दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह का राजनगर: अब तो ‘खून’ भी ‘अलग-अलग’ हो रहा है, ‘वारिस’ की तो बात ही न करें (भाग-32)

महात्मा गांधी के साथ महाराजकुमार विशेश्वर सिंह। तस्वीर: रमन दत्त झा के सौजन्य से

राजनगर / दरभंगा / पटना : “बेनिफिट ऑफ़ डॉट” यानि “संदेह का फायदा” भी गजब फायदेमंद होता है कभी-कभी, खासकर न्यायालय में, और उसमें भी जब मुजरिम के खिलाफ ‘हत्या’ का आरोप हो। क्या कहते हैं ? संदेह का फायदा मिलने पर न्यायालय से जब कोई आरोपी मुक्त होता है, तो उसे अपने जीवन का वास्तविक एहसास होता है। वह यह भी सोचता होगा कि जीवन कितना अनमोल है – अपना भी और दूसरों का भी। स्वतंत्र भारत के लोग मधुबनी जिला के राजनगर परिसर में जिस विशालकाय ऐतिहासिक दरभंगा महाराज का किला देखते है, आज उसकी सम्पूर्णता के साथ उपेक्षा देखकर रोते हैं, बिलखते हैं, दरभंगा राज की वर्तमान पीढ़ियों की आलोचना करते हैं – उस किला के परिसर में, उस किले के स्वामी के बड़े पुत्र द्वारा ‘कथित रूप से’ गोली चली थी, गोली का शिकार राजनगर ट्रस्ट के प्रबंधक हुए और वे मृत्यु को प्राप्त किये। आरोपी पर भारतीय दंड संहिता 302 के तहत मुदकदमा चला। लेकिन कहा जाता है कि भारतवर्ष के श्रेष्ठ्तम न्यायविद न्यायमूर्ति पंडी लक्ष्मी कान्त झा की अगुआई में पटना उच्च न्यायालय ने आरोपी को ‘बेनिफिट ऑफ़ डॉट’ यानि संदेह का फायदा के तहत आरोपों से पूर्णतया मुक्त कर उन्हें ‘बाईज्जत’ बरी कर दिया।

आज दुर्भाग्य यह है कि उस किले का स्वामी महाराज रामेश्वर सिंह के दूसरे पुत्र, यानि महाराजकुमार विशेश्वर सिंह, जिन्हे महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह दरभंगा की राजगद्दी पर विराजमान होने के बाद, राजनगर “प्रसाद” स्वरुप अर्पित किये थे, आज “वास्तविक उत्तराधिकारी के अभाव” में अपनी किस्मत, अपनी अस्मत पर बिलख रहा है। महाराज कुमार विशेश्वर सिंह के बड़े पुत्र कुमार जीवेश्वर सिंह को कोई पुत्र नहीं था, परन्तु जीवेश्वर सिंह के छोटे भाई यज्ञेश्वर सिंह आज भी जीवित हैं। उनके तीन पुत्रों में दो पुत्र आज भी जीवित हैं। मझले पुत्र रश्मेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई। यानी दरभंगा राज में महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह और विशेश्वर सिंह के बाद की पीढ़ियों में सबसे बड़ा पुत्र रत्नेश्वर सिंह का मधुबनी स्थित राजनगर परिसर पर अधिपत्य होना चाहिए था। लेकिन रत्नेश्वर सिंह दरभंगा राज परिसर की वर्तमान व्यवस्था से अगर ‘भयभीत’ नहीं हैं, तो ‘स्वयं को ‘सक्षम’ भी नहीं महसूस कर रहे हैं’, ताकि ‘मिलजुल कर दरभंगा राज की प्रतिष्ठा, महाराजों की गरिमा, राजनगर को आधुनिकता से लैश कर एक ऐतिहासिक धरोहर के रूप में राष्ट्र के सामने ला सकें। राजनगर पर रत्नेश्वर सिंह की बातें आगे लिखेंगे, लेकिन रत्नेश्वर सिंह के कुछ शब्द ही वर्तमान व्यवस्था का सम्पूर्ण आईना बताता है।

राजनगर का ऐतिहासिक घंटा – कभी महाराजाओं के हाथ लगते थे, ध्वनि से इलाका गूंजता था। आज महाराजाओं की पीढ़ियां तो हैं, परन्तु……. जंग लग रहे हैं घंटा पर

कल का दरभंगा और आज के मधुबनी जिला के राजनगर क्षेत्र दरभंगा के महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह के मुख्यालय के रूप में ही जाना जाता है। दरभंगा राज की इतिहास तो अपने-आप में एक इतिहास है, चाहे आज़ादी के पहले हो या आज़ादी के बाद हो; चाहे राजा-महाराजा-महाराजाधिराज का समय-काल हो, अथवा उनकी मृत्योपरांत और आज़ाद देश में “बिना वारिस” वाला “संपत्ति की लूट-खसोट वाला राज” हो। कल के शोधकर्तागण जब महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु की तारीख के बाद दरभंगा राज की इतिहास पर शोध करेंगे तो शायद महाराजाधिराज की मृत्यु-तारीख (1 अक्टूबर, 1962) से पहले शोध-पन्नों की संख्या से उक्त तारीख के बाद शोध-पन्नों की संख्या कई गुना अधिक होगा। वजह भी है – संपत्ति और शोहरत अर्जित करने में राजा महेश ठाकुर (मृत्यु 1558) से लेकर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह (मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962) तक, दरभंगा के कुल 20 राजाओं, महाराजाओं को विगत 410 वर्षों में जो मसक्कत करना पड़ा “दरभंगा” को “दरभंगा राज” बनाने में; उसे नेश्तोनाबूद होने में पचास-साठ वर्ष भी नहीं लगा। आज स्थिति ऐसी है कि महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके अनुज महाराजकुमार विशेश्वर सिंह के तीन-तीन पुत्रों और आगे उनके वंशों के वावजूद, दरभंगा का गौरवमय इतिहास, दरभंगा और मिथिलांचल स्थित उन सैकड़ों पोखरों और तालाबों जैसी हो गयी है, जहाँ “गड्ढे” तो हैं, अनुमान भी होता है कि कभी यहाँ पानी भरा रहा होगा; लेकिन पोखरों और तालाबों का अस्तित्व समाप्त हो गया है। खैर। सब समय है।

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महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा महेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। महाराजा महेश्वर सिंह दरभंगा राज के 16 वें महाराजा थे, जिनके समय काल आते-आते दरभंगा राज तत्कालीन भारत के मानचित्र पर अपनी अमिट स्थान बना लिया था। कहा जाता है कि जब महाराजा महेश्वर सिंह की मृत्यु हुई उस समय लक्ष्मेश्वर सिंह महज दो वर्ष के थे। महाराजा महेश्वर सिंह सं 1850 से 1860 तक दरभंगा के महाराजा रहे। महाराजा महेश्वर सिंह की मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह सं 1880 से 1898 तक कुल 18 वर्ष राजगद्दी पर आसीन रहे। कहा जाता है कि दरभंगा के महाराजा के रूप में ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय देते थे। अपने शासनकाल में इन्होंने स्वयं को सम्पूर्णता के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिए । विधि का विधान देखिये महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह जिन्होंने मनुष्य की बोलने की, अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत और राजनीतिक अधिकारों की स्वतंत्रता का समर्थन किया था, लोगों का आवाज खुद बने थे, उनके पोते महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित बिहार का दो महत्वपूर्ण अखबार – आर्यावर्त और दि इण्डियन नेशन – को महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के पोते कपिलेश्वर सिंह के समयकाल में न केवल ‘बंद’ कर दिया गया, बल्कि ‘नामोनिशान मिटाकर जमीन को भी बेच दिया गया। शायद इसे ही समय कहते हैं।

सं 1898 में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की मृत्यु के बाद रामेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा बने। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। महाराज रामेश्वर सिंह भी अपने अग्रज की भाँति विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह को दरभंगा राज की राजगद्दी पर बैठने के बाद रामेश्वर सिंह को दरभंगा राज का बछोर परगना दी गयी और रामेश्वर सिंह ने अपना मुख्यालय राजनगर को बनाया l उनकी अभिरुचि भारतीय संस्कृति और धर्म में था। महाराजा रामेश्वर सिंह ने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। अपनी अभुरुची के अनुरूप उन्होंने राजनगर में राजप्रसाद का निर्माण कराया जिसकी कोना- कोना हिन्दू वैभव को दर्शाता था l तालाबों से युक्त शानदार महलों और भव्य मंदिरों, अलग से सचिवालय, नदी और तालाबों में सुन्दर घाट जैसे किसी हिन्दू साम्राज्य की राजधानी हो। महल में प्रवेश दुर्गा हॉल से होकर था जहाँ दुर्गा जी की सुन्दर मूर्ति थी। शानदार दरवार हॉल जिसकी नक्कासी देखते बनती थी। उससे सटे ड्राइंग रूम जिसमे मृग आसन उत्तर में गणेश भवन जो उनका स्टडी कझ था। महल का पुराना हिस्सा बड़ा कोठा कहलाता था। महल के बाहर सुन्दर उपवन सामने नदी और तालाब मंदिर के तरफ शिव मंदिर जो दझिन भारतीय शैली का बना था। उसी तरह सूर्य मंदिर ,सफ़ेद संगमरमर का काली मंदिर जिसमे प्रतिस्थापित माँ काली की विशाल मूर्ती दरभंगा के श्यामा काली के करीब करीब हुबहू था। सामने विशाल घंटा, वह भी दरभंगा के तरह हीं जिसके जैसा पुरे प्रान्त में नहीं था। अर्धनारीश्वर मंदिर, राजराजेश्वरी मंदिर, गिरजा मंदिर जिसे देख के लगता था जैसे दक्षिण भारत के किसी हिन्दू राजा की राजधानी हो।

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राजनगर : ऐतिहासिक किले की दीवारें। महाराजाधिराज की मृत्यु कुए छः दशक ही तो हुई है, दीवारों की वर्तमान स्थति गवाह है महाराजाधिराज की आज की पीढ़ियां कैसी हैं?

महाराज रमेश्वर सिंह वास्तव में एक राजर्षि थे इन्होने अपने इस ड्रीम लैंड को बनाने में करोड़ों रूपये पौराणिक कला और संस्कृति को दर्शाने पर खर्च किये थे। देश के कोने कोने से राजा महाराज, ऋषि, पंडित का आना जाना रहता था। जो भी इस राजप्रसाद को देखते थे उसके स्वर्गिक सौन्दर्य को देखकर प्रशंसा करते नहीं थकते थे। प्रजा के प्रति वात्सल प्रेम था जो भी कुछ माँगा खाली हाथ नहीं गया। दरभंगा के महाराज के देहान्त के बाद दरभंगा के राजगद्दी पर बैठने के बाद भी बराबर दुर्गा पूजा और अन्य अवसरों पर राजनगर आते रहते थे। दुर्गा पूजा पर भव्य आयोजन राजनगर में होता था। मंदिरों में नित्य पूजा – पाठ, भोग, प्रसाद ,आरती नियुक्त पुरोहित करते थे l राजनगर का सबसे भव्य भवन (नौलखा) 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था, जिसके आर्किटेक्ट डाक्टर एम ए कोर्नी था। महाराजा रामेश्वर सिंह अपनी राजधानी दरभंगा से राजनगर लाना चाहते थे लेकिन कुछ कारणों से ऐसा न हो सका।

महाराजा रामेश्वर सिंह का 1929 में देहांत हुआ और उनके चिता पर दरभंगा के मधेश्वर में माँ श्यामा काली की भव्य मंदिर है। उनके मृत्यु के बाद राजनगर श्रीविहीन हो गया। दुर्भाग्य देखें कि 1934 और बाद के भूकम्पों में ताश के महल जैसा धराशायी हो गयी। आज एक-एक दीवार अलग-अलग दिखती हैं। तत्कालीन वैभव मिट्टी पर बिलखता दिखता है। अपनी युवास्था में जिन लोगों ने इस भवन का, इस परिसर का यौवन रूप देखा है, आज दरभंगा राज परिवार के लोगों की सामूहिक उपेक्षा के कारण सम्पूर्ण परिसर खुद पर बिलख रहा है। अभी भी कई मंदिर और राजप्रसाद के खंडहर से पुरानी हिन्दू वैभव की याद आती है। इसकी एक एक ईंट भारत के महान साधक की याद दिलाती है l राज नगर पैलेस का निर्माण सन 1884-1929 के बीच हुई थी। इसका परिसर कुल 1500 एकड़ भूमि क्षेत्र में फैला है। जिसमें 11 मंदिर अवस्थित हैं। कहा जाता है कि इस ऐतिहासिक भवन के निर्माण में 22 लेयर का कार्विंग किया गया है, जो की ऐतिहासिक ताज महल से भी अधिक है। ताज महल में कार्विंग का लेयर 15 है। इस भवन के सामने चार हाथियों के पीठ पर स्थित सम्पूर्ण भवन भारत का एकलौता भवन है। इतना ही नहीं इस भवन के भगवती – स्थान के पास मिथिला लोक चित्रकला भी दिखता है।

महाराजा रामेश्वर सिंह अपने मृत्यु के पीछे दो पुत्र – कामेश्वर सिंह और दूसरे विशेश्वर सिंह – तथा एक बेटी –  लक्ष्मी देवी – छोड़ गए। महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र कामेश्वर सिंह दरभंगा राज की गद्दी पर बैठे। जबकि छोटे भाई विशेश्वर सिंह को राज नगर की संपत्ति दी गई।महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु (3 July 1929) के बाद कामेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजाधिराज बने और उनके छोटे भाई विशेश्वर सिंह महाराजकुमार  बने। महाराजादिराज कामेश्वर सिंह दरभंगा के अंतिम महाराजा अपनी अंतिम सांस तक बने रहे। यह अलग बात थी कि उनके समय-काल में ही देश आज़ाद हुआ और भारत में जमींदारी प्रथा की समाप्ति भी हुयी। यह भी अलग बात है कि जिस राजनेताओं और तत्कालीन व्यवस्थापकों को अपने समय काल में उन्होंने भरपूर आर्थिक मदद की थी, जमींदारी प्रथा की समाप्ति के विरुद्ध भारत के न्यायालयों में दायक किसी भी मुकदमों में वे सभी साथ नहीं दिए। इनके समय काल में दरभंगा राज का विस्तार कोई 6,200 किलोमीटर के दायरे में था।ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव दरभंगा नरेश के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे। इतिहास गवाह है कि महाराजाधिराज सन 1933-1946 तक, 1947-1952 तक देश के संविधान सभा के सदस्य भी रहे। उन्हें  1 जनवरी 1933 को भारतीय साम्राज्य के सबसे प्रतिष्ठित आदेश का नाइट कमांडर बनाया गया। महाराज कुमार विशेश्वर सिंह की मृत्यु इनके जीवन काल में ही हो गयी। 

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तस्वीर: रमन दत्त झा के सौजन्य से

विशेश्वर सिंह के तीन पुत्र थे – राजकुमार जीवेश्वर सिंह, यज्ञेश्वर सिंह और शुभेश्वर सिंह। जीवेश्वर सिंह को कोई पुत्र नहीं, बल्कि दो विवाहों में साथ बेटियां हुई।  यज्ञेश्वर सिंह को तीन पुत्र – रत्नेश्वर सिंह, रष्मेश्वर सिंह (दिवंगत) और रितेश्वर सिंह हुए। रत्नेश्वर सिंह को कोई संतान नहीं है। जबकि रितेश्वर सिंह को एक पुत्र है। इसी तरह शुभेश्वर सिंह को दो पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह हुए। इसी तरह राजेश्वर सिंह को दो पुत्र और कपिलेश्वर सिंह को एक पुत्र हुआ। सैद्धांतिक रूप से चुकी महाराजकुमार विशेश्वर सिंह को पिता द्वारा निर्मित राजनगर प्रसाद स्वरुप मिला था, अतः इस विशाल भूखंड और महल का उत्तराधिकारी यज्ञेश्वर सिंह और उनका पुत्र रत्नेश्वर सिंह (चुकी जीवेश्वर सिंह को कोई पुत्र नहीं था) को मिलनी चाहिए।

राजकुमार जीवेश्वर सिंह का जन्म 1930 में हुआ था। इनके अध्यापक म . म . उमेश मिश्र थे। कहा जाता है कि बचपन से ही ये बहुत प्रखर से। इनकी शिक्षा-दीक्षा भी विदेश में हुई। जब ये चार साल के थे तब सं 1934 के भूकंप में आनंदबाग पैलेस में बाल बाल बचे थे। उस भूकंप में महल का टावर गिर गया था। सं 1948 में इनकी शादी राजकुशोरीजी से हुई जो शारदा कानून के विवाद में आ गया था। फिर तो विवाद ने उन्हें ऐसा घेरा कि राजकाज से अलग होकर अध्यात्म में लीन हो गए। कहा जाता है कि करहिया ग्राम पंचायत के मुखिया और राजनगर ट्रस्ट के मैनेजर श्री कांत चौधरी की राजनगर ट्रस्ट ऑफिस के पोर्टिको में 30 नवंबर 1966 को गोली लगने से मृत्यु हो गयी। उस दिन बुध था और राजनगर में हाट का दिन था। राजकुमार जीबेश्वर सिंह खाकी कोट जिसके कॉलर फर का था और ऊनी पैंट, पाँव में काला बूट और हाथ में राइफल लिए राजनगर के अपने निवास से ट्रस्ट ऑफिस आये थे। राजकुमार पर 302 का मुकदमा चला और जीवेश्वर सिंह को संदेह का लाभ मिला और बरी हो गए। पटना उच्च न्यायालय ने 1971 में अपने फैसले में May be true और Must be true के अंतर को देखा। उस घटना के बाद दरभंगा के बांग्ला नंबर 1, गिरीन्द्र मोहन रोड में दूसरी पत्नी के साथ रहने लगे और वहां उनकी मृत्यु हुई और माधवेश्वर में अंतिम संस्कार हुई।

बहरहाल, वर्तमान हालात को देखकर यह सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है कि आने वाले समय में मिथिलांचल के लोग महाराजा दरभंगा के राजनगर “राजधानी” को देख पाएंगे अथवा नहीं ………क्रमशः.

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