‘जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता, चलेउ सो गा पाताल तुरंता’: 25 लाख लाभ से 6.22 करोड़ की देनदारी (भाग-7)

आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर बंद होने की तारीख को दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के कर्मचारियों का बकाया प्रबंधन पर, मालिक पर (बाएं) और दिवंगत काली कान्त झा (दाहिने) जिनके त्यागपत्र के बाद संस्थान क्रमशः रसातल की ओर अग्रमुख हुआ। इसके लिए कर्मचारी तो दोषी थे ही, मालिक, कर्मचारी से बने प्रबंधक और बोर्ड के लोगबाग भी कम जबाब देह नहीं थे 

दरभंगा/पटना : गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में चौपाई छन्द का बहुतअच्छा निर्वाह किया है। चौपाई में चार चरण होते हैं, प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं तथा अन्त में गुरु होता है। सत्तर के दशक के मध्य से दी न्यूजपेपर एंड पब्लिकेशन लिमिटेड के मामले में सभी चरणों, सभी मात्राओं के एक ही गुरु थे – कुमार शुभेश्वर सिंह और जब से कुमार शुभेश्वर सिंहका चरण इस संस्थान में आया, ‘संस्था’ के ‘स्वामी’ होने के वावजूद, संस्थान का वजूद नहीं बच सका और संस्थान के प्रत्येक ईंट क्रमशः मिट्टी में मिलता चला गया। अन्यथा मिथिलांचल का इतिहास, महाराजाधिराज द्वारा निर्मित परम्पराओंकी बुनियाद इतनी तो कमजोर नहीं थी कि पलक झपकते ही मिट्टी में मिल जाए। अनेकानेक कारण थे – कहीं नौकर मालिक था, तो कही हजाम निदेशक। कहीं खानसामा वित्त देखता था तो कभी मलाह तिजोड़ी का चावी लिए मालिकाना हुकुम चलता था।

उससे भी बड़ी बिडंबना यह थी कि दरभंगा राज में महाराजा की मृत्यु के बाद जितने लोग सम्पत्तियों के हिस्सेदार हुए, राज की सम्पत्तियों को कलकत्ता उच्च न्यायालय के कुछ पन्ने जितने सहस्त्र टुकड़ों में विच्छेद किया; अगर सभी “एकल” हो जाते, “मुफ्त में मिलने वाली सम्पत्तियों के लिए लार नहीं टपकाते,” तो मिथिलांचल और दरभंगा राज आज भारत राष्ट्र का एकलौता एक ऐसा राज्य होता, जो इतना सवल होता। आज मिथिलांचल की गलियों, नुक्कड़ों, सड़कों, खेत-खलिहानों में लोगबाग जिस तरह मिथिलांचल को एक अलग राज्य बनाने की बातें करते हैं, शायद भारत राष्ट्र का बेहतरीन राज होता – जमींदारी जाने के बाद भी। लेकिन “लोभियों के गाँव में कभी विकास हुआ है?” 

पटना में आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर की भूमि को जिन’पर-पुरुषों’ ने अपने-अपने पैरों तले रौंदा, उस भवन की एक-एक ईंट को मिट्टी में मिलाया और परिवार के लोग, मिथिला के लोग, बिहार के लोग, संस्थान के कर्मचारी ‘लोभवश’ मूक-दर्शक और बधिर बने रहे, इतिहास कभी उन्हें माफ़ नहीं करेगा। आर्यावर्त – इंडियन नेशन – मिथिला मिहिर की मृत्यु, महज दो समाचार पत्रों और मैथिलि पत्रिकाका अंत नहीं था, बल्कि उन दिनों से लेकर, आज तक “आत्मा से पार्थिव” और “शरीर से जीवित” लोगों के समक्ष, राज दरभंगा के परिवार और परिजनों के समक्ष, मिथिलांचल की जीवित संस्कृतिका “अकाल मृत्य” था। बिना परिश्रम से मिलने वाली संपत्ति के लोभ में सभी अनपढ़, अज्ञानी, अशिक्षित, शिक्षित, सुसंस्कृत, , चालाक, शातिर, लोभी सभी शतरंज के मुहरों जैसा पंक्तिबद्ध थे । जो चालाक थे, आगे निकल गए, जो शातिर थे बिचौलिए बन गए, शेष मूकदर्शक बने रहे बधिर जैसा। 
 
लोग विश्वास नहीं करेंगे आज, आने वाले दिनों में जब बिहार की पत्रकारिता पर शोध किया जायेगा तब शोधकर्ता इस बात को अछूता नहीं छोड़ेंगे सत्तर के दशक में महाराजाधिराज के तीसरे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह ने जब महाराजाधिराज द्वारा स्थापित आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर पत्र समूहका कमान संभाले, वे संस्थान के निवर्तमान प्रबंध निदेशक काली कांत झा यानी “मास्टर साहेब”  (अब दिवंगत) से थर-थर कांपते थे। उनके सामने नजर उठाकर देखने, बात करने की हिम्मत तो मीलोंदूर की बात थी। मास्टर साहेब समय और अनुशासन के इतने पक्के थे की संस्थान के लोग-बाग़ अपनीघड़ी की सूई को उनके आने-जाने के समय से मिलाते थे। उन दिनों, यानी सत्तर के दशक केमध्य तक, संस्थान में शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जो ‘मास्टर साहेब’ से भयभीत नहीं होता होगा। कहते हैं, भय अनुशासन को जन्म देता है, नियंत्रितरखता है और अनुशाशन, मनुष्य ही नहीं, संस्थान को भी संस्थागत रूप से ऊंचाई पर चढ़ने का मार्गप्रशस्त करता है। 
 
1909 में जन्म लिए मास्टर साहेब मधुबनी के पंडौल गाँव केनरपत नगर के वासी थे। अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद, अपनी आर्थिक-स्थिति के मद्दे नजर, साथ ही, अपनी अर्जित शिक्षा कोअगली पीढ़ी में हस्तानांतरित करने के लिए वे शिक्षक बन गए। यह काल खंड आज़ाद भारतके पहले का है। मास्टर साहेब दरभंगाके जिला स्कुल में शिक्षक बन गए। उन दिनों दरभंगा राज भी अपने उत्कर्ष की ओर उन्मुखथा और पटना के फ़्रेज़र रोड पर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बिहार के लोगों के मुखमें आवाज देने के लिए, अपने प्रदेश के बारे में दूर-दूर तक बातें पहुँचाने के लिए दीइंडियन नेशन (1930) और आर्यावर्त (1940) समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारम्भ किये थे। 

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मास्टर साहेब महाराजाधिराज के दूसरे भतीजे, यानी राजबहादुर विशेश्वर सिंह केदूसरे पुत्र राजकुमार येणेश्वर सिंह को पढ़ाया करते थे। पढ़ने के एवज में उन्हें कुछमुद्राएं प्राप्त हो जाती थी। पचास के दशक में महाराजाधिराज को अपने दोनों प्रकाशनके लिए एक सक्षम और अनुशासित व्यक्ति की जरुरत हुई। महाराजाधिराज मास्टर साहेब सेअपने मन की बात बता दिए और पूछे भी कि क्या वे आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार में कार्यकरना पसंद करेंगे? मास्टर साहेब “ना” नहीं कह सके और शिक्षक की भूमिकाको रूपांतरित कर प्रशासन की ओर उन्मुख हो गए। महाराजाधिराज दूरदर्शी थे।मास्टर साहेब की स्वीकार्यताके बाद महाराजाधिराज उनके सर पर सम्मान स्वरुप एक शेरवानी-नुमा पाग रखे, जिसके ऊपर चांदीकी कढ़ाई था। शायद ऐसा सम्मान आर्यावर्त-इण्डियन नेशन -मिथिला मिहिर में उसके बंदहोने तक किसी भी अधिकारी को प्राप्त नहीं हो पाया। महाराजा साहेब “मास्टर साहेब” की सोच, उनकी दूरदर्शिता, समय की परख, उनका विश्वास, उनकी लगन, उनका आत्मसम्मान के कायल थे। महाराजा साहेब इस बात को शायद जानते थे कि उनके द्वारा स्थापित इस संस्थान और अखबार को उनके आँख मूंदने के बाद भी क़ुतुब मीनार की ऊंचाई पर यमास्टर साहेब ही के जा सकते हैं क्योंकि उनके परिवार में “उनका अपना कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिस पर वे इस तरह आँख मूंद कर विश्वास कर सकें।” कितनी सच्चाई थी महाराजाधिराज की सोच और दूरदर्शिता में। 
 

दरभंगा स्थित रामबाग का प्रवेश द्वार 

कहते हैं विज्ञान में विकास के साथ-साथ मनुष्य का मानसिक विकास भी होता है। इतिहास भी गवाह है खासकर मिथिलांचल के मामले में।  जैसे-जैसे आधुनिक समय में विज्ञानं इतिहास रचते जाता है, लोग-बाग़ इतिहास के उस पन्ने में “सकारात्मक” भूमिका स्वरुप अपना नाम दर्ज करते जाते हैं।मिथिलांचल में विगत पचास-सौ वर्षों में अनेकानेक ऐसे दृष्टांत हैं जहाँ  दीन-हीनों ने अपने माता-पिता, पुरखों का नाम इतिहास में दर्ज किया है और उनके पूर्वजों का नाम उनके वर्तमान पीढ़ियों से चल रहा है। दरभंगा राज के मामले में “गंगा उल्टी बहती है” बनारस जैसा। 
 
आर्यावर्तइंडियननेशन.कॉम से बात करते मास्टर साहेब के सबसे छोटे पुत्र 68-वर्षीय सुधाकर झा से जब उनके पिता की बिहार के उस प्रतिष्ठित समाचार पत्रमें उनकी भूमिका के बारे में पूछा तो कुछ पल के लिए वे शांत हो गए, फिर लम्बी सांस लेते कहते हैं: “जीवन में अनुशासन का बहुत ही अहम् महत्व है। मेरे पिता एक अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे जो महाराजा की सम्पूर्ण अपेक्षाओं पर जीवन पर्यन्त खड़ा उतरे। अगर ऐसा नहीं होता तो आज लगभग 60-70 साल बाद, उस संस्थान में उनके द्वारा निष्पादित कार्यों को, उनकी भूमिका के बारे में, उनके अनुशासन प्रियता के बारे में आप कैसे पूछते?

“महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद, जब राज दरभंगा की सम्पत्तियों का सहत्र-खंड हुआ, जो खंड,यानी यह समाचार पात्र समूह जिनके हिस्से आया और बाद के कालखंड में जो हश्र हुआ, वह किसी से छुपा नहीं है। आज भी, जब फ़्रेज़र रोड के उस स्थान पर पहुँचता हूँ जहाँ आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों का दफ्तर हुआ करता था, दाहिने हाथ वाले भवन के कोने वाले कक्ष में जहाँ मेरे पिताजी बैठते थे, सम्पूर्ण वातावरण शांत रहता था, आजभी अपने पिता को महसूस करता हूँ । यह अलग बात है कि आज वहां विशालकाय मॉल बन गया है, उस समय संस्थान में कार्य करने वाले कर्मचारियों का घर उजड़ गया है, कई परिवारों के मुखिया मृत्यु को प्राप्त कर लिए हैं – फिर भी जब उस स्थान को देखता हूँ, पिताजी याद आते हैं। सोचता हूँ, अगर पिताजी होते, महाराजाधिराज होते तो शायद यह दिन नहीं देखने को मिलता।”

टुकड़े-टुकड़े में विभाजन, लेकिन जोड़ने वाला कोई नहीं 

मास्टर साहेब जब आर्यावर्त-इण्डियन नेशन में नौकरी प्राप्त किये थे, उस समय दफ्तर से कुछ दूर चिरैया टांड क्षेत्र में दो-कमरे वाले किराये के मकान में अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ (तीन बेटा,एक बेटी और पति-पत्नी) रहते थे। महाराजाधिराज अनेकानेक बार प्रयत्न किये कि उनके अधिकाधिक  संपत्ति, विशेषकर जमीन और मकान दें, लेकिन मास्टर साहेब अपने शरीर को पार्थिव होने तक ‘आत्मा से जीवित’ रहे और कभी महाराजाधिराज की उस इक्षा को पूरा नहीं होने दिया। साठ के दशक के शुरूआती दिनों में मास्टर साहेब पटना के राजेंद्र नगर इलाके के रोड नंबर११ में एक मकान ख़रीदे और जीवन पर्यन्त उसी मकान के हो गए। सत्तर के दशक में जब दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमिटेड का बागडोर महाराजाधिराज के सबसे छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह के हाथों आया, अनुशासनप्रिय मास्टर साहेब अपने कदम की गति को विराम देने लगे। 

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वैसे प्रत्येक शिक्षक यह चाहता है कि उनके शिष्य अथवा उसका परिवार, संस्था, व्यवसाय बेहतर बने। लेकिन यहाँ मास्टर साहेब आने वाले समय में संस्थान और अनुसाशन का क्या हश्र होने वाला है, भांप लिए थे। वे नहीं चाहते थे की जिस बच्चे के बड़े भाई को पढ़ाया था, उसके छोटे भाई के हाथों किसी भी तरह का कोई “बदसलूकी” का आमना-सामना करना पड़े । मास्टर साहेब जानते थे कि आने वाले समय में महाराजाधिराज की ‘शिक्षा’ और ‘संस्कृति’ न केवल पटना के फ़्रेज़र रोड पर, बल्कि दरभंगा के रामबाग परिसर में भी सार्वजानिक रूप से नीलाम होगा,अनपढ़ों, चापलूसों का साम्राज्य खड़ा होगा, जो कुछ ही समय बाद स्वतः ध्वस्त हो जायेगा। 
 
मास्टर साहेब कुमार शुभेश्वर सिंह के आगमन के साथ ही, अपना बोरिया-बिस्तर आर्यावर्त-इंडियन नेशन से बाँध लिए थे। साथ ही, अपने सहकर्मियों, मसलन उपेंद्र आचार्य, दिनेश्वर झा,गिरीन्द्र मोहन भट्ट, जिन्होंने उन अख़बारों की छवि को पटना की गोलघर की ऊंचाई से दिल्ली के क़ुतुब मीनर की ऊंचाई तक ले जाने में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिए थे, आगाह कर दिया था – संस्थान के पतन का। इसलिए वे अपना इस्तीफा भी सौंप दिए थे । लेकिन मंजूर नहीं हुआ। बाद में जब वे दूसरी दफ़ा अपना इस्तीफा सौंपा, तब महाराजाधिराज की दूसरी पत्नी, यानी छोटी महरानीअधिरानी कामसुन्दरी ने  मास्टर साहेब को अपना इस्तीफा वापस लेने का निवेदन किया। महारानीअधिरानी मास्टर साहेब की “आतंरिक”और “सम्वेदनात्मा पीड़ा” को समझ रहीं थी। इसलिए वे अधिक जोर भी नहीं दी उनके सम्मानार्थ । ऐसा लगा जैसे महारानी अधिरानी भी आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिरकी भविष्य की रेखाओं को अपने सबसे छोटे भतीजे की हस्त-रेखाओं में पढ़ ली थी। मास्टर साहेब की मृत्यु सन 1981 के दिसंबर माह में हुई।  

कहा जाता है कि मास्टर साहेब एकलौता बिहारी थे जो आर्यावर्त-इण्डियन नेशन रीजनल अखबार का प्रबंधक होने के बाद भी राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी युनाइटेड न्यूज ऑफ़ इंडिया (यूएनआई) के दो बार अध्यक्ष बने। उन दिनोंके कर्मचारी भी इस बात को स्वीकारते हैं कि मास्टर साहेब जिस वर्ष त्यागपत्र देकर अपने राजेंद्र नगर, रोड नंबर 11 स्थित घर आये, उस दिन बिहार के गाँव – गाँव तक आर्यावर्तकी 1,10,000 प्रतियां और इण्डियन नेशन की 57,000 प्रतियां पहुँचती थी। यह दोनों अखबार बिहार के आदम – कद के नेताओं से लेकर गगनचुम्बी अधिकारीयों के तेवरों को “नाथने”का कार्य करती थी। 
  

टुकड़े-टुकड़े में विभाजन, लेकिन जोड़ने वाला कोई नहीं 

बहरहाल, दरभंगा के अन्तिम महाराजा द्वारा बनाए गए वसीयत और उसमें महारानियों का स्थान इस बात का गवाह है कि  दरभंगा के अंतिम महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के नज़र में उनकी सम्पत्तियों का देखरेख“महारानियों” की अपेक्षा “ट्रस्ट्स” बेहतर तरीके से कर सकता है ! यह हज़ार-करोड़ से भी अधिक “महत्वपूर्ण प्रश्न” है। ऐसा कैसे हो सकता है कि मिथिलाञ्चल के अधिष्ठाता, हुकूमतों में किसी भी भारतीय महाराजाओं से सर्वोपरि स्थान रखने वाला व्यक्ति, हिन्दू-धर्म के समर्थक “अपने ही परिवार की महिलाओं, अपनी पत्नियों के अधिकार के प्रति निष्ठावान होने के वजाय, इतना क्रूर हो जाय ?” उनके मरणोपरान्त उनकी घर्म-पत्नियों का देखरेख“एक ट्रस्ट” और ट्रस्ट के सञ्चालक “पर-पुरुष” करें – यह असंभव ही नहीं, न्यायसंगत भी नहीं था, और न ही है। सूत्रों के अनुसार राज दरभंगा का चेरिटेबल ट्रस्ट काक्रिया-कलाप भी प्रशासन के नजर में है। 

लेकिन महाराजा की मृत्यु के बाद कोई आज तक किसी ने चूं तक नहीं किये। क्योंकि लोगों का कहनाहै कि “ उपलब्ध वसीयत मूल वसीयत नहीं है और महाराजा की मृत्यु के बाद तत्कालीन लोगोंने, जिन्हें राज दरभंगा में पैठ थी, अपने-अपने हितों के अनुसार बदलाव भी किये। अगरऐसा नहीं हुआ होता तो विगत छः दसक में दरभंगा राज की संपत्ति और वर्चस्व इतना समाप्त नहीं हुआ होता – जो आज है। स्थानीय लोगों का मानना है कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद एक सुनियोजित तरीके से राज दरभंगा के अस्तित्व को समाप्त किया गया है। महाराजाधिराज की सभी कीर्तियों का नामोनिशान मिटाया जा रहा है – कौड़ी के भाव में। 

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वैसे राज दरभंगा से जुड़े लोग-बाग़ तो “ना” ही कहेंगे और जो “लाभान्वित” हुए, उनका “ना” कहना भी स्वाभाविक हैं। लेकिन तनिक विचार जरूर करेंगे की महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपनी मृत्यु के पूर्व अपनी वसीयत में दरभंगा के लोगों के कल्याणार्थ जिस “चेरिटेबल” शब्द का इस्तेमाल कियाथा; और चेरिटेबल ट्रस्ट बनाया था, रिलीजियस ट्रस्ट बनाया था ताकि मिथिलांचल के लोग राष्ट्र में अपना दबदबा बनाए रखें, धर्म प्रतिस्थापित रहे – आज वह ट्रस्ट और उसकी होनेवाली आमदनी सच में जन-कल्याणकार्यों में निहित है? यह बहुत बड़ा स्कैम के रूप में उभरने वाला है। 

इतना ही नहीं, चेरिटेबलट्रस्ट के साथ-साथ, जिस तरह से दरभंगा राज के अन्य ट्रस्ट कार्य कर रहे हैं, ट्रस्टियोंकी मृत्यु के बाद स्थान भरा नहीं जा रहा है, या फिर हाँ-हाँ करने वालों को ट्रस्ट केअधीन स्थान दिया जा रहा है, दरभंगा के लोगों के लिए, राज-नेताओं के लिए, अधिकारियोंके लिए, न्यायपालिका के लिए – सर-दर्द होने वाला है। सबों की निगाहें सतर्मुर्गकी तरह अटकी है। कई लोगों की निगाह तो महारानी अधिरानी की ढलती उम्र, गिरती स्वास्थ्यकी ओर भी है। क्योंकि उनके जाने के बाद कई एक लोगों का ‘आर्थिक भाग्योदय’ भी होना हैजैसा कि वसीयत में लिखा है या फिर ट्रस्ट के काग़ज़ातों में लिखा गया है। 

टुकड़े-टुकड़े में विभाजन, लेकिन जोड़ने वाला कोई नहीं 

वैसे दरभंगा के ऐतिहासिक राम बाग़परिसर को क्रमशः टुकड़े-टुकड़े में बेचने की प्रक्रिया तो चल ही रही है, अन्देशा इस बात की भी है कि राज दरभंगा की अनेकानेक बहुमूल्य जमीनों को भी क्रमशः बेचे जाने की बात हो रही है। देश के कई प्रमुख बैंकों की निगाहें भी राज दरभंगा की बहुमूल्य जमीनों/इमारतों पर है। कुछेक मामले में जमीन बिकने के बाद  बैंक की कर्ज-राशि वापस नहीं करने के कारण सम्बद्ध जमीन/सम्पत्ति पर बैंक का कब्ज़ा हो गया है। इतना ही नहीं, दरभंगा राज की कि लाओं की ढहती दीवारों और निकलती ईंटों के आस-पास बिहार के भू-माफियाओं का भी आना-जाना प्रारम्भ हैजिन्हें घुटने – ठेंघुने और आदमक़द नेताओं का संरक्षण प्राप्त है। 

आम तौर पर दरभंगा राज में एक प्रथा दसकों से चली आ रही है और वह यह है कि जिन जमीनों/इमारतों/सम्पत्तियों को बेचना होता है उसे पहले किसी से द्वारा गैर-क़ानूनी रूप से कब्ज़ा करा दिया जाताहै और फिर उसके ऊपर मुकदमें दायर कर “सेटेलमेंट” किया जाता है। इससेदोनों पक्ष क़ानूनी-रूप से दुरुस्त होते है और उनपर शक की कोई गुंजाईश भी नहीं होती है। दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड की भूमि का इस कदर सुनियोजित तरीके से मेसर्स पाटलिपुत्रा बिल्डर्स के हाथों बेचना, कर्मचारियों को उनके ही कमाए पैसों का नहीं मिलना, पुलिस-कोर्ट-कचहरी-मुकदमा होना, यह सभी इस सम्पूर्ण प्रक्रिया का जीता-जागता दृष्टान्त है। 

बिडंबना यह है कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद से आज तक दरभंगा अथवा बिहारके लोग, मिथिलांचल के लोग कभी अपनी आवाज़ मुखरित किए हों । कुछ वर्ष पूर्व राम बाग़ परिसर में भी निर्मित सिनेमा गृह सेन्ट्रल बैंक ऑफ़ इण्डिया के कब्जे मेंहै।इस ज़मीन को कूच वर्ष पूर्व बेच दो गयी थी । वैसे राम बाग परिसर में ज़मीन बेचना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का उल्लंघन है, फिर भी इस ज़मीन पर सिनेमा गृह बना था। आज के परिप्रेक्ष्य में राज परिवार अथवा ट्रस्ट में ऐसे कोई व्यक्ति नहीं हैं जो स्थानीय प्रशासन से भी रु ब रु हो सकें। 

क्रमशः 

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