नई दिल्ली : बात कोई 35-साल पहले की है। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय के अध्यक्ष थे लाल कृष्ण आडवाणी। आडवाणी जी भाजपा को तीन बार अपना नेतृत्व दिए। साल 1986-91, 1993-98 और 2004-2005 में पार्टी के अध्यक्ष रहे। जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी, वे गृह मंत्री बने फिर उप-प्रधान मंत्री का भी पद संभाला। आज देश का नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, वह भी तीसरी बार, लेकिन वे कभी पार्टी का नेतृत्व नहीं किये – प्रत्यक्ष रूप से।
लाल कृष्ण आडवाणी से मैं पहली बार रूबरू हुआ था धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में। उन दिनों गोल्ड ग्राउंड में धनबाद के छोटे-छोटे बच्चे क्रिकेट, फुलबॉल खेलते थे। बड़े-बुजुर्ग सुबह-शाम मैदान में बर्जिस करते थे। स्थानीय पुलिस यहीं अपना अभ्यास भी करती थी। आज तो गोल्फ ग्राउंड का भी राजनीतिकरण हो गया है। अब इसका नाम रणधीर प्रसाद वर्मा स्टेडियम हो गया।
इस गोल्फ ग्राउंड में प्रवेश और निकास के तीन रास्ते थे उन दिनों। एक मुख्य मार्ग से। दूसरे एसएसएलएनटी कॉलेज और राष्ट्रीय कोलियरी मजदूर संघ कार्यालय से आगे दाहिने हाथ से और एक हाउसिंग कालोनी के तरफ से। जो रास्ता महिला कालेज की ओर से आती थी उसी रास्ते के दाहिने हाथ पर पुलिस अधीक्षक का आवास था। रणधीर वर्मा भी उस आवास में रहे थे। जिस दिन वे अपनी अनंत यात्रा पर निकले थे, सुबह इसी गोल्फ ग्राउंड में बर्जिस किये थे। खैर।
रणधीर वर्मा, जो समय धनबाद के पुलिस अधीक्षक थे और उनका पदोन्नति डीआईजी, बोकारो के लिए हुआ था, 3 जनवरी, 1991 को मृत्यु को प्राप्त किये। जब रणधीर वर्मा हीरापुर के बैंक ऑफ़ इण्डिया में बैंक लुटेरों की गोलियों का शिकार हुए तो सबसे पहले उनके नाम का राजनीतिक लाभ उनकी पत्नी को मिली। श्रीमती रीता वर्मा धनबाद का सांसद बन गयी। उसी वर्ष मई और जून में दसवीं लोक सभा के लिए चुनाव हुआ। भारतीय जनता पार्टी श्रीमती रीता वर्मा को चुनावी मैदान में उतार दी। श्रीमती वर्मा 1991-1996, 1996-1998, 1988-1999 और 1999-2004 यानी 14 वर्ष धनबाद को भारत के संसद में प्रतिनिधित्व की।
आज 35 वर्ष बीतने के बाद भी धनबाद के लोगों का जो सम्मान तत्कालीन पुलिस अधीक्षक रणधीर वर्मा के लिए है, या आगे भी रहेगा, वहां की पूर्व सांसद और रणधीर वर्मा की पत्नी श्रीमती रीता वर्मा को नहीं प्राप्त हुआ। आज जब धनबाद के लोग उनके कालखंड में मतदाताओं और संसदीय क्षेत्र को एक साथ देखते हैं तो रोना आता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि 14 साल सांसद होने के बाद भी अपने क्षेत्र के लिए श्रीमती रीता वर्मा का योगदान “शून्य” रहा। खैर।
तत्कालीन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष लाल कृष्ण आडवाणी 20 अक्टूबर, 1990 को धनबाद के इस गोल्फ ग्राउंड में पधारे थे अपने रथ यात्रा के क्रम में। भारत के आज के 70 फीसदी से अधिक पत्रकार, लोगबाग, विश्लेषक शायद उस दृश्य को नहीं देखे होंगे। मैं वहाँ था एक संवाददाता के रूप में। हज़ारों लोगों की तायदात थी वहां उपस्थित। स्थानीय पत्रकार तो थे ही, पटना, कलकत्ता, दिल्ली से प्रकाशित अख़बारों के संवाददाता और छायाकार भी उपस्थित थे।
आडवाणी जी के साथ पत्रकारों का एक काफिला भी चल रहा था उनके साथ ताकि पग-पग की कहानी अपने-अपने पत्र-पत्रिकाओं को प्रेषित कर सकें। उसी दिन धनबाद डाकधार में टेलेक्स और टेलीप्रिंटर की विशेष व्यवस्था की गयी थी। कुछ अख़बारों के दफ्तर भी थे वहां जहाँ टेलीप्रिंटर लगा था। कलकत्ता समाचार भेजने के लिए डाकघर के टेलीप्रिन्टर का इस्तेमाल करते थे।
उस ज़माने में भी कलकत्ता से प्रकाशित दी टेलीग्राफ अखबार अपने स्थानीय पत्रकारों को बहुत अहमियत देता था, संभवतः सम्भतः आज भी देता होगा। अभी तक दी टेलीग्राफ अखबार के तत्कालीन संपादक एमजे अकबर का नाम ही अखबार के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाशित होता था। यह अलग बात है कि कुछ ही समय बात अकबर अपने अखबार और स्वयं से जुड़े सभी लोगों को एक पत्र द्वारा सूचित किये थे कि आखिर वे पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में क्यों प्रवेश ले रहे हैं 1991 लोक सभा चुनाब में किशनगंज से लड़ने। खैर। उनकी अलग कहानी है।
अब आइये आडवाणी जी और मोदी जी के कालखंडों को एक नजर से देखते हैं। आडवाणी जी पत्रकारों का काफ़िला लेकर चलते थे और श्री मोदी जी बंद कमरे में अपना काफ़िला बनाते हैं। वैसे समय में परिवर्तन के साथ-साथ यह होना भी लाज़िमी है, लेकिन जब दोनों कालखंडों की तुलना करते हैं तो सोचता हूँ सब विज्ञान की माया है।
जिस कालखंड में आडवाणी जी कदमताल कर रहे थे, उस ज़माने में क्वींसवे राजपथ ने नाम से चर्चित था और गूगल बाबू विज्ञान के गर्भ में उत्पन्न भी नहीं हुए थे। जबकि सम्मानित नरेंद्र मोदी जी के ज़माने में राजपथ कर्तव्य पथ बन गया, औरंगजेब रोड डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के नाम निबंधित हो गया और गूगल महाशय ही नहीं, पारम्परिक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन, टीवी चैनलों के अलावे पूरा ब्रह्माण्ड एक कमरे में सिमट गया – जहाँ तक लिखने-लिखाने, छपने-छापने, वितरण करने, पाठकों और दर्शकों तक पहुँचाने का सवाल है।
इस दृष्टि से श्रीमान आडवाणी जी की तुलना में सम्मानित मोदी जी अधिक भाग्यशाली है। वैसे मोदी जी तो भाग्यशाली हैं ही, एक नहीं तीसरी बार देश का नेतृत्व कर रहे हैं। जिस ज़माने में वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, दिल्ली के नेता उन्हें घास भी नहीं डालते थे। लोग माने अथवा नहीं, आडवाणी जी भी उन नेताओं में एक थे। सब समय का खेल है। कल उनका था, आज इनका है और फिर कल किसी और का होगा।
आज मोदीजी के राज में जब सामाजिक क्षेत्र के मीडिया घरों पर, मसलन ट्विटर, X, फेसबुक आदि देखता हूँ जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम से पृष्ठ है, क्षण-क्षण का समाचार, विश्लेषण, तस्वीर प्रकाशित होते हैं। मन प्रसन्न हो जाता है। सोचता हूँ आज़ाद भारत के 78 वर्ष में देश को [पहला प्रधानमंत्री मिला जो जिसके नाम से पृष्ठ है। भले लिखने वालों की, शुद्धिकरण करने वालो की, तथ्यों की जांच-पड़ताल करने वालों की फ़ौज हो उस कमरे में, लेकिन नाम तो मोदी जी का ही है। तभी तो पारम्परिक पत्र-पत्रिकाएं, यहाँ तक की टीवी वाले भी उन प्रकाशित तथ्यों को उद्धृत करते हैं प्रधानमंत्री के नाम से। आडवाणी जी के कालखंड में ऐसी बात नहीं थी, तभी तो वे काफिला लेकर चलते थे।
उन दिनों भारत के विभिन्न क्षेत्रों से प्रकाशित पारम्परिक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकीय विभाग भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय के हल्के पीले रंग वाले लिफाफे में बंद प्रेस विज्ञप्ति के साथ-साथ दिल्ली की सरकारी तस्वीरों की प्रतीक्षा करते थे। गोदरेज या हाल्दा मशीन से टंकित शब्दों की कहानियों के लिए इंतज़ार करते थे। भारत सरकार द्वारा अनुशंसित कागज के कोटों को बरकरार रखने के लिए, राज्य और केंद्र सरकार द्वारा निर्गत विज्ञापनों को प्राप्त करने के लिए प्रकाशन करते थे। मन में भय बना होता था कि अगर प्रकाशित नहीं करेंगे तो कहीं न्यूजप्रिंट का कोटा न काम हो जाये, कहीं विज्ञापन न रद्द हो जाये, स्वाभाविक भी था। बाज़ार में निजी क्षेत्र से विज्ञापनों के पैदाइश नहीं थी इतनी। अगर थी भी तो उनके पास पैसे नहीं थे अखबार में छापने के लिए। आज समय बदला-बदला सा है।
बहरहाल, आडवाणी जी का रथ 19 अक्टूबर, 1990 को बिहार में प्रवेश किया था। दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय में श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह बैठे थे। उधर पटना सचिवालय में नए-नए मुख्यमंत्री बने लालू प्रसाद यादव बैठे थे। शायद लालू को मुख्यमंत्री बने सात महीने भी नहीं हुए थे। ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ का नारा धनबाद का बच्चा बच्चा बोल रहा था – कुछ तुतलाकर, कुछ हकलाकर। वजह भी था। वैसे बच्चे नहीं जानते थे कि आडवाणी कौन हैं और यह रथ यात्रा क्या है ?
उस समय कोयला अंचल के इस कोयला माफिया वाले इलाके की आबादी करीब आठ लाख से कुछ अधिक थी। जिसमें अनुसूचित जाति के कोई सवा दो लाख और अनुसूचित जनजाति के करीब पौने दो लाख लोग थे। इस आबादी का मूल भोजन भात था, वह भी अगर रात का बासी भात मिल जाय तो सोना में सुहागा। धनबाद में अन्य जो थे वे सभी भारत के विभिन्न शहरों से नौकरी की तलाश में, रोजी रोटी की तलाश में या फिर दबंगता और माफियागिरी करने, पैसे लूटने के लिए यहाँ आये थे। वीपी सिंह के साथ लालू का तार जुड़ा था। लेकिन सिंह साहब चिंतित इसलिए थे कि उन्हें सरकार में भाजपा और बामपंथियों का सहयोग था। कुछ भी उन्नीस-बीस होने से सरकार धड़ाम। और ऐसा ही हुआ।
उस ज़माने में गोल्फ ग्राउंड में उपस्थित लोग जो देख रहे थे, वह तो विश्वसनीय था ही, जो नहीं देख रहे थे वह एक विश्वसनीय जानकारी के रूप में वहां के उपायुक्त के कार्यालय से प्राप्त हो रहा था। धनबाद से प्रकाशित अख़बारों का अपना अलग रुतबा था, लेकिन कलकत्ता से प्रकाशित दी टेलीग्राफ धनबाद के पाठकों के बीच अपना अलग महत्व रखता था। स्वाभाविक है उस अख़बार का स्थान उपयुक्त के कार्यालय में भी सर्वोपरि था अलावे इसके कि उस अखबार का संवाददाता कोई हाई प्रोफ़ाइल पत्रकार नहीं था। आज इतने दिन बाद भी तत्कालीन उपायुक्त मित्रवत हैं।
उपायुक्त कार्यालय में बैठे थे भारत के पूर्व विदेश सेवा के अधिकारी से राजनेता बने सैय्यद सहाबुद्दीन के दामाद अफ़ज़ल अमानुल्लाह। बेहद साफ़ सुधरे व्यक्तित्व के अधिकारी। सैय्यद सहाबुद्दिबन बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी के संयोजक भी थे। बहुत सारी बातें थी। अंदर-ही-अंदर, पटना-दिल्ली गर्म तार से जुड़ा था और बीच-बीच में लालू यादव उछल-कूद रहे थे ताकि आडवाणी की गिरफ्तारी हो जाय। अफ़ज़ल समय की गंभीरता को समझ रहे थे। बहुत सारी बातें वे अपनी नज़रों से इशारा कर देते थे ताकि समाचार लिखते समय तथ्यों में कोई गड़बड़ी नहीं हो। वे जानते थे कि अगर लालू के चक्कर में आ जायेंगे, आडवाणी को गिरफ्तार कर लेंगे तो धनबाद में क्या हो जायेगा, कहा नहीं जा सकता।
अपरान्ह काल होते-होते अडवाणी का रथ धनबाद की सीमा को पार किया। दो दिन बाद 23 अक्टूबर को पटना के रास्ते समस्तीपुर पहुंचा जहाँ वे सर्किट हॉउस में रुके। उधर पटना में लालू लगातार न्यूज में बने रहने के कारण पटना के जिलाधिकारी आर के सिंह को आडवाणी की गिरफ़्तारी का भार सौंपे। और अगले सुबह आडवाणी गिरफ्तार। उनकी गिरफ़्तारी के साथ ही राजा साहेब की 11 महीने पुरानी सरकार रायसीना पहाड़ पर धड़ाम से गिरी और नीचे लुढ़क गयी।
नेता को मीडिया एवं पत्रकार को नियमित साक्षात्कार देना चाहिए और जान मानस के मन मस्तिष्क में उठने वाले सवालों का स्वतः स्फूर्त जवाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए.