गंगा माय के किरिया। शहर में, शहर का मतलब अब दिल्ली – मुंबई कलकत्ता नहीं भी लें, बक्सर का अगला स्टेशन ही लें, जहाँ नेताजी लोग स्मार्ट फोन की दूकान खोल दिए हैं पैसा कमाने के लिए और शहर को स्मार्ट शहर की श्रेणी में सूचीबद्ध कर दिए हैं, ताकि किसानों की जमीन को कॉर्पोरेट घराने खरीद सकें काम कीमत पर। चाहे उस स्टेशन और डाकघर के तहत रहने वाले लोगबाग ‘लघु’ को छोड़िये, ‘दीर्घशंका’ के लिए भी खुले मैदान, खुले खेत का इस्तेमाल करते हों – वे इस मिट्टी का चूल्हा और सिलौट तथा साथ में रखे ‘कटहल’ को देखकर पहले पांच फीट उछलेंगे, फिर गला फाड़के कहेंगे “हाऊ स्वीट”!!!! व्हाट इज दिस? मैं तो इसे देखा नहीं अब तक ! इस पर क्या करते हैं? ये कांटे-दार हरा-हरा क्या है ?
अब उन्हें कैसे समझाया जाय आप जैसे महामानव को दालान पर बंधे चार-पाया का भैंस भी नहीं समझा सकता, दो-पाया को तो छोड़िये । हम विकास की ओर बढ़ तो रहे हैं लेकिन “विकसित” नहीं हो रहे हैं। विकास के मापक-यंत्र, यानी स्केल का बांया किनारा कहाँ रखें, ताकि दाहिने किनारे से विकास के दर को माप सकें – एक करोड़ से भी अधिक का प्रश्न है।
मिथिला में आज भी लोग “काठी” करने में पीछे नहीं रहते, भले खुद “पाईल्स” की बीमारी से ग्रसित हों।आप विश्वास नहीं करेंगे तो आजमा कर देखिये। किसी भी कार्य की शुरुआत कीजिये। प्रयास के बारे में हिन्दी में लिखिए, उर्दू में लिखिए, अंग्रेजी में लिखिए, बांग्ला में लिखिए, अपनी इक्षानुसार जिस भी भाषा में लिखना है, लिखिए ताकि अपनी बातों को लोगों तक पहुंचा सकें । कुछ देर बाद उस आलेख के नीचे लिखा मिलेगा: “सबटा ते ठीक अछि, लेकिन मैथिली में लिखतौं ते बेसी नीक” या “ई कार्य से खूब पाई कमेता। अपना के सबसे बुद्धिमान बुझैत छथि। कोक के बकलेल बुझैत छथिन।” ऐसे व्यक्ति अपने जीवनकाल में समाज के कल्याणार्थ छोड़िये, किसी एक व्यक्ति के कल्याणार्थ भी शपथ खाने लायक भी कोई कार्य नहीं किये – काठी करने को छोड़कर। वे कभी भी यह नहीं चाहेंगे की सामने वालों के चेहरों पर मुस्कान हो। उसके बच्चे भी अच्छे स्कुल में पढ़े। यही उनका प्रारब्ध होता है और समाज में, खासकर मिथिलांचल में ऐसे लोगों की संख्या अनंत है।
विगत दिनों #भन्साघर के श्री बैद्यनाथ झा साहेब से बात कर रहे थे। झा साहेब फार्मेसी में स्नातक किए हुए हैं देश के एक प्रतिष्ठित संस्थान संत जॉन्स फार्मेसी कॉलेज, बंगलुरु से। साल 2006 था जब हाथ में स्नातक की उपाधि थी। जीवन में बहुत कुछ कर सकते थे उस दिन भी और आज भी। क्योंकि कोरोना काल का भी अंत होगा। अगर सूर्योदय होता है तो सूर्यास्त भी होगा, यह प्रकृति का नियम है।
बैद्यनाथ जी मिथिलांचल की संस्कृति, विशेषकर स्वाद संस्कृति की ओर आकर्षित हुए। आकर्षण स्वाभाविक था। मिथिलांचल में “स्वाद” के पीछे सल्तनत भी समाप्त हो गया है। चार्वाक के अनुसार “यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत।” यानी “जब तक जीवन है सुखों का उपभोग कर लेना चाहिए।” अब मिथिलांचल में सभी तो दरभंगा राज या महाराजाधिराज के वंशजों जैसे सम्पत्ति के स्वामी नहीं है, जो पूर्वजों द्वारा “अर्जित धनों” का आनंद लेते रहे। तभी तो आज के युवक कुछ अलग करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि देश के किसी अन्य कोने से कोई यहाँ पदार्पित होकर उनकी, हमारी आर्थिक व्यवस्था को, हमारी सांस्कृतिक विरासतों को, हमारी भौतिक आवश्यकतों को लूटे नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो आज भी मिथिलांचल के बेगूसराय इलाके में, भागलपुर के इलाके से अरहर दाल, लाल-हरी मिर्ची, कतरनी चावल समाप्त नहीं होता।
सत्तर के दशक और उससे पहले और कुछ बाद तक बेगूसराय का क्षेत्र अरहर दाल और लाल-हरी मिर्च के लिए प्रसिद्द था। उस ज़माने में जब “जीरो माइल्स” से हम सभी बेगूसराय के तरफ निकलते थे, बाएं-दाहिने खेतों को देखकर मन आनंदित हो जाता था – लाल-लाल-हरी-हरी मीर्च। स्थानीय लोग शरीर से सक्षम होने के बाद भी राजस्थान के व्यापारियों को खेती करने के लिए खेत देने लगे। भागलपुर क्षेत्र में भी ऐसा ही हुआ। एक दिन परिणाम यह हुआ कि खेत बंजर हो गया। व्यापारी को और क्या चाहिए? खेत के मालिक “दीन” हो गए, खेत बेचकर खाने लगे, जीने लगे और वह व्यापारी “दीनानाथ” हो गया, घनाढय हो गया।
मिथिलांचल के लोगों को, खासकर आज की पीढ़ियों को मिथिला नरेश कहें या महाराजाधिराज दरभंगा की पीढ़ियों से जो “अपेक्षाएं” थी, मिथिला के सर्वांगीण विकास के लिए, संस्कृति की रक्षा और विकास के लिए, धरोहर की रक्षा और विकास के लिए – उसका क्या हश्र हुआ, हो रहा है यह तो वर्तमान मिथिलांचल की तीन पीढ़ियां देख रही है। अब अगर श्री बैद्यनाथ जी मिथिलांचल की स्वाद-संस्कृति को उजागर कर, उसे मिथिला ही नहीं, बिहार, भारत और विश्व में रह रहे भारतीयों के बीच ले जाना चाहते हैं, एक शुरुआत किये हैं तो मिथिला के लोग “टांग खींचने” लगे। जो टांग खींच रहे हैं वे भी अपनी जगह दुरुस्त हैं, क्योंकि वे कभी अपने जीवन में कुछ किये ही नहीं – फिर सोचेंगे क्या ?
बैद्यनाथ जी कहते हैं जब वे बंगलुरु में पढाई कर रहे थे तब वहां की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-भौतिक स्थिति को नजदीक से देखने का मौका मिला। वहां के लोगों के व्यवहार को देखने का मौका मिला। उनका समाज के प्रति प्रतिबद्धता को देखने का मौका मिला। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी रूचि को देखने का मौका मिला। अपने खान-पान के प्रति उनका स्नेह देखा। अब अगर दक्षिण भारत के लोग अपनी समस्त संस्कृति को पकड़कर रख सकते हैं, धरोहरों को बचा सकते हैं, चाहे मंदिर हो या स्वाद, तो हम क्यों नहीं? क्या हमारे मिथिलांचल में किसी चीज की कमी है? कमी है सिर्फ मानसिकता को बदलने की, कमी है हमें अपनी सोच बदलना होगा। कमी है हम अपने बहुमूल्य समय को सकारात्मक रूप में कैसे खर्च कर सकते हैं ?
चौबीस घंटे का समय लाखों-करोड़ों वर्षों से है। लेकिन उसी चौबीस घंटों में मेहनत और मसक्कत से कोई टाटा बन गए तो तो कोई अम्बानी। अब अकाज स्वाद की ही बात करें तो कोई ”एम डी एच” मसाला वाला बन गया, तो कोई “बादशाह” हो गया, कोई “एवरेस्ट” पर चढ़ गया तो कोई “कैच” हो गया, कोई “रामदेव” बन गया तो कोई “राजेश” “प्रिया” “पतंजलि” और “एम टी आर” के रूप में विख्यात हो गया। आखिर “ऊँगली चाट-चाट कर तो सभी खाना चाहते हैं। हमारे प्रदेश में शिक्षा की, स्वास्थ्य की क्या स्थिति है, विश्व जानता है। इसलिए हम कोशिश तो कर ही सकते हैं, एक बदलाव के लिए – मसाला ही सही, खान-पान ही सही। अगर राजस्थान का मसाला मिथिलांचल के लोग ही नहीं, बिहार के लोग खाते हैं उँगलियाँ चाट-चाट कर, फिर हम अपनी परम्परा को, अपनी पकवान को, अपनी स्वाद-संस्कृति को क्यों नहीं विपरण बाजार में लाएं – दो नहीं, दो सौ, दो हज़ार लोगों को रोजगार दें। कोशिश तो कर ही सकते हैं।
उनकी बातों में दम है। क्योंकि समय के साथ साथ, लोगों के प्रवास-संस्कृति के साथ साथ मिट्टी के चूल्हे भले आज विलुप हो रहे हों रसोई खाने से, लेकिन सच तो यह है कि आज भी मिथिला के 70 फीसदी घरों के भन्साघरों में मिट्टी के चूल्हे ही जलते हैं। इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि बदलती दुनिया में गैस स्टोव, माइक्रोवेव ओवन इत्यादि अत्याधुनिक खाना पकाने के यंत्र हमारे अस्तित्व का हिस्सा बन गए हैं। परंतु 30 साल पहले लगभग हर किसी के घर में मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनता था। समय के बदलाव के साथ दूल्हे को हटाकर मिनटों में खाना पकाने वाले यंत्रों ने जगह ले ली है। यदि आप सोचते हैं कि यह बदलाव चूल्हे के नुकसानदायक प्रभावों की वजह से हुआ है तो आप बिल्कुल गलत सोच रहे हैं।अगर आपको विश्वास नहीं हो तो आजमा कर देखिये। रैंडम सैंपलिंग कीजिये और आंकिये की शहरों से जो आवादी गाँव की ओर आ रही है, चाहे वह क्षणिक ही हो, वह गाँव में मिटटी के चूल्हे पर खाना बनाना पसंद करते हैं, चाहे ‘मानसिकता पिकनिक’ जैसी ही क्यों न हो। मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाने के बहुत सारे सकारात्मक पहलू हैं। अगर विश्वास नहीं हो तो आजमा कर देखें कैसे मिट्टी के चूल्हे पर खाना धीरे धीरे पकता है इसलिए खाने के पोषक तत्व नष्ट नहीं होते, बल्कि खाना अत्यंत स्वादिष्ट बनता है।
कहते हैं मिटटी के चूल्हे का आध्यात्मिक और आत्मिक पहलू भी है। क्योंकि मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकाने के लिए धैर्य चाहिए। इसमें गाय के गोबर से बने उपयोग का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार बना खाना सात्विक प्रवृत्ति का होता है जो कि खाने वाले के शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। कभी सोचे हैं कि कुल्लड़ की चाय इतनी स्वादिष्ट क्यों होती है? यदि आपको कभी मिट्टी के चूल्हे पर बने हुए भोजन को खाने का अवसर प्राप्त हुआ हो तो आप उस भोजन की सुगंध से भली-भांति परिचित होंगे। यह सुगंध अत्याधुनिक यंत्रों द्वारा बनाए गए खाने में किसी भी कीमत पर उपलब्ध नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, आजकल लोग मिट्टी के चूल्हे को प्रदूषण का मुख्य कारण मानते हैं। यहां पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि मिट्टी के चूल्हे का उपयोग खुले में खाना पकाने के लिए किया जाए तो यह मच्छर और मक्खियों को दूर भगाता है। और गाय के गोबर से बने उपलों का उपयोग करने की वजह से प्रदूषण का तो मतलब ही नहीं बनता।
लेकिन ध्यान रहे मिट्टी के चूल्हे पर बना खाना अत्यंत ही स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक होता है बशर्ते आग जलाने के लिए कोयले का उपयोग नहीं हो ।
क्या कहते हैं?
कहने को रहा ही क्या ? शुरू में ही ‘ काठी ‘ के बारे में लिख कर और अंत में ‘क्या कहते हैं ?’ लिखकर आपने असमंजस में डाल दिया । कुछ भी कहना कहीं काठी करना न हो जाए। निस्संदेह गजब का लेख है।
आभार