दरभंगा महाराज की मृत्यु के बाद राज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थी “आत्मा से मृत” हो गए (भाग – 9)

महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद सम्पत्तियों का बँटबारा, जिसे चाहे जितना मिला हो, परन्तु दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स के हज़ारों कर्मचारियों, उनके परिवारों, विधवाओं, बाल-बच्चों के मामले में संपत्ति के सभी लाभार्थियों, क्या पुरुष, क्या महिला, इस दीवार की स्थति से बेहतर नहीं रही, है। 

दरभंगा / पटना / कलकत्ता : कहते हैं किसी भी कार्य के निष्पादन में “नियत का साफ़” होना नितांत आवश्यक है। आर्यावर्त-इण्डियन नेशन -मिथिला मिहिर कर्मचारियों का बकाया राशि के भुगतान करने के मामले में संस्थान के मालिक से लेकर, यानि दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के शेयर-धारकों से लेकर, प्रबंधन के अधिकारियों से लेकर, निदेशक मंडल के सदस्यों से लेकर, कर्मचारियों के एक खास वर्ग से लेकर, बिहार सरकार के सम्बंधित अधिकारियों से लेकर, दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के पटना के फ़्रेज़र रोड स्थिर उक्त भूखंड के क्रेता तक –  एक-एक व्यक्तियों के “नियत में खोट” था। “उन्हें लाभ मिले”, यह उन्हें पता था; लेकिन कर्मचारियों को उसके हिस्से का पैसा मिला, यह मंजूर नहीं था। इस सम्पूर्ण प्रकरण में कौन-कौन महानुभाव लाभान्वित हुए, किन-किन महानुभावों पर क्रेता-विक्रेता का विशेष ध्यान रहा, यह शोध का विषय है  – लेकिन सरकारी और न्यायिक दस्तावेज इस बात का गवाह है कि कर्मचारियों को, मृतक कर्मचारियों की विधवाओं को, परिवार और उनके बाल-बच्चों को न्याय नहीं मिला। वे आज भी उस न्याय के लिए तरस रहे हैं, क्योंकि दरभंगा महाराज की मृत्यु के बाद राज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थी “आत्मा से मृत” हो गए। 

नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विशेश्वर नाथ खरे और अन्य न्यायमूर्तियों के समक्ष दायर दस्तावेजों के आधार पर 5 जुलाई, 1961 को महाराजधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा वसीयतनामे पर हस्ताक्षर किया जाता है। वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करने के 453 वें दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हो जाती है और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा “सोल एस्क्यूटर” बन जाते हैं। फिर 26 सितम्बर, 1963 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा उक्त वसीयतनामे को “प्रोबेट” करने का एकमात्र अधिकार न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा को दिया जाता है। उस दिन बिहार में भी पटना उच्च न्यायालय था और पंडित लक्ष्मीकांत झा उसी न्यायालय के न्यायमूर्ति भी थे। लेकिन अरबो-खरबों का प्रश्न अनुत्तर रह गया कि “आखिर पंडित झा संपत्ति की सीमा-क्षेत्र को छोड़कर, दूसरे राज्य के उच्च न्यायालय में वसीयतनामा को लेकर क्यों गए? महाराजाधिराज की सम्पत्तियों से लाभ प्राप्त करने वाले सम्मानित मोहतरमा और मोहतरम आखिर आपत्ति क्यों नहीं जताए ?

महाराजा के वसीयतनामे के अनुसार, महाराजा का दरभंगा राज का सम्पूर्ण अधिकार न्यायमूर्ति झा के पास जाता है। महाराजा के वसीयतनामे में तीन ट्रस्टियों का नाम होता है जिसके नियुक्ति “सेटलर” द्वारा किया गया – वे थे: पंडित एल के झा (स्वयं), पंडित जी एम मिश्रा और ओझा मुकुंद झा। उपरोक्त “एस्क्यूटर” को अपना सम्पूर्ण कार्य समाप्त करने के बाद दरभंगा राज का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप इन ट्रस्टियों को सौंपना था। महाराजा के वसीयतनामे में इस बात पर बल दिया गया था कि ट्रस्टियों की मृत्यु अथवा त्यागपत्र के बाद, दूसरे ट्रस्टी द्वारा रिक्तता को भरा जायेगा और वर्तमान ट्रस्टी उक्त दस्तावेज में उल्लिखित नियमों के अधीन ही नियुक्त किये जायेंगे। 

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खैर, न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा, यानी “सोल एस्क्यूटर” संभवतः सन 1978 साल के मार्च महीने के 3 तारीख को मृत्यु को प्राप्त करते हैं। न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी (अवकाश प्राप्त) को दरभंगा राज के “प्रशासक” के रूप में नियुक्त करते हैं। इसके बाद तत्कालीन न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखर्जी अपने आदेश, दिनांक 16 मई, 1979 के द्वारा उपरोक्त “प्रशासकों” को “इन्वेंटरी ऑफ़ द एसेट्स’ और ‘लायबिलिटीज ऑफ़ द इस्टेट’ बनाने का आदेश देते हैं ताकि वह दरभंगा राज के ट्रस्टियों को सौंपा जा। उक्त दस्तावेज के प्रस्तुति की तारीख के अनुसार तत्कालीन ट्रस्टियों ने महाराजाधिराज दरभंगा के रेसिडुअरी इस्टेट का कार्यभार 26 मई, 1979 को ग्रहण किया। कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेशानुसार, महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थी (यानी परिवार के सदस्य) इस ट्रस्ट के ट्रस्टीज होंगे ।

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इस बीच, 27 मार्च, 1987 को सम्बद्ध लोगों के बीच हुए फेमिली सेटेलमेंट को लेकर दायर अपील को सर्वोच्च न्यायालय दिनांक 15 अक्टूबर, 1987 को “डिक्री” देते हुए ख़ारिज कर दिया। तदनुसार, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 1 के अनुसार, सिड्यूल II में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी सिड्यूल II में उल्लिखित सभी सम्पत्तियों की स्वामी बन गयी। स्वाभाविक है, उन सम्पत्तियों पर उनका एकल अधिकार हो गया। इसी तरह, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 2 के अनुसार, कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र, यानी राजेश्वर सिंह, जो उस समय बालिग हो गए थे, और उनके छोटे भाई, कपिलेश्वर सिंह, जो उस समय नाबालिग थे, सिड्यूल III में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते सिड्यूल III में उल्लिखित सम्पत्तियों के मालिक हो गए। आगे इसी तरह, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 3 के अंतर्गत सिड्यूल IV में वर्णित सभी नियमों के अनुरूप में सभी सिड्यूल IV में उल्लिखित सम्पत्तियों का मालिक पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज हो गए। फेमिली  सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के अधीन, श्रीमती कात्यायनी देवी, श्रीमती दिव्यायानी देवी, श्रीमती नेत्रयानी देवी (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी बालिग पुत्रियां) और सुश्री चेतना दाई, सुश्री दौपदी दाई, सुश्री अनीता दाई (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी नबालिग पुत्रियां), श्री रत्नेश्वर सिंह, श्री रश्मेश्वर सिंह (उस समय मृत), श्री राजनेश्वर सिंह (कुमार याजनेश्वर सिंह) सिड्यूल V में उनके नामों के सामने उल्लिखित, साथ ही, उसी सिड्यूल में उल्लिखित शर्तों के अनुरूप, सम्पत्तियों के मालिक होंगे। 

बोलता दस्तावेज —-  बिलखते कर्मचारी और उनका परिवार  

फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के तहत, पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज को यह अधिकार दिया गया कि वे सिड्यूल I में वर्णित ‘लायबिलिटीज’ को समाप्त करने के लिए, सिड्यूल VI में उल्लिखित सम्पत्तियों को बेचकर धन एकत्रित कर सकते हैं, साथ ही, परिवार के लोगों में फेमिली सेटेलमेंट के अनुरूप शेयर रखने का अधिकार दिया गया। साथ ही, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 के अनुसार, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी और राज कुमार शुभेश्वर सिंह या उनके नॉमिनी (दूसरे क्षेत्र के लाभान्वित लोगों के प्रतिनिधि) द्वारा बनी एक कमिटी लिखित रूप से सम्पत्तियों की बिक्री, शेयरों का वितरण आदि से सम्बंधित निर्णयों को लिखित रूप में ट्रस्टीज को देंगे जहाँ तक व्यावहारिक हो, परन्तु किसी भी हालत में पांच वर्ष से अधिक नहीं या फिर न्यायालय द्वारा जो भी समय सीमा निर्धारित हो। 

इसी फेमिली सेटेलमेंट के सिड्यूल iv के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी इस्टेट चेरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नतरयाणी देबि, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तानांतरित करेंगे, सिवाय फेमिली सेटेलमेंट के लोगों के। 

अब सवाल यह है कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा अपने मृत्यु के पूर्व जो भी वसीयतनामा बनाया गया, जिन-जिन लोगों को संपत्ति का हिस्सा मिला, किसी ने भी “ह्रदय से दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड द्वारा प्रकाशित आर्यावर्त-इंडियन नेशन – मिथिला मिहिर अख़बारों और पत्रिका के भविष्य को ह्रदय से नहीं स्वीकारा? शायद नहीं। जब इस कंपनी और अख़बारों की स्वीकार्यता अन्तःमन से नहीं हुआ, फिर इसमें कार्य करने वाले हज़ारों कर्मचारियों का, उनके परिवाओं का, उनके बाल-बच्चों का भविष्य अधर में लटकना स्वाभाविक था। नहीं तो महारानी अधिरानी कामसुन्दरी, राजेश्वर सिंह, कपिलेश्वर सिंह, चेरिटेबल ट्रस्ट, रामेश्वर सिंह, राजनेश्वर सिंह, श्रीमती कात्यायनी देवी, श्रीमती दिव्यायानी देवी, श्रीमती नेत्रयानी देवी, सुश्री चेतना दाई, सुश्री दौपदी दाई, सुश्री अनीता दाई, आदि महानुभावों और महिलाओं के रहते दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स अनाथ कैसे हो गया ? इस संस्थान के कर्मचारी एक-एक पैसे के लिए ,एक-एक सांस के लिए तड़पते रहे, कुछ तो मृत्यु को प्राप्त किये, कुछ मृत्यु के द्वार पर खड़े हैं? लेकिन महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के लाभार्थियों को क्या?

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क्या समझा जाए ? क्या यह नहीं समझा जाए  कि महाराजाधिराज के मृत्योपरांत सम्पत्तियों के लाभार्थियों को सिर्फ अपने-अपने फायदे की चिंता थी, न की कर्मचारियों की, उनके परिवारों की, उनके बाल बच्चों की और यही कारण है कि दी एन एंड पी लिमिटेड और उसके कर्मचारियों को मोहरा बनाकर महाराजा की सम्पत्तियों को कौड़ी के भाव में बेचना प्रारम्भ हो गया – आज न वह बहुमूल्य धरोहर रहा और ना ही दी एन एंड पी लिमिटेड का आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार। सम्पत्तियों के लाभार्थियों को संस्थान के मरने से, बंद होने से कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन उस संस्था में कार्य करने वाले कामगार जीते-जी मृत्यु को प्राप्त किये। यह सच है। 

इसी खरीद-बिक्री के क्रम में दी न्यूज पेपर्स एंड पब्न्लिकेशन्स के कर्मचारियों को मोहरा बनाकर पटना के फ़्रेज़र रोड स्थित दी न्यूज पेपर्स एंड पब्न्लिकेशन्स के जमीन की बिक्री को लेकर मेसर्स  पाटलिपुत्रा बिल्डर्स  के साथ एक करारनामा बनता है। इस करारनामे के अनुसार, 15 सितम्बर, 2002 को “कट-ऑफ” तारीख माना  गया, यानी 15 सितम्बर, 2002 से दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमिटेड अपना क्रिया-कलाप स्थगित कर देगी, अख़बारों और पत्रिका का प्रकाशन बंद हो जायेगा। उक्त तारीख से और उसके बाद, इस संस्थान के पत्रकार और गैर-पत्रकार एक कर्मचारी के रूप में अपनी सैलरी अथवा अन्य मौद्रिक भुगतान के लिए दावा नहीं करेंगे। तथापि,  अपने तीन-माह के सैलेरी के बराबर छुट्टी-अवकास भुगतान के लिए कर्मचारी इंटाइटिल्ड होंगे। कारनामे में यह भी उद्धृत किया गया कि कंपनी के कर्मचारियों को, जो 10 वर्ष से अधिक सेवा कर चुके हैं, उन्हें दो माह का वेतन और जो 10 वर्ष की सेवा नहीं पूरा कर पाए हैं, उन्हें एक माह के वेतन  का भुगतान किया जायेगा।  साथ ही, यह भी स्वीकार किया गया कि कंपनी का प्रबंधन अपने वर्तमान सभी कर्मचारियों को, साथ ही जो 01-01 -2002 को या उसके बाद सेवा निवृत हुए हैं, उन्हें भी डी ए के रूप में एक माह माँ वेतन के बराबर राशि का भुगतान किया जायेगा। 

बोलता दस्तावेज —-  बिलखते कर्मचारी और उनका परिवार  

इस करारनामे के तहत डेवेलपर्स / बिल्डर यानी मेसर्स पाटलिपुत्रा बिल्डर्स यह स्वीकार किये कि वे ‘प्रथम इन्स्टालमेन्ट’ के रूप में एक करोड़ पांच लाख रुपये का भुगतान आगामी 06-10-2002 तक कर देंगे जिसे कर्मचारी यूनियन द्वारा दिए गए ‘फार्मूला’ के अनुरूप कर्मचारियों को भुगतान कर दिया जायेगा। लेकिन बिल्डर ने करारनामे के सातवें पैरा में यह भी उद्धृत कर दिया कि “प्रथम इन्स्टालमेन्ट का भुगतान तभी किया जायेगा जब इस भूखंड में निर्मित कंपनी के किसी एक भवन का डिमोलिशन किया जायेगा। ” और इसके लिए कंपनी का प्रबंधन अधिकृत हैं कि वे या तो स्वयं या फिर एजेंसी द्वारा यह कार्य करा लें। 

करारनामे के अनुसार वार्तालाप के दौरान यह सामने आया कि कर्मचारियों की कुल बकाया राशि लगभग 8 . 50 करोड़ के आस-पास होगा। इसके बाद, करारनामे के अनुसार, बिल्डर शेष राशि को दो साल के अंदर चार-बराबर इंस्टॉलमेंट्स में पोस्ट-डेटेड चेक के रूप में भुगतान करेगा।  यहाँ भी एक बातें लिखा गया कि “The actual amount would vary subject to audit report”, लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि “आखिर यह राशि किसके ऑडिट रिपोर्ट द्वारा तय किया जायेगा – क्रेता द्वारा या विक्रेता द्वारा ?

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करारनामे में आगे यह भी उद्धृत है: “The payment from the Builder would be controlled by and further development or new circumstances arises suo-mutto or created by management, karmchari Union, Journalist Union or any Institution. In that condition the Builder would be entitled to stop payment or withdraw paid amount.” यानी, सहस्त्र नहीं तो सिर्फ एक छिद्र लायक स्थान छोड़ दिया गया कि किसी तरह से उपरोक्त लोगों में से किसी एक के द्वारा भी, चाहे प्रबंधन हो, कर्मचारी यूनियन होम, पत्रकार युयों हो या कोई भी हो, एक भी ‘असुगम्य परिस्थिति’ उत्पन्न होने पर भुगतान में पूर्णविराम। अब करोड़ो रुपये को बचने के लिए लाखों रुपये या अन्य तरीके तो अपनाये ही जा सकते हैं? इस करारनामे के बनने के बाद किसने, किसके कही पर, किसलिए, किस परिस्थिति में, कौन सा कदम उठाया, जिससे करारनामे पर असर पड़ा, यह कोई जाने अथवा नहीं, प्रबंधन और भूस्वामी तो जरूर जानते होंगे। करारनामे में यह भी लिखा गया कि कर्मचारीगण अपने-अपने भुगतान का प्रथम इन्स्टालमेन्ट प्राप्त करने के बाद अपना-अपना त्यागपत्र संस्थान के प्रबंधन को दे देंगे। वैसे, कर्मचारियों के “रक्षार्थ” इस बात को भी उद्धृत किया गया कि करारनामे के अनुसार अगर किसी कर्मचारी का अंतिम भुगतान नहीं हो पता है तो उसका त्यागपत्र “इनएफेक्टिव” माना जायेगा।

बोलता दस्तावेज —-  बिलखते कर्मचारी और उनका परिवार  

बहरहाल, पिछले 25 फरबरी, 2021 को न्यायालय श्रम आयुक्त बिहार-सह-अपीलीय प्राधिकार, उपादान भुगतान अधिनियम 1972 के अंतर्गत एक आदेश जारी करता है। यह आदेश इस बात का प्रमाण है कि करारनामे का पूर्णतः पालन नहीं हुआ और इस आदेश की तारीख तक भी लोगों का बकाया राशि नहीं मिला है। अनिल कुमार (निदेशक) मेसर्स पाटलिपुत्र बिल्डर्स प्राईवेट लिमिटेड, महाराजा कामेश्वर काम्प्लेक्स, फ़्रेज़र रोड, पटना के द्वारा उप-श्रमायुक्त-सह-नियंत्रक प्राधिकार, उपादान भुगतान अधिनियम, 1972 के अंतर्गत पटना द्वारा जी ए वाद संख्या 03/2012 से 124 /2012 में दिनांक 24-07-2017 को पारित आदेश के विरुद्ध एक अपील दायर किया था। इस अपील में विजय कांत राय, पिता श्री बासुदेव राय (अर्चना काम्प्लेक्स, प्रिंटिंग प्रेस, जिला सुपौल) को प्रतिवादी बनाया गया था। 

अपील के अनुसार मेसर्स न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड की वित्तीय स्थिति खराब होने के बाद प्रबंधन द्वारा मेसर्स पाटलिपुत्र बिल्डर के साथ अपनी संपत्ति के बारे में समझौता किया गया था जिसके अनुसार पब्लिकेशन के बंद होने के बाद कर्मचारियों के देनदारियों का भुगतान मेसर्स पाटलिपुत्र बिल्डर द्वारा किया जायेगा। लेकिन पब्लिकेशन के बंद होने के बाद मेसर्स पाटलिपुत्र बिल्डर द्वारा कामगारों के बकाये राशि का भुगतान नहीं किया गया। बाद में, कामगारों के आवेदन पर उपादान भुगतान अधिनियम, 1972 के तहत कार्रवाई  प्रारम्भ की गयी एवं उक्त वाद में वादी कामगार श्री हितचन्द्र झा एवं अन्य 89 (नवासी) कामगारों के पक्ष में आदेश पारित करते हुए प्रबंधन को कुल 49,32,342/- रुपया भुगतान करने का आदेश दिया गया, जिसमें श्री विजय कान्त राय से सम्बंधित वाद संख्या 66/2012 में उपादान भुगतान हेतु आदेशित राशि 15 423 /- भी शामिल है। 

ज्ञातब्य हो कि मेसर्स पाटलिपुत्र बिल्डर द्वारा नियमानुसार श्रमायुक्त, बिहार-सह-अपीलीय प्राधिकार के न्यायालय में अपील ना करके सीधे माननीय पटना उच्च न्यायालय में सी डब्लू जे सी  संख्या 15986/2017 दायर किया गया जिसे दिनांक 29-03-2019 को आदेश पारित करते हुए माननीय उच्च न्यायालय द्वारा उपादान भुगतान अधिनियम, 1972 की धारा – 7 (7) के अनुसार अपीलीय प्राधिकार के समक्ष अपील दायर करने के आदेश निर्गत करते हुए निष्पादित कर दिया गया था। 

आखिर मालिकगण, शेयर होल्डर्स और अन्य गणमान्य महाशय और मोहतरमा कहाँ गए? ……………..क्रमशः 

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