृश्यों को उम्दा कलाकृतियों में बदल देने की कलाकार के पास एक अद्भुत क्षमता एवं शैली है।कहा जाता है कि महिलाएं आदिकाल से समाज को मापने का पैमाना रहीं हैं। समाज में महिलाओं की स्थिति से जाना जा सकता है कि समाज कितना समुन्नत है। 

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