रामबाग परिसर में रहने वाली आज की पीढ़ी तो फोन भी नहीं उठाते, सुभाष चंद्र बोस के लिए लिखित इस पत्र की अहमियत को क्या समझेगी ?

जब सुभाष चंद्र बोस, परिवार महाराजाधिराज दरभंगा से मदद निवेदन किये

दरभंगा / दिल्ली : जल्लियांवाला बाग़ निर्मम हत्याकांड का अभी 19-वर्ष हुआ था। साल था सन 1938 और देश में बिहार और बंगाल के नेताओं के बीच कमर-कस उठापटक हो रहा था। बंगाल के अग्रणी नेता थे सुभाष चंद्र बोस। सुभाष बोस को बिहार के नेताओं के साथ ठन गई थी। दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के अतिरिक्त भारतवर्ष में कोई भी दूसरा महात्मन नहीं था, जो बिहार के नेताओं और सुभाष बोस के बीच मध्यस्थता कर दोनों के चेहरों पर मुस्कान ला सकें। महाराजा डॉ सर कामेश्वर सिंह अपने पिता महाराजा रामेश्वर सिंह और चाचा महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह से संवेदनशील होने, बने रहने का वह सभी पाठ पढ़े थे, जो तत्कालीन भारतीय समाज, बिहार के समाज और मिथिला के समाज के उन्नयन के लिए आवश्यक था। खैर…. आज की पीढ़ी के लिए यह बात महत्वहीन है। 

उधर, भारतीय राजनीतिक मानचित्र पर आज़ादी हासिल करने के लिए इन्किलाब-जिंदाबाद के नारे बुलंद हो रहे थे। तभी कलकत्ता के श्री एच एन गुहा रे को एक बात सूझी – क्यों न महाराजाधिराज दरभंगा को बिहार के नेताओं और सुभाष बोस के बीच की खाई को समतल करने के लिए लाया जाए क्योंकि उनके अलावे दूसरा कोई विकल्प नहीं था। उन दिनों बिहार का नेता का वास्तविक अर्थ ‘देश का नेता” होना होता था। आज जैसी स्थिति नहीं थी की सभी बिहारी नेता अपना-अपना मुंह फाड़े दिल्ली की ओर देखते रहें। जो दिल्ली उवाचेगी, वही मान्य होगा। अपनी सोच, समाज और राष्ट्र के प्रति अपना कर्तव्य बोध को पटना के गांधी मैदान में नीलाम कर, सामाजिक सरोकार को तिलांजलि देकर, स्वहित में कारोबार करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो आज बिहार का हश्र भी ऐसा नहीं होता। अभी क्या हुआ है, धीरज रखें – आने वाला समय बदतर होने वाला है।     

उस दिन बैसाख का अंतिम दिन था। श्री एच एन गुहा रे दिनांक 14 अप्रैल, 1938 को दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह को एक पत्र लिखे। पत्र में लिखा था: 

“Your Highness,

My respectful Pronam to your Highness on the last day of Baishakh which falls on to-day. I pray to God for your Highness ‘long, healthy and peaceful life.’

I saw Boses – they have already spoken about the compromise to Behar leaders. Mr. Sarat Bose, who will proceed to Darjeeling for some time, asked me to get a copy of the terms of Compromise so that he may send me, with a letter of introduction to Behar leaders – if you approve of it kindly instruct.Awaiting the pleasure of hearing from you soon.

I remain,
Your Highness’
Most obedient servant”

   
महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह को मृत्यु को प्राप्त किये महज 60 वर्ष हो रहे हैं। उन्होंने अपने पिता-चाचा से जो संवेदनशीलता, विश्वसनीयता का सबक सीखा, जिसके कारण सुभाष बोस जैसा परिवार निर्णय लेने में महाराजा के विचारों को महत्व दिया, उनके निर्णय को स्वीकार करने में कोई कोताही नहीं किया – क्या ‘संतानहीन’ महाराजाधिराज की अगली पीढ़ियां ऐसे सम्मान को स्वप्न में भी देख सकते हैं? शायद नहीं। मिथिला के लोगों की तो बात ही छोड़ें। आज का रामबाग परिसर चतुर्दिक चाटुकारों, चमचों, स्वार्थियों से घिरा है और उस ‘सिमटते परिसर’ में रहने वाले लोग क्या इस पत्र की अहमियत को समझ पाएंगे? शायद नहीं। अगर समझते तो आज दरभंगा ही नहीं, बिहार ही नहीं, भारत की राजधानी दिल्ली में दरभंगा राज का यह हश्र नहीं होता। अगर समझते तो आज दिल्ली में महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह, महाराजा डॉ सर कामेश्वर सिंह की प्रतिमा भी दिखाई देती । 

उन दिन 11 अप्रैल था। शायद सं 1942 का साल रहा होगा। उस दिन दिवाकर प्रातः पांच बजकर 45 मिनट पर ब्रह्माण्ड को प्रकाशित किये थे। उसी ब्रह्माण्ड में दरभंगा भी था। कोई 13 घंटा 15 मिनट आकाश में बने रहने के बाद 6 बजकर 15 मिनट में अस्ताचल की ओर उन्मुख हुए थे सूर्यदेव । वह दिन दरभंगा राज और महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के लिए ऐतिहासिक था। नेताजी सुभाष बोस के परिवार का दरभंगा के महाराजा के प्रति सम्मान और विश्वास अपने उत्कर्ष पर था क्योंकि “श्री सुभाष चंद्र बोस के परिवार के सदस्यगण दरभंगा आये थे, महाराजाधिराज से मिलने। 

यह बात मैं नहीं, दस्तावेज कहता है। महाराजाधिराज की बड़ी पत्नी अपनी डायरी में इस बात का जिक्र की हैं। महारानी अपने जीवन के अंतिम समय तक अपने दिन चर्चा के बारे में लिखती थी। खैर, इस डायरी में लिखे शब्दों के महत्व को दरभंगा राज की आज की पीढ़ी नहीं समझेगी – अगर समझती तो आज महाराजाओं की कीर्तियों को, भारत के समाज में उनकी गाथाओं को, दरभंगा राज की गरिमा को दरभंगा के रामबाग पैलेस से दूर-बहुत दूर तक शिलालेख पर उद्धृत कर गौरवान्वित करते होते । 

लेकिन यहाँ तो सब कुछ विपरीत हैं – जो न केवल दरभंगा राज को, बल्कि मिथिला के समाज को शर्मसार करती हैं। महाराजा तीन विवाह किये थे। बड़ी महारानी राज्यलक्ष्मी, जिन्होंने सुभाष बाबू के परिवार का दरभंगा आने का जिक्र किया, उनकी मृत्यु महाराजा की मृत्यु के बाद हुई। महाराजा की दूसरी पत्नी महारानी कामेश्वरी प्रिया महाराजा के जीवन काल में ही मृत्यु को प्राप्त की। तीसरी पत्नी महारानी कामसुन्दरी आज भी जीवित हैं। 

बहरहाल, विगत कुछ दिनों से दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, उनके अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह, उनके पुत्र महाराजा कामेश्वर सिंह का भारतीय राजनीतिक, शैक्षिक, आर्थिक, धार्मिक इत्यादि क्षेत्रों में योगदान की बातों को आधुनिक भारत के सामाजिक क्षेत्र के संवाद-सूत्र के मसीहा, आजकल उन्हें वैज्ञानिक अधिष्ठाता भी कहा जा रहा है; जो समाज से ‘भ्रम’ से ‘आक्रांत’ तक, ‘ज्ञान’ से ‘विज्ञान’ तक, ‘निर्माण’ से ‘विनाश’ तक, जनजागरण’ से ‘त्रादसी’ तक की बातें ऊँगली पर प्रचारित-प्रसारित करते हैं – बांट रहे हैं। 

श्री एच एन गुहा रे दिनांक 14 अप्रैल, 1938 को दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह को एक पत्र लिखे

मैं दरभंगा महाराज के वर्तमान पीढ़ियों जैसा मानसिक स्थिति नहीं रखता – आप चाहे फ़ोन की कितनी भी घंटियां टनटना दें, सैकड़ों, हज़ारों, लाखों संवाद लिख दें, आपको उत्तर नहीं मिलेगा। स्मार्ट शहर में रहने वाला व्यक्ति, यहाँ तक कि देश की राजधानी में दरभंगा राज के अधिष्ठाता (वैसे अकबर रोड के दरभंगा लें में स्थित दरभंगा हॉउस अब दरभंगा का नहीं रहा, बेच दिया गया) के रूप में स्वयं को स्थापित भले महसूस करते हों, एपल जैसे स्मार्ट फोन का नया संस्करण हाथ में, जेब में, लिए, गर्दन में लटकाये भले घूमते हों; आप ‘स्मार्ट मानसिकता धारक’ हों, यह आवश्यक नहीं है। 

ये भी पढ़े   2047 तक विकसित भारत के लक्ष्य को साकार करने के लिए भाषा और किताबें, संपत्ति जैसी हैं - श्री धर्मेंद्र प्रधान

वैसी स्थिति में  दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, उनके अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह, उनके पुत्र महाराजा कामेश्वर सिंह अपने जीवन काल में क्या किये, क्या नहीं किये, इन बातों पर वे क्यों ध्यान दें। अगर उतने सचेतक होते तो आज दरभंगा राज का यह हश्र नहीं होता।  यहाँ तक कि वे सभी तो दरभंगा राज में महाराजा के परिवार के लोग भी (उनके भी सम्बन्धी हैं) भी अगर मृत्यु को प्राप्त करते हैं तो उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता – क्योंकि स्थानीय अख़बारों में, स्थानीय यूट्यूब चैनलों के माध्यम से यह घोषणा कर दिया जाता है कि “साहब अभी दरभंगा राज, मिथिला की संस्कृति को पुनः स्थापित करने, बरकरार रखने की योजनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। 

वैसी स्थिति में स्वाभाविक हैं मैं अपने मोबाईल पर जैसे ही ट्रिंग-ट्रिंग होता है, फोन उठाता हूँ, जी भरकर बतियाता हूँ।  संवाद पेटी में आये शब्दों को पढता हूँ। समझने की कोशिश करता हूँ। आखिर जिस महाशय ने मुझे संवाद प्रेषित किये हैं, फोन की घंटी टनटनाये हैं, मुझे उस काबिल अवश्य समझे होंगे। “सम्मान” पर सबों का समान अधिकार है – चाहे मजदूर हो या महाराजा। लेकिन इस बात को वही समझ सकता हैं जो “सम्मान” का वास्तविक और व्यावहारिक अर्थ समझता हो। मैं तो समझता हूँ। अब अगर सामने वाला उस योग्य नहीं है तो मैं कुछ कर भी नहीं सकता। अतः, इसे मेरी राय अथवा ज्ञान देना नहीं समझें; याचना अवश्य समझें कि अगर आपके फोन की घंटी टनटनाये तो “हेलो” अवश्य कर दें। संवाद पेटी में कुछ शब्द टपके तो उसे पढ़ अवश्य लें – क्या पता यह बताने के लिए कोई फोन कर रहा हों कि आपके माता-पिता, दादा-दादी, सगे-सम्बन्धी, परिजन ईश्वर को प्राप्त कर लिए। खैर।  

विगत दिनों से सोसल मीडिया के इंटरनेट संस्करण पर कोई 403 शब्दों की कहानी निरंतर आगे प्रेषित हो रही है। इस 403 शब्दों में कोई 20 शब्द से अधिक नहीं, मूल लेखक द्वारा लिखा गया है, जो उस संवाद के जन्मदाता हैं। शेष शब्द भारतीय गूगल बाज़ार से काट कर अपने आँगन की शोभा बढाकर, अपने मोबाईल फोन में लिखित नम्बरों पर, जो ‘व्हाट्सएप’ पर उपलब्ध हैं; उन्हें ‘टनाटन” बाँट रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे वे दरभंगा राज, वहां के महाराजाओं की कीर्तियों से वे कितने प्रभावित हैं, साथ ही, उन कीर्तियों को मिथिला के समाज में बरकरार रखने के लिए कितना सरोकार रखते हों। 

विगत कई महीनों से मेरे फोन में भी बिना समय को ध्यान में रखे “टनाटन” बजा रहे हैं। कट-पेस्ट का जमाना है और मूल लेखक भी कट-पेस्ट में सम्पूर्णता के साथ विश्वास रखकर बाँट रहे हैं। बांटने में यह अवश्य ध्यान रखा जाता होगा कि प्राप्त कर्ता मिथिलांचल का अवश्य हो। क्योंकि झज्झर के लोगों को दरभंगा महाराज से क्या लेना देना – वह भी बातें जब 1888 की हो, बाते 1916 की हो जब बनारस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, बातें 1917 की हो जब पटना विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, बातें 1920 की हो जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की गई, बातें 1946 की हो जब दरभंगा मेडिकल कालेज की स्थापना की गई। 

व्हाट्सएप संवाद में इस बात का जिक्र अवश्य होता है कि दरभंगा के महाराजाओं ने यह किया, उन्होंने वह किया, वे फलनमा काम किए, वे ढिमकाना काम किये – लेकिन कांग्रेस पार्टी यह नहीं कि, फलाना नेता वह नहीं किये – आरोप-प्रत्यारोप से शब्दों का गजब का विन्यास करते हैं। भारत में कोई चार करोड़ मैथिली भाषा-भाषी हैं। दरभंगा के अंतिम महाराजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह के अनुज के तीसरी पीढ़ी के भी वंशज उन्हीं मैथिली भाषा-भाषी लोगों में एक हैं, जो दरभंगा के रामबाग परिसर में चापलूसों, चाटुकारों, चमचों, जुहुजुरी करने वालों, गुमनाम हैं। 

महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह तीन-तीन पत्नियों के होते हुए, ‘संतानहीन’ मृत्यु को प्राप्त किये। उनके अनुज राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह की दो पत्नियों में तीन पुत्र हुए। सभी तीन पुत्र और उनकी पत्नियां अब इस संसार में नहीं हैं। पीढ़ियां आगे बढ़ गयी है। इसी तरह दरभंगा और मिथिला में भी लोगों के परिवारों की पीढ़ियां तीसरी-चौथी पीढ़ियों के रूप में समाज में विचरण कर रही है। अब सवाल यह है कि अगर हम अपने परिवार, अपने पुरखों की कीर्तियों को बरकरार रखने, उनकी बातों को आज की पीढ़ियों को बताने का समर्थ नहीं रखते, यह दुर्भाग्य है। खैर 

जो संवाद व्हाट्सएप पर दौड़ रहा है, वह निम्न प्रकार है: “दरभंगा महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे। 1888 में कांग्रेस सत्र इलाहाबाद में होना था, अंग्रेजी सरकार ने निषेधा लगा दिया की किसी सार्वजनिक जगह पर कार्यक्रम नहीं हो सकता है। देशभर से कार्यकर्ता आने वाले थे, अब सार्वजनिक मैदान नहीं मिलेगा तो लोग कहां जुटेंगे, सब चिंतित थे। दरभंगा महाराज ने रातों रात इलाहाबाद का सबसे बड़ा महल खरीद लिया, अगले दिन उसी परिसर में कांग्रेस का भव्य  कार्यक्रम हुआ, कार्यक्रम के बाद महाराज ने वो महल कांग्रेस को ही दान कर दिया। आज महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह जी जन्मतिथि है। आज कांग्रेस नेतृत्व से एक ट्वीट नहीं हो पाया श्रद्धांजलि का।”

“श्रद्धांजलि तो BHU भी शायद ही कभी देता है महाराज रामेश्वर सिंह जी को। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के स्थापना में सब मदन मोहन मालवीय का नाम लेते हैं, लेकिन कोई नहीं बताता की दरभंगा महाराज यूनिवर्सिटी स्थापना के सबसे बड़े आर्थिक सहयोगी थे, उन्हीं के रिफरेंस से देशभर के महाराजाओ ने विश्वविद्यालय के लिए दान दिया। युनिवर्सिटी स्थापना के लिए जो हिंदू यूनिवर्सिटी सोसाइटी की स्थापना हुई थी उसके प्रेजिडेंट महाराज रामेश्वर सिंह ही थे। स्थापना के लिए फंड लक्ष्य था 1 करोड़ जुटाना, अकेले महाराज ने पहला डोनर बन 50 लाख रुपया एकमुश्त दिया।”

ये भी पढ़े   दरभंगा के महाराजा अपनी बहन से कहते थे: "अगर तुम बेटा होती तो दरभंगा की राजा (रानी) तुम्हीं होती" (भाग - 44)

“शायद ही कभी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अपने स्थापना के सबसे बड़े गैर मुस्लिम डोनर महाराज दरभंगा को याद करता है। ना बिहार सरकार कभी याद करती है बिहार राज्य गठन आंदोलन के सबसे बड़े सहयोगी दरभंगा महाराज को। PMCH को आज सबसे बड़ा अस्पताल बनाने में लगी है सरकार, किंतु शायद ही किसी को पता हो की उसकी स्थापना में महाराज का क्या योगदान था। DMCH में एम्स बन रहा है, सोचिए तनिक की वो कैसा महाराजा रहा होगा जिसने 70 साल पहले अपने राजधानी के बीचों बीच 250 एकड़ परिसर में अस्पताल बनवाया था। वो कैसा महाराजा रहा होगा जिसके बनाए एयरपोर्ट्स दरभंगा और पूर्णिया में उस वक्त एक्टिव हवाई सेवा थी, आ वो कैसा महाराजा रहा होगा जिसके काल में रेलवे, बिजली जैसी चीजें दिल्ली के समकाल में दरभंगा आ गई थी। वो महाराज जो  हिंदी में आर्यावर्त, इंग्लिश में इंडियन नेशन और मैथिली में मिथिला मिहिर नाम से अखबार चलाता था। वो महाराज जिनके बनाए चीनी मिल, जुट मिल, सूत मिल, पेपर मिल आदि के बंद पड़े कारखानों से स्क्रैप बेचकर लोग करोड़पति हो गए। खैर मैं कांग्रेस, BHU, AMU आदि को क्या दोष दूं, जब खुद मैथिल याद नहीं करते। जन्मतिथि पर दरभंगा महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह जी को नमन श्रद्धांजलि ”

बस खुश हो जाइए। 

दरभंगा की बड़ी महारानी राजलक्ष्मी का दस्तावेज – सुभाष चंद्र बोस का परिवार आये थे

दिल्ली सल्तनत में स्थित 98-वर्ष पुराना इस  ऐतिहासिक महल और परिसर पर “दरभंगा राज” का अंत हो गया है। जिस सल्तनत की बुनियाद 25/25 A दरभंगा हॉउस और परिसर तथा 7, मानसिंह रोड के रूप में दरभंगा के तत्कालीन महाराजा रामेश्वर सिंह सं 1923 में रखे थे; जिस बुनियाद को उनके पुत्र महाराज अधिराज सर कामेश्वर सिंह अपने शरीर को पार्थिव होने के पूर्व अंतिम सांस तक सीचें थे; दरभंगा राज का वह ऐतिहासिक इतिहास अब दरभंगा राज का नहीं, बल्कि भारत सरकार का हो गया । वह “ऐतिहासिक हस्ताक्षर” अब दिल्ली सल्तनत के 141 पुरातत्व भवनों और पुरातत्व परिसरों का एक हिस्सा हो गया है।

Delhi, F. No. 4/2/2009/UD/l 6565 अधिसूचना के अनुसार दिल्ली के 141 पुरातत्व भवनों की सूची में 32वें स्थान पर 25/25A, दरभंगा हॉउस और परिसर तथा 7, मानसिंह रोड, नई दिल्ली का नाम लिखा था। लोगों से आपत्ति और विचार माँगा गया था। अब इन ऐतिहासिक धरोहरों पर भारत सरकार का आधिपत्य हो गया – ऑफिसियली। यह अलग बात है कि दरभंगा के “लाल किले” में रहने वालों से लेकर, दिल्ली के जंतर मंतर पर मिथिला राज्य बनाने हेतु मुद्दत से प्रयासरत मिथिला के लोग इस ऐतिहासिक भवन और परिसर पर महारानी अधिरानी काम सुंदरी का, दरभंगा राज का, आधिपत्य बना रहे, के लिए कभी “चूं” तक नहीं किये। 

महरानीअधिरानी कामसुन्दरी की बड़ी बहन के पुत्र श्री उदय नाथ झा, जो जीवन पर्यन्त महारानी के साथ रहे और महारानी द्वारा स्थापित महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन के को-ट्रस्टी भी हैं, कहते हैं: “25/25A दरभंगा हाउस/कल्याणी निवास और 7, मानसिंह रोड स्थित भवन और परिसर भारत सरकार द्वारा पुरातत्व भवन / पुरातत्व परिसर के रूप में अधिग्रहण कर लिया गया है । मानसिंह रोड स्थित 7-नंबर भवन और परिसर पर भारत सरकार का पूर्व से ही अधिपत्य था। 25/25A दरभंगा हाउस/कल्याणी निवास से सभी वस्तुओं को हम सभी हटा लिए हैं। एक छोटे हिस्से में अभी ताला लगा हुआ है हमलोगों का, लेकिन सरकार को यह बता दिया गया है कि जिस दिन भी उसे हस्तगत करने का आदेश प्रेषित करेगी, तक्षण ताला खोलकर चावी उन्हें सौंप दिया जायेगा। हम सभी प्रतीक्षा में हैं।” 

कोई 98-वर्ष पूर्व परतंत्र भारत (दिल्ली) के तत्कालीन चीफ़ कमिश्नर दिल्ली के साथ दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह के साथ सम्पन्न एक दस्तावेज के अनुसार : “This Indenture made ninth day of August, 1923 between the Secretary of State for India in Council, hereinafter called the Lessor of the one part, and The Hon’ble Bahadur Sir Rameshwar Singh, G.C.I.E, Maharaja of Darbhanga hereinafter called the Lessee of the other part.” दस्तावेज में आगे लिखा है: “Whereas under the instruction of the Government of India relating to the disposal of building sites in the New Capital the Chief Commissioner, Delhi has agreed on behalf of the Secretary of State to demise the plot of Nazul land hereinafter described to the Lessee in the manner hereinafter appearing.”

इन शब्दों को लिखते समय आखें अश्रुपूरित है। जिस इतिहास की रचना के लिए, मिथिलांचल के लोगों की गरिमा और प्रतिष्ठा को सातवें आसमान तक पहुँचाने में दरभंगा राज के 20 राजा-महाराजाओं ने अपनी-अपनी भूमिका निभाए; जिस दरभंगा राज की संस्कृति, गरिमा को परतंत्र भारत से स्वतंत्र भारत तक बेदाग़ बनाये रखने में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह, उनके अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह, उनके पुत्र महाराज अधिराज सर कामेश्वर सिंह ने अहम भूमिका अदा किये; महाराजाधिराज की मृत्यु के 60 वर्ष आते-आते दरभंगा राज का 400+ वर्ष पुराना इतिहास नेश्तोनाबूद हो गया। 25/25A दरभंगा हाउस /कल्याणी निवास और 7, मानसिंह रोड भी उसी इतिहास का हिस्सा था। 

ज्ञातव्य हो कि सन 1911 में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाया । महाराजा रामेश्वर सिंह का रुतबा इतना बलिष्ठ था की वे सत्ता के पास हमेशा रहते थे और सत्ता उन्हें हमेशा अपने पास रखती थी । आज के परिपेक्ष में यदि देखा जाए तो दिल्ली में तत्कालीन राजा-महाराजाओं का निवास स्थान जहाँ अवस्थित है, आज भी विभिन्न रूपों में स्थित है। परन्तु, दरभंगा के महाराजा रामेश्वर सिंह और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के समय काल से प्रारम्भ होने वाली आधिपत्य ठीक सौवें साल आते-आते अपना अधिकार वाला आधिपत्य समाप्त कर दिया है। 

जब दिल्ली के 7, मानसिंह रोड और 25 अकबर रोड को देखते हैं, कलकत्ता के 42 चौरंगी (दरभंगा हॉउस) को देखते हैं, मुंबई के दरभंगा मैंशन को देखते हैं, या फिर मुंबई के ही दरभंगा हॉउस आयकर कॉलोनी को देखते हैं, रांची स्थित सेन्ट्रल कोलफील्ड लिमिटेड के मुख्यालय को देखते हैं, पटना विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग को देखते हैं, शिमला के कैथू में दरभंगा हॉउस को देखते हैं, बनारस में दरभंगा पैलेस को देखते हैं, इलाहाबाद में दरभंगा हॉउस और दरभंगा कैसल को देखते हैं या दार्जिलिंग में दरभंगा हॉउस को देखते हैं – तो अन्तःमन से उन तमाम जीवित अथवा पार्थिव लोगों को, अधिकारियों को धन्यवाद देते हैं जो आजतक “दरभंगा” शब्द को जीवित रखे हैं। 

ये भी पढ़े   चाहे राजनीति हो, समाजनीति हो, संस्कृत हो, कला हो, पत्रकारिता हो, प्रशासन हो, मानवीयता हो ✍ कुमार गंगानंद सिंह का व्यक्तित्व बहुआयामी था 🙏 (भाग - 6)

क्योंकि असली दरभंगा में जो तत्कालीन दरभंगा राज की, दरभंगा हॉउस की, लाल कोठी की या फिर महाराजाओं के गौरवों से जुड़ी चल और अचल सम्पत्तियों का हाल है, उसे देखकर मिथिला का प्रत्येक नागरिक, चाहे शुद्धता के साथ मैथिली बोलता हो या तुतलाकर, महाराजा का नाम सुना हो अथवा नहीं, महाराजाधिराज और उनके पिता का नाम पढ़-लिख सकता हो अथवा नहीं – “अश्रुपूरित” अवश्य हो जाता है। यह बात उन लोगों पर लागू नहीं होता जो महाराजाधिराज के अंतिम वसीयत और फिर फैमिली सेटेलमेंट के बाद उनकी चल-अचल सम्पत्तियों के लाभार्थी बने।वजह यह है कि अगर वे भी “अश्रुपूरित” होते तो शायद दरभंगा राज का विनाश नहीं हुआ होता।   

उस दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 93वें जन्मदिन का जश्न देश अगले 24 घंटे में मनाने वाला था। पूरा राष्ट्र सत्य और अहिंसा की बात कर रहा था। महात्मा गांधी का संदेश जन-जन तक पहुँचाने का उत्तरदायित्व स्वतंत्र भारत का बच्चा-बच्चा अपने सर पर उठा रखा था। “सबको सन्मति दे भगवान्” का नारा बुलंद हो रहा था। लेकिन, विभाजित भारत को मिले कुल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के अधीन, उत्तर बिहार के गंगा के उस पार, विद्यापति की नगरी में, राजा जनक की नगरी के एक कोने में स्थित दरभंगा जिले के नरगौना पैलेस के अंदर “किसी की तो सन्मति” मारी गयी थी। कोई तो “लोभ के जाल” में फंस गया था। कोई तो दरभंगा के अंतिम ‘संतानहीन’ राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की अंतिम सांस की प्रतीक्षा कर रहा था। कोई तो “मृत्यु का जाल” बिछा दिया था। 

तभी तो 24 घंटे बीत भी नहीं पाए थे कि दरभंगा के नरगौना पैलेस स्थित शौचालय-स्नानागार के इस बाथटब में पांच फुट आठ+ इंच का महाराजा का शरीर पार्थिव मिला। खबर बिजली जैसी चतुर्दिक फैली। सबों की निगाहें एक-दूसरे के प्रति “शक” से उठी। कुछ बाएं देखें कुछ दाहिने। कुछ नजर से “ओझल” हुए, तो कुछ की नजरें “बोझिल” हुई। कुछ वहाँ उपस्थित थे। कुछ दौड़ कर वहां एकत्रित हुए। कुछ देखते-ही-देखते रफूचक्कर हो गए – परन्तु सभी अपने थे महाराजाधिराज के, लेकिन “उनके रक्त” नहीं थे । अपराधी बेख़ौफ़ वहीं रहा होगा। परंतु यह निर्जीव “बाथटब” बदनाम हो गया। आज तक अपनी बदनामी को “धो” नहीं पाया है। साठ वर्ष बीतने को आ गए और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन भी दरभंगा के साथ-साथ भारत के लोग 102 वां वर्ष मनाएंगे – परन्तु इस बाथटब को न्याय नहीं मिला अभी तक।

दरभंगा के नरगौना पैलेस के शौचालय-स्नानागार में रखा यह “बाथ-टब” विगत उनसठ वर्षों से नित्य सुबह-शाम, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक, दरभंगा राज के कुलदेवता से, राज-परिसर में स्थित देवी-देवताओं से, प्रदेश में आने-जाने वाले शीर्षस्थ राजनेताओं से, दर्जनों मुख्यमंत्रियों से, आला-अधिकारियों से, पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठे प्रधानमंत्रियों से करबद्ध प्रार्थना करते आ रहा है, कहता आ रहा है “एक निर्जीव प्राणी” की तरह – मुझे न्याय दिला दे भगवान्…..मुझे न्याय दें मिथिला के लोग। लेकिन क्या कभी मिथिला के लोग यह सवाल पूछे? शायद नहीं। 

“मुझे न्याय दिला दें मुख्यमंत्री जी, मुझे न्याय दिला दें प्रधानमंत्री जी। मैं निर्जीव हूँ। बोल नहीं सकता। आप सभी तो सजीव हैं। मेरी भाषा आप समझ सकते हैं। मैंने अपने महाराजाधिराज को नहीं मारा। उनके हँसते-मुस्कुराते-सुडौल शरीर को पार्थिव नहीं बनाया। मैं तो उनके शरीर के मैल को साफ़ करता था। हमारे परिसर के पानी से पूछ लीजिये। वह चश्मदीद गवाह है। वह भी निर्जीव ही है, बोल नहीं सकता। जो बोल सकता है वह खुलेआम घूमता रहा। मुझे 59-वर्षों से बंद कर रखा है हुकुम। मैं विनती करता हूँ कि मेरी अस्तित्व की समाप्ति से पूर्व मुझे न्याय दिला दें ।  मैं अपनी मृत्यु के बाद अपने पार्थिव शरीर के साथ वह कलंक नहीं ले जाना चाहता हूँ कि मैंने मिथिला नरेश, दरभंगा के अंतिम ‘संतानहीन’ राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को मारा है। वे अपने जीवन की अंतिम सांस हमारे इस प्रांगण (बाथटब) में लिए। दया करो हे भगवान्,” यह रोता-बिलखता आवाज इस ‘निर्जीव बाथटब’ का है। इस बाथटब के ऊपर ‘क़त्ल’ का आरोप है। 

दरभंगा राज के तत्कालीन लोगबाग, प्रदेश के तत्कालीन राजनेतागण, आला-अधिकारीगण (कुछ को छोड़कर), दिल्ली सल्तनत के राजनेतागण सभी इसके ऊपर लगे आरोपों को स्वीकृत कर शांत हो गए। सबों का ‘जीवित’ शरीर की आत्मा ‘पार्थिव’ हो गई। कोई “चूं” तक नहीं किये। किसी ने आवाज नहीं उठाये आखिर यह निर्जीव बाथटब महाराजाधिराज को कैसे मार सकता है? सभी जानते थे कि महाराजाधिराज का ‘मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक-आर्थिक चरित्र इतना दृढ़ था कि ‘चुल्लू भर पानी में मरने’ वाला मुहबरा नरगौना पैलेस ही नहीं, विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवें स्थान (3,287,263 वर्ग किलोमीटर) पर रहने वाला भारत के किसी भी हिस्से में स्थित पानी में नहीं है। फिर नरगौना पैलेस के इस शौचालय-स्नानागार में रखे इस बाथटब में, जिसमें शायद 42 गैलन पानी आता होगा, कैसे मृत्यु हो सकती हैं? यह बाथटब तो चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा कि महाराज संध्याकाळ के बाद शराब नहीं पीते थे। स्नान करने के बाद सो जाया करते थे। उस शाम भी महाराज स्वस्थ थे जब स्नान करने आये थे। गुनगुना भी रहे थे। फिर “मैं (बाथटब) कैसे आरोपी हो गया कि महाराजाधिराज को मैंने मारा।” लेकिन ‘निर्जीवों’ की बातों को कौन सुनता है – जब धन-दौलत के चकाचौंध में सजीव भी निर्जीव जैसा व्यवहार करने लगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here