‘मिट्टी से सोने की ईंट’ तक सब ‘बंट’ गए, महाराजा की ‘वेदना’ को कोई नहीं पूछा !! ‘वसीयतनामे’ में ‘नहीं’ लिखा था (भाग-10) 

असम के नीलांचल पर्वत शिखर पर स्थित भुनेश्वरी मंदिर के पास महाराजा रमेश्वर सिंह का ऐसिहासिक कॉटेज - अब तो मिट्टी भी खिसकने लगी है  

दरभंगा / राजनगर / पटना / गौहाटी :  दरभंगा के अंतिम महाराजाओं यानी महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की अंतिम सांस तक जो भी धन-संपत्ति का अर्जन हुआ था, उनकी सांस और आँखें बंद होने के बाद सम्पूर्ण सम्पत्तियाँ का वैसे सैद्धांतिक रूप से तो चार-टुकड़े हुए, लेकिन व्यावहारिक रूप से तत्कालीन परिवार के लगभग दस सदस्यों के अलावे ट्रस्ट लाभान्वित हुआ था। विभाजन में मिट्टी से बनी ईंट से लेकर सोने की ईंट तक, बालू-सीमेंट-लोहा-लक्कड़-दीवार-पोखर-मकान से लेकर हीरे-जवाहरात और अन्य बहुमूल्य, अमूल्य वस्तुओं को फेमिली सेटेलमेंट के नियमों के अधीन बांटा गया ताकि सभी सदस्यों को महाराजाधिराज से उनके सम्बन्धों और पीढ़ियों  पर बराबर का लाभ मिल सके। मृत्युपरांत महाराजाधिराज की आत्मा को दरभंगा में कहीं भी, किसी के मुख से यह नहीं सुनना पड़े कि “उन्हें अधिक मिल गया, मुझे कम मिला।” लेकिंन सबसे बड़ी बिडंबना, दुर्भाग्यपूर्ण बात यह रही कि “महाराजाधिराज की संवेदनशीलता, लोगों के प्रति उनका स्नेह, शिक्षा के प्रति उनका प्रेम, विकास के प्रति उनकी बचनबद्धता इसका बराबर विभाजन कौन पूछें, किसी ने चर्चा तक नहीं किये। क्योंकि इन गुणों की जरुरत थी ही नहीं उन्हें। यही कारण है की असम के नीलांचल पर्वत शिखर पर स्थित भुनेश्वरी मंदिर के पास दरभंगा के महाराजा रमेश्वर सिंह के ऐसिहासिक कॉटेज की जमीन खिसक रही है, किसी भी समय वह हज़ारो फिट ऊंचाई से मिट्टी में मिल जाएगी – लेकिन “उन्हें” क्या जो “लाभार्थी” बने और और यही कारण है कि कहीं दरभंगा के राजाओं के दीवारों की ईटें निकल रही हैं तो कहीं महाराजा की जमीन को जो लोग आज खरीद रहे हैं, वे ईंटें जोड़कर दीवार बना रहे हैं। 

दरभंगा के महाराजा सर लक्ष्मेश्वर सिंह की मृत्यु 122 वर्ष पहले हुयी। उनकी मृत्यु के उपरांत दरभंगा राज की गद्दी पर बैठने वाले उनके अनुज महाराजा सर रमेश्वर सिंह की मृत्यु भी करीब 91 वर्ष पहले हुई । तत्पश्चाय्त महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को भी 58 वर्ष से अधिक जो गए इस पृथ्वी को छोड़े हुए। परन्तु 12 जून सं 1897 से लेकर आज तक महाराजा का वचन पूरा नहीं हो सका। महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद तो दरभंगा राज की सम्पत्ति कौड़ी-जैसा लोगों ने लुटा – कुछ अपने, कुछ पराए – लेकिन न तो कोई उस ऐतिहासिक कॉटेज को देख रहा है और न  शक्तिपीठ कामाख्या मंदिर में दरभंगा राज का आजीवन-सदस्यता। प्रश्न यह है कि क्या दरभंगा राज की वर्तमान पीढ़ी मिथिलाञ्चल के लोगों की सांस्कृतिक अस्तित्व और गरिमा बचा पायेगी जिसके लिए दरभंगा के महाराजाओं ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिए ? सन 1960 से कोई सौ वर्ष पूर्व और अधिक समय तक भारतवर्ष का शायद ही कोई कोना होगा जहाँ दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, महाराजा रमेश्वर सिंह और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की उपस्थिति नहीं हो। लेकिन 1960 के बाद शायद तीन दशक में ही दरभंगा के महाराजों की उपस्थितियों मिट्टी में मिल गई। कारण तो अनेकानेक हैं परन्तु सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा – दरभंगा राज की सम्पत्तियों के लाभार्थियों में दूरदर्शिता की किल्लत, मुफ्त में मिली सम्पत्तियों की मोल जाने का अभाव, बिचौलियों, परजीवियों की मिलीभगत – जो अंततः मिथिलांचल की धरोहरों को नेस्तनाबूद कर दिया। मिथिलाञ्चल अथवा बिहार स्थित सम्पदाओं की बात छोड़ भी दें, तो असम के नीलांचल पर्वत शिखर पर स्थित भुनेश्वरी मंदिर के पास महाराजा रमेश्वर सिंह का कॉटेज पर किसी और का अधिपत्य इसका ज्वलंत दृष्टान्त है, साथ ही, कामाख्या मन्दिर में दरभंगा राज की आजीवन-सदस्यता का नहीं होना मानसिक किल्लत का जीता-जागता उदहारण है और यह बात राज दरभंगा की आज की पीढ़ी शायद नहीं समझेंगे। अगर समझते तो शायद यह हश्र नहीं होता।   

महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद महरानीअधिरानी कामसुन्दरी जी दरभंगा राज के सम्पूर्ण हश्र का चश्मदीद गवाह है। किसने क्या किया, आप देखी हैं, देख रही हैं। अतः महाराजा और महाराजाधिराज की ऐतिहासिक संस्कृति को बचने के लिए, जीवन के अंतिम वसंत में ही सही, आपको आगे आना होगा 

कोई दस वर्ष पहले महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की पत्नी महारानी अधिरानी कामसुन्दरी देवी कामाख्या की यात्रा पर थीं। एक उत्सव था महारानी की यात्रा। उस  यात्रा के दौरान कामाख्या मंदिर अथवा नीलांचल पर्वत श्रंखला पर स्थित शायद ही कोई मनुष्य रहा होगा, जो उस उत्सव में शामिल नहीं हुआ होगा। कामाख्या मंदिर के सभी पंडितों ने  महारानी की अगुआई किए थे। महारानी भी अपने पुरखों द्वारा संपन्न सभी कार्यों को देखीं। वे भुनेश्वरी मंदिर भी देखीं जहाँ उनके ससुर महाराजा रमेश्वर सिंह माँ काली की साधना करते थे ।  उस यात्रा के दौरान एक सवाल उठाया गया था कि “असम के इस कामख्या मंदिर के अध्यक्ष से उनके ससुर – महाराजा रमेश्वर सिंह – और दरभंगा राज और महाराजाओं का इस मन्दिर और आसपास के क्षेत्रों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान – फिर कामाख्या मंदिर के ट्रस्ट में राज दरभंगा का एक स्थायी-सदस्य क्यों नहीं है? वैसे भी महाराजा रमेश्वर सिंह कामाख्या मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष थे। लोगों ने महारानी साहेब के इस कथन का ह्रदय से स्वागत किया था, सर-आंखों पर लिया। 

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लेकिन फिर क्या हुआ? क्यों नहीं दरभंगा राज के वंशज इस दिशा में अग्रसर हुए? क्या राज दरभंगा की सदस्यता सिर्फ मिथिलाञ्चल के करोड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करता? क्या दरभंगा राज की आज की पीढ़ियों में इतनी क्षमता नहीं है जो अपने पूर्वजों की संस्कृति-गरिमा को बचा सकें? अनंत सवाल है। कहा जाता है कि सर हेनरी कॉटन के ज़माने में जब भयंकर भूकंप आया था, महाराजा रमेश्वर सिंह कामाख्या मंदिर, भुनेश्वरी मंदिर , आस-पास के क्षेत्रों का विकास किया था। असम में लाखों-लाख एकड़ जमीन दरभंगा राज का है। महाराजा रमेश्वर सिंह कामाख्या मंदिर के अध्यक्ष भी थे। यह चर्चा भी की गई कि  क्यों न कामाख्या मंदिर ट्रस्ट में राज दरभंगा का एक स्थायी सदस्य पुनः स्थापित किया जाय जो न केवल इस क्षेत्र में दरभंगा राज की सम्पत्तियों को खंघाले, देखभाल करे; बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से दरभंगा महाराजों की कीर्तियों को बरकरार कर पुनः स्थापित करे।

लेकिन सवाल है कि महाराजाधिराज की वसीयतनामे के अनुसार सम्पत्तियों के बंटबारे के बाद किसे पड़ी है इन ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करने के पीछे माथा ख़राब करना? दरभंगा राज की बात भी छोड़िये, मिथिलांचल में “संस्कृति को बचने वाले जो आज कुस्ती और कबड्डी खेल रहे हैं, उन्हें भी अपनी, अपने महाराजाओं की संपत्ति और पुरातत्वों को बचाने की कोई चिंता नहीं है। महाराजा श्री लक्ष्मेश्वर सिंह से लेकर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह तक के ऐतिहासिक और पुरातात्विक दृष्टि से इन तथ्यों को कौन समझेगा, बचाने का प्रयास करेगा। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आज के समय में सम्पूर्णता के साथ शिक्षा और सोच का नामोनिशान ख़त्म हो गया है, ख़त्म हो रहा ही। राज दरभंगा के महाराजों की कीर्तियाँ मिटटी में मिल गयी हैं। ज्ञातब्य हो कि जब महाराजा रमेश्वर सिंह अपने मानवीय-धार्मिक-राजनीतिक कार्यों के उत्कर्ष पर थे उसी समय सर हेनरी कॉटन भारत के असम के तत्कालीन चीफ़ कमीशनर से प्रभार लेकर असम के नए कमीश्नर बन गए थे। इन राज्यों में 12 जून, 1897 को भूकंप आया था। इस भूकंप और उसके बाद महाराजा रमेश्वर सिंह का योगदान ‘स्वर्णाक्षरों” में लिखने योग्य है।  लेकिन लिखेगा कौन? यहाँ तो सभी सोने के पीछे भाग रहे हैं। 

टाईम्स ऑफ़ इण्डिया का यह सम्पादकीय इस बात का गवाह है कि तत्कालीन महाराजा दरभंगा श्री रामेश्वर सिंह जी और उनके पूर्व उनके अग्रज महाराजा श्री लक्ष्मेश्वर सिंह न केवल अपने सल्तनत के लोगों के लिए चिंतित रहते थे, बल्कि देश की सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा के विकास और आर्थिक उन्नति के लिए भी उतने ही संवेदनशील थे। उनके ह्रदय में अपने परिवार और परिजनों के प्रति सकारात्मक विचार प्रति-पल उद्वलित होते थे। लेकिन आज और आज की पीढ़ी अपने पूर्वजों के उस सम्मान को, उस संवेदना को, बरकरार रखी ? असम के लोग कहते हैं – नहीं। 

बहरहाल, 12 जून, 1897 उत्तर-पूर्व भारत में आये भूकंप के बाद जिस सम्मान के साथ दरभंगा राज के महाराजाओं ने गौहाटी के ऐतिहासिक कामाख्या मन्दिर का जीर्णोद्धार किये, जिस तरह नीलांचल पर्वत पर स्थित भुनेश्वरी मंदिर का जीर्णोद्धार किये, उसी नीलांचल पर्वत श्रृंखला पर ऐतिहासिक आठ-कमरों का आवास बनाये, कामाख्या संस्था को दरभंगा की मिट्टी रहते मंदिर  और उसके आस-पास के क्षेत्रों का विकास करने के प्रति बचनबद्धता दिखाए, जिस तरह कामाख्या संस्था के तत्कालीन पंडितों से लेकर अधिकारियों तक दरभंगा राज के एक सदस्य को कामाख्या ट्रस्ट में आजीवन-सदस्यता हेतु बचनबद्धता दिखाए – आज तक किसी ने चूं तक नहीं किये।

परिणाम: असम राज्य में महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह से लेकर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह तक अर्जित लाखों-लाख एकड़ भूमि और अन्य सम्पत्तियाँ न केवल मिथिलांचल से प्रवासित लोगों ने अधिपत्य जमा लिए, बल्कि स्थानीय लोगों ने भी लूट के उस दौड़ में स्वयं को पीछे नहीं रहा। कहा जाता है कि भुनेश्वरी मंदिर के पास नीलांचल पर्वत पर बना वह पुरात्तव जैसा आवासीय महल पर भी स्थानीय लोगों का कब्ज़ा है। कामाख्या के स्थानीय लोगों का कहना है कि उस भवन में असम सरकार के कोई अधिकारी विगत पांच दसक से भी अधिक समय से रह रहे हैं। इस दिशा में न तो कभी महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट अथवा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाऊंडेशन द्वारा पहल किया गया। 

एक रिपोर्ट 

टाईम्स ऑफ़ इण्डिया का यह सम्पादकीय महाराजा सर रामेश्वर सिंह की कामाख्या यात्रा के साथ-साथ स्थानीय लोगों की शिकायतों के निवारण के इर्द-गिर्द लिखा गया है। इस लेख से यह भी स्पष्ट है कि कैसे महाराजा रामेश्वर सिंह अपने बड़े भाई महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह के कार्यों की भूरी-भूरी प्रसंशा किये थे; बल्कि इस बात को भी स्पष्ट लिखा है कि वे सामाजिक कार्यों में, स्थानीय लोगों के कल्याणार्थ, अपने बड़े भाई के पदचिन्हों पर ही चलेंगे। यह भी उद्धृत किया है कि कैसे महाराजा साहेब ने तत्कालीन असम के कमिश्नर द्वारा किये गए कार्यों की प्रशंसा किये हैं। साथ ही, तत्कालीन हुकूमत और व्यवस्था में दरभंगा राज की पकड़ के कारण लोगों को विस्वास दिलाये की वे स्थानीय लोगों के कल्याणार्थ वह सभी कार्य निष्पादित करेंगे, जो बड़े भाई करते थे। साथ ही, यह भी विस्वास दिलाया की उनकी बातों को व्यवस्था कभी भी ठुकराएगी नहीं। अपने बड़े भ्राता के मृत्यु के उपरान्त वे सन 1898 में  महाराजा बने और जीवन पर्यन्त महाराजा रहे। वे भारतीय सिविल सेवा में भर्ती हुए थे और दरभंगा, छपरा तथा भागलपुर में सहायक मजिस्ट्रेट भी रहे। लेफ्टिनेन्ट गवर्नर की कार्यकारी परिषद में नियुक्त होने वाले वे पहले भारतीय थे। वह 1899 में भारत के गवर्नर जनरल की भारत परिषद के सदस्य थे और 21 सितंबर 1904 को एक गैर-सरकारी सदस्य नियुक्त किये गए थे जो बम्बई प्रान्त के गोपाल कृष्ण गोखले के साथ बंगाल प्रांतों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

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वह बिहार लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, ऑल इंडिया लैंडहोल्डर एसोसिएशन के अध्यक्ष, भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष, राज्य परिषद के सदस्य, कलकत्ता में विक्टोरिया मेमोरियल के ट्रस्टी, हिंदू विश्वविद्यालय सोसायटी के अध्यक्ष, एम.ई.सी. बिहार और उड़ीसा के सदस्य और भारतीय पुलिस आयोग के सदस्य (1902–03) थें। उन्हें 1900 में कैसर-ए-हिंद पदक से सम्मानित किया गया था। वह भारत पुलिस आयोग के एकमात्र सदस्य थें, जिन्होंने पुलिस सेवा के लिए आवश्यकताओं पर एक रिपोर्ट के साथ असंतोष किया, और सुझाव दिया कि भारतीय पुलिस सेवा में भर्ती एक ही परीक्षा के माध्यम से होनी चाहिए। केवल भारत और ब्रिटेन में एक साथ आयोजित किया जाएगा। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भर्ती रंग या राष्ट्रीयता पर आधारित नहीं होनी चाहिए। इस सुझाव को भारत पुलिस आयोग ने अस्वीकार कर दिया। 

उन्हें 26 जून 1902 को नाइट कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एंपायर (KCIE) के नाम से जाना गया, 1915 की बर्थडे ऑनर्स लिस्ट में एक नाइट ग्रैंड कमांडर (GCIE) में पदोन्नत किया गया और उन्हें नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर का नाइट कमांडर नियुक्त किया गया, 1918 बर्थडे ऑनर्स लिस्ट में सिविल डिवीजन (KBE) में।महाराजा रमेश्वर सिंह जिनके चिता पर दरभंगा (मिथिला ) में श्यामा काली की भव्य मूर्ति स्थापित है , भारत के महान साधक थे l  वे असम के कामख्या मंदिर के प्रेसिडेंट थे और असम में  हुए 1898 के भूकंप से हुए क्षतिग्रस्त मंदिर का निर्माण कराये थे। वे एक उदार राजा थे जरूरतमंद को मदद करते थे । उनकी अदम्य इच्छा थी कि  तंत्र के वैज्ञानिक  पहलु को लोग समक्षे । इसी निमित 1908 में उन्होंने तंत्र के सभी प्रमुख विद्वानों का कांफ्रेंस दरभंगा में आयोजित किये थे जिसमे विद्वान ब्राह्मण, महान साधक और वैज्ञानिक उपस्थित हुए थे । वैधनाथ धाम के पंडित प्रकाश नन्द झा, काशी के पंडित शिवचरण भट्टाचार्य, श्रीविद्या साधक पंडित सुब्रमन्यम शास्त्री, जॉन वुडरोफ्फ़ अगम अनुसंधान समिति कोलकाता के प्रेसिडेंट प्रमुख थे। वह जॉन वुड रुफ्फ़ थे जिन्हें तंत्र ज्ञान और रहस्य को पश्चिमी जगत को रूबरू कराने का श्रेय जाता है उनके साथ इवान स्टीवेंसन, ब्रिटेन के महान चिकित्सक और वैज्ञानिक जिनका नाम विलियम होप्किंसों भी आये थे। इस अवसर पर महाराजा रमेश्वर सिंह के मित्र पटियाला के महाराज भूपेंद्र सिंह भी आये थे । वे भी देवी शक्ति  के बड़े  साधक हो गये थे । महाराजा  स्वंय अपने मेहमान को नजदीक के स्थान भगवती उग्रतारा पीठ, महिषी ले गये थे ।

महाराजा रामेश्वर सिंह 

तीन- चार दिनों के इस भ्रमण में विदेशी विद्वानों ने तंत्र साधना के वैज्ञानिक सत्य को आत्मसात करना प्रारम्भ कर दिया था। इसलिए आज प्रातः इस विशेष सम्मेलन का प्रारम्भ हुआ तो वे भी उत्साहपूर्वक भागीदारी कर रहे थे। इसकी अध्यक्षता का भार पं. शिवचन्द्र भट्टाचार्य पर था, जिन्होंने स्वयं महाराज को तन्त्र साधना के लिए विशिष्ट मार्गदर्शन दिया था। इसी के साथ वह जॉन वुडरफ के भी दीक्षा गुरु थे। महाराज जी की प्रेरणा से ही सर जॉन वुडरफ ने पण्डित शिवचन्द्र भट्टाचार्यसे शक्ति साधना की दीक्षा ली थी। वह कह रहे थे- तन्त्र दरअसल सृष्टि के विराट अस्तित्त्व में एवं व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व में प्रवाहित विविध ऊर्जा प्रवाहों के अध्ययन- अनुसन्धान एवं इनके सार्थक सदुपयोग का विज्ञान है। तंत्र मानता है कि जीवन एवं सृष्टि का हर कण शक्ति से स्पन्दित एवं ऊर्जस्वित है। यह बात अलग है कि कहीं यह शक्ति प्रवाह सुप्त है तो कहीं जाग्रत्। इस शक्ति की अभिव्यक्ति यूं तो अनन्त रूपों में है, पर इसकी मूलतः दशमहाधाराएँ हैं, जिन्हें दश महाविद्या कहा जाता है। पं. शिवचन्द्र भट्टाचार्य तन्त्र के मूलभूत वैज्ञानिक सत्य को उद्घाटित कर रहे थे। वे बता रहे थे कि विराट् ब्रह्माण्ड में प्रवाहित ये शक्ति प्रवाह व्यक्ति में प्राण प्रवाह के रूप में प्रवाहित हैं। ब्रह्माण्ड में इन्हीं प्रवाहों से सृष्टि सृजन हुआ है। इसी के साथ उन्होंने निवेदन किया कि व्यक्ति में प्राण प्रवाह के रूप में प्रवाहित इन शक्ति धाराओं का स्वरूप विवेचन महाराज रमेश्वर  सिंह करेंगे एवं ब्रह्माण्ड व्यापी इनके स्वरूप की विवेचना स्वयं महापण्डित सुब्रह्मण्यम् शास्त्री करेंगे। आचार्य शिवचन्द्र के इस निर्देश को थोड़ा संकोचपूर्वक स्वीकारते हुए महाराज उठे। उनका भरा हुआ गोल चेहरा, रौबदारमूँछे, औसत कद, गेहुँआ रंग, माथे पर श्वेत भस्म का ऊर्ध्व तिलक उन्हें भव्य बना रहे थे। 

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उन्होंने कहना प्रारम्भ किया- योग शास्त्र में वर्णित पाँच प्राण एवं पाँच उपप्राण ही दरअसल व्यक्ति के अस्तित्त्व में व्याप्त दश महाविद्याएँ हैं, जो व्यक्ति को विराट् से जोड़ती हैं। इनमेंआदिविद्या महाकाली एवं तारा अपान एवं इसके उपप्राण कूर्म के रूप में जननेन्द्रिय में वास करती हैं। षोडशी एवं भुवनेश्वरी प्राण एवं इसके उपप्राण नाग के रूप में हृदय में स्थित है। भैरवी एवंछिन्नमस्ता उदान एवं देवदत्त के रूप में कण्ठ स्थान में निवास करती हैं। धूमावती एवं बगलामुखीसमान एवं कृकल के रूप में नाभि प्रदेश में स्थित हैं। मातंगी एवं कमला व्यान एवं धनञ्जय के रूप में मस्तिष्क में अवस्थित हैं। ऐसा कहकर महाराज थोड़ा रूके और बोले- मैंने महामाया के इन रूपों का स्वयं में इसी तरह से साक्षात्कार किया है। महाराज के अनुभव परक ज्ञान ने सभी को विमुग्ध किया। आचार्य शिवचन्द्र का संकेत पाकर महाराज के बैठने के पश्चात् महापण्डित सुब्रह्मण्यम् शास्त्री उठे। इन्होंने अभी कुछ वर्षों पूर्व महाराज रमेश्वर  सिंह को तन्त्र साधना की साम्राज्य मेधा नाम की विशिष्ट दीक्षा दी थी। उनका स्वर ओजस्वी था, उन्होंने गम्भीर वाणी में कहना प्रारम्भ किया- इस अखिल ब्रह्माण्ड में आदिविद्यामहाकाली शक्ति रात्रि १२ से सूर्योदय तक विशेष सक्रिय रहती हैं। ये आदि महाविद्या हैं, इनके भैरव महाकाल हैं और इनकी उपासना महारात्रि में होती है। महाविद्या तारा के भैरव अक्षोम्य पुरुष हैं, इनकी विशेष क्रियाशीलता का समय सूर्योदय है एवं इनकी उपासना का विशेष समय क्रोधरात्रि है। षोडशी जो श्रीविद्या है, इनके भैरव पञ्चमुख शिव हैं। इनकी क्रियाशीलता का समय प्रातःकाल की शान्ति में है। इनकी उपासना काल दिव्यरात्रि है। चौथी महाविद्या भुवनेश्वरी के भैरव त्र्यम्बकशिवहैं। सूर्य का उदयकाल इनका सक्रियता काल है। इनकी उपासना सिद्धरात्रि में होती है। पाँचवीमहाविद्या भैरवी है इनके भैरव दक्षिणामूर्ति हैं। इनका सक्रियता काल सूर्योदय के पश्चात् है। इनकी उपासना कालरात्रि में होती है छठवी महाविद्या छिन्नमस्ता है, इनके भैरव कबन्धशिव हैं। मध्याह्न सूर्य का समय इनका सक्रियता काल है, इनकी उपासना काल वीररात्रि है। धूमावती सातवीं महाविद्या हैं, इनके भैरव अघोररूद्र हैं। मध्याह्न के पश्चात् इनका सक्रियता काल है एवं इनकी उपासना दारूण रात्रि में की जाती है। बगलामुखी आठवी महाविद्या हैं, इनके भैरवएकवक्त्र महारूद्र हैं। इनकी सक्रियता का समय सायं हैं। इनकी उपासना वीररात्रि में होती है। मातंगीनौवीं महाविद्या है, इनके भैरव मतंग शिव हैं। रात्रि का प्रथम प्रहर इनका सक्रियता काल है। इनकी उपासना मोहरात्रि में होती है। भगवती कमला दशम महाविद्या है। नके महाभैरव सदाशिव हैं, रात्रि का द्वितीय प्रहर इनका सक्रियता काल है। इनकी उपासना महारात्रि में की जाती है। इन दशमहाविद्याओं से ही सृष्टि का व्यापक सृजन हुआ है। इसलिए ये सृष्टिविद्या भी हैं। 

इसी के साथ महाराज द्वारा आयोजित इस सम्मेलन में तन्त्रविज्ञान की व्यापक परिचर्चा होते- होते सांझ हो आयी। महाराज की विशेष अनुमति लेकर उनकी सायं साधना के समय जॉन वुडरफ के साथ आए वैज्ञानिकों ने महाराज का विभिन्न यंत्रों से परीक्षण किया। इस परीक्षण के बाद उन्हें आश्चर्यपूर्वक कहना पड़ा- कि तन्त्र साधक में प्राण विद्युत् एवं जैव चुम्बकत्व सामान्य व्यक्ति की तुलना में आश्चर्यजनक ढंग से अधिक होता है। उनके इस कथन पर महाराज रमेश्वर  सिंह हँसते हुए बोले- दरअसल यह दृश्य के साथ अदृश्य के संयोग के कारण है। इसका वैज्ञानिक अध्ययनज्योतिर्विज्ञान के अन्तर्गत होता है।बहरहाल, कामाख्या का यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है। इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है। देश भर मे अनेकों सिद्ध स्थान है जहाँ माता सुक्ष्म स्वरूप मे निवास करती है प्रमुख महाशक्तिपीठों मे माता कामाख्या का यह मंदिर सुशोभित है हिंगलाज की भवानी, कांगड़ा की ज्वालामुखी, सहारनपुर की शाकम्भरी देवी, विन्ध्याचल की विन्ध्यावासिनी देवी आदि महान शक्तिपीठ श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र एवं तंत्र- मंत्र, योग-साधना के सिद्ध स्थान है। 

क्रमशः 

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