क्या ‘आर्यावर्त-इण्डियन नेशन’ अख़बार बंद होने से दरभंगा राज परिवार को अधिक नुकसान हुआ? (भाग-20)  

तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद, तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, मरहाजाधिराज - एक मंच पर। क्या आज की पीढ़ी इसे अवसर, ऐसे मंच की कल्पना कर सकते हैं? 

दरभंगा / पटना : कहा जाता है कि दरभंगा राज लगभग 2410 वर्ग मील में फैला था, जिसमें कोई 4495 गाँव थे, बिहार और बंगाल के कोई 18 सर्किल सम्मिलित थे। दरभंगा राज में लगभग 7500 कर्मचारी कार्य करते थे। आज़ादी के बाद जब भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुआ, उस समय यह देश का सबसे बड़ा जमींदार थे। इसे सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। लोक-चित्रकला, संगीत, अनेकानेक विद्याएं या क्षेत्र की पूंजी थी। लेकिन आज क्या है? यदि देख जाय तो दरभंगा राज की वर्त्तमान पीढ़ियों के पास अपनी बातें कहने के लिए भी कोई एक मंच भी नहीं है, जहाँ वे अपनी बातें, अपने प्रदेश के लोगों से कह सकें।  उनकी बातें सुन सकें। ह्रदय-विदारक स्थिति तो तब हो जाता है जब प्रदेश के सचिवालय में, दिल्ली के संसद मार्ग और रफ़ी मार्ग पर महाराजाधिराज सर कामेशर सिंह का नाम, उनके द्वारा स्थापित बिहार के लोगों को आवाज देने समाचार पत्रों के प्रबंधकों का नाम लिखा देखता हूँ। यह भी लिखा होता है कि भारत की पत्रकारिता का दिशा-निर्देशक थे वे। क्या आज की पीढ़ी इसे अवसर, ऐसे मंच की कल्पना कर सकते हैं? 

लोग तो यह भी कहते हैं कि अखबार का ननोनिशां समाप्त करने से सबसे बड़ा घाटा राज परिवार को हुआ, आज की पीढ़ियों को हुआ।  यह बात तब सिद्ध हो गई जब महाराजा की जन्मदिन अथवा मृत्युदिवस से सम्बंधित बातें, या फिर महाराजाधिराज के सबसे चहेते भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह के बारे में दूसरे अख़बारों में समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलता है, वह भी “शब्दों की कटौती” के साथ। वजह भी है – दूसरे अख़बार तो व्यापारियों का है जहाँ “शब्दों” की “शाब्दिक मोल” जो भी हो, “आर्थिक मोल” पर स्थान दिया जाता है। इतना ही नहीं, जिस अख़बारों की ताकत से कभी प्रदेश की राजनितिक-प्रशासनिक-आर्थिक-सामाजिक दिशाएं चलती थी, आज हज़ारों कर्मचारियों और उनके परिवारों को उनका हक़ दिलाने के लिए भी सरकारी कागजातों को भी सरकारी पदाधिकारी तमिल करने, करवाने में लुक्का-छिप्पी करते हैं। दृष्टान्त: जिला पंचायत राज पदाधिकारी स्थानीय वरीय पुलिस अधीक्षक को “कुर्की वारंट” की तमिल करने को लिखते हैं और यह भी लिखते हैं कि  “प्रसंग: आपका ग्यापांक – 895, दिनांक 14-03-2019 – महाशय, उपर्युक्त विषय प्रासंगिक पात्र के सम्बन्ध में कहना है कि नीलाम पत्र वाद संख्या 728/2017 एवं वाद संख्या 3, 7, 20 वगैरह वर्ष 98 /2005-06 में थानाध्यक्ष कोतवाली थाना से आज कार्यान्वयन प्रतिवेदन उपलब्ध नहीं कराया गया है। विदित हो उक्त मामले में माननीय उच्च न्यायालय से पारित आदेश के आलोक में कठिनाई हो रही है। अतः अनुरोध है कि वाद में कार्यान्वयन प्रतिवेदन उपलब्ध करने की कृपा प्रदान की जाए, ताकि न्यायालय कार्य एवं उच्च न्यायालय के आदेश के आलोक में शीघ्र अनुपालन किया जा सके।”

पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों का आकस्मिक बंद होना “हत्या” के बराबर ही था।  अखबारों का बंद होना बिहार जैसे पिछड़े राज्य का ‘गला दबाकर आवाज बंद करना था’, प्रदेश के लोगों का। यह अलग बात है कि आज भी लोग बिहार का उदाहरण राष्ट्रीय और अनतर्राष्ट्रीय कैनवास पर शैक्षिक और सांस्कृतिक विरासत को लेकर देते हैं। लेकिन सच तो यह है कि हम ‘वास्तविक रूप से’ अपनी शैक्षिक और सांस्कृतिक विरासत को पहचानते ही नहीं। आर्यावर्त-इंडियन नेशन अख़बार एक विरासत था बिहार के लोगों का। लेकिन जिस दिन उसकी हत्या हुई उस दिन पटना के फ़्रेज़र रोड पर शासक भी थे, प्रशासक भी थे, अखबार के मालिक भी थे, अखबार में कार्य करने वाले कर्मचारी भी थे, नियम भी था, कानून भी था, कुछ ‘सहृदय’ लोग भी थे, कुछ पीठ के पीछे से प्रहार करने हेतु धात लगाए बैठे थे  – लेकिन सभी मूक-बधिर-दर्शक थे। अखबार का एक-एक ईंट मजहरुल हक़ पथ पर मिट्टी में मिल रहा था, मालिक से कर्मचारी तक, क्रेता से विक्रेता तक सभी उपस्थित तो थे, लेकिन “रीढ़ की हड्डी विहीन”, भावना और संवेदना समाप्त हो गयी थी। सबों की निगाहें मिलने वाले पैसों पर थे। लेकिन बड़े-बुजुर्ग कहते हैं – लोभी गाँव में ठग भूखा नहीं रहता – फ़्रेज़र रोड पर भी यही हुआ । 

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एक असहाय पत्र 

पिछले दिनों “समागम” पत्रिका के संपादक श्री मनोज कुमार का एक लेख पढ़ रहा था जिसमें उन्होंने  लिखा था कि “अगर मनुष्य के शरीर में रीढ़ की हड्डी ना हो तो मनुष्य का जीवन कैसा होगा? क्या मनुष्य सहज जी पाएगा ? शायद जवाब ना में होगा। वैसे ही पत्रकारिता की रीढ़ की हड्डी आंचलिक पत्रकारिता होती है।”

जिस दिन पटना की सड़कों पर दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित आर्यावर्त और इण्डियन नेशन अखबार अपनी एक-एक सांस के साथ मृत्यु को प्राप्त कर रहा था, भारतवर्ष में कुल 5638 समाचार पत्र और उसमें कार्य करने वाले पत्रकार, गैर-पत्रकार ‘जीवित’ थे। लेकिन जब बिहार के लोग-बाग़ ही मूक-बधिर थे, जिन्हे खुद अपनी ‘विरासत’ की पहचान नहीं थी। विरासतों की पहचान भी जाति-धर्म के आधार पर करते हैं – मसलन यह मैथिलों का अखबार था, यहाँ सिर्फ ब्राह्मण ही कार्य करते थे, यह समाज के दूसरे वर्गों को संस्थान के मुख्य द्वार के अंदर प्रवेश निषेध रखता है – फिर देश का अखबार क्या करता? क्योंकि ‘अब दुनिया के मजदूरों एक हो’ वाली बात नहीं है। अब मजदूर और उसके तथाकथित ‘नेता’ भी ‘अवसरवादी’ हो गए हैं। परन्तु, चाहे चाय दूकान का मालिक हो या गगनचुम्बी होटल का मालिक, या फिर अखबार-पत्रिका का मालिक; सभी एक होते हैं, सबों की अंतरियाँ एक होती है। मरता तो सिर्फ “कर्मचारी” है, लुटता-बिखरता तो सिर्फ कर्मचारियों का परिवार है – मालिकों को क्या ? कर्मचारियों में भी जो “स्वहित” को अधिक पहचानते हैं, ‘अवसरवादी’ होते हैं, ‘धारा’ के साथ, वक्त के साथ बहना जानते हैं, वे तड़पते कर्मचारियों को ‘ठेंगा’ दिखाकर मालिकों के साथ बंधन-गठबंधन कर लेते हैं – सम्पूर्णता के साथ। आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बारों के साथ भी यही हुआ। कर्मचारी और उनका परिवार रोता रहा, बिलखता रहा और मालिक संवेदनहीन हो गया। 

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एक असहाय पत्र 

मनोज कुमार का कहना कितना सत्य है। वे लिखते हैं “आप चार पेज का अखबार प्रकाशित करें या 24 घंटे का न्यूज चैनल चलाएं, बिना आंचलिक पत्रकारिता, आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। समाचार संकलन से लेकर प्रसार तक में आंचलिक पत्रकारिता की भूमिका अहम होती है।” उनका कहना है कि “दिल्ली, यानी महानगरों की पत्रकारिता देहात से होकर ही जाती है। महानगरों की पत्रकारिता का जो ओज और तेज आपको दिखता है, वह आंचलिक पत्रकारिता की वजह से है।” यह सत्य का पराकाष्ठा है। 

बिहार के मामले में मैं साठ के दशक के उत्तरार्ध से पत्रकारिता देखा हूँ। तत्कालीन पत्रकारों की लेखनी को, उनके शब्दों को पटना की सड़कों पर बेचा हूँ। लोगों को बताया हूँ प्रदेश में होने वाली एक-एक घटना को । उस ज़माने में आज की तरह स्मार्टफोन लिए लोग नहीं होते थे, जहाँ न ‘शब्दों’ की कीमत है, न ‘समाचारों का मोल’ है और न ही ‘पत्रकारिता का स्तर’ – उन दिनों आंचलिक पत्रकारिता से महानगरों के पत्रकार जीवित रहते थे। 

एक असहाय पत्र 

चाहे सं 1971 से प्रारम्भ भोजपुर हत्याकांड हो, चाहे 1977 का बेलछी हत्याकांड हो, चाहे 1979 का भागलपुर अंखफोड़बा कांड हो, चाहे सन 1979-80 का पारसबिगहा -दोहिया हत्या कांड हो, चाहे 1983 का पिपरिया कांड हो, चाहे 1985 का चेचानी-दरमियाँ कांड हो, चाहे 1987 का दलेलचक-बघौरा हत्याकांड हो,  चाहे 1989 का भागलपुर हत्याकांड हो, चाहें 1992 का बारा हत्या कांड हो, चाहे 1996 का लक्ष्मणपुर-बाथे हत्याकांड हो, चाहे 1996 का बथानी टोला हत्या कांड हो,  चाहे 1999 का शंकरबिघा हत्याकांड हो,  चाहे 1999 का ही सेनारी हत्याकांड हो,  चाहे 2000 का अफ़्सार हत्याकांड हो – बिहार का अपना, आंचलिक अख़बारों ने बिहार की बातों को, लोगों की बातों को, उनके दुःख-दर्द को जितना लिखा, शायद कोई नहीं लिखा होगा। उन समाचारों को बेच-बेचकर दिल्ली और महानगरों के पत्रकार और लेखक, विद्वान और विदुषी न जाने किते राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय तगमों को अपने माथे से लेकर कमर तक लटकाये हों, लेकिन आज भी, अगर अपने ह्रदय पर हाथ रखकर सच का सामना स्वयं करें तो वे इस बात को नकार नहीं पाएंगे कि ‘वह तो बिहार का आंचलिक अखबार ही था की वे इतना बेहतर लिख सके।” 

लेकिन समय के बदलाब के साथ-साथ, पीढ़ियों के बदलाब के साथ साथ सोच भी बदला। उनके नजरों में अख़बारों का महत्व भी बदला। समाज में चतुर्दिक चाटुकारों का, मक्कारों, अवसरवादियों का बर्चस्व बनता गया। शिक्षित-विद्वान-विदुषी-आचार्य-महामहिमोपाध्याय सभी अपने-अपने घरों में दुबकने लगे, बिहार का अपना आंचलिक अखबार आर्यावर्त-इण्डियन नेशन का मालिक-वर्ग शरीर और सोच दोनों से कमजोर होते गए।  अंततः परिणाम यह हुआ कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु-आयु आते-आते उनके द्वारा स्थापित अखबार भी अंतिम सांसों के करीब पहुँचता गया। महाराजाधिराज का जन्म 28 नबम्बर, 1907 को हुई और वे 1 अक्टूबर, 1962 को 55 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त किये। उनका अखबार दि इण्डियन नेशन (1930-31 में स्थापित) और आर्यावर्त (1940 में स्थापित) सन 1995 के बाद दो बार मृत्यु को प्राप्त किया और अंतिम बार सुपुर्दे-खाक हो गया। वही दो अन्य आंचलिक अखबार – ‘सर्चलाइट और प्रदीप’ – व्यावसायिक विचारधारों के कारण अपने तत्कालीन अस्तित्व को समाप्त कर नए सिरे से ‘हिंदुस्तान टाईम्स’ और ‘हिंदुस्तान’ के रूप में पटना की सड़कों पर उतरा। फिर ‘आज’ आया, बिहार के नेताओं का ‘पाटलिपुत्र टाईम्स’ आया। 

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संपादक मनोज कुमार का कहना सत्य है कि “पीने की पानी की समस्या से लेकर खंदक की लड़ाई आंचलिक पत्रकारिता लड़ती है और इस लड़ने और जूझने की खबर महानगरों की पत्रकारिता के लिए खुराक का काम करती है। हरसूद की कहानी बहुत पुरानी नहीं हुई है। इस पूरी लड़ाई को आंचलिक पत्रकारिता ने लड़ा लेकिन महानगरों की पत्रकारिता ने जब इसे अपनी हेडलाइन में शामिल किया तो वे हीरो बन गए। आंचलिक पत्रकारिता का दुख और दुर्भाग्य यह है कि वह बार बार और हर बार बुनियाद की तरह नीचे दबा रह जाता है और महानगर की पत्रकारिता कलश की तरह खुद को स्थापित कर लेता है। 

एक असहाय पत्र 

यहाँ उल्लेखनीय है कि अपनी अंतिम सांस लेने तक आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबारों में ऐसे-ऐसे वीर-योद्दा थे जिनसे दिल्ली ही नहीं, देश के अन्य महानगरों के पत्रकार “थर-थर कांपते” थे, जहाँ तक “पत्रकारिता” का सवाल है। दिल्ली अथवा अन्य महानगरों से प्रकाशित समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में उनकी कहानी तब तक पूरी नहीं होती थी जब तक उस क्षेत्र में कार्य करने वाले आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-सर्चलाईट-प्रदीप में कार्य करने वाले पत्रकारों से उनकी अंतिम बातें नहीं हो जाती थी। यह आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार ही था जो प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मंत्रियों के गले  घंटी बाँधने की ताकत रखता था। स्वाभाविक है कि ऐसे अमोघ कार्य संस्थान के मालिक के सहयोग के बिना संभव नहीं था। बिहार प्रेस बिल के दौरान किस तरह तत्कालीन अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह सरकार से टकराने की हिम्मत किये थे। यह अलग बात थी की कुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ही घर में, महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के अपने ही परिवार में, लोगों ने “स्वहित” में सरकार का साथ दिए, कुमार शुभेश्वर सिंह को घुटने के बल बैठाने का सम्पूर्ण प्रयास किये। उनके विपक्ष में अनेकानेक चक्रब्यूह बनाये गए, रचना किये गए, प्रचार-प्रसार किये गए। अंत में जो भी परिणाम हुआ, वह अच्छा नहीं हुआ और आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार के अंत की एक शुरुआत हो गयी।  

पत्रकारिता की रीढ़ भले ही आंचलिक पत्रकारिता हो लेकिन आंचलिक पत्रकार सबसे ज्यादा समस्याओं से जूझते हैं। यह भी सच है। यह अलग बात है कि उन दिनों आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बारों के पत्रकारों को कभी “आर्थिक” समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा था – पतन की शुरुआत से पहले। भारतवर्ष के किसी भी संस्थान में पत्रकारों-गैर-पत्रकारों को मिलने वाली राशि से भी अधिक राशि यहाँ के लोगों को मिलता था। लेकिन, दुर्भाग्य यह रहा कि संस्थान में कार्य करने वाले लोग भी उस मूल्य का मोल नहीं चुका सके। 

क्रमशः 

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