सर यौ !! ‘डाक्यूमेंट्स’ तो कतौ था, लेकिन ‘दीमक’ खा गया, ‘बारिस’ में भींग गया, ‘बाढ़’ में दह गया (भाग-17)

दरभंगा और दस्तावेजों की स्थिति 

दरभंगा / पटना : कभी आराम से सोचियेगा तब मालूम होगा कि सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ बिन्देश्वर पाठक और दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की अगली पीढ़ी में क्या अंतर है? जिस दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हुई थी उस दिन बिंदेश्वर पाठक “बालिग” नहीं हुए थे। “डॉ” का “तगमा” तो मिलो दूर की बात थी। आज महाराजाधिराज की मृत्यु के 60-साल बाद, महाराजाधिराज, या यूँ कहें कि दरभंगा राज का 400-वर्ष पुराना ऐतिहासिक दस्तावेजों के अधिकांश भाग को या तो दीमक खा गया, बारिस में भींगकर नष्ट हो गया या फिर बाढ़ में दह गया। जो है, वह उपेक्षित है और स्थिति “दुःखद” है । लेकिन बिंदेश्वर पाठक “नाबालिग” से “बालिग” हुए और भारत ही नहीं, विश्व के कोने-कोने से शौचालय के इतिहास को, धरोहरों को एकत्रित कर 400-नहीं 1400 वर्षों का ऐतिहासिक दस्तावेजों को एकत्रित कर “शौचालय का अजायबघर” बना दिया, जिसे विश्व के कोने-कोने से विद्वान, विदुषी, शोधकर्ता देखने आते हैं। वैसे राज दरभंगा के ऐतिहासिक दस्तावेजों का वर्तमान हालत देखकर ‘शौचालय का अजायबघर’ भी ‘अश्रुपूरित’ है। 

समाज के पढ़े-लिखे, शिक्षित, विद्वान, विदुषी, निपुण, कुशल, अनुशासित, शोधकर्ताओं के लिए जब आज “कागजों” के महत्व को नहीं समझते, तो अन्य लोगों से क्या अपेक्षा कर सकते हैं। दरभंगा के महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद दरभंगा राज में राज-परिवार के लोगों को उनकी सम्पत्तियों से जो भी लाभ हुआ हो, एक जीव को विगत 60-वर्षों से “भोजन” के लिए चहारदीवारी से बाहर नहीं निकलना पड़ा। उस जीव के पुस्त-दर-पुस्त उस अमूल्य सम्पत्तियों को बिना रोक-टोक के “चट्ट” करता आ राह है और उसकी कई पीढ़ियां आगे भी चट्ट करती रहेगी  – दीमक। समय दूर नहीं है जब दरभंगा राज की वर्तमान और आने वाली पीढ़ियां कहेंगी कि यह भवन उनकी थी, वह जमीन उनकी थी, वह किला उनका था, वह उद्योग उनका था, वह कॉटेज उनका था, वह आम-बागान उनका था  – तो लोग-बाग़ उनकी ओर देखकर पहले तो हंस देंगे, फिर कहेंगे कोई “दस्तावेज है क्या? या सुखले हाँक-रहे हैं? लेकिन चेहरे पर बिना किसी सिकन के दरभंगा राज के लोग, उनके वंशज, उनकी पीढ़ियां एक-दूसरे का चेहरा देखते पहले मुस्कुरायेंगे और फिर कहेंगे: “वह तो रद्दी में बिक गया, वह तो पानी में भींगकर गल गया, उसकी जरुरत नहीं समझे इसलिए नहीं रखा” इत्यादि-इत्यादि  !!  दरभंगा राज के ऐतिहासिक दस्तावेजों का हाल “बेहाल” है। 

स्थानीय लोगों का कहना है कि महाराजाधिराज के वसीयत के अनुरूप उनकी सम्पत्तियों के लाभार्थियों को भले ही महाराजाओं के आधिकारिक दस्तावेजों की दशा को देखकर “ग्लानि” नहीं हो, परन्तु, मिथिलाञ्चल के लोगों के लिए, बिहार प्रदेश के लोगों के लिए, बिहार विधान सभा, विधान परिषद् में बैठे सफेदपोश नेताओं के लिए, प्रदेश के मुख्य मंत्री के लिए, प्रदेश के अधिकारियों के लिए  इससे अधिक “शर्मनाक” बात कुछ और नहीं हो सकती। वैसे भी, राज दरभंगा के बाहर जितने राजनेतागण है, पंचायत से संसद तक शोभायमान हैं, उनमें पचास से अधिक फीसदी लोगों की मानसिक दक्षता उतनी नहीं है कि महाराजाधिराज के उन दस्तावेजों को समझ सके। शेष बचे लोग दस्तावेजों में “जमीन का दस्तावेज” पहले देखेंगे, किसी आम बागान का कागज़ पहले देखेंगे, या उन दस्तावेजों को देखने का यत्न करेंगे जिनसे उन्हें “लाभ” हो। वजह भी है – जब महाराजाधिराज के परिवार वाले, परिजनों की नजर में उन दस्तावेजों की कोई पूछ नहीं है, तो मोहल्ले वालों, गाँव वालों के लिए तो उसका “रद्दी” होना स्वाभाविक ही है। 

दरभंगा और दस्तावेजों की स्थिति 

पिछले दिनों दिल्ली के पालम स्थित सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन का दफ्तर गया था। विषय था विश्व का एकलौता शौचालय संग्रहालय पर एक किताब लिखना। शौचालय संग्रहालय में प्रवेश के साथ ही कोई भी व्यक्ति स्वयं को एक अलग दुनिया में महसूस करता है। वहां रखे पुस्तिका पर विश्व के अनेकानेक सर्वश्रेठ महानुभावों, मोहतरमाओं, विद्वानों, राजनेताओं, कॉर्पोरेट जगत के लोगों, फ़िल्मी अदाकारों, अधिकारियों की इस संग्रहालय के प्रति सोच का जीवंत हस्ताक्षर था। वे सभी हस्ताक्षर इस बात का गवाह है कि शौचालय के क्षेत्र में बिहार के एक पिछड़े जिला (वैशाली) में जन्म लिया व्यक्ति, बाबू कुंवर सिंह के जिले से अपने कर्म की शुरुआत कर, बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं, विश्व के दर्जनों दर्जनों देशों में स्वच्छता और अल्प-व्यय पर शौचालय की व्यवस्था का पताका कैसे फहराए ? देश के राष्ट्रपतियों से लेकर प्रधान मंत्रियों तक उनके कार्यों को न केवल ह्रदय से सराहा, बल्कि देश के सम्मानित नागरिक सम्मान – पद्मभूषण, पद्मविभूषण से अलंकृत भी किये। विश्व के अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने भी सुलभ संस्थान और इस प्रयास के संस्थापक डॉ बिन्देश्वर पाठक को विभिन्न सम्मानो से अलंकृत किये हैं। यह एक गर्व की बात है बिहार ही नहीं देश के प्रत्येक नागरिकों के लिए। 

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सुलभ के डॉ बिन्देश्वर पाठक लगभग 19 वर्ष के रहे होंगे, जब दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अंतिम सांस लिए थे। यानी उस समय डॉ पाठक “वयस्क” या “बालिग” नहीं हुए थे और उनके हमउम्र के कई लोग, महिला भी, पुरुष भी, दरभंगा राज के अंदर थे। लेकिन दोनों की मानसिकता में आसमान – जमीन का अंतर था। जो महाराजा की की सम्पत्तियों पर तो विशेष ध्यान दिए, लेकिन दस्तावेज उपेक्षित रह गया और “परजीवी” के रूप में आज भी अपने पुरखों के नाम और संपत्ति के कारण ही जाने जाते हैं। जबकि डॉ पाठक,  पूरे विश्व से “शौचालय के दस्तावेजों को एकत्रित” कर एक ऐसे इतिहास की रचना किये, जिसे आने वाले समय में विश्व की पीढ़ियां भी धरोहर के रूप में सुरक्षित रखेगी। यह अलग बात है कि राज दरभंगा ही नहीं, भारत के अनेकानेक राजा-महाराजा के घरों में आज भी लोग शौचालय जाते होंगे, परन्तु उन्हें भी शौचालय के अभ्युदय के इतिहास को समझने सुलभ ही आना होगा।  

सुलभ-यात्रा के बाद, दरभंगा के मिथिला विश्वविद्यालय परिसर स्थित दो बड़े-बड़े कक्षों में, रामबाग प्रवेश द्वार के अंदर स्थित भवनों में दरभंगा के राजाओं और उनके सम्पत्तियों, जमीनों, जायदातों, आज़ादी की लड़ाई में भारत के राजनेताओं को, चाहे महात्मा गाँधी हों अथवा नेताजी सुभाष चंद्र बोस किस-किस तरह से मदद की गयी, से सम्बंधित और न जाने कितने ऐतिहासिक कागजातों/दस्तावेजों/अलंकरणों की जो हालत देखी, उसे देखकर भारत का एक-एक नागरिक रोएगा। एक-एक नागरिक न केवल बिहार सरकार बल्कि दरभंगा राज की वर्तमान पीढ़ियों की मानसिक नपुंशकता को कोसेगा। यह दुर्भाग्य है। यह शर्म की बात है। 

दरभंगा राज की शुरुआत आम तौर पर राजा महेश ठाकुर से प्रारम्भ होता है और राजा गोपाल ठाकुर, राजा परमानन्द ठाकुर, राजा शुभंकर ठाकुर, राजा पुरुषोत्तम ठाकुर, राजा नारायण ठाकुर, राजा सुन्दर ठाकुर, राजा महिनाथ ठाकुर, राजा निरपत ठाकुर, राजा रघु सिंह, राजा विष्णु सिंह, राजा नरेंद्र सिंह, राजा प्रताप सिंह, राजा माधो सिंह, राजा छत्रसिंघ बहादुर, राजा महेश्वर सिंह बहादुर, राजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर, राजा रमेश्वर सिंह बहादुर होते हुए महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर का नाम लेकर और उनकी सम्पत्तियों (यह महज उनकी बात नहीं थी, बल्कि इससे सम्पूर्ण मिथिला और बिहार प्रदेश का सम्मान जुड़ा है) की वर्तमान दशा देखकर अन्तःमन अश्रुपूरित हो जाता है। इन राजाओं ने, महाराजाओं ने विगत 600 वर्षों से भी अधिक समय से तिरहुत के अधिष्ठाता रहे – उस दरभंगा राज से सम्बंधित, राज के नागरिकों से सम्बंधित, लाखो-लाख एकड़ जमीनों से सम्बंधित, उद्योगों से सम्बंधित, राजनायिक सम्बन्धो से संबधित, और न जाने क्या-क्या से सम्बंधित दस्तावेज अपने जीवन की अंतिम सांसे ले रही है। कभी बारिस के पानी में भींगकर अपने पूर्व महाराजाओं को कोसती है की अपने साथ उसे भी क्यों न ले गए, तो कभी उन समयांतराल के अधिकारियों को अन्तः मन से बद्दुआएं देती है कि जिस वस्तु/सामग्रियों से सम्बन्धित ये सभी कागजातें हैं, दस्तावेज हैं, उन वस्तुओं और सामग्रियों को तो अपने अपने हितों में कौड़ी के भाव लूट लिए, बेच दिए, फिर मुझे क्यों रखा गया है? ऐसा लगता है की उन दस्तावेजों से बहती आंसू स्वयं उन कागजातों को मिटटी में मिला देगी, दफ़न कर देगी। वैसे दरभंगा राज को जिसे जो लूटना था, लुटे लिए – कुछ अपने, कुछ अपनों के अपने, कुछ पराये, कुछ गाँव वाले, कुछ मोहल्ले वाले। महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु अक्टूबर, 1962 में हुई थी। 

दरभंगा और दस्तावेजों की स्थिति 

वृहद्विष्णु पुराण के मिथिला-माहात्म्य खंड में कहा गया है कि गंगा से हिमालय के बीच 15 नदियों से युक्त परम पवित्र तीरभुक्ति (तिरहुत) है। यह तीरभुक्ति (तिरहुत) ज्ञान का क्षेत्र है और कृपा का पीठ है। लेकिन अब कहाँ वह मिथिला और कहाँ मिथिला माहात्म्य के शब्द – सभी सफ़ेद से सीपिया और फिर सिपिया से दम तोड़ते कागज़ में बदल गए। अब तो उन कागजातों, दस्तावेजों को देखने वाला, पढ़ने वाला, समझने वाला, संरक्षित रखने वालों का ‘अभाव’ ही नहीं ‘किल्लत’ हो गयी है। समय दूर नहीं हैं जब उन्ही “किल्लत वाली मानसिकता के कारण आने वाले समय की पीढ़ियां पूछेंगी कौन थे महाराजा दरभंगा? कौन थे महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह? कौन थे महाराजा रामेश्वर सिंह? कौन थे महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह? क्योंकि महाराजा कामेश्वर सिंह के बाद तो अगली पीढ़ियों को कोई जानता ही नहीं। 

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यहाँ मिथिलांचल के लोगबाग अपनी संस्कृति और सभ्यता को लेकर फकरा (कहावत) पढ़ते नहीं थकते “पग-पग पोखरी, माछ, मखान, सरस बोली मुस्की मुख पान ” – फकरा पठन-पठान की क्रिया सुवह-सवेरे से प्रारम्भ हो जाता है। सुवह सवेरे हाथ में लोटा लेकर, गाल के नीचे खैनी दबाकर, थूक से भरा मुँह को आसमान की ओर करके ताकि वस्त्र पर थूक न लुढ़क जाय- फकरा गाते मिथिलांचल की सड़कों को, खेतों को नापते चलते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि मिथिलांचल में जहाँ मैथिली भाषा की तूती बजती थी, आज औसतन हज़ार घरों में दस घर भी नहीं मिलेंगे जहाँ प्रत्येक व्यक्ति मैथिली भाषा बोलने का पक्षधर हो। देश की राजभाषा हिन्दी या फिर अपभ्रंशित भाषा प्रत्येक लोगों के जिह्वा पर आधिपत्य जमा बैठी है। मजाल है कोई हिला दे उसे। मिथिलांचल में अब पाठ्य-पुस्तकों की दुकान नदारद हो रही हैं। पुस्तकालय-वाचनालयों की स्थिति मरणासन्न हो गयी हैं। कई एक तो मरकर उसके ईंट-पत्थर भी मिट्टी में मिल गई। मिथिला चित्रकला, जिसे लोग प्रदेश का धरोहर मानते हैं, का बिचौलियों से सत्यानाश कर दिया है। कलाकारों की पूछ ही नहीं है। कुकुरमुत्तों की तरह नेता गली-कूची पनप रहे हैं, फल-फूल रहे हैं। आम लोगों की जिंदगी बद-से-बत्तर हो गयी है। रोजी-रोटी के लाले पर रहे हैं।  रोजगार-व्यापार तो कब के मृत्यु को प्राप्त कर लिया है। शिक्षा और शैक्षिक व्यवस्था टूट गयी है। 

बात सत्तर के दसक की है। महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु को बारह साल हुआ था और उनके द्वारा बनाये गए सम्पत्ति-बंटवारे का कार्य भी तत्कालीन महानुभावों के द्वारा प्रारम्भ हो गया था। बंटवारे से पूर्व कहा जाता है कि महाराजाधिराज और दरभंगा राज की अमूल्य निधियों को पहले ही “इधर-उधर” कर दिया गया था। उसी क्रम में लोगों को उन सम्पत्तियों से सम्बंधित, अथवा जमीन-जायदातों से सम्बंधित कोई कागजात/दस्तावेज नहीं मिले, तत्कालीन अधिकारियों ने स्थानीय कूड़े खरीदने वालों के हाथ बेच दिया था। कहा जाता है कि इस कार्य में कुछ ऐसे लोग सम्मिलित थे जो पटना से प्रकाशित महाराजा द्वारा स्थापित समाचार पत्रों (आर्यावर्त-इण्डियन नेशन) में न्यूज-प्रिंट की आपूर्ति करने और फिर रद्दी खरीदने का ठेका लिए थे, के हाथों बेच दिए। साल था सन 1974 और जय प्रकाश नारायण का आंदोलन सम्पूर्ण क्रांति की शुरुआत भी हो गयी थी। 

राज दरभंगा का ‘संवेदनशील दस्तावेजों से भरा दो ट्रक जब दरभंगा की सड़कों पर पहुंची थी, दरभंगा आये फ्रेंच शोधकर्ता ने इसे देख लिया। शोधकर्ता राज दरभंगा और महाराजाओं पर शोध कर रहे थे। वे तत्काल भारत के प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को तार के माध्यम से, ट्रंक-कॉल के माध्यम से इसकी जानकारी दिए। उन्होंने यह भी कहा की यह बहुत ही ऐतिहासिक दस्तावेज हैं जो न केवल दरभंगा राज, बल्कि आने वाले समय में शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं के लिए अमूल्य वास्तु होंगी। यह सूचना अचूक बाण के तरह कार्य किया था। परिणाम यह हुआ कि न केवल वे सभी दस्तावेज स्थानीय प्रशासन द्वार जब्द कर दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार को प्रेषित करने का आदेश दिया गया। लेकिन श्री सुभाष सिंह के एक प्रयास से यह दिल्ली नहीं जाकर बिहार सरकार और महाराजा के अभिलेखागारों में रखा गया। इसके रखने के लिए तीन सेक्शन बने – एक: विश्वविद्यालय परिसर में दो हॉल (दो सेक्शन) और महाराजा के रामबाग परिसर में प्रवेश के साथ दाहिने तरफ के एक भवन में। इसमें भी दो भाग थे – दक्षिण भाग का देखरेख करने का जिम्मा बिहार सर्कार पर और उत्तर भाग का जिम्मा राज दरभंगा पर था। अब सवाल यह है कि जब राज दरभंगा की वर्तमान पीढ़ियों को चल-अचल सम्पति बंटवारे में प्राप्त हो गई फिर उन कागजातों/दस्तावेजों का क्या? आज हालत ऐसी है कि कसी ज़माने का वह अनमोल रत्न नेश्तोनाबूद हो रहा है और कोई देखने वाला नहीं है। 

दरभंगा और दस्तावेजों की स्थिति 

इतना ही नहीं, दरभंगा राज बिहार के मिथिला क्षेत्र में लगभग 6,200 किलोमीटर के दायरे में था। ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के 18 सर्किल के 4,495 गांव दरभंगा महाराजाओं के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे। बिहार से बाहर, देश के कई प्रांतों में, असम से कन्याकुमारी तक, दरभंगा से दिल्ली तक, पटना से मद्रास, इलाहाबाद, कानपुर इत्यादि शहरों में महाराजा दरभंगा और दरभंगा राज की लाखों-लाख एकड़ जमीन थी। लेकिन की पीढ़ी उस जमीन को ढूंढकर दिखा दे तो? कहते हैं राजा-महाराजों द्वारा या किसी भी व्यक्ति के द्वारा अर्जित धन-संपत्ति-जमीन तीसरी पीढ़ी तक नहीं पहुँचती है। रास्ते में ही समाप्त हो जाती है – कुछ अपनों के द्वारा तो कुछ अपनों के अपनों के द्वारा। राज दरभंगा के साथ यह हुआ। 

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पूर्णिया में महाराज दरभंगा की गायब 15 हजार एकड़ जमीन का मामला तीस सालों से उलझा हुआ है। अरबों की जमीन फिलहाल कानून की पेचीदगियों में उलझ कर रह गया है। इस बेशकीमती जमीन की तलाश तो काफी हद तक हो गई पर उसे निकाल कर भूमिहीनों के बीच बांटने का काम नहीं हो सका है। समझा जाता है कि दरभंगा महाराज की अधिकांश जमीन घालमेल की भेंट चढ़ गई। कहा जाता है की आचार्य विनोबा भावे द्वारा चलाए गये भूदान आंदोलन के दौरान महाराज दरभंगा कामेश्वर सिंह ने पुराने पूर्णिया जिले में 15 हजार 411 एकड़ 71 डिसमिल जमीन दान में दी थी। इस जमीन का वितरण भूमिहीनों के बीच किया जाना था। दान दिए जाने के बाद महाराज दरभंगा की तमाम जमीन सम्पुष्ट हो गई थी और इसका मालिकाना हक भूदान यज्ञ कमेटी को मिल गया था।

विभागीय जानकारों के अनुसार महाराज दरभंगा ने 1953-54 में यह जमीन दान में दी थी और 1958-59 में रीविजनल सर्वे हुआ जो जमीन के घालमेल का कारण बन गया। सर्वे के दौरान महाराज दरभंगा की सम्पुष्ट अधिकांश जमीन कहीं बिहार सरकार के नाम हो गई तो कहीं उसका गैररैयती खाता खुलवा लिया गया। भूदान यज्ञ कमेटी को जब इसकी सूचना मिली तो जमीन ढूंढ़ने की मुहिम शुरू की गई। इतना ही नहीं, एक अन्य समाचार के अनुसार, 2008-09 के आसपास कृत्यानंदनगर प्रखंड में 75 एकड़ और 20 एकड़ के दो अलग-अलग मामले पकड़ में आए। मगर साधनों व सुविधाओं के अभाव में भूदान यज्ञ कमेटी इसे नहीं निकाल पायी। जिले के रुपौली क्षेत्र में महाराज दरभंगा द्वारा अलग-अलग खातों के तहत 312 एकड़ और 410 एकड़ जमीन दान में दी गई थी। कुल 722 एकड़ में से तीन सौ एकड़ में कहीं नदी-नाला मिला तो कहीं दबंगों का दखल।

जिले के निपनिया में जांच के बाद भूदान की 111 एकड़ 29 डिसमिल जमीन का राज खुला। इसमें 15 एकड़ में नदी, सात एकड़ में सड़क और 86 एकड़ जमीन गैररैयती पायी गई। मात्र 3 एकड़ 24 डिसमिल जमीन शेष पायी गई। भूदान यज्ञ कमेटी ने ऐसी जमीन को अयोग्य घोषित कर अपना काम खत्म कर लिया है पर इसके कारण भूमि विवाद की समस्या गहरी हो रही है।पूर्व के महाराजाओं के अतिरिक्त महाराजा महेश्वर सिंह (1850-1860) की मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। कोलकाता के डलहौजी चौक पर ‘लक्ष्मीश्वर सिंह’ की प्रतिमा 18.महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह – 1880-1898 तक। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय दाता थे। रमेश्वर सिंह इनके अनुज थे। 19.महाराजाधिराज रमेश्वर सिंह – 1898-1929 तक। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ का विरुद दिया गया तथा और भी अनेक उपाधियाँ मिलीं। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। 

महाराजा महेश्‍वर सिंह की मृत्यु के बाद १८६२ में कोर्ट आफ वार्ड व राजघराने के बीच हुए महत्वपूर्ण इकरारनामे का दस्तावेज भी बरामद हुआ है । इस इकरारनामे में कहा गया था कि फिलहाल महाराजा लक्ष्मेश्‍वर सिंह नाबालिग हैं, इस कारण सारी संपत्ति की देखभाल कोर्ट आफ वार्ड करेगा । सिंह के बालिग होते ही पुनः सारी जायदाद घराने को सौंप दी जाएगी । १८७९ में यानी १७ वर्षों बाद कोर्ट ने इकरारनामा के मुताबिक ही काम किया । इसके अलावा मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय का फारसी में लिखा शाही फरमान का कागजात भी मिला है । महत्वपूर्ण दस्तावेजों में राजघराने द्वारा १९वीं शताब्दी की अगली पंक्‍ति के कांग्रेसी नेताओं को लिखे पत्रों की मूल कापी भी शामिल है । कांग्रेस पार्टी को घराने द्वारा दिए जा रहे आर्थिक सहयोग की चर्चा भी कई दस्तावेजों में मिली है । 

क्रमशः 

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