​चाहिए तो यह कि मिथिला के लोग अपने-अपने गांव, प्रखंड, जिला के बारे में इतिहास को मजबूत करें, यहाँ तो प्रस्तावित राज्य के मंत्रिमंडल का गठन कर रहे हैं, लेकिन श्री बिनयानन्द झा की बात कुछ और है 

मधुबनी / नई दिल्ली : आप माने अथवा नहीं। आजकल दरभंगा के टावर चौक से दिल्ली के जंतर मंतर तक, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यालय से लेकर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के कार्यालय तक बिहार को काट-छांट कर अलग मिथिला ​राज्य बनाने की चर्चाएं आम हैं। मिथिला क्षेत्र के राजनीति में सक्रिय रहने वाले लोग न केवल प्रस्तावित अलग राज्य के निर्माण में किन-किन जिलों को बिहार से अलग कर मिथिला राज्य में​ अंकित कर देना चाहिए की सूची बनाकर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पेश कर रहे हैं, बल्कि राज्य बनने के बाद कौन-​कौन महापुरुष और महिला नए राज्य के मंत्रिमंडल में शामिल होंगे, ​कौन मुख्यमंत्री बनेंगे, कौन वित्त मंत्रीं बनेंगे, कौन शिक्षा मंत्री बनेंगे की ​मन-ही-मन सूची बनाने में भी कोताही नहीं कर रहे हैं। ​यह अलग बात है कि उत्तर बिहार इस गंगा तराई क्षेत्र के इन जिलों में राज्य के 11 नदियों की पानी के अलावे कुछ नहीं है और शैक्षिक दर का फीसदी भी महिला-पुरुष मिलकर 60 फीसदी से अधिक नहीं पहुंच पाया है।

मिथिला के महात्मनों का कहना है कि अब तक 24 जिलों को प्रस्तावित राज्य में शामिल करने का प्रस्ताव है। इन जिलों में अररिया, बेगूसराय, दरभंगा, कटिहार, खगड़िया, किशनगंज, मधेपुरा, मधुबनी, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, सहरसा, समस्तीपुर, शिवहर, सीतामढ़ी, सुपौल, पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, वैशाली, लखीसराय, मुंगेर, शेखपुरा, जमुई, भागलपुर और बांका शामिल हैं। ​जबकि ‘प्रस्तावित मंत्रिमंडल की सूची’ को ‘सार्वजनिक’ नहीं कर रहे हैं। यह अलग बात है कि दिल्ली सल्तनत में ‘मैथिली’ भाषा के ‘तथाकथित विकास और विस्तार के लिए’ राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु बना “मैथिली – भोजपुरी अकादमी” दिल्ली सरकार के “दारू का बोतल गिनने वाले भवन में स्थित है। हालात यह है कि यहाँ मैथिली अथवा भोजपुरी के अलावे सभी भाषाओं में वार्तालाप होती है और दिल्ली में रहने वाले मैथिली भाषा भाषी मुद्दत से मूक-बधिर बने हैं। यह राजनीति हैं।

बिहार सं 22 मार्च, 1912 को बंगाल से काटकर अपने अस्तित्व में आया था। लगभग 24 वर्ष बाद, 1 अप्रैल, 1936 को बिहार का पहला खंडन हुआ और उस खंडन से ओड़िसा राज्य का अस्तित्व बना। ओड़िसा राज्य बनने के कोई 64 वर्ष बाद बिहार का फिर दो फांक हुआ झारखण्ड राज्य ​बनाने के लिए। सन 2000 से पहले, तत्कालीन दक्षिण बिहार के स्थानीय लोगों की दशकों से चल रही क्रांति, जिसमें कई सौ लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दिए, 15 नवम्बर, 2000 को झारखण्ड राज्य अपने अस्तित्व में आया। अब उत्तर बिहार के गंगा तराई क्षेत्र में स्थित जिलों को काटकर मिथिला राज्य बनाने की राजनीति चल रही है। ​खैर।

इन सभी बातों की चर्चा यहाँ इसलिए कर रहा हूँ कि जिस 24 जिलों को प्रस्तावित मिथिला राज्य में शामिल करने की बात की जा रही है, उन जिलों में रहने वाले औसतन 95+ फीसदी लोग (अपवाद छोड़कर) अपने गाँव, प्रखंड और जिला के इतिहास, भूगोल से आज भी अपरिचित हैं। औसतन लोगों से यदि यह पूछा जाय कि उनके जिले के चारो तरफ किन-किन जिलों का सीमा लगा है, शायद नहीं बता पाएंगे। उनसे उनके जिलों के ऐतिहासिक तथ्यों, पुरातत्वों के बारे में पूछा जाय, उनके जिला का नाम कैसे बना, कहाँ से आया, पूछा जाय, शायद नहीं बता पाएंगे। इतना ही नहीं, वर्तमान काल में पंचायत से लेकर संसद तक उनके गांव-जिलों का प्रतिनिधित्व करने वाले जनप्रतिनिधि के बारे में जानकारी (अगर राजनीति में नहीं हैं) शायद भूल होगी। वैसे आज कुछ युवापीढ़ी इस दिशा में सक्रीय हैं ताकि सरकारी स्तर के अलावे अपने-अपने गाँव, प्रखंड, पंचायत, जिला के बारे में एक वृहत डाटाबेस बनाया जा सके।

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लेकिन, मिथिला के मधुबनी में रहने वाले श्री विनयानन्द झा की बात कुछ अलग है। पटना विश्वविद्यालय से इतिहास विषय में और मगध विश्वविद्यालय से प्राचीन भारतीय इतिहास और एशियाई अध्ययन विषय में स्नातकोत्तर की उपाधि रखने वाले श्री झा मंगरौनी गाँव के रहने वाले हैं। जीवन में वृति कुछ भी नहीं रहा लेकिन कृषि को अपने आजीविका का साधन बनाये रखे। जिस तरह खेतों में फसलों की हरियाली कभी कम नहीं होने दिए, श्री झा जीवन पर्यन्त अपने पाठ्य विषय इतिहास को भी स्वयं से दूर नहीं होने दिए। जीवन पर्यन्त सामाजिक एवं सांस्कृतिक ​क्षेत्रों में लिखते रहे। “मधुबनी : वर्तमान और अतीत​’ पुस्तक उसी ज्ञान और सोचा का परिणाम है जिसके माध्यम से बिहार के मधुबनी जिला की राजनीतिक- सांस्कृतिक इतिहास का वर्णन 18 अध्यायों में ​उन्होंने किया है। यह किताब आज की पीढ़ियों के लिए ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों के लिए भी, जो मधुबनी को समझना चाहेंगे, महत्वपूर्ण हो सकता है।

श्री विनयानन्द झा, लेखक

श्री झा कहते हैं कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास में मिथिला का योगदान सतत श्लाघनीय एवं महत्त्वपूर्ण रहा है। मिथिला की भौगोलिक सीमाएँ समय-समय पर घटती-बढ़ती रहीं और सत्ता का केन्द्र भी भिन्न काल में भिन्न स्थान पर रहा। किन्तु आदि काल से मिथिला-संस्कृति का केन्द्र वह क्षेत्र रहा जो वर्तमान में प्रशासनिक दृष्टि से मधुबनी जिला अभिहित है। इस मधुबनी जिला को थोड़ा और पश्चिम में वर्तमान सीतामढ़ी शहर तक, पूर्व में वर्तमान सुपौल-सहरसा तक एवं दक्षिण में दरभंगा जिला के तरौनी से प्रारंभ कर मनीगाछी प्रखण्ड के उजान गाँव तक विस्तारित करें तो हम पाएँगे कि इस भूखंड में मिथिला की सारस्वत अवदानों का नब्बे प्रतिशत समाहत हो जाएगा।

​किताब में कहा गया है कि प्राचीन विदेह राज की राजधानी भी इसी क्षेत्र के अन्तर्गत थी न कि वर्तमान में मान्य जनकपुर ऐसा मत कुछ गवेषकों ने व्यक्त किया है। मध्य एवं आधुनिक काल में सुगीना के ओइनवारों एवं भौर के खण्डवलाओं ने मिथिला में सुदृढ़ राज्य स्थापित किए। बौद्धिक गतिविधियों की दृष्टि से इन दोनों राजवंशों का शासन काल स्वर्ण युग कहा जा सकता है। कर्णाट काल में भी इस क्षेत्र के वीरेश्वर, गणेश्वर और चण्डेश्वर आदि महत्वपूर्ण मंत्री एवं अन्य पदों पर रहे।

​झा का कहना है कि मिथिला भूमि मोक्षदायिनी क्षेत्र कहलाती है क्योंकि यहाँ के विदेह राजा सीरध्वज ने पृथ्वी के गर्भ से जगज्जननी जानकी का प्रादुर्भाव करवाया। कालांतर में कपिल, कणाद, जैमिनी, गौतम, याज्ञवल्क्य, वाचस्पति, उदयन, गंगेश, अयाची, शंकर, पक्षधर, मदन, गोकुलनाथ एवं लक्ष्मीनाथ गोसाई आदि असंख्य महर्षियों-मनीषियों ने अपने ज्ञान और आध्यात्मिक चिन्तन एवं शिक्षण से समस्त मनवता को आलोकित किया। वास्तव में पाणिनि के अनुसार, “मध्यन्ते रिपवः अत्र इति मिथिला” अर्थात जहां वासना और अन्य बुराइयों रूपी शत्रुओं का नाश हो जाता है, वह मिथिला है। उसी मिथिला की आत्मा के रूप में सदा से, मधुबनी परिसर जाना जाता है।

बृहदारण्यकोपनिषद् की मैत्रेयी ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य ने अद्वैत ब्रह्म का वर्णन ‘मधुविद्या’ के रूप में किया है। मधुविद्या का उद्गम स्थल होने के कारण इस क्षेत्र का नाम मधुबनी पड़ा हो संभाव्य है। यह संभावना ऐसे में और प्रबल हो जाती है जब हम मधुबनी के संनिकट मंगलवनी (मंगरौनी) पाते हैं जिसका इतिहास अति प्राचीन और प्रशस्त है बृहद्विष्णुपुराण में उसे मंगलदात्री (मंगला मंगलवनीं विरजा पापहारिणीम्) ग्राम के रूप में उल्लिखित किया गया है। ‘मंगल’ का अर्थ होता है शास्त्र सम्मत आचार का पालन और मंगलवनी (मंगरौनी) गाँव विविध शास्त्रों में न मात्र उच्च कोटि के विद्वानों से सर्वदा विभूषित रहा अपितु मिथिला संस्कृति के प्रतीक के रूप में भी विख्यात रहा है।

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मधुबनी परिसर में जहाँ वैदिक पौराणिक काल में अनेक आर्षगण हुए वहीं ऐतिहासिक काल में भी कई ऐसे मनीषीगण हुए जिन्होंने समस्त विश्व में अपने प्रतिमान स्थापित किए। साहित्य की बात की जाय तो कालिदास (उच्चैठ) श्रृंगार रस के जिस शिखर पर प्रतिष्ठित हैं वहाँ कोई दूसरा पहुँचने की कल्पना भी नहीं कर सकता है। शृंगार और भक्ति रसों पर समान अधिकार रखनेवाले उत्तर भारत की क्षेत्रीय भाषाओं के आदि कवि विद्यापति (विस्फी) मधुर गीतों के लिए सदैव विश्व में समादृत रहे हैं। विद्यापति के परवर्तियों में मैथिली साहित्य को जहाँ मनबोध (मंगरीनी) ने एक नवीन दिशा दी वहीं विनोदानन्द झा ‘बीनू’ (मंगरीनी) ने इस साहित्य में नवीन रीति की रचनाओं और अतुकान्त कविताओं का श्रीगणेश किया। साहित्य अकादमी में जब मैथिली भाषा की रचनाओं को पुरस्कृत किया जाना प्रारंभ हुआ तब प्रथम पुरस्कार पानेवाले लेखक इसी क्षेत्र के यशोधर झा (सतलखा) थे। साथ ही अब तक की पुरस्कृत कृतियों में आधा के करीब लेखक इसी क्षेत्र के साहित्यकार हैं।

योगासन को सामान्यजनों में लोकप्रिय कर उसके महत्त्व को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित करने में भी इस क्षेत्र के धीरेन्द्र ब्रह्मचारी (चानपुरा) का विशेष योगदान रहा। आध्यात्मिक क्षेत्र में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों का देश में एक विशिष्ट स्थान है और वे चार धाम के रूप में प्रसिद्ध हैं। वर्तमान में उन चारों पीठों में एक पुरी के गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य श्रीनिश्चलानन्द सरस्वतीजी भी मधुबनी (हरिपुर) के हैं।​ मिथिला की लोक कलाएँ आज विश्व में न सिर्फ विख्यात हैं बल्कि ग्रामीण जनों विशेषकर महिलाओं के आर्थिक उत्थान में योगदान कर उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा अभिवृद्धि में भी महत्त्वपूर्ण रहा है। लोक कला की विविध विधाओं में भी मधुबनी क्षेत्र का वर्चस्व रहा है। इन कलाओं ने विशेषतः चित्रकला जो ‘मधुबनी पेंटिग्स’ के रूप में विश्व विख्यात है, कई ग्रामीण महिलाओं को राष्ट्रीय पुरस्कारों से विभूषित किया हैं एवं राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया है।

अंग्रेजो के खिलाफ जब 1857 में स्वतंत्रता संग्राम देश के कतिपय क्षेत्रों में प्रारंभ हुआ तव पूर्वांचल में उसका नेतृत्व बिहार के वीर कुंवर सिंह ने किया। जगदीशपुर के बाबू कुँवर सिंह के गुरु इसी क्षेत्र (मंगरीनी) के भिखिया झा थे जिनकी प्रेरणा एवं आशीर्वचनों से आप्लावित कुँवर सिंह एवं उनके असंख्य वीर अनुयायियों ने मातृभूमि की मुक्ति हेतु हँसते-हँसते अपने-अपने प्राणों की आहुति दे दी। बीसवीं शताब्दी में जब गाँधीजी के नेतृत्व में स्वातंत्र्य आंदोलन ने जोर पकड़ा तब इस क्षेत्र के युवाओं ने बढ़ कर महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। कालान्तर में उनमें से कई राजकीय एवं राष्ट्रीय राजनीति में देदीप्यमान हुए। विभिन्न राजनीतिक दलों में राज्य और राष्ट्र स्तर पर इस क्षेत्र ने अनेक नेताओं को जन्म दिया है। बिहार के कई मुख्य मंत्री जो इस क्षेत्र के नहीं थे अपने मुख्य मंत्रीत्व काल में इसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। इसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर राजनीतिक सरोवर में विहार करने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉ. गौरीशंकर राजहंस राजदूत के पद को सुशोभित कर चुके हैं तो वहीं इस क्षेत्र के आदित्यनाथ झा और धनिक लाल मंडल राज्यपाल के पदों पर विराजमान हो चुके हैं।

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गाँधीजी ने जब विदेशी वस्त्रों का वहिष्कार कर “स्वदेशी का नारा दिया तब इस क्षेत्र की महिलाओं ने चरखा चला कर मधुबनी के खादी वस्त्रों को देश में शिखर पर प्रतिष्ठित कर इस क्षेत्र को गौरवान्वित किया।​ किताब में आगे कहा गया है कि मधुबनी क्षेत्र का जो पुरातात्विक महत्त्व है उसका सही आकलन नहीं किया जा सका है। बलिराजगढ़ के उत्खनन एवं अन्य प्राचीन गाँवों के प्राचीन मंदिरों-मूर्तियों के शोधात्मक अध्ययन से इस दिशा में भारतीय इतिहास की कई अनसुलझी कड़ियों का समाधान हो सकता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से यह क्षेत्र प्राचीन काल से पुनीत माना जाता रहा है जिस कारण हम इस क्षेत्र में मंदिरों की बहुलता पाते हैं। ऐसे महत्व के कई प्रमुख स्थानों में कपिलेश्वर, विदेश्वर, मदनेश्वर, कल्याणेश्वर, चण्डेश्वर, उच्चैठ, डोकहर, सौराठ, मंगरीनी, कोइलख, भगवतीपुर, शिलानाथ, भवानीपुर, फुलहर एवं जमयरि आदि के नाम लिए जा सकते हैं। राज दरभंगा द्वारा निर्मित राजनगर, मधुवनी एवं मंगरीनी के मंदिरों एवं मूर्तियों के शिल्प स्थापत्य की दृष्टि से भव्य हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मिथिला के तीन शक्ति पीठों के रूप में प्रसिद्ध मंगरीनी, डोकहर एवं उच्चैठ न केवल तांत्रिक त्रिकोण यंत्र का रूप बनाता है अपितु उसके मध्य स्थित सौराठ का सोमनाथ शक्ति एवं शिव द्वारा सृष्टि उत्पति पालन एवं विनाश की दार्शनिक व्याख्या भी प्रस्तुत करता है।

किन्तु अति प्राचीन काल से मिथिला वैदुष्य परम्परा के लिए विख्यात रहा है। वैदिक युग हो या पौराणिक काल या फिर प्राचीन मध्य या वर्तमान काल प्रत्येक समय में भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में मिथिला के मनीषियों का योगदान श्लाघ्य रहा है। यहाँ कोई तक्षशिला नालन्दा या विक्रमशिला न रहते हुए भी यहाँ की शिक्षण परम्परा हेतु गवेषकों ने अमूर्त संस्था मिथिला विश्वविद्यालय पद का प्रयोग किया है। इस शैक्षणिक परम्परा को पल्लवित या विकसित करने के लिए कोई उल्लेखनीय राजकीय अनुदान या संरक्षण अतीत में नहीं मिलता रहा। फिर भी यहाँ के ग्रामीण आचायों ने अपने सीमित संसाधनों से भारतीय शिक्षा एवं संस्कृति के ‘विकास में जो अमूल्य योगदान किया है वह अद्वितीय है।

वैसे तो मिथिला के कई गाँवों का इस दृष्टि से अपना विशेष महत्व है लेकिन जिन ग्रामों ने इस क्षेत्र में अपना वर्चस्व रख मिथिला-संस्कृति को नेतृत्व प्रदान किया उनमें मधुबनी क्षेत्र के गाँवों की प्रधानता रही। ऐसे कुछ मधुबनी क्षेत्र के गाँव निम्नलिखित हैं: मंगरौनी, पिलखवाड़, हरिनगर, हरिपुर, भौर, रेवाम (रमा), सरिसव, पाही, तोहना, लालगांज, ठाड़ी, नवानी एवं गंगोली आदि। इन सबों में मंगरीनी, लालगंज एवं सरिसय की परम्पराएँ लम्बी एवं विशिष्ट हैं। विशेषतः मंगरीनी को दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य सदृश विद्वान् ने संस्कृत-संस्कृति का महानतम केन्द्र कहा है। भारत के इस अनुपम विद्यापीठ (मंगरौनी) में न मात्र असंख्य श्रेष्ठ आचार्य हुए अपितु विभिन्न शास्त्रों के अगणित श्रेष्ठ मनीषी और लेखक भी हुए, साथ ही मिथिला और बंगाल के कई प्रमुख विद्या केन्द्र और विद्वान्गण इसी विद्यापीठ की देन हैं। न्याय शास्त्र की एक विशिष्ट शाखा जो नव्यन्याय के रूप में प्रसिद्ध है उसका प्रादुर्भाव भी यहीं हुआ जिसका प्रसार कालान्तर में सरिसव होकर मिथिला के श्रोत्रिय क्षेत्र में एवं वंगाल के नरद्वीप होकर शेष भारत में हुआ।

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