अजमेर (राजस्थान) : वैसे विश्व का डिजिटलाईजेशन होने से वस्तुओं की उपलब्धिता लोगों की उँगलियों पर हो गयी है, बसर्ते जेब में नहीं, बैंकों में पैसा हो – लेकिन सामान खरीदने में धक्का-मुक्की नहीं हो, बच-बचाकर बाजार में आगे नहीं निकलें, सामने से आती सुन्दर महिलाओं को देखकर मुस्की नहीं मारें, बाज़ारों में कान फाड़ देने वाला शोर मचाने वाली गाड़ियों की पों-पाँ नहीं सुने, आते-जाते लोगों को अपने केहुनी से धक्का देकर अपना रास्ता नहीं बनायें, अपने पसन्द की दुकानों पर बैठकर चाय की चुस्की लेते दुकानदारों से मोल-भाव नहीं किये तो क्या किये – ऑनलाईन बाज़ारीकरण में क्या मजा है ? सब बेकार – मनुष्य को कोढ़ी से कोढ़िया बना देता है।
अगर ऐसा नहीं होता तो देश के शहरों में, सड़कों पर, बाज़ारों में लाखों-करोड़ों लोगो क्यों जाते !! आप मुंबई घूमने गए और दादर मार्केट, बान्द्रा, लिंकिंग रोड, फैशन स्ट्रीट, क्रॉफर्ड मार्केट, वाशी नहीं गए तो सब बेकार। दिल्ली आये और जनपथ, कनॉट प्लेस, चांदनी चौक, सदर बाजार, लाजपत नगर, सरोजनी नगर, पुरानी दिल्ली, ग्रेटर कैलाश, तिलक नगर के बाज़ारों में धक्का नहीं खाये, तो आपका दिल्ली आना सर्वथा बेकार गया।
यह मुंबई या दिल्ली या कलकत्ता या चेन्नई या लखनऊ या बनारस के साथ ही लागू नहीं होता; यह देश के अन्य सभी ४००० शहरों के साथ भी लागु होता है क्योंकि हरेक शहर की अपनी – अपनी पहचान होती है, वहां की चीजों की अपनी एक शान होती है जो देश के अन्य इलाकों में भले मिल जाय, लेकिन मन में मलाल लगा रह जायेगा कि काश वहां जाते !!!
राजस्थान का अजमेर शहर भारत के उन्ही ४००० शहरों में एक है, जहाँ के कम से कम १० बाजार तो मशहूर हैं ही। जैसे मदार गेट, रानी मंडी, दिग्गी बाजार, नया बाजार, नला बाजार, कबाड़ी बाजार, खाइलॅंड मार्किट, केसरगंज इत्यादि। इसी में एक है चूड़ी बाजार, खासकर महिलाओं के लिए जो अपनी कलाईयों के श्रृंगार में विस्वास रखती हैं और जिन्हे रंग-बिरंगी चूड़ियों के अलावे लख की चूड़ियों से बेहद मुहब्बत है । चूड़ी बाज़ार में रंग-बिरंगे काँच की खनखनाती हुई चूड़ियों से लेकर लाख से बने हुए कड़े, सब यहाँ मिलते हैं। पुरानी मण्डी के नजदीक ही स्थित इस बाज़ार में अजमेर की महिलाओं का ताँता तो लगा ही रहता है, शहर के बाहर से आने वाली महिलाएँ भी यहाँ आए बिना रह नहीं सकतीं।
पिछले दिनों अजमेर शरीफ़ दरगाह पर नमन करने के बाद शहर की ओर रुख किया और पहुँच गए लख की चूड़ियाँ बनाने वाले के घर पर। अजमेर शरीफ़ दरगाह से कोई १५ मिनट पैदल चलकर। लख की चूड़ियाँ बनाने में लगा सम्पूर्ण परिवार से ढेर सारी बातें हुई। यह परिवार लख की चूड़ियाँ बनाने वाले अपने पूर्वजों की सातवीं पीढ़ी थी। चेहरे पर इस परम्परा को सदैव आगे बढ़ाने का गौरव तो था, लेकिन शारीरिक गठन को देखकर ऐसा लगा जैसे अब इस परम्परा को आगे ले जाने में आर्थिक किल्लतों का सामना करना पड़ रहा हो। चेहरे पर मुस्कान तो था, लेकिन उदर पीठ से सट रहा था। आधुनिक वैज्ञानिक-बाजार इस व्यवसाय के पीठ पर कोड़े बरसा रहे थे। सरकार या व्यवस्था के तरफ से कोई “मलहम-पट्टी का भी बंदोबस्त व्यावहारिक रूप से नहीं दिखाई दिया। हाँ, कागज पर तो राजधानी एक्सप्रेस, दूरंतो और शताब्दी ट्रेनों की चाल में दर्जनों-सैकड़ों योजनाएं चल रही है जिसका ठहराव इस व्यवसाय-रूपी स्टेशनों पर नहीं दिखी। यह योजनाएं सरकारी महकमों से चलती है और फिर बड़े-बड़े व्यापारियों के खजानों से होती हुयी पुनः मुसको भवः हो जाती है। जो कुछ इधर-उधर छलका, उसी से लख की चूड़ियां बनाने वाले लोग अपना-अपना पेट भर रहे हैं, परिवार चला रहे हैं।
पिछले दिनों सरकार की ओर से इस व्यवसाय पर जी एस टी हटा दिया गया है। लेकिन सवाल है कि “कच्चा माल तो उपलब्ध हो” तब न जी एस टी की बात करें। अब तो स्मार्ट-सिटीज बनने के क्रम में लख उत्पादन करने वाला पेड़-पौधा ही काटे जा रहे हैं, फिर यह कुटीर उद्योग कैसे चलेगा ?
कुसुम, खैर, बेर, पलाश, घोंट, अरहर, शीशम, पंजमन, सिसी, पाकड़, गुल्लर, पीपल, बबूल, शरीफा जैसे पचासों पेड़ हैं जिनपर लख कीट पनप सकते हैं; लेकिन ये सभी पेड़-पौधे तो कट रहे हैं, काटे जा रहे हैं । इनकी संख्या राजस्थान ही नहीं, देश सम्पूर्ण प्रदेशों में कम हो रहे हैं । परिणाम स्वरुप लख का उत्पादन बहुत ही बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अब बताएं जब कच्चा माल ही नहीं होगा तो जी एस टी हेट या रहे। हाँ, स्थानीय नेतागण और सरकारी संस्थाएं राज्य के मुख्य मंत्री, केंद्र के बित्त मंत्री और देश के प्रधान मंत्री को शाबासी नहीं थक रहे हैं।
बहरहाल, लाख या लाह संस्कृत के ‘ लाक्षा ‘ शब्द से व्युत्पन्न समझा जाता है। लाख एक प्राकृतिक राल है बाकी सब राल कृत्रिम हैं। इसी कारण इसे ‘प्रकृत का वरदान’ कहते हैं। लाख के कीट अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं तथा अपने शरीर से लाख उत्पन्न करके हमें आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं। वैज्ञानिक भाषा में लाख को ‘लेसिफर लाखा’ कहा जाता है।
प्रागैतिहासिक समय से ही भारत के लोगों को लाख का ज्ञान है। अर्थवेद में भी लाख की चर्चा है। महाभारत में लाक्षागृह का उल्लेख है, जिसको कौरवों ने पांडवों के आवास के लिए बनवाया था। कौरवें का इरादा लाक्षागृह में आग लगाकर पांडवों को जलाकर मार डालने का था। ग्रास्या द आर्टा (1563 ई) में भारत में लाख रंजक और लाख रेज़िन के उपयोग का उल्लेख किया है। आइन-ए-अकबरी (1590 ई.) में भी लाख की बनी वार्निश का वर्णन है, जो उस समय चीजों को रँगने में प्रयुक्त होती थी। टावन्र्यें ने अपने यात्रावृतांत (1676 ई.) में लाख रंजक का, जो छींट की छपाई में और लाख रेज़िन का, जो ठप्पा देने की लाख में और पालिश निर्माण में प्रयुक्त होता था, उल्लेख किया है।
आज की लाख का उपयोग ठप्पा देने का चपड़ा बनाने, चूड़ियों और पालिशों के निर्माण, काठ के खिलौनों के रँगने और सोने चाँदी के आभूषणों में रिक्त स्थानों को भरने में होता है। लाख की उपयोगिता का कारण उसका ऐल्कोहॉल में घुलना, गरम करने पर सरलता से पिघलना, सतहों पर दृढ़ता से चिपकना, ठंडा होने पर कड़ा हो जाना और विद्युत् की अचालकता है। अधिकांश कार्बनिक विलयकों का यह प्रतिरोधक होता है और अमोनिया तथा सुहागा सदृश दुर्बल क्षारों के विलयन में इसमें बंधन गुण आ जाता है।
लाख, कीटों से उत्पन्न होता है। कीटों को लाख कीट, या लैसिफर लाक्का कहते हैं। यह कॉक्सिडी कुल का कीट है। यह उसी गण के अंतर्गत आता है जिस गण का कीट खटमल है। लाख कीट कुछ पेड़ों पर पनपता है, जो भारत, बर्मा, इंडोनेशिया तथा थाइलैंड में उपजते हैं। एक समय लाख का उत्पादन केवल भारत और बर्मा में होता था। पर अब इंडोनेशिया तथा थाइलैंड में भी लाख उपजाया जाता है और बाह्य देशों, विशेषत: यूरोप एवं अमरीका, को भेजा जाता है।