सूर्यदेव सिंह अगर झरिया छोड़ देते तो कोई और लपक लेता, क्योंकि ‘ताकत’ और ‘शोहरत’ कौन नहीं चाहता (भाग-2 क्रमशः)

सूर्यदेव सिंह अपने झरिया में 

कतरास/धनबाद: कतरास मोड़ स्थित जनता मजदुर संघ के कार्यालय के बाहर भगवान् सूर्यदेव अपने आगमन की सूचना कुछ मिनट पहले ही दिए थे। एक तरफ आसमान से कतरास मोड़ की जमीन प्रातः कालीन सूर्य की रौशनी से समस्त कोयले सी काली कालीन के बीच-बीच में हीरे जैसी चमक दिखाई दे रही थी। जमीन का दृश्य लगभग वैसा ही था जैसे खुले आसमान में तारे चमकते दीखते हैं। 

मैं एक मित्र के बजाज स्कूटर पर पीछे बैठे, कंधे में झोला लटकाए जनता मजदूर संघ के कार्यालय की ओर उन्मुख था। जो सज्जन मेरे सारथी थे, वे बाबू सूर्यदेव सिंह का नाम सुनकर ही थरथरा रहे थे। वे एक दिन पहले पटना से आये थे। लेकिन कभी भी बाबू सूर्यदेव सिंह से रूबरू नहीं हुए थे। उन्हें रूबरू होने की बहुत लालस थी। परन्तु, भय से अपने वाहन को विपरीत दिशा में भागने की प्रवल हो रही थी उन्हें। कुछ क्षण पूर्व ही उन्हें बताया था की अभी बाबू सूर्यदेव सिंह से मिलना है।

मेरे सारथी मुझे धनबाद लोकसभा संसदीय क्षेत्र में कोयला खदानों के आसपास रहने वाले मतदाताओं से मिलाने का जिम्मा लिया था। शर्त यह था कि मैं उनके स्कूटर में पेट्रोल भरबा दूंगा और धनबाद रेलवे स्टेशन के सामने चन्द्रकला मिठाई खिला देंगे। छोटे शहरों में आम तौर पर मित्र भी गजब के होते हैं। यकींन मानिये यह यात्रा चन्द्रकला की यात्रा थी।  जैसे ही उन्हें मालूम हुआ कि मैं कुछ क्षण बाद बाबू सूर्यदेव सिंह के पास पहुँचने वाला हूँ जहाँ वे हमारा इंतज़ार करते होंगे, उन्हें पसीना छूटने लगा था। 

चाहे नेता हो या अभिनेता – ‘बौना’ आदमी कभी अच्छा नहीं लगता है। शारीरिक ऊंचाई तो ईश्वर प्रदत्त जैविक गुण है, लेकिन जन्म के बाद लोग बाग़ जब अपने शरीर को अपनी काबिलियत, सामर्थ, अपनी पेशा के अनुरूप संवारते हैं, तदनुरूप बनाते हैं; तो बेहतर ही नहीं, बेहतरीन लगता है। बाबू सूर्यदेव सिंह इसी श्रेणीं में थे। एक तो बलिया का राजपूत और दूसरा कोयला क्षेत्र में मजदूरों का नेता – खूब जमता था। 

सूर्य भगवान भी समय के साथ साथ आसमान में क्रमबद्ध तरीके से ऊपर चढ़ रहे थे। उनकी भी समय सीमा थी। उन्हें भी भारतीय समय के अनुसार भारतीय ब्रह्माण्ड को प्रकाशित रखकर संध्या होते-होते पृथ्वी के किसी अन्य देशों को प्रकाशमान करना होता था। वे भी प्रकृति के नियम से बंधे थे। प्रकृति का नियम तो निश्चित हैं। इस भूमि पर नियम तो मनुष्य बनता है, तोड़ता है, मरोड़ता है – अपने-अपने फायदे के अनुसार। 

अगर ऐसा नहीं होता तो भारतीय संविधान में परिवर्तन नहीं होता; भारतीय न्यायिक व्यवस्था में करीब चार करोड़ भारतीय नागरिकों के न्याय की उम्मीद में मुकदमें दशकों-दशक से लंबित नहीं होते। मनुष्य कुछ भी कर सकता है, उसमें भी जो सामर्थवान हो। बहरहाल, मेरे सारथी का स्कूटर जनता मजदूर संघ के दफ्तर के सामने रुकी। महाशय अपने माथे को जिस गमछी से बांधे थे, उसे खोलकर पहले सर पोछे, फिर चेहरे को गमछी का दर्शन कराये। 

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उस ज़माने में धनबाद इलाके में बिना हैलमेट का चलना अपराध नहीं, बल्कि शान समझा जाता था। वैसे भी स्थानीय पुलिस कितनी सतर्क होती थी, इस बात की चर्चा रणधीर बाबू जिस दिन अंतिम सांस लिए, उस कहानी में लिखेंगे। लेकिन यकीन मानिये तत्कालीन पुलिस इस बात से अनभिज्ञ थी कि ‘हैलमेट’ भी ‘कमाई’ का एक ‘स्रोत’ हो सकता हैं, अन्यथा कितने महात्मन को यत्र-तत्र-सर्वत्र दबोच कर वसूली करती। 

मैं कंधे में लटके झोले से अपना ‘द्वितीय अंग वस्त्र’ निकला मुंह-हाथ साफ़ किया और कदमताल करते दफ्तर की और उन्मुख हुआ। बाहर तैनात सुरक्षा कर्मी नाम से नहीं, लेकिन चेहरे से परिचित थे। वे बाबू सूर्यदेव सिंह के घर पर भी देखे थे। अतः बिना किसी व्यवधान के मैं दो चार कदम और बढ़ाया। आखिर ‘फॉर्मेलिटी’ भी कोई चीज थी और वे उसी उद्देश्य से वहां काम भी करते थे। अतः सूचना पहले अंदर पहुंचाए। अंदर से ‘ग्रीन सिग्नल’ मिलने पर ही मैं क्या कोई अन्य महामानव आगे बढ़ सकते थे। 

कुछ सेकेण्ड में सुरक्षा कर्मी मुस्कुराते हुए मुखरित हुए। तीन दशक से भी अधिक समय बीत गया, सुरक्षा कर्मियों के लिए उनकी शारीरिक भाषा में (हामी पर मुस्कुराते आपका स्वागत करना) नहीं बदला है। मुझे भी बहुत अच्छा लगा जब मुझ जैसे पसेरी-टाईप शरीर वाले पत्रकार को, जिसका धनबाद जैसे शहर में कोई वजूद नहीं था, पैदल चल-चलकर दर्जनों चप्पल सड़क के किनारे फेंका था – सिवाय ‘एक कलम’ के – बाबू सूर्यदेव सिंह के दफ्तर के बाहर कंधे पर आधुनिक बन्दूक और कमर में गोलियों का डरकश से सज्ज चौकन्ना और पहलवान जैसा व्यक्ति मुझे देखकर मुस्कुराये, अभिवादन किया। 

अपने  सहयोगियों से घीरे बाबू सूर्यदेव सिंह सामने की कुर्सी पर बैठे थे। वही शारीरिक भाषा। वही तेवर। चेहरे पर वही चमक। बाएं हाथ की कलाई पर चमकती घड़ी। सफ़ेद धोती, कुर्ता पहने धनबाद के सैकड़ों-हज़ारों कोयला मजदूरों के मसीहा बैठे थे। अपने  दाहिने हाथ की पहली और बूढ़ी उँगलियों को एक साथ सटाते – जैसे हम सभी एक चुटकी का संकेत देते हैं – दिखाते मुझे  बैठने का इशारा किये। कुछ क्षण में सबों से बातचीत कर उन्हें विदा किये और फिर मेरी और मुखातिब हुए। 

फिर एक क्षण रुके और कहते हैं: “उस दिन आप सवाल पूछे थे कि मैं संसद का चुनाव क्यों नहीं लड़ता जबकि धनबाद में मुझे चाहने वाले, समर्थकों की कमी नहीं है। संभव है कुछ प्रेम से वोट देंगे, कुछ भय से – लेकिन वोट तो आपको ही देंगे। आपका प्रश्न बहुत ही सटीक था। आप उस प्रश्न में मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को दर्शा दिए – कुछ प्रेम से तो कुछ भय से। क्योंकि भय बिन होत न प्रित। ”

अब तक भगवान् सूर्य हमारी कुर्सी से कोई 30 डिग्री कोण पर पहुँच गए थे। कतरास मोड़ की जमीन पर चतुर्दिक फैला कोयला भी धीरे धीरे अपने शीत को समाप्त कर तप रहा था। अक्टूबर का अंत था। मौसम बदल रहा था। मैं मन ही मन यह सोच रहा था कि आज जाते समय ही धनबाद डाकघर में बैठकर टेलीप्रिंटर से अपने कलकत्ता दफ्तर (दी टेलीग्राफ) कहानी भेज दूंगा। 

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तभी बाबू सूर्यदेव सिंह कहते हैं: “धनबाद में छह विधानसभा क्षेत्र हैं और एक लोक सभा क्षेत्र। लेकिन जब चुनाव आता है, पटना से दिल्ली तक सभी लोगों की निगाहें झरिया पर ही टिकी होती है। हमारे लिए झरिया महज विधान सभा क्षेत्र नहीं है, बल्कि एक जीवन मुकाम है। एक घर है। एक परिवार है। यहाँ की मिटटी में हम, हमारा परिवार, गाँव के लोग, समाज के लोग, सगे-सम्बन्धी ही नहीं, बल्कि कोयला क्षेत्र में सांस लेने वाला प्रत्येक मजदुर, उसका परिवार, उसके बाल-बच्चे) पला है, बड़ा हुआ है, बड़ा हो रहा है। हमारी यह दुनिया भले झरिया विधान सभा के नाम से जाना जाता हो, लेकिन यही दुनिया हम सबों के लिए ब्रह्माण्ड है। इस ब्रह्माण्ड पर हज़ारों लोगों की निगाहें टिकी है। सभी झरिया पर राज करना चाहते हैं। लेकिन आप ही बताएं कि जहाँ की मिटटी में हम सभी पले, बड़े हुए, उसे छोड़कर सांसद क्यों बने? वैसे भी मैं भारतीय संसद के लिए नहीं बना हूँ। हम बिहार विधान सभा के लिए ही ठीक हूँ, संतुष्ट हूँ।”

मैं टुकुर-टुकुर बाबू सूर्यदेव सिंह के चेहरे और मुख से निकलते शब्दों से चेहरे के भाव को पढ़  रहा था। मैं जिस व्यक्ति के सामने बैठा था, उस व्यक्ति के सामने बैठने के लिए ‘हिम्मत’ की नहीं ‘उसके प्रति भाव’ की जरुरत होती थी। उस दिन मेरी उम्र उनकी उम्र से आधी से दो चार साल अधिक थी। शारीरिक वजन 60 फीसदी कम। शब्दों के साथ उनके चेहरे से अपने विधानसभा क्षेत्र झरिया और झरिया के लोगों के लिए जो सम्मानार्थ-प्रेम भाव दिख रहा था, उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है। 

बाबू सूर्यदेव सिंह आगे कहते हैं: “हमारे लिए जैसे बच्चा है, जैसे रामाधीर है, जैसे राजन है, जैसे हमारे बच्चे हैं, जैसे उसके बच्चे हैं; झरिया और कोयला क्षेत्र के लोग हैं। हम खून के सम्बद्ध के आधार पर भावनात्मक और संवेदनात्मक संबंधों को नहीं बाँट सकते हैं। यह एक संवेदनात्मक सम्बन्ध है। हम सभी अगर झरिया को छोड़ देंगे तो कोई और लपक लेगा। प्रकृति का यही नियम है।” 

झरिया विधानसभा क्षेत्र बाबू सूर्यदेव सिंह का  कर्मभूमि था। उनकी पहचान थी। झरिया में उनकी परछाई दिखती थी।  बाबू सूर्यदेव सिंह झरिया से चार बार क्रमशः  1977, 1980, 1985 और 1990 में विधानसभा चुनाव जीते।  उनकी बातों को मैं सुन रहा था और मन ही मन मुस्कुरा रहा था। मेरी हंसी को वे अन्यथा नहीं ले रहे थे। वे समझ रहे थे आगे कुछ शब्द निकलने वाले हैं। 

मैं बहुत ही शालीनता से उनसे पूछा कि अगर आप संसदीय चुनाव कभी नहीं लड़ना चाहते, तो यह मान लूँ की आप अरुण बाबू  (अरुण कुमार रॉय @ए के रॉय) को मदद करेंगे ? या आपके मन में कुछ और चल रहा हैं? वे क्षणभर रुके और लंबी उच्छ्वास के साथ कहते हैं: “रॉय साहेब बहुत ही सम्मानित हैं। शिक्षित हैं। एक अभियंता है। एक अधिवक्ता के पुत्र हैं। आज के युग में पढ़ा लिखा आदमी कहाँ किसी मजदुर के हक़ के लिए लड़ता है।”

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बीच-बीच में लोगों का, मजदूरों का, उनके शुभचिंतकों का, उनके समर्थकों का, आतंरिक-सूचना देने वालों का, खाकी वस्त्र पहने लोगों का, सफ़ेद कुरता-पैजामा पहने मूछों की निकलती रेखाओं जैसी नए-नए नेताओं का, मदद मांगने वालों का आना-जाना जारी था। कुछ पास जाकर अपनी बात कहते थे, तो कुक्ष्च कान में फुस-फुसाकर। बाबू सूर्यदेव सिंह उनके कार्यों को निष्पादित करने में तनिक भी बिलम्ब नहीं करते थे। 

लेकिन जैसे ही वह कार्य समाप्त होता था, मेरे साथ उनकी बातचीत का सिलसिला उन्ही शब्दों के साथ प्रारम्भ होता था, जहाँ के उसे छोड़े होते थे। बाबू सूर्यदेव सिंह कहते हैं: “रॉय साहेब के साथ मेरी बहुत अधिक सैद्धांतिक मतभेद है और जीवन पर्यन्त रहेगा। लेकिन इस बात को भी तो इंकार नहीं किया जा सकता है मैं उनके सामने अशिक्षित हूँ । रॉय साहब इस कोयला अंचल में बहुत शिक्षित मजदूर नेता हैं । उनकी भाषा  और शब्द बहुत सुसज्जित है। आप लिख लीजिये इस संसदीय चुनाव में रॉय साहब ही जीतेंगे।”

वैसे भी, आप लिख लीजिए, आने वाले समय में मजदूरों के नाम पर भारत के राजनीतिक बाजार में खुलेआम व्यापार किया जायेगा। राजनेता लोग मजदूरों, किसानों के नाम पर दुकानदारी करेंगे और फायदा बड़े-बड़े उद्योगपतियों को मिलेगा।” इन बातों को कहते समय बाबू सूर्यदेव सिंह का चेहरा तमतमा गया था। दोनों कान के बगल से माथे की ओर जाने वाले नशें तन गयी थी। यह इस बात का गवाह था कि उनका रक्तचाप बढ़ गया है। 

ज्ञातव्य हो कि रॉय साहब के माता-पिता ब्रिटिश विरोधी कार्यकर्ता थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। कारावास की सजा काटे थे। सन 1966-1967 में श्रमिकों की हड़ताल हुई और उस हड़ताल के समर्थन में रॉय बाबू नौकरी छोड़ मजदूरों के समर्थन में राजनीति में कदम रखे।  रॉय साहब कभी विवाह नहीं किये। कोयला क्षेत्र का मजदुर और उसका परिवार ही उनका परिवार था। रॉय साहब, झारखंड की क्षेत्रीय पार्टी मार्क्सवादी समन्वय समिति (एमसीसी) के संस्थापक तो थे ही, वे 1967, 1969 और 1972 में बिहार विधानसभा में सिंदरी सीट का प्रतिनिधित्व किया तथा 1977, 1980 और 1989 में भारतीय संसद (लोक सभा) में धनबाद लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व किया। 

क्रमशः

रॉय साहब कोयला क्षेत्र के “संत” थे। सं 1971 में अलग झारखण्ड राज्य बनाने की मांग की शुरुआत किये। सं 2019 के 21 जुलाई को 84 वर्ष की आयु में धनबाद के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। 

(बाबू सूर्यदेव सिंह और रॉय बाबू दोनों को नमन।  ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दें) 
तस्वीर: जयदेव गुप्ता और कतरन संडे पत्रिका (आनंद बाजार पत्रिका समूह)

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