बिहार के मुख्य मन्त्री नितीश कुमार को “पटना पुस्तक मेला” उनके ह्रदय के बहुत करीब है। जिस वर्ष पटना पुस्तक मेला बिहार के शैक्षणिक मानचित्र पर अपना स्थान बनाया था, उसी वर्ष प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री नितीश कुमार बिहार के राजनीतिक मानचित्र पर पहली बार चुनाव जीते थे और वर्ष था सन 1985 – इसलिए पटना पुस्तक मेला उनके लिए ‘पहला सन्तान’ जैसा है। लेकिन इस वर्ष कोरोना संक्रमण के मद्दे नजर,इस ऐतिहासिक कार्यक्रम को स्थगित कर दिया गया है।

उन दिनों मुख्य मन्त्री तो यहाँ तक कहे थे की बिहार के लोगों में, युवकों में, युवतियों में, कामकाजी महिलाओं में, सडको पर मजदूरी करने वाले श्रमिकों में “किताब खोलकर पढ़ने की आदत की शुरुआत तो पटना पुस्तक मेला से ही हुआ है। यह बात लोग माने अथवा नहीं परन्तु यह भी सत्य है कि पटना के नोवेल्टी एंड कंपनी के चार लोग और उनका परिवार, कमर्चारी, मसलन – नरेंद्र कुमार झा, अमरेंद्र कुमार झा, रत्नेश्वर जी और स्वर्गीय राजेश कुमार – ने किताबों का लत लगाया पाठकों को, नई पीढ़ियों को तभी आज पटना पुस्तक मेला अपने इस मुकाम पर पहुंच गया है।
खैर, कोई साढ़े-तीन-दसक पुराना बिहार का लोकप्रिय सांस्कृतिक महोत्सव पटना पुस्तक मेला इस बार कोरोना की वजह से नहीं होने जा रहा है। मेला में संक्रमण की सम्भावना बहुत अधिक होगी, अतः 35 वर्षों से लगने वाले इस मेले का पूरे बिहार के लोगों को इंतज़ार होने के वावजूद, स्वस्थ के दृष्टि से नहीं हो पायेगा । दिल से जुड़े बिहार को इस बार मायूस होना पड़ेगा। पूरे देश में यह माना जाता है कि बिहार के लोग खूब पढ़ते हैं । साहित्य की किताबें सबसे अधिक बिहार में पढ़ी जाती हैं । इसीलिए 1985 से छोटे शक्ल में शुरू हुआ पटना पुस्तक मेला की ख्याति पूरे देश में हो गई। यहाँ देश-विदेश के सैकड़ों बड़े-छोटे प्रकाशक आते रहे हैं । पटना पुस्तक मेला ने ‘ख़ूब पढ़ता है बिहार’ की परम्परा को आगे बढ़ाकर ‘ख़ूब लिखता भी है बिहार’ की संस्कृति का विस्तार करने में शानदार भूमिका अदा की।
पटना पुस्तक मेला भारत का तीसरा और दुनिया के दस प्रमुख पुस्तक मेलों में शामिल है। पटना पुस्तक मेला अपने सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए जाना जाता है। इसी सन्दर्भ में अपने समय के विख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने एक बार पटना पुस्तक मेला में भाषण देते हुए कहा था कि देश की हो या न हो पर हिन्दी प्रदेशों की यदि कोई संस्कारधानी हो सकती है तो वह बिहार का पटना ही है। वहीं प्रतिष्ठित लेखक-आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने अपने सामने चार हजार से भी अधिक श्रोताओं को देखकर कहा था कि यदि यहाँ आने से पहले मेरी मौत हो गई होती, तो मेरी आँखें खुली रह गई होतीं क्योंकि यह दृश्य देखना बाकी रह गया होता!

पटना पुस्तक मेला मेला में लाखों पुस्तकप्रेमी शिरकत करते हैं। 2003 से 2010 के बीच हरेक वर्ष लगभग पांच लाख से भी अधिक पुस्तक प्रेमी इसमें शामिल होते रहे। इस सन्दर्भ में एक और घटना का जिक्र करना जरूरी लगता है कि एक बार एनडीए ने पटना बंद की घोषणा की थी। उनकी ओर से दवा दुकान और पटना पुस्तक मेला को बंद से मुक्त रखा गया था। इससे यह साबित होता है कि पटना पुस्तक मेला का बिहार में क्या महत्त्व है. इसने बिहार की छवि को बदलने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
लोकनृत्य, संगीत, नुक्कड़ नाटक, जन-सम्वाद, काव्य पाठ, कथा पाठ, चित्र कला प्रदर्शनी, फिल्म महोत्सव, पुरस्कार सम्मान आदि कला-साहित्य की तमाम रंग-बिरंगी गतिविधियों के साथ-साथ प्रबुद्ध वैचारिक गोष्ठियों का आयोजन सीआरडी द्वारा आयोजित पटना पुस्तक मेले की परम्परा बन गई है। देश भर के चुनिन्दा लेखक, संस्कृतिकर्मी, पत्रकार और विविध विषयों के विद्वानों से सीधा संवाद इसका विशेष आकर्षण रहा है।
लेकिन, कोरोना के कारण इस बार बिहार के युवा भी बहुत मायूस है।