पटना के फ़्रेज़र रोड पर ‘मिथिलांचल का इतिहास मिट रहा था’, लोगबाग ‘संवेदनहीन’ हो गए थे 

दिवंगत कुमार शुभेश्वर सिंह।  उनके ऊपर का छवि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का है। कुमार शुभेश्वर सिंह दी न्यूजपेपर पब्लिकेशन लिमिटेड के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक थे। बहुत दयावान थे। झुकना नहीं जानते थे। लड़ना जानते थे, लड़े भी। लेकिन अगली पीढ़ी नहीं लड़ सकी। 

दरभंगा / पटना, मई 31  : एक समय था जब दरभंगा राज के राजा और रानियों के विभिन्न भवनों, रामबाग के मुख्य द्वार पर तैनात सुरक्षाकर्मी  मुख्य द्वार को धीरे-धीरे खोलता और बंद करता था, ताकि किसी प्रकार का आवाज नहीं निकले, राजा-महाराजाओं के, रानियों के, बच्चों के दैनिक जीवन में कोई खलल नहीं दे। दरवाजों, मुख्य द्वारों के कील-कब्जों में क्विंटल की मात्रा में सरसों का शुद्ध तेल डाला जाता था। गाय का शुद्ध घी पिलाया जाता था उन कील-कब्जों को। सुरक्षाकर्मियों, कर्मचारियों का देख-रेख करने वालों पर कोई ‘कमान’ नहीं रहने के कारण कभी उनसे पूछा नहीं जाता था की साल में इतनी बड़ी मात्रा में शुद्ध सरसों तेल / गाय घी का खर्च सिर्फ दरवाजों से निकलने वाले आवाज को बंद करने पर कैसे खर्च हो गया ?

वजह था। सुरक्षाकर्मी और राज दरबार के दरबारी जानते थे की साहब को “आवाज” पसंद नहीं है। उनके सामने उपस्थित मोहतरमा और मोहतरम भी “फुसफुसाहट” में ही बातें करते थे। जोर से बोलने, चिल्लाने का एकमात्र अधिकार राज घरानों के लोगों को ही था, ऐसा लोग बाग समझते थे। इसका कारण यह था कि राज परिवार के लोगों की “सेवा” करने वाले महानुभाव और मोहतरमा यह स्वीकार कर चुके थे कि “अगर उनके (राजा-महाराजा) चिल्लाने से, ऊँची आवाज़ में बात करने से उनकी मनःस्थिति को संतुष्टि मिलती है और सेवकों को फायदा, तो क्यों नहीं जीवन-पर्यन्त बहरे-गूंगे हो जाया जाय और वही हुआ भी। 

उन दिनों बिहार और मिथिलांचल के लोगों का, विशेषकर दरभंगा के लोगों का मानना था कि “बहुत खर्च करना राजा-महाराजाओं की निशानी होती है, भले ही वह धन अपने राज्य के मजदूरों, किसानों, श्रमजीवियों का दोहन करके ही क्यों न एकत्रित किया गया हो। “खर्चों का हिसाब-किताब रखना, पूछताछ करना राजा-महाराजाओं के शान के खिलाफ था। और उनका काम तो था ही नहीं।  यह तो निम्नवर्गीय लोग बाग, निम्नस्तरीय सोच रखने वाले लोग करते हैं। राजा-महाराजाओं को भी इस प्रकार के क्रिया-कलाप “अच्छा” लगता था। यह धनाढ्यों का (धनाढ्यों का अर्थ संपत्ति से लेंगे, मानसिक नहीं) सार्वभौमिक गुण होता है। इसे मनोविज्ञान भी मानता हैं। 

यही कारण है कि उन दिनों शौचालय और स्नानागार से लेकर खाना परोसने, खिलाने, जूता पहनाने तक नौकर-चाकर, सेवक चारो-पहर लगे होते थे। राग-दरबारियों की किल्लत नहीं थी। राजाओं, महाराजाओं, महारानियों, उनके परिवारों और परिजनों को “तेल मालिस” करने वाले लोगों की, जी-हुज़ूरी करने वाले लोगों की अपार भीड़ लगी होती थी। गाँव, मोहल्ले, प्रखंड के दूर-दरस्त के लोगबाग, सम्बन्धी “शरणार्थी” स्वरुप चारो पहर पड़े होते थे। ऐसे लोगों की देख रेख करना राजा अपना  सम्मान समझते थे, बड़प्पन तो समझते ही थे । समयांतराल समाज के वे सभी “शरणार्थी” राजघराने के “परजीवी” (पैरासाइट्स) हो गए। 

विज्ञान यह कहता है कि परजीवी पौधों का अस्तित्व जिस वृक्ष के साथ जुड़ा होता है, समय के साथ वह परजीवी अपने अस्त्तिव को बचाने, मजबूत करने के लिए ‘स्वहित’ में वह उस वृक्ष के सभी जैविक-तत्वों को चूसकर खा जाता है। बाद में खुद तो जीवित रह जाता है (शारीरिक तौर पर), परन्तु वृक्ष की असामयिक मृत्यु हो जाता है। महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा सन 1930 और 1940 में स्थापित बिहार का आवाज यानी दी इण्डियन नेशन (अंग्रेजी) और आर्यावर्त (हिंदी) और मिथिला मिहिर (मैथिलि पत्रिका) का उनकी अंतिम सांस के साथ घुट-घुट कर मरना एक जीवन्त दृष्टान्त है। 

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सन 1960 के अक्टूबर माह के पहली तारीख को महाराजा का असामयिक अंत होता है, दरभंगा राज का अस्तित्व, महाराजा द्वारा स्थापित दोनों अख़बारों, पत्रिका का अंत प्रारम्भ हो जाता है। नगर में कोई हलचल नहीं होता। महाराजा के अंतिम सांस के साथ ही, दरभंगा राज से जुड़े लोग बाग़, जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से राज घराने की सम्पत्तियों से “घी” से स्नान करते थे, “मूल-सम्पत्तियों” पर ध्यान केंद्रित करने लगे, सल्तनत की दीवारों से ईंटें खींचने लगे, मुख्य द्वार को खोलने – बंद करने वालों से लेकर तिजोरियों को खोलने, बंद करने और सुरक्षित रखने वालों तक – सभी मृत्युपरांत-राज के अस्तित्व को सुरक्षित रखने के बजाय, महाराजाधिराज के अख़बारों को धरोहर स्वरूप रखने के बजाय – सभी सम्पत्तियों के बंटबारे, उचित हिस्सा प्राप्त करने, मिलने पर केंद्रित हो गए। होना भी स्वाभाविक था ।

शुरुआत, शुरू से – शीघ्र पढ़ेंगे क्या हुआ घोटाला 

कहते हैं जब “अंदर का शासन-प्रशासन-अभिभावक नितांत कमजोर रहे, तो बाहर वाले लूट में शामिल होंगे ही। बिहार के घुटने-कद के नेता से लेकर आदम-कद नेता तक, जो अपने जीवन में कभी राज दरभंगा के चौखट पर, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के मुख्य द्वार पर खड़े होने के काबिल नहीं थे, भौंकना शुरू कर दिए। जो कभी दरभंगा राज अथवा उन अख़बारों के कागजों को देखा नहीं था, रेवेन्यू-स्टाम्प पर सम्पत्तियों को खरीदने, जमीन को खरीदने का दस्तावेज बनाने लगे।  संस्थान में लोभियों, अवसरवादियों को “ईशारा” करने लगे, जाल बिछाने लगे। कुछ फंस गए, कुछ निकल गए।  परन्तु ‘फंसने वालों की संख्या’, निकलने वालों की संख्या पर बहुत भारी पड़ा। 

अपने-पराये द्वारा रचित, राजनेताओं द्वारा संरक्षित और व्यापारियों द्वारा बिछाये गए चक्रब्यूह में इण्डियन नेशन – आर्यावर्त और मिथिला मिहिर अखबार / पत्रिका फंसता गया। उन अवसरवादियों, लोभियों, परजीवियों  (कुछ अपने, कुछ पराए) के हाथों अपना-अपना अस्तित्व पटना के फ़्रेज़र रोड पर, पटना के केंद्रीय कारावास के सामने सुवह से लेकर रात तक, महीनों, वर्षों लूटते देखा, एक-एक सांस कम होते महसूस किया। और अंत में दम तोड़कर मिट्टी में मिल गया। 

संस्थान की दीवारें कराह रही थी। एक-एक ईंट तड़प रही थी। कभी बज्र जैसा दीवारों को खड़ा रखने वाला दीवारों के बीच का लोहा, जो एक-दूसरे के हाथों को मुद्दत से पकड़कर स्नेह-आत्मीयता का परिचय दिया था, उस दिन फ़्रेज़र रोड में चीत्कार लेकर चिल्ला रहा था। सहस्त्र-फांकों में बटें कर्मचारियों, प्रबंधन के लोगबाग खड़े होकर तमाशा देख रहे थे। कुछ कर्मचारियों के आखों में अश्रु थे, तो कुछ इस फिराक में थे कि शीघ्र पैसा मिले और गाँव की ओर प्रस्थान करूँ। 

संस्थान के मालिक अपने-अपने आलीशान भवनों, कार्यालयों के वातानुकूलित कक्ष में बैठकर एक “निरीह”, “निःसहाय,” “कमजोर”, “विचारहीन” “विवेकहीन” राजा के रूप में स्वयं को पा रहे थे। चापलूस, परजीवी शरणार्थी उन दिन भी उन्हें हार का स्वागत करा रहे थे। सल्तनत को एक पराये पुरुष के साथ जाते देख सभी मंद-मंद मुस्की ले रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे महाराजाधिराज का अस्तित्व पटना के फ़्रेज़र रोड में नीलाम हो रहा हो। लेकिन दस्तावेज और विगत वर्षों का प्रकरण इस बात का गवाह है कि महाराजाधिराज की संपत्ति का नीलामी नहीं, बल्कि, ‘सफल नेतृत्व के आभाव में, पर्याप्त हौसला की किल्लत में, मालिकों की दूरदर्शिता का सम्पूर्ण सुखाड़ के कारण, और सबसे महत्वपूर्ण ‘दो जून की रोटी’ के लिए बिना कोई मसक्कत किये इतनी बड़ी सम्पत्तियों का अचानक स्वामी होने से संपत्ति का मोल नहीं समझ सके, कौड़ी के भाव मिटटी में मिला दिए।  खैर। 

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दस्तावेजों के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमिटेड अपनी वित्तीय स्थिति ख़राब होने के बाद प्रबंधन द्वारा मेसर्स पाटलिपुत्र बिल्डर्स लिमिटेड के साथ अपनी संपत्ति के बारे में समझौता किया जिसके अनुसार पब्लिकेशंस के बंद होने के बाद कर्मचारियों के देनदारियों का भुगतान मेसर्स पाटलिपुत्र बिल्डर्स द्वारा किया जायेगा।  प्रारम्भ में पब्लिकेशंस के बंद होने के बाद वर्षों तक कामगारों के बकाया राशियों का भुगतान नहीं किया गया था ।  आज भी बहुत मामले न्यायालय के अधीन लंबित हैं। 

दरभंगा के मिथिला विश्वविद्यालय परिसर में महाराजा का आदमकद प्रतिमा और उनके शरण में दो जीव 

एक समय था जब राजा-महाराजा, उनके परिवार और परिजन अपने राज में, राजधानी में, शहर में निकलते थे तो लोगों की भीड़ उमड़ती थी उनकी एक झलक पाने के लिए। लोग अपने को सौभाग्यशाली समझते थे जब उनकी ओर उन महात्मनों की नजर उठती थी। आज समय बदल गया है। दरभंगा से पटना के रास्ते देश की राजधानी दिल्ली तक उन राजा, महाराजाओं को, उनके परिवार और परिजनों को देखने वाला, समझने वाला, मिलने के लिए लालायित होने वाला कोई नहीं है। चाहे दरभंगा के रामबाग पैलेस के खुले मैदान में भ्रमण-सम्मलेन करें या पटना के गाँधी मैदान में या फिर दिल्ली के लोदी गार्डन या राजपथ पर सुबह का शेर करें – समाज के उच्च वर्ग से लेकर माध्यम वर्ग के रास्ते निम्न वर्ग तक कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहचानता। सब समय है। 

एक समय था जब दरभंगा के राजा, महाराजाधिराज अपने कर्मचारियों के, उसके परिवारों के, उसके बाल-बच्चों के सम्पूर्ण विकास के लिए, चाहे आर्थिक हो या सामाजिक, शैक्षिक हो या बौद्धिक, हमेशा तत्पर रहते थे, अपना द्वार खुला रखते थे, आज समाज बदल गया है। जिन महात्मनों पर विश्वास के साथ यह दायित्व सौंपा गया था, वे “लोभ” के शिकार हो गए, चरित्र को ‘गंगा’ नदी के बदले पोखरों और तालाबों में लुढ़कने के लिए छोड़ दिया। जिन्हे कर्मचारियों, उनके परिवार और परिजनों के हितों की रक्षा करना था, वे सभी मानसिक रूप से इतने गिर गए थे कि  ‘स्वहित’ के अलावे कुछ दिखाई ही नहीं दिया। कर्मचारी, उनके परिवार, बच्चे ‘दो जून की रोटी’ के लिए तरसते रहे, उनकी सांसों की गिनती कम होती गयी। कुछ परिवार, लोगबाग  समय से पहले पेट-पीठ एक किये, अंतिम सांस लेते मृत्यु को प्राप्त किये। समय सब देख रहा था। आज मानसिक रूप से जमीन के अंदर धंसे कई लोग, जो वषों पूर्व सैकड़ों कमर्चारियों और उनके परिवारिओं के साथ ‘स्वहित’ में ‘छल’ किये, आज शारीरिक रूप से दिव्यांग हो गए। जो नित्य होटलों में खाना और शराब पीते थे संस्थान के पैसों पर; आज बिछावन पर लघु और दीर्घ शौचालय कर रहे हैं। सब समय है। 

महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा बिहार के लोगों को मुख में आवाज देने के लिए, उन्हें आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, बौद्धिक इत्यादि रूप से सुजज्जित रखने के लिए सन 1930 में दी इण्डियन नेशन और सन 1940 में “आर्यावर्त” नामक अंग्रेजी और हिन्दी भाषाओँ के दो समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किये।  यह अखबार महज एक अखबार नहीं था बल्कि बिहार के साथ-साथ सम्पूर्ण मिथिलांचल की सांस्कृतिक स्वरुप का एक जीता-जागता उद्धरण था। यह बिहार के लोगों का आवाज था, ताकि वे मूक-बधिर नहीं रह सकें।  इन समाचार पत्रों के स्थापना काल से अपने जीवन की अंतिम सांस तक, यानी सं 1960 के अक्टूबर महीने के पहली तारीख तक उन्होंने इन अख़बारों के तेवर को देखा। बड़े-बड़े सूरमा दफ्तर के मुख्य द्वार पर जूते खोलकर, गर्दन झुकाकर आते थे । 

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महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद राज परिवार के जिन महात्मनों को इन समाचार पत्रों के संचालन व्यवस्था का दायित्व मिला,  उनमें व्यावसायिकता की घोर किल्लत थी। ज़मींदारी मानसिकता उत्कर्ष पर थी। अपने हाथों से पानी पीना भी पारिवारिक प्रथा के विरुद्ध समझते थे। दयावान इतने अधिक थे कि “ना” कहना कभी सीखे ही नहीं। जो अंततः न केवल राज में, बल्कि दी न्यूजपेपर एंड पब्लिकेशन लिमिटेड संस्थान में घोर अनुशासनहीनता, कार्यशैली पद्धति में उत्कर्ष तक गिरावट से चतुर्दिक जकड़ लिया।  मिथिलाञ्चल के साथ साथ बिहार प्रदेश के सैकड़ों ‘राजनीतिक परजीवी (पैरासाइट्स) से लेकर सामाजिक, शैक्षिक परजीवी तक; चापलूसों से लेकर अवसरवादियों तक; वुद्धिहीन, विवेकहीन , श्रमहीन परजीवी अपना-अपना जीवन यापन करने के लिए दरभंगा राज के अलावे आर्यावर्त-इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर पात्र-पत्रिका समूह में चिपकते गए। 

आधुनिकीकरण की सोच का घोर अभाव था – मालिकों में भी और प्रबंधन में भी। छप्पन-फांकों में बंटा, राज परिवार के विभिन्न घरानों से जुड़े, विभिन्न्न राजनीतिक पार्टियों के “स्वार्थी”, “अवसरवादी” “लोभी” नेताओं के संरक्षण में पल रहे  कर्मचारियों का कुछ वर्ग “शीघ्रातिशीघ्र” संस्थान का पतन चाहता था। वह चाहता था कि संस्थान बिके, बंद हो और खरीददार उसे उसके हिस्से की राशि हस्तगत कराये और वह अपने-अपने गाँव की ओर प्रस्थान करे। मानवीयता और संवेदनशीलता का इतना अधिक ह्रास हो गया था कि जिन कर्मचारियों और प्रबंधन के खास-वर्ग को इस संस्थान ने ‘नाम’, ‘शोहरत’, ‘अस्तित्व’ दिया था, वह एक बार भी उस “निरीह”, “कमजोर”, दूर-दृष्टिहीन संस्था-प्रमुख का क्या होगा जिनका अपने प्रदेश में, अपने मिथिलाञ्चल में इन अख़बारों के कारण सामाजिक प्रतिष्ठा थी। आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका समूह के मालिक का स्वतंत्र भारत में एक जबरदस्त पराजय था। राजा होते हुए भी राजा नहीं था। 

बहरहाल, आने वाले समय में जब बिहार की पत्रकारिता, बिहार के समाचार पत्रों पर शोध किया जायेगा, लिखा जायेगा – उस समय उन शोध कर्ताओं को, लेखकों को यह भी खोजबीन करना होगा कि आखिर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के तुरंत बाद से, विशेषकर सम्पत्तियों का चार-फांक फिर सहस्त्र-फांक होने के बाद किसने, किसके साथ ‘छल’ किया, किसने किसके साथ ‘अन्डरहैन्ड डीलिंग’ किया, किसने किसके लिए आंसू बहाया, कौन संवेदनहीन हुआ, कौन विवेकहीन हुआ, कौन श्रमजीवी हुआ, कौन परजीवी हुआ, किसने स्वहित में महिलाओं, बच्चों के मुख से निवाला छिना, कौन-कौन अपने हितों के रक्षार्थ मानसिक रूप से दिव्यांग हो गया – क्योंकि सभी समय के सीसीटीवी  के अधीन थे और हैं भी, इसीलिए तो जो कल मानसिक रूप से दिव्यांग हो गए अपने-अपने हशन को देखने में, आज समय उन्हें शारीरिक रूप से भी अपाहिज़ कर दिया है. ….. …… क्रमशः 

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