जिन नेताओं को आर्यावर्त-इण्डियन नेशन ‘नेता’ बनना सिखाया, आज वे उसी से ‘नेतागिरी’ करने लगे (भाग – 6)

महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह और श्रीमती इंदिरा गांधी। यह उन दिनों की बात है। आज की पीढ़ी में इतनी क्षमता होती तो शायद हज़ारो कर्मचारियों के परिवारों की यह दशा नहीं होती 

दरभंगा / पटना : जय प्रकाश नारायण का सम्पूर्ण क्रांति बिहार ही नहीं, देश के लोगों के मगज पर चढ़ रहा था। देश के मतदाता देश की राजनितिक व्यवस्था में बदलाव चाहते थे। स्वाभाविक है। सत्तारूढ़ के अलावे विपक्ष के नेताओं को भी सत्ता का रसास्वादन करने का संवैधानिक अधिकार है। देश का क्या होगा, यह न तो उन दिनों लोगों को, राजनेताओं को चिंता थी, न आज है। पंचायत से संसद तक चाहे क्रिया-कलाप ठीक-ठाक संचालित होता भी रहे, कुर्सियों को देखकर कुकुरमुत्तों की तरह पनपते नेताओं को खुजली होने लगती है, वे चक्रव्यूह रचने लगते हैं, ताकि सतारूढ़ दल धराम से नीचे गिरे और वे मुस्कुराते शपथ लेकर कुर्सी से चिपक जायँ। यह मानव का लक्षण है। जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के समय बिहार में यह बात तनिक अधिक देखने को मिला। 

वैसे तो चौथी विधान सभा से ही, लेकिन पांचवी विधान सभा काल आते-आते सरकारी महकमे में “आया-राम-गया-राम” वाली बात पटना के सर्कुलर रोड, सरपेंटाइन रोड, बेली रोड, फ़्रेज़र रोड पर अधिक प्रचलित हो गया था। मंत्री से लेकर संत्री तक, अधिकारी से लेकर चपरासी तक, जिलाधिकारी से लेकर मुंशी तक सभी हनुमान चालीसा पढ़ते सोते थे और सुवह विष्णुसहस्रनाम पढ़ते जागते थे, ताकि विपत्ति का पहाड़ न टूट पड़े उनपर ।  

राजनेताओं की तो बात ही नहीं करें। उनकी गर्दन हमेशा बक्सर के पुल पर लटका होता था। कब नीचे गंगा में प्रवाहित हो जायेंगे, कब पदच्युत हो जायेंगे, कब कौन लंगड़ी मार देगा, कब कौन छिटकिनी लगाकर मुंह के बल गिरा देगा, कोई नहीं जानता था। विहार विधान सभा और विधान परिषद् में आज भी दर्जनों “सम्मानित विधायकगण” हैं, जिनकी स्थिति फ़्रेज़र रोड के कोने पर स्थित (उस समय) उडप्पी से आर्यावर्त-इण्डियन नेशन के कार्यालय से दस कदम आड़े पिंटू होटल तक आते-आते भय से रक्तचाप बढ़ जाता था। वे गवाह होंगे। कई बार ऐसी स्थिति का सामना वे सभी किये थे जब ‘प्रेस रिलीज’ निर्गत करते समय जिस पदभार का मुहर प्रेस रिलीज पर लगाए थे, समाचार बनने के समय तक पदभार से मुक्त हो जाया करते थे। बिहार विधान परिषद् में आज भी ऐसे अनेकानेक माननीय सदस्य हैं जो उन दिनों उस समय के उभरते नेताओं के पीछे-पीछे चलते थे। वे हँसते थे तो इस ठहाका लगा देते थे। 

लेकिन आज वे राजनीति में मठाधीश बने बैठे हैं। उन दिनों पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इंडियन नेशन समाचार पत्रों में अपना नाम प्रकाशित करने के लिए, अपना विज्ञप्ति छपाने के लिए, जो सुबह से शाम तक “दण्डबैठकी” करते थे, आज उसी संस्थान के सैकड़ों-हज़ारों कर्मचारियों, उनके परिवारों को “प्राणायाम” कराते नहीं थकते। कई तो प्राणायाम करते ईश्वर को प्राप्त हो गए, कुछ कतारबद्ध हैं। लेकिन उन्हें क्या? राजनीतिक गलियारे में, मंत्री-संत्री की कुर्सियों पर चिपकने के बाद जनता के बारे में कौन सोचता है? या उन लोगों के बारे में कौन सोचता है, जो शुरूआती दिनों में ‘ऊँगली’ पकड़कर नाम, प्रतिष्ठा, शोहरत दिलाया था। खैर। 

उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री थे अब्दुल गफ्फूर। कहने के लिए तो छठा विधान सभा कालखंड था, लेकिन गफ्फूर साहेब 13 वें मुख्यमंत्री के रूप में कुर्सी पर बैठे थे। एक मुख्यमंत्री का कार्यकाल, जो पांच साल का (विधान सभा अवधि के बराबर) होनी चाहिए थी, औसतन ढाई-साल और उससे कम की अवधि में कुर्सी को नमस्कार कर “भूतपूर्व” हो जाया करते थे। गफूर साहेब 2 जुलाई 1973 से 11 अप्रैल 1975 तक बिहार राज्य के तेरहवें मुख्यमंत्री के रूप में सेवा किये । वे राजीव गांधी के समय में कैबिनेट मंत्री के रूप में भी शोभायमान हुए थे। ईश्वर आपकी आत्मा को शांति दें गफ्फूर साहेब। 

बाबूजी कहते थे: “अंतिम दम तक लड़ना सीखो, क्या पता अंतिम चाल में ही कामयाबी मिल जाय।” 

वैसे, 1967 और 1971 के बीच, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी, चाहे पार्टी हो या सरकार। सबों को अपने नियंत्रण में ले ली थी श्रीमती गाँधी । आज की तरह ही, उन दिनों भी केंद्रीय सरकार का अर्थ केंद्रीय मंत्रिमंडल कतई नहीं था, बल्कि प्रधानमंत्री के सचिवालय ही हो गया था। सम्पूर्ण सरकार वहीँ केंद्रित थी। जो उनके भरोसे मंद थे, उनका तेवर कुछ और था, जो विश्वासभजन नहीं थे, उनकी तो तो बात ही नहीं करें। सत्तर के दशक के प्रारंभिक महीनों, वर्षों में जो हुआ वह देश जानता है, जहां तक राजनीति का सवाल है। परन्तु जो नहीं जानता है वह यह की उन दिनों आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र समूह का सम्पादकगण न केवल अपनी कलम में ताकत रखते थे, बल्कि उस समय के मंत्रियों, चाहे मुख्यमंत्री ही क्यों न हो, पुलिसकर्मियों चाहे पुलिस महानिदेशक ही क्यों न हो, उन्हें उनकी औकात दिखने की क्षमता रखते थे। कुछ ऐसी ही ऐतिहासिक घटना हुई थी उस दिन। 

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1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी । उस दिन आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, “जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।” 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में देश में आपातकाल घोषित था। 

जय प्रकाश नारायण के आंदोलन के तहत पटना के दो प्रमुख अख़बारों के दफ्तरों को सुपुर्दे ख़ाक करने की तैयारी हो चुकी थी। नेता से लेकर, व्यापारी तक, पुलिस से लेकर अपराधी तक, आंदोलन में कतारबद्ध लोगबाग यह निर्णय ले लिए थे की अमुक दिन पहले सर्चलाइट-प्रदीप और फिर आर्यावर्त-इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर का दफ्तर फूंका जायेगा। सर्चलाइट-प्रदीप जलकर स्वाहा हो गया परन्तु, जब आर्यावर्त-इण्डियन नेशन की बात आई तो इण्डियन नेशन के तत्कालीन संपादक दीनानाथ झा सामने खड़े हो गए। उस दिन वैसे तो संस्थान के लगभग सभी कर्मचारी गोलबंद हो गए थे, लेकिन संध्याकाळ होते-होते संस्थान के मुख्य द्वार के बजाय पिछले दीवारों को, जो जमाल रोड से मिलती थी, लांघ कर अपने-अपने घरों की ओर बच-बचाकर कूच कर रहे थे। धीरे-धीरे सम्पूर्ण परिसर बीरान हो गया। मुख्य द्वार पर 50-60 किलो शारीरिक वजन वाले दरवान ही रह गए थे। यह स्थान प्रवेश द्वार के ठीक सामने पोर्टिको का था। दिनाबाबू वहीं बैठ गए। अब तक ‘जॉब-विभाग’ में कार्य करने वाले बागेश्वरी प्रसाद ही बच गए थे, जो दीना बाबू के बगल में खड़े थे। बागेश्वरी प्रसाद का शारीरिक वजन भले 65 किलो के आसपास रहा होगा उस शाम, लेकिन उन्होंने हज़ारों-हज़ार किलो के मानसिक वजन वाले लोग जैसा कार्य किया था। दीना बाबू उन्हें भी जाने को कहे। वे दीना बाबू का बाहर सम्मान करते थे। 

इसी बीच लाइनों विभाग में कार्य करने वाला जयप्रकाश, जो शरीर से कोई छः फिट लम्बा था, कुछ पल दीना बाबू और बागेश्वरी प्रसाद के पास खड़े रहे, लेकिन तक्षण संस्थान के पिछले दीवार की ओर भागे, जिधर से सभी कर्मचारी अपने-अपने घरों की ओर उन्मुख थे। जयप्रकाश जोर से आवाज लगाया : “रुक जाओ…रुक जाओ कहीं दीना बाबू अपना डाह नहीं कर लें। वे कह रहे हैं अगर संस्थान बचेगा तभी हम सभी कर्मचारियों का जीवन है, अन्यथा कोई अस्तित्व नहीं है। सभी कर्मचारियों के कदम वापस हो गए। परिसर में अखबार बेचने वालों की साईकिल लगी थी, संख्या सैकड़ों में थी। सभी साईकिल सामने के भवन के छत पर क्षणभर में चले गए। ईंट, पत्थर आदि भी एकत्रित हो गए। चतुर्दिक आंदोलनकारी भी भर गए थे फ़्रेज़र रोड पर। लेकिन ऊपर से साइकिलों, पत्थरों और ईंटों के प्रहार से वे संस्थान के अंदर प्रवेश नहीं ले सके। इस बीच, दिनाबाबू तत्कालीन पुलिस महानिदेशक वाई एन झा से संस्थान की सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए सुरक्षा बल मुहैया करने को कहा। पुलिस महानिदेशक, बिहार में प्रचलित उस कहावत को चरितार्थ कर दिए जब एक व्यक्ति के पेशाब की जरूरत हुई और वह व्यक्ति कहने लगा की वह पिछले छः माह से पेशाब किया ही नहीं और अगले एक वर्ष तक लघुशंका करेगा भी नहीं। अब तक पोर्टिको में कर्मचारियों का बैठक बन गया था। टेलीफोन भी लग गए थे। 

दूसरे दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर अपने चेला-चपतियों के साथ आर्यावर्त-इण्डियन नेशन कार्यालय में धमके। प्रांगण के अंदर प्रवेश के साथ ही कार्यालय परिसर के समस्त कर्मचारी गोलबंद हो गए। मुख्यमंत्री अपने काफिले के साथ पोर्टिको तक पहुंचे। दीनाबाबू वहीँ थे । अब्दुल गफूर को देखते ही दीनानाथ झा का रक्तचाप बढ़ गया। वे जब गुस्स में होते थे तो उनका सम्पूर्ण शरीर कांपने लगता था। दृश्य बहुत संवेदनशील था। दीनानाथ जी बाहर गेट के तरफ अपनी ऊँगली से इशारा करते अब्दुल गफूर को बाहर निकलने को कहा। स्थिति बद से बत्तर हो रही थी। एक पत्रकार और मुख्यमंत्री आमने सामने था। तभी फोन की घंटी टनटनायी – “हेल्लो !!! रेस्पेक्टेड दीना बाबू, मैडम विश तो टॉक तो यु…. प्लीज सर।” 

फोन के दूसरे छोड़ पर दिल्ली से श्रीमती इंदिरा गाँधी थीं। अब्दुल गफूर उलटे पैर वापस अपने कार्यालय में आ गए। फ़्रेज़र रोड पर बड़े-बड़े बसों में लदे तक़रीबन 50 बन्दुक, राइफलों से लैश केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के लोग कार्यालय परिसर में प्रवेश लिए और बिहार के तत्कालीन पुलिस महानिदेशक तत्काल प्रभाव से हस्तानांतरित हो गए। इसके बाद विद्याचरण शुक्ल – अब्दुल गफूर के साथ फिर एक बार रूबरू बकझक हुआ। और दोनों नेता पुनः मुंह के बल गिरे। पत्रकारिता में सम्मान था। पत्रकार भी सम्मानित थे। 

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दिवंगत दीनानाथ झा के बड़े पुत्र अशोक झा, जो पेशे से पटना उच्च न्यायालय में अधिवक्ता है, कहते हैं: सत्तर के दशक या उससे पूर्व की पत्रकारिता की तुलना नब्बे के दशक के बाद से लगातार, आज तक, हम नहीं कर सकते हैं। उन दिनों की पत्रकारिता, या पत्रकारों के प्रति, पत्रकारिता के प्रति तत्कालीन राजनेताओं का जो सम्मान था, पत्रकारों की कलम में जो ताकत थी, उनकी जो सोच थी, समाज के प्रति उनकी जो प्रतिबद्धता थी; आज की तुलना नहीं कर सकते हैं। आज सब कुछ बदल गया है। मालिकों की सोच बदल गयी है। कर्मचारियों की सोच बदल गयी है। लेकिन बाबूजी कहते थे: “अंतिम दम तक लड़ना सीखो, क्या पता अंतिम चाल में ही कामयाबी मिल जाय।” 

आज आर्यावर्त – इंडियन नेशन – मिथिला मिहिर अखबार बंद हो गया, नामोनिशान मिटा दिया पटना के फ़्रेज़र रोड पर। कुछ कर्मचारी भी दोषी थे, कुछ प्रबंधन भी, मालिक तो थे ही। प्रबंधन के लोगबाग ‘बूढ़ी संस्थान’ से छुटकारा पा कर, अपना हाथ धोकर गंगा नहाना चाह रहे थे, इसलिए जिधर लाभ का दीपक दिखा, गर्दन धुसा लिए। हताश कर्मचारियों के पास कोई विकल्प नहीं था। वह “भागते भूत को लंगोट ही सही’, में विस्वास करने लगे और मालिक तो “निरीह”, “कमजोर” “दूर दृष्टिहीन” हो ही गया था। वह चाह भी रहा था की किसी तरह इस जंजाल से, इस पीड़ा से मुक्ति मिले। वजह भी था: जिंन्हें पटना के इस स्थान पर एक-गज जमीन खरीदने की ताकत थी नहीं थी, मुफ्त में मिली सम्पत्तियों का कद्र करना नहीं जानते थे, चापलूसों, चाटुकारों, लोभियों, चमचों, अवसरवादियों के चक्रव्यूह में रहना पसंद करते थे, सभी गिद्ध की तरह मौका की तलाश में थे – अवसर मिलता गया, नोचते गए। 

इसका ज्वलंत उदाहरण मई 21, 2014 को थानाध्यक्ष, कोतवाली पुलिस थाना, पटना को लिखित यह पत्र बताएगा। सिर्फ समय की ही तो बात है। दीना बाबू वाली घटना सन 1974 की थी और यह घटना 2014 की, सिर्फ चालीस वर्ष का ही तो फासला है। अधिकांश कर्मचारी भी बूढ़े हो गए थे। इन चालीस वर्षों में बिहार के मुख्यमंत्री की गद्दी पर जगन्नाथ मिश्रा, कर्पूरी ठाकुर, रामसुंदर दास, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दुबे, भगवत झा आज़ाद, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, लालू यादव, राबड़ी देवी और नितीश कुमार, यानी 10 मुख्य मंत्रियों का शरीर मुख्यमंत्री कार्यालय में रखी ऐतिहासिक कुर्सी पर आसान ग्रहण किया है। सत्तर के ज़माने वाले पत्रकारों में आधी-आवादी से अधिक ईश्वर को प्यारे हो गए। जो बचे हैं वे कुहर रहे हैं।  लेकिन उस तारीख को कोतवाली थाने में जो आवेदन दिया गया उसमें दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन के तरफ से जिन दो महानुभावों ने हस्ताक्षर किये उस आवेदन पर, कोतवाली पुलिस क्या, पटना पुलिस क्या, बिहार पुलिस क्या, मुख्यमंत्री नितीश कुमार भी नजर फेर लिए। आज तक किसी ने भी उस आवेदन के ऊपर कोई कार्रवाई नहीं किया। यह बिहार की पत्रकारिता, राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र समूह के मालिक का कमजोर होना दर्शाता है। 

पत्र कुछ इस प्रकार लिखा है:

सेवा में,
थानाध्यक्ष महोदय,थाना कोतवाली, जिला पटना। 
महाशय, 
सेवा में निवेदन है की:

हम दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस मिलिटेड, फ़्रेज़र रोड, पटना का दिनांक 15-09-2202 तक निदेशक (डाइरेक्टर) एवं कार्यकारी सचिव थे। इस कंपनी के द्वारा हिंदी दैनिक समाचार पात्र आर्यावर्त तथा अंग्रेजी दैनिक इण्डियन नेशन का प्रकाशन किया जाता था।  कंपनी की आर्थिक हालत बहुत ख़राब हो जाने के कारण कंपनी अपना काम बंद कर दी।  आपसी समझौता के तहत दिनांक 15 – 09 – 2002 को हम लोगों के साथ साथ सभी कर्मचारी कंपनी को इस्तीफा दे दिए। 

कर्मचारी का कानूनी बकाया राशि भुगतान के लिए दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस मिलिटेड एवं डेवेलपर्स कंपनी जिसका नाम पाटलिपुत्र बिल्डर्स प्राइवेट लिमिटेड, महाराजा कामेश्वर कॉम्प्लेक्स, फ़्रेज़र रोड पटना तथा जिसके मालिक अनिल कुमार, पिता स्वर्गीय छट्ठु चौधरी है, एक डेवलपमेंट अग्रीमेंट दिनांक 31 – 03 – 2002 को संपन्न हुआ तथा डेवलपमेंट अग्रीमेंट के आलोक में एक त्रिपक्षीय समझौता दिनांक 10-09-2002 को हुआ। 

त्रिपक्षीय समझौते के अनुसार कर्मचारी की बकाया राशि की पूर्ण भुगतान होने तक कंपनी के 45 प्रतिशत बिल्ट अप एरिया को बेचा नहीं जायेगा और उसे सेक्युरिटी के रूप में कर्मचारियों के नाम सुरक्षित रखा जायेगा। 

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डेवेलपर अनिल कुमार द्वारा एक जाली कागज़ बनाया गया की दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस मिलिटेड के निदेशक मंडल की दिनांक 24 -12-2004 को एक बैठक हुयी जिसमें प्रस्ताव पारित कर अनिल कुमार का ऑफिस, फ्लेट, दूकान बेचने के लिए अधिकृत किया गया तथा इस निर्णय प्रस्ताव सम्बन्धी अधिकार पत्र को भूतपूर्व कार्यवाहक सचिव द्वारा तैयार किया गया है एवं इस जाली अधिकार पात्र के आधार पर अनिल कुमार द्वारा बेईमानी कर ऑफिस, दूकान, फ्लेट आदि बेच दिया गया एवं गरीब कर्मचारिओं का वेतन आदि माध का बकाया रकम अनिल कुमार द्वारा गबन कर लिया गया। 

हम कंपनी के निदेशक एवं कार्य वाहक सचिव अपने अपने पदों से  अन्य कर्मचारियों की तरह दिनक 10-09-2002  को त्रिपक्षीय समझौते के आलोक में त्याग पात्र दे दिए थे। मैं कार्यवाहक सचिव त्याग पात्र के बाद बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर (दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस मिलिटेड) का ओरिजिनल मिनट बुक अनिल नंदन सिंह, डाइरेक्टर इंचार्ज को  सौंप दिया। 
मैं सर्वनारायण दास, भूतपूर्व निदेशक उक्त कथित बोर्ड ऑफ़ डिरेक्टर की बैठक के विषय में न कोई जानकारी थी, और न उपथित थे। 

उक्त त्रिपक्षीय समझौता में वर्णित है की कर्मचारी द्वारा अपनी बकाया राशि की प्रथम क़िस्त प्राप्त के बाद इस्तीफा दे दी जाएगी, तदनुकूल प्रथम क़िस्त प्राप्ति के बाद डिजनक 15-09-2002 को सभी कर्मचारियों द्वारा कंपनी को त्यागपत्र दे दी गयी थी। 

त्रिपक्षीय समझौता में वर्णित है की दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस मिलिटेड के नाम एक नया बैंक खाता खोला जायेगा, तदनुकूल पी एन बी बोरिंग रोड शाखा पटना में खाता नंबर 2910002100024908 खोला गया , साथ ही, अनिल कुमार द्वारा रकम की चार पोस्ट डेटेड चेक दी जाएगी जो उक्त खाते में जमा होगी और कम्चारी की भुगतान होगी। 

निवेदन यह है की वास्तव में अनिल कुमार द्वारा चार पोस्ट डेटेड चेक (कुल 5. 82 करोड़ ) दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस मिलिटेड के नाम कर्मचारियों के भुगतान हेतु जारी किया गया जो निम्न प्रकार है (IDBI Bank, Kashi Palace, Dak Bungalow Road, Ptna, cheque No 26444/26445/26446 and 26447 Dated: 07 04 2003 Amount: Rs 1,47,00,000 each 

तथा तत्कालीन यूनियन के प्रधान सचिव दिग्विजय कुमार सिन्हा, पिता – मोती लाल सिंह, सकीं बड़हिया आश्रम, शिव मार्किट लें, शेखपुरा, थान शास्त्री नगर, जिला पटना को दिया गया तथा वह चेक षड्यंत्र के तहत न बैंक में जमा हुआ और न कर्मचारियों को भुगतान हुआ। 

इस तरह चार झूठा पोस्ट डेटेड चेक जारी कर अनिल कुमार सभी कर्मचारियों को धोखा देकर उनसे त्याग पात्र प्राप्त कर लिया और इस तरह उनके द्वारा गरीब कर्मचारियों की पसीने की कमाई करोड़ों की राशि गबन कर लिया गया। 

इन तथ्यों से स्पष्ट है कि अनिल कुमार का शुरू से ही बेईमानी का इरादा था। अब अनिल कुमार का कहना है की वे कर्मचारियों को सीधे तौर पर प्रत्यक्ष भुगतान किये, जिस भुगतान की जांच माननीय उच्च न्यायालय के आदेश पर महालेखाकार, बिहार पटना द्वारा वर्तमान में की जा रही है।  जानकारी मिली है कि अनिल कुमार द्वारा समर्पित मनी रिसिप्ट रजिस्टर पर कर्मचारियों का जाली हस्ताक्षर है। 

महालेखाकार के अंकेक्षक एवं कर्मचारियों के बिच इन मुद्दों पर बातचीत हुई एवं पता चला की धोखाधड़ी एवं जालसाजी का मामला की जांच उनके द्वारा नहीं की जा सकती। जाली हस्ताक्षर या बनाबटी दस्तावेज की जांच पड़ताल  पुलिस का काम है और यह पुलिस ही कर सकती है। 

मैं (भूतपूर्व कार्यवाहक सचिव) वर्षों से स्पाइनल कॉर्ड की बिमारी से पीड़ित होने के कारण घर में सिमित हूँ। वर्ष 2006 में लम्बर 4 और 5 का ऑपरेशन करना पड़ा था। मैं 60 प्रतिशत विकलांग हूँ। हमारा लाखों बकाया राशि की अनिल कुमार द्वारा बेईमानी कर ली गई। अनेक कर्मचारी दवा के आभाव में तथा अनेक राशन के आभाव में मर गए। कुछ कर्मचारी श्रम विभाग, माननीय उच्च न्यायालय, पी एफ कार्यालय आदि में वर्षों से चक्कर लगा रहे हैं, परिणाम स्वरुप मजबूर होकर हमे आज सहस करना पड़ा है। 

अतः प्रार्थना है कि गहरा 419 420 467 468 471 406 /34 आईपीसी एवं अन्य धरोपण के तहत एफ आई आर दर्ज कर अपराधियों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने की कृपा की जाय। 

आपका विश्वासी 

1. सर्व नारायण दास 
भूतपूर्व निदेशक 
साकिन मिथिला कॉलोनी,
नासिरगंज थाना दानापुर जिला पटना 

2. मदन मोहन आचार्य 
भूतपूर्व कार्यवाहक सचिव 
मिथिला कालोनी रोड नंबर 5  
उत्तरी पटेल नगर 
थाना पाटलिपुत्र पटना – 24 
दिनांक 6-4-2014
 

गवाह:
हितचन्द्र झा 
दिनेश्वर झा 
शिवशंकर आचार्य 
चंद्रशेखर झा 
संजय कुमार झा 
शिवनाथ विश्वकर्मा 

……………………….क्रमशः 

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