दरभंगा के महाराजा अपनी बहन से कहते थे: “अगर तुम बेटा होती तो दरभंगा की राजा (रानी) तुम्हीं होती” (भाग – 44)

श्रीमती द्वितीया बौआसीन और उनके पति श्री कृष्णानंद झा

दरभंगा / पटना : कोई 669-वर्ष बीत गए। मिथिला में ‘विद्यापति’ के ‘समरूप’ ही सही, पुनः कोई ‘विद्वान’ जन्म नहीं लिए। विद्यापति का जन्म 1352 में आज के मधुबनी जिला के जिस “बिस्फी” नामक स्थान में हुआ था संस्कृत, मैथिली गीतों और ग्रंथों का रचना के लिए; आज का बिस्फी भी वह नहीं रहा, जो कल था । मिथिला में न तो राजा जनक रहे और ना ही दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह। मिथिला को जिन-जिन लोकोक्ति और कहावतों, मसलन “पग पग पोखर माछ मखान, सरस बोल मुस्की मुख पान, ई थिक मिथिला केर पहचान” से जोड़ा जाता है, आज वह भी अपना अस्तित्व समाप्त कर चुका है। हाँ, कहावतें जीवित अवश्य हैं “विपरण बाजार” में। मिथिला के पोखरों को खेतों की मिट्टी से भरा जा चुका है। जहाँ कभी पोखर थे, आज विशालकाय मकान और मॉल या बाजार बन गया है। समय बदल रहा है।

मिथिला में जिन मखानों को पावन अवसरों पर, विवाहोत्सवों पर “भार” स्वरुप भेजा जाता था, आज मिथिला से देश के पचास से अधिक “क्रय शक्ति” वाले शहरों की दुकानों में भेजा जा रहा है – रोजी-रोटी और व्यापार के लिए । प्रदेश के विधान सभा अथवा देश के लोकसभा और राज्य सभा में जनता द्वारा चयनित प्रतिनिधि भी, चाहे ‘बिस्फी’ के ही क्यों न हों, ‘सरस-बोल’ बोलने में ‘विश्वास’ नहीं करते। ‘पान-तम्बाकू’ अब लोग बाग भी खाना कम कर दिए हैं। एक तो इसके सेवन से ‘मुख में कैंसर’ जैसी जानलेवा बीमारी होती है, वहीँ दूसरे तरफ ‘यत्र-तत्र थूकने” से प्रदेश के मुख़्तार से लेकर दिल्ली के मुख़्तार द्वारा अनुशंसित प्रतिनिधियों से बचकर निकलना कठिन ही नहीं, मुश्किल भी हो गयी है । जो कल तक ‘सैद्धांतिक’ था, जिसकी नींव पर मिथिला का अस्तित्व कायम था, आज के व्यावहारिक जीवन में महत्वहीन हो गया है – कहते हैं देश बदल रहा है। मिथिला विकास की ओर उन्मुख है।

आज मिथिलांचल में जिस तरह के मानवों का बाहुल्य हो रहा है, सोचता हूँ आने वाले समय में क्या होगा ? आज मिथिला में जो ‘विद्वान’ हैं, जो ‘विदुषी’ हैं, जो समाज के संभ्रांत हैं; वे अपने जीवन के अंतिम वसंत में स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए, ‘बेदाग़’ जीवन की अंतिम सांस लेना चाहते हैं। स्वाभाविक है वे वर्तमान काल के उठापटक, झूठ-सच, चापलूसी, बेईमानी वाली जिंदगी से स्वयं को कोसों दूर रखेंगे – अपने स्वाभिमान के सम्मानार्थ। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या उत्तरोत्तर सिकुड़ रही है। आज मिथिला में ज्ञान और विद्वता की उत्तरोत्तर किल्लत तो हो ही गयी। समाज के हर तबकों में ‘चाटुकारों’, ‘चापलूसों’, ‘खुशामदी’ करने वालों की, ‘दरबारियों’ की, ‘जीहुजूरी करने वालों की बाढ़ सी आ गयी है, जो गंगा और कोशी की धाराओं की तरह अपनी दशा और दिशा बदलने में माहिर भी होते हैं। अधिकांश लोग इस फिराक में हैं कि किसकी जीहुजूरी करने से, राग-दरबारी सुर अलापने से उनका ‘आराध्य’ कितना प्रसन्न होगा, उन्हें कितना लाभ अर्जित होगा? समाज के ऐसे लोगों को इस बात की तनिक भी परवाह नहीं होती कि इसका समाज पर क्या प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा? इसलिए आप चाहे मिथिला को बिहार की ‘सांस्कृतिक राजधानी’ से संबोधित कर, विद्या, वैभव, खानपान, मधुर मुस्कान और अपनी मीठी बोली के लिए दुनियाभर में मशहूर कहकर भले खुश हो लें; यथार्थ की अनुभूति तब होगी जब आप स्वयं अपने अंदर झाँकने के लिए ‘अदम्य कोशिश’ करेंगे – क्योंकि मिथिला अब वह मिथिला नहीं है जहाँ विद्यापति थे, जहाँ राजा जनक थे, जहाँ महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह थे, जहाँ महाराजा रामेश्वर सिंह थे, जहाँ महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह थे, जहाँ राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह थे । आज जिस तरह समाज के लोगों की तीसरी, चौथी पीढ़ियां आ गयी हैं, महाराजाधिराज स्वयं संतानहीन होने के बाबजूद, उनके “गोतिया” / “दियाद” (मिथिला में भाई को दियाद कहा जाता है और इस दृष्टि से राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह महाराजाधिराज के दियाद ही हुए न) की भी तो दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ियां आ गयी हैं।

विवाहोपरांत श्रीमती द्वितीया बौआसीन और उनके पति श्री कृष्णानंद झा दरभंगा राज की बड़ी महारानी के साथ

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की अपनी सगी बहन श्रीमती लक्ष्मी बौआसिन-श्री ओझा मुकुंद झा के एकमात्र पुत्र श्री कन्हैया जी-श्रीमती कृष्णलता बौआसिन की पुत्री श्रीमती द्वितीया दाई से बात किया। महाराजाधिराज के जीवन काल में उन लोगों की पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भ्रमण-सम्मेलन के बारे में पूछा। उनसे यह भी पूछा कि उन्होंने महाराजाधिराज के जीवन काल में मिथिला को, दरभंगा को, उनके राज-पाट को बहुत करीब से देखे हैं, वे चश्मदीद गवाह हैं; फिर ऐसा क्या और क्यों हुआ कि आज दरभंगा राज का यह हश्र हुआ ? उनसे दरभंगा राज के तत्कालीन व्यवस्था के अधीन महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा के बारे में भी पूछा। अगर महाराजा संतानहीन नहीं होते तो क्या दरभंगा राज की स्थिति जो आज है, वैसी ही होती? उनसे यह भी पूछा कि राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह के तीन-तीन बेटे हुए, सम्बन्ध में भाई-बहन थे आप सभी, फिर ऐसा क्या हुआ कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद दरभंगा राज बहुत तेजी के साथ पतन की ओर अग्रसर हो गया और तीनों भाइयों में सबसे छोटे का, उनके बच्चों का वर्चस्व बन गया ? कल तक मिथिला ही नहीं, बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं बल्कि विश्व-पटल पर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने वाले दरभंगा राज को आज की पीढ़ियां नहीं पहचान रहीं हैं? दरभंगा राज की सम्पत्तियाँ बिक रही हैं ? दरभंगा राज का गौरव और गरिमा समाप्त हो गया है?

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मेरी बातों को श्रीमती द्वितीया दाई बहुत ही एकाग्रचित होकर साथ सुन रही थी। फिर लम्बी उच्छ्वास लेते अपनी अश्रुपूरित आँखों से दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए कहती है: “अगर महाराज साहेब आज जीवित होते तो शायद दरभंगा राज की यह स्थिति नहीं होती ….. और फिर कुछ क्षण के लिए शांत हो गयीं।” उनके अनुसार अपने बाल्यकाल में, अपने भाइयों, सगे-सम्बन्धियों के साथ उन्होंने जो दरभंगा राज की गरिमा, प्रतिष्ठा को देखी थी। महाराजाधिराज का पारिवारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता, समाज के लोगों के लिए बहुत कुछ करने की उत्कंठा ताकि सबों के चेहरों पर मुस्कान रहे, यह भी महसूस की थी। महाराज का अपने प्रदेश के लिए जो आर्थिक सुदृढ़ता वाली दृश्टिकोण थी, उनमें जो दानशीलता की भावना थी; आज के समय में लोग सोच नहीं सकते हैं। अपनी आँचल से अपनी आखों के निचले हिस्से को पोछती फिर कहती हैं : “आज हम यह नहीं कह सकते कि जो स्थिति आज से सत्तर-अस्सी साल पहले थी दरभंगा राज की, वह स्थिति आज भी होती अगर महाराजाधिराज जीवित भी होते। वजह यह है कि तत्कालीन समाज की, लोगों की, व्यवस्था की, व्यवस्था में लगे अधिकारियों की, विद्वानों की, विदुषियों की, यानी समाज के सभी तबके के लोगों की जो सोच थी; जो समर्पण महाराजा के प्रति था, वही आज भी रहता। ऐसा कभी नहीं हो सकता है। समय और वातावरण में परिवर्तन के साथ लोगों की सोच में, उनके व्यवहार में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है।

श्रीमती द्वितीया दाई फिर कहती हैं: “मैं जन्म से लेकर महाराजाधिराज की मृत्यु तक उन्हें देखी हूँ। उनका स्नेह, उनका प्यार, उनका सम्मान हम सबों को मिला। महाराजा साहेब का अपने छोटे भाई, यानी राजा बहादुर साहेब के लिए, बहन के लिए प्रेम, स्नेह पराकाष्ठा पर था। जब भी दरभंगा में होते थे, खाली समय होता था, वे कभी भी अपने भाई को, अपनी बहन को अपनी आखों से ओझल नहीं होने देते थे। कई बार महाराज साहेब अपनी इकलौती बहन के सामने बहुत ही विनम्रता के साथ खड़े होकर, स्नेह के साथ अन्तःमन से कहते थे “अगर तुम बेटा होती तो दरभंगा की राजा (रानी) तुम्हीं होती……यह बोलते-बोलते उनका कंठ अवरुद्ध हो जाता था। उनकी आँखें नम हो जाती थी। फिर .. हे महादेव .कहते चुप हो जाते थे।” बचपन में या युवती होने तक भी ‘राजा’ महाराजा’ शब्द से, इस शब्द का सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा से बहुत परिचित नहीं थी, लेकिन आज जब महाराजा साहेब की बातें याद आती है तो वे ‘साक्षात्’ खड़े दीखते हैं। कभी अपने सम्पूर्ण राजशाही पोशाकों में तो कभी महज धोती और सिलाई वाला कुर्ता में, गोल गला, दूध से भी अधिक सफ़ेद। उन्हें अपनी माता से बहुत प्यार था।

श्रीमती द्वितीया दाई कहती हैं : “महाराजा साहेब की दानशीलता कौन नहीं जानता। कितनी किताबें लिखी जा चुकी है महाराजाधिराज पर। देश विदेश के लोग, विद्वान, लेखक उनपर शोध किये, पुस्तकें लिखे। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद मिथिला की भूमि पर विगत छः दशक अथवा उसके पूर्व दानवीर कर्ण जैसा मनुष्य कभी पैदा नहीं लिया। वर्तमान स्थिति को देखकर यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि अगर महाराजाधिराज जीवित होते तो भी दरभंगा राज का पतन “ऐसे” नहीं हुआ होता। देश आज़ाद हो गया था। परिस्थिति और परिवेश बदल गयी थी । लोग और उनकी सोच बदल रहे थे। समय बदल रहा था। लेकिन दरभंगा राज की जो आज स्थिति है, आज उसकी गरिमा की जो स्थिति है, दरभंगा राज के प्रति लोगों की जो सोच बन गयी है; ऐसी स्थिति कदापि नहीं होती। हां, उतार-चढ़ाव जीवन और प्रकृति का नियम है और हम-आप कोई भी प्रकृति के नियमों के विरुद्ध नहीं जा सकते। लेकिन आज जो स्थिति देखती हूँ, मन भर जाता है। किसे दोषी कहा जाये, किसे निर्दोष करार किया जाय यह कहना अत्यंत कठिन है। जो देखी थी, आज सपना लग रहा है। आज भी तरह-तरह की तस्वीरें मानस-पटल पर विचरण करती हैं। कभी स्मरण कर अपने आप हंसी आ जाती है, कभी आखें भर आती है…….”

श्रीमती कृष्णलता बौआसीन (दिवंगत)

श्रीमती द्वितीया दाई जब सात-आठ साल की थी, तब तक अपने माता-पिता के साथ दरभंगा में ही रहती थी। उनके जैसा दरभंगा राज किला के अंदर अनेक बच्चे थे। महाराजसाहेब की नजर में लगभग सभी बच्चे समान थे। कहा जाता है कि महाराजा साहेब से पहले भी, यानी महाराजा रामेश्वर सिंह और उनके बड़े भाई महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह का भारतीय समाजों में योगदान, उनकी दानशीलता, उनकी मानवीयता और शैक्षिक विकास के लिए किये गए उपाय “स्वर्णाक्षरों” में उल्लिखित है। लेकिन सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि चार-दीवारी के अंदर रहने वाली महिलाएं, बच्चियां शिक्षा के लिए तरस गई। इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है कि उन दिनों मिथिला में ‘पर्दा-प्रथा’, या फिर ‘महिलाओं में शिक्षा बोध या शिक्षा की आवश्यता को उतना तबज्जो नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा के अभाव में उनकी सोच विकसित नहीं हो पाई। शिक्षा के विषय पर श्रीमती द्वितीया बौआसीन की भी वही स्थिति दिखी, जो दरभंगा के लाल किले के अंदर रहने वाली महिलाओं, बच्चियों की उन दिनों स्थिति थी। “सभी सुख-सुविधाएँ थी, बस शिक्षा का माहौल नहीं था, महिलाओं के लिए…… आज सोच कर मन दुःखी हो जाता है।”

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शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। दरभंगा नरेशों ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कई संस्थानों को काफी दान दिया। महाराजा रामेश्वर सिंह बहादुर पंडित मदनमोहन मालवीय के बहुत बड़े समर्थक थे और उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को 5,000,000 रुपये कोष के लिए दिए थे। महाराजा रामेश्वर सिंह ने पटना स्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) पटना विश्वविद्यालय को दे दिया था। सन् 1920 में उन्होंने पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल के लिए 500,000 रुपये देने वाले सबसे बड़े दानदाता थे। उन्होंने आनन्द बाग पैलेस और उससे लगे अन्य महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय को दे दिए। कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रंथालय के लिए भी उन्होंने काफी धन दिया। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय को राज दरभंगा से 70,935 किताबें मिलीं।स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। परन्तु आज की पीढ़ी को इस बात की पीड़ा है कि महाराजाधिराज के साथ साथ, उनके भाई राजकुमार विशेश्वर सिंह भी, अपने जीवन-काल में कभी दरभंगा राज के चहारदीवारी के अंदर रहने वाले अपने सम्बन्धियों को, लोगों को, बच्चों को, महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में जुड़ने, जीवन में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने, शिक्षित होने के अवसर से वंचित रहे।

श्रीमती द्वितीया दाई कहती हैं: “सं 1950 के दशक के उत्तरार्ध, महाराजाधिराज के कहने पर माँ-बाबूजी के साथ सभी इलाहाबाद आ गए। इलाहाबाद अपने आप में शिक्षा के लिए विख्यात उन दिनों भी था, आज भी है। लेकिन इलाहाबाद आने पर भी दरभंगा राज से जुड़ी महिलाओं के लिए शिक्षा के मामले में कोई बदलाब नहीं आया। तत्कालीन समाज के प्रचलित नियम समाज के सभी तबके के लोगों को जकड़े था। महिला शिक्षा देश के अन्य भागों अंकुरित और पुष्पित भी हो रहा था; परन्तु हम बच्चियों को शिक्षित होने, शिक्षित करने के बारे में कोई सोच नहीं रहा था। समय बीत रहा था और हम बच्चियां बड़ी हो रही थी – बिना शिक्षा के, महिलाएं अशिक्षित की अशिक्षित रह गयीं।

श्रीमती द्वितीया दाई कहती हैं: “जब तक महाराजाधिराज जीवित थे, छुट्टी के दिनों में भाई-बहन अपने माता-पिता के साथ वहीँ जाते थे, जहाँ महाराज साहेब जाते थे, रहते थे । लेकिन उनकी मृत्यु के साथ ही जैसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बिखर गया। समस्त आशाएं टूट गयी। ऐसा लगा जैसे संबंधों की कड़ी भी टूट गयी हो। हां, महाराजा साहेब की मृत्यु के बाद भी कई वर्षों तक बड़ी महारानी थीं। उनके साथ हम लोगों का सम्बन्ध जो महाराजा साहेब के समय था, वह महाराजा साहेब के जाने के बाद भी रहा। मझली महारानी बहुत अल्प आयु में ही मृत्यु को प्राप्त की और जो छोटी महारानी कामसुंदरी जी अभी जीवित हैं, उनसे हम लोगों का बहुत घनिष्ट लगाव न पहले था, और न महाराज की मृत्यु के बाद। महाराजा साहेब की मृत्यु के बाद जैसे दरभंगा राज की बुनियाद ही समाप्त हो गई।

श्री कन्हैया जी (दिवंगत)

महाराजा साहब को कोई संतान नहीं था। राजा बहादुर के तीन बेटे थे – राजकुमार जीवेश्वर सिंह, फिर थे राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और सबसे छोटे थे राजकुमार शुभेश्वर सिंह। महाराजाधिराज की मृत्यु के समय सिर्फ राजकुमार जीवेश्वर सिंह का ही विवाह हुआ था और उनकी पत्नी थी श्रीमती राजकिशोरी जी। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। राजकुमार जीवेश्वर सिंह अपनी प्रथम पत्नी श्रीमती राजकिशोरी जी के रहते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के प्रथम पत्नी से दो बेटियां – कात्यायनी देवी और दिब्यायनी देवी हुई और दूसरी पत्नी से पांच बेटियां – नेत्रायणी देवी, चेतना, द्रौपदी, अनीता, सुनीता – हुई । राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह, जो राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के मझले बेटे थे, को तीन बेटे हुए – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की अकाल मृत्यु हो गई थी। जबकि राजबहादुर के सबसे छोटे पुत्र राजकुमार शुभेश्वर सिंह के दो पुत्र हुए – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह। कुमार शुभेश्वर सिंह और उनकी पत्नी दोनों वर्षों पहले मृत्यु को प्राप्त किये। आज राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और उनकी पत्नी दोनों जीवित हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ और दीर्घायु रखें।

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श्रीमती द्वितीया दाई कहती हैं: राजा बहादुर के तीनों बेटों में बड़े (राजकुमार जीवेश्वर सिंह) और मझले (राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह) को सभी दृष्टिकोण से राज के क्रियाकलापों से कोई विशेष लगाव नहीं था, प्रारम्भ से ही। फिर बदलती परिस्थियाँ भी कुछ उत्तरदायी रहीं। जो सबसे छोटे थे वे “अधिक सक्रीय” रहे। आज भी उनके बच्चे अधिक सक्रिय हैं। प्रारंभिक दिनों में भी महाराजा साहेब के इर्द-गिर्द बाबा (दिवंगत ओझा मुकुंद झा) तो थे अवश्य लेकिन अधिक सक्रिय श्री गिरीन्द्र मोहन मिश्र और न्यायमूर्ति लक्ष्मी कांत झा रहे।” ज्ञातव्य हो कि महाराजा की मृत्यु के बाद ‘वसीयत’ (5 जुलाई, 1961) और फिर “प्रोबेट” के बाद न्यायमूर्ति लक्ष्मी कान्त झा ‘सोल एस्क्यूटर” (निर्णय: कलकत्ता उच्च न्यायालय दिनांक 26 सितम्बर, 1963) बने। उसी ‘वसीयत’ में महाराजा ने तीन ट्रस्टियों – पंडित लक्ष्मी कांत झा, गिरीन्द्र मोहन मिश्र और श्री ओझा मुकुंद झा – का नाम लिखा था जिन्हे दरभंगा राज रेसिडुअरी एस्टेट के देख-रेख का जबाबदेही सौंपा था। महाराजा यह भी लिख कर गए थे कि “एस्क्यूटर” अपना कार्य निष्पादित करने के बाद ट्रस्ट का समस्त कार्य ट्रस्टियों को सुपुर्द कर देंगे। सं 1963 के बाद सं 1978 तक न्यायमूर्ति लक्ष्मीकांत झा के समय काल में क्या हुआ, क्या नहीं हुआ यह तो “दरभंगा राज की वर्तमान स्थिति ही गवाह” है। लक्ष्मी कांत झा की मृत्यु 3 मार्च, 1978 को हो गयी। फिर कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा दो अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों – न्यायमूर्ति एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी – की नियुक्ति हुई दरभंडा राज के प्रशासक के रूप में। फिर ‘एसेट्स और लायबिलिटी’ का ‘इन्वेंटरी’ बना और फिर कागजात तत्कालीन ट्रस्टियों – श्री द्वारकानाथ झा, श्री मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा – को 26 मई, 1979 को सुपुर्द किया गया।

फिर 27 मार्च, 1987 हुए “फेमिली सेटेलमेंट” वाले दस्तावेज पर सर्वोच्च न्यायालय दिनांक 15 अक्टूबर, 1987 को अपना मुहर लगाया। संपत्ति का बंटवारा हुआ और क्लॉज ५ और 6 में दरभंगा राज की सम्पत्तियों को बेच कर कर्ज और बकाया राशि को चुकाने की बात कही गयी। फिर क्लॉज 6 में यह भी लिखा गया: “Under Clause 6, a committee of the beneficiaries, consisting of Maharani Kamsundari, Rajkumar Subheshwar Singh or his nominee (and representatives of beneficiaries of other branches) shall advise and give written consent to the Trustees in the matter of sale of properties aforesaid and distributions of shares of properties allotted to the parties as per the settlement as far as practicable and not exceeding five years and/or extended time by the court.”

शंकर जी (दिवंगत)

दरभंगा राज में एक समय ऐसा भी आया जब 84-वर्षीय, 72-वर्षीय और 69-वर्षीय वृद्ध न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर उससे विनती किया कि उन्हें कार्य मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया जाए, कार्यमुक्त किया जाए । दस्तावेज के अनुसार, नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विशेश्वर नाथ खरे और उनके सहयोगी न्यायमूर्तियों के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत होता है। यह याचिका सिविल प्रोसेड्यूर कोड के सेक्शन 90 और आदेश 36 के तहत, सन 1963 के प्रोबेट प्रोसीडिंग्स संख्या 18 के तहत, दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर के वसीयतनामा के अधीन नियुक्त ट्रस्टियों के द्वारा इण्डियन ट्रस्ट एक्ट के सेक्शन 34, 37, 39, 60 और 74 के अधीन प्रस्तुत किया जाता है। प्रस्तुतकर्ता होते हैं द्वारका नाथ झा, मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा। याचिका में लिखा है: “It is submitted that the applicants are being harassed unnecessarily by the various quarters having vested interest. They are also being confronted with various problems. The applicants further submitted that due to their old age, falling health and other difficulties they are not in a position to continue to function as Trustees. It is the sincere desire of the applicants that they may be relieved of the responsibilities of the office of the Trustees of the Residuary Estate of Maharaja of Darbhanga and also of the Charitable Trust.

बहरहाल, महाराजा साहेब की मृत्यु के बाद दरभंगा राज का क्या हश्र हुआ यह तो सर्वविदित है। कल तक मिथिला ही नहीं, बिहार ही नहीं, भारत ही नहीं बल्कि विश्व-पटल पर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने वाले दरभंगा राज का गौरव और गरिमा गंगा, महानंदा, गंडक, कोशी, बागमती, कमला, बलान, बूढ़ी गंडक जैसी नदियों और उसकी सहायक नदियों की धाराओं में बहती चली गयी…….. ……. क्रमशः

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