सम्पत्ति, शर्त और संस्कृति : भतीजे को कहे ‘ब्राह्मण में शादी करने पर ही मिलेगी सम्पत्ति’, पौत्र ‘बाहर प्रेम-विवाह’ किये (भाग-18)

कहानी पढ़ें और इस तस्वीर का कैप्शन आप सोचें  

कलकत्ता / पटना / दरभंगा : दिनांक 5 जुलाई, 1961 को “दि लास्ट विल एंड टेस्टामेंट” में दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपना वसीयत बनाते समय वसीयत के 11वें पारा में ऐसा क्यों लिखा की उनकी दोनों पत्नियों की मृत्यु के बाद संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा उनके सबसे छोटे भतीजे, राजकुमार शुभेश्वर सिंह के “हिन्दू ब्राह्मण समुदाय” की पत्नी द्वारा उत्पन्न बच्चों का होगा ? यह सच है कि वसीयत बनाते समय राजकुमार शुभेश्वर सिंह “नाबालिग” थे, लेकिन क्या महाराजाधिराज को अपने भतीजे पर इतना विश्वास नहीं था कि वह बालिग होने पर “अपने ब्राह्मण समुदाय” की लड़की से विवाह करेगा ? क्या “हाँ” की अपेक्षा, “नहीं” का “अंदेशा” अधिक था ? क्या महाराजाधिराज इस बात से आशंकित थे कि कहीं दरभंगा राज परिवार के पुरुष आने वाले समय में अपनी जाति और संप्रदाय से बाहर भी विवाह कर सकता है? क्या संपत्ति के माध्यम से वे एक “लक्षणरेखा” खींचना चाहते थे, उन्हें “बांधना” चाहते थे ताकि बालिग होने पर, जब भी विवाह की बात चले, वे “अपने समुदाय के ब्राह्मण लड़की” से ही विवाह करें और ऐसा करने पर ही उनकी दोनों महारानियों की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा उनकी “ब्राह्मण समुदाय के पत्नी” से उत्पन्न बच्चों को मिलेगा ? अन्यथा नहीं ? 

आज से 60-वर्ष पूर्व मिथिलांचल के शीर्षस्थ पुरुष, दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के मन में इस तरह का विचार उत्पन्न होना शायद आने वाले दिनों में न तो दरभंगा राज परिवार के लिए ‘शुभ’ संकेत था और ना ही, मिथिलांचल के ब्राह्मणों के लिए। लेकिन, प्रारब्ध को कौन टाल सकता है ? आखिर महाराजाधिराज भी तो मनुष्य ही थे। वे नहीं जानते थे कि उनके रामबाग परिसर में किसी “गैर-ब्राह्मण-गैर-मैथिल बहु के आगमन का मार्ग ईश्वर ने प्रशस्त कर दिया है।” महाराजा शायद यह नहीं जानते थे कि जिस भतीजे पर “संपत्ति का अंकुश” लगाकर उसे आने वाले दिनों में अपनी ही बिरादरी और समुदाय में ही विवाह करने को विवश कर रहे हैं; उसी भतीजे का ब्राह्मण लड़की की कोख से उत्पन्न सन्तान, जिसे महाराजाधिराज अपनी दोनों महारानियों की संपत्ति का हकदार बना रहे हैं उस वसीयतनामा में, अपने दादाजी की बातों को “तिरस्कृत” कर अपने “ब्राह्मण समुदाय” से बाहर ब्याह रचेगा, अपना घर बसाएगा, अपनी जिंदगी की शुरुआत कुछ अलग तरीके से करेगा – अब दादाजी-दादीजी-पापाजी-मम्मीजी खुश हो नाखुश !! 

इसीलिए तो गोस्वामी तुलसीदास ने भी श्रीरामचरित मानस में लिखा है कि :

“होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ 
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥”

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के वसीयतनामा में लिखा है: “4. Subject to the disposition and bequest mentioned above my entire residue of my estate shall vest in a Board of Trustees consisting of persons named and described in Schedule ‘C’ who will held the property in Trust for my two wives and children of my aforesaid  three nephews (son of my deceased brother). The Trustees shall pay out of capital assets of Rs. 8 (Eight) lacs to Maharani Rajlakshmi and Rs. 12 (Twelve) lacs to Maharani Kamasundari and kept the properties, particularly the house property in proper repairs. On demise of my two wives, one-third of the properties shall vest in the children of my youngest nephew Rajkumar Subheshwar Singh born of a wife of his own Brahmin community, and one-third will be divided between the children of my other two nephews, Rajkumar Jeeveshwar Singh and rajkumar Yajneshwara Sinmgh, and one-third will remain in the Trust for public charitable purposes.“

दिनांक 5 जुलाई, 1961 को “दि लास्ट विल एंड टेस्टामेंट” में दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपना वसीयत बनाते समय वसीयत के 11वें पारा में ऐसा क्यों लिखा

वैसे मिथिलांचल में विद्वानों की, विदुषियों की, महामहिमोपाध्यायों की, शास्त्रियों की, आचार्यों की किल्लत न उस ज़माने में थी और ना ही आज है – फिर आज तक दरभंगा राज के लोगों ने, वसीयत के “सोल एस्क्यूटर” पटना उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश “न्यायमूर्ति” लक्ष्मी कांत झा (अब दिवंगत), ट्रस्ट के ट्रस्टीज द्वारका नाथ झा (अब दिवंगत), मदन मोहन झा (अब दिवंगत), काम नाथ झा (अब दिवंगत) कभी इस बात का खुलासा नहीं किये कि “आखिर महाराजाधिराज अपने वसीयत में इन शब्दों का, ऐसे शर्तों का उल्लेख क्यों किये?  साथ ही, अगर उल्लेख किये तो उनके शब्दों का मोल भले उनका भतीजा रख लिया हो, संपत्ति के ख़ातिर ही सही; उस भतीजे के पुत्र ने दादा के अंतिम-शब्दों का मोल नहीं रखा – यह सौ नहीं, लाख नहीं, करोड़ फ़ीसदी सत्य है। 

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महाराजाधिराज का कोई संतान नहीं था। उनके भाई राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के तीन पुत्र थे – (1) राजकुमार जीवेश्वर सिंह, (2) राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह। वसीयत लिखे जाने के समय इन तीनों भाइयों में राजकुमार जीवेश्वर सिंह ‘बालिग’ हो गए थे और उनका विवाह श्रीमती राज किशोरी जी के साथ संपन्न हो गया था। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। समयांतराल, राजकुमार जीवेश्वर सिंह प्रथम पत्नी के होते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के दोनों पत्नियों से सात बेटियां – कात्यायनी देवी, दिब्यायानी देवी, नेत्रायणी देवी, चेतना दाई, द्रौपदी दाई, अनीता दाई, सुनीता दाई – हुई । कहा जाता है की जीवेश्वर सिंह दूसरी शादी अपने ही घर के एक ब्राह्मण, जो उनके पूजा-पाठ इत्यादि का बंदोबस्त करते थे, फूल तोड़ते थे, की बेटी से किये। जीवेश्वर सिंह को दोनों पत्नियों से पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। किसी भी अन्य सदस्यों की तुलना में जीवेश्वर सिंह अधिक विद्वान थे, काफी शिक्षित थे और महाराजाधिराज के समय-काल में दुनिया देखे थे। दरभंगा राज के लोग उन्हें “युवराज” भी कहते थे। “परन्तु”…… वाली बात महाराजाधिराज के मन में बैठ गया था। वे दरभंगा राज का भविष्य देख रहे थे। कुमार यज्ञेश्वर सिंह के तीन बेटे थे – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई थी। 

दिनांक 5 जुलाई, 1961 को “दि लास्ट विल एंड टेस्टामेंट” में दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपना वसीयत बनाते समय वसीयत के 11वें पारा में ऐसा क्यों लिखा

बहरहाल, कहा जाता है कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद कुमार जीवेश्वर सिंह को महाराजा की संपत्ति से “बेदखल” कर दिया गया। इसके बाद वे अपनी पत्नी श्रीमती राजकिशोरी के साथ बेला प्लेस में रहने लगे ।पिछले वर्ष श्रीमती राजकिशोरी का देहांत हो गया। वे दरभंगा के लहेरियासराय के बलभद्रपुर मोहल्ले स्थित आवास पर अंतिम सांस ली। दयालु प्रवृति की, धन का गुमान ना करने वाली रानी इस आवास में अकेली रहती थीं और लंबे समय से बीमार चल रही थी। वे अपने पीछे अपनी दो बेटियां कात्यायनी और देवयानी को छोड़ गई। ये दोनों बेटियां दरभंगा स्थित 7-जीएम रोड पर राज बंगले में रहती है। 

स्वाभाव से अत्यंत दयालु प्रकृति की होने के कारण स्थानीय अख़बारों ने इनकी मृत्यु की खबर बहुत तबज्जो के साथ प्रकाशित किया। काश !! आज महाराजाधिराज का अपना अखबार ‘आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर – भी जीवित होता। यह अलग बात थी कि महाराजाधिराज ने इनके पति को संपत्ति के दस्तावेज में ‘कोई स्थान नहीं दिया था’, परन्तु, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर अख़बारों में, पत्रिका में श्रीमती राजकुमारी जी की मृत्यु की खबर छपने से, पढ़ने से महाराजाधिराज की आत्मा ‘बिलखती’ नहीं, ‘अश्रुपूरित’ ही होती – खैर। महाराजाधिराज भी ब्रह्माण्ड से देखते ही होंगे – क्या था, क्या हो गया पटना की सड़कों पर जहाँ कभी तूती बोलती थी, उनके नाम की, आज नेश्तोनाबूद हो गया !!!

एक रिपोर्ट के अनुसार लक्ष्मी सागर निवासी उपेंद्रनाथ मिश्र के घर की पुत्री के रूप में 11 दिसंबर 1940 को जन्मी राजकुमारी का विवाह महज आठ साल की उम्र में कुमार जीवेश्वर सिंह के साथ 30 जनवरी 1948 को हुआ था। उन्हें “युवराज” भी कहते थे लोग बाग। श्रीमती राजकुमारी को संपत्ति का गुमान कभी नहीं हुआ । वह बेहद सादगी पूर्ण जीवन जीती थीं और महाराजा को अपनी बहू की यह आदत बेहद पसंद थी। सीमित संसाधन में रहने की उनकी आदत उस जमाने में भी चर्चा में होती थी। कहा जाता है कि महाराज कामेश्वर सिंह अकेले बारात गए थे । जिस गाड़ी से महाराज गए थे उस गाड़ी को चलाकर ले गए थे उनके ससुर महाराज के भाई राजा बहादुर विशेश्वर सिंह। शादी के बाद जब ससुराल आईं तब से लेकर मृत्यु के वक्त तक राजघराने की मर्यादा का ध्यान रखा और उसकी रक्षा में लगी रहीं। 

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विवाह के बाद जब तक महाराजाधिराज जीवित थे, राजकिशोरी दरभंगा के नरगौना पैलेस में ही रहती थीं। बाद में, अपने पति के साथ वे बेला पैलेस आ गई । सरकार ने जब बेला पैलेस का अधिग्रहण कर लिया तो राजकिशोरी यूरोपियन गेस्ट हाउस में रहने लगीं। लेकिन सरकार ने आपातकाल के दौरान उसका भी अधिग्रहण कर लिया। इसके बाद बलभद्रपुर स्थित आवास में ही उनका शेष समय बीता। अपने पति की मृत्यु के बाद किशोरी बेहद एकांत में रहने लगी थी।  राज परिवार के रिवाज के अनुरूप माधेश्वर महादेव मंदिर ( सिद्धपीठ श्यामा माई मंदिर) परिसर में जलती रानी की चिता के पास बैठे लोग उनकी सादगी की चर्चा करते नहीं थक रहे थे। 

दिनांक 5 जुलाई, 1961 को “दि लास्ट विल एंड टेस्टामेंट” में दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपना वसीयत बनाते समय वसीयत के 11वें पारा में ऐसा क्यों लिखा

बहरहाल, दस्तावेज के अनुसार, नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति  विशेश्वर नाथ खरे और उनके सहयोगी न्यायमूर्तियों के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत होता है। यह याचिका सिविल प्रोसेड्यूर कोड के सेक्शन 90 और आदेश 36 के तहत, सन 1963 के प्रोबेट प्रोसीडिंग्स संख्या 18 के तहत, दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर के वसीयत नामा के अधीन नियुक्त ट्रस्टियों के द्वारा इण्डियन ट्रस्ट एक्ट के सेक्शन 34, 37, 39, 60 और 74 के अधीन प्रस्तुत किया जाता है। प्रस्तुतकर्ता होते हैं द्वारका नाथ झा, मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा। ये सभी ट्रस्टी न्यायालय से निवेदन करते हैं कि महाराजाधिराज की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को होती है। अपनी मृत्यु से पूर्व वे दिनांक 5 जुलाई, 1961 को एक वसीयत बनाते हैं जिसमें लक्ष्मी कांत झा को “सोल एस्क्यूटर” बनाते हैं। इसके बाद दिनांक 26 सितम्बर, 1963 उक्त वसीयतनामा को “प्रोबेट” करने का अधिकार लक्ष्मी कांत झा को दिया जाता है। लक्ष्मी कांत झा उक्त कार्य को सम्पन्न करते हुए 3 मार्च, 1978 को मृत्यु को प्राप्त करते हैं।

महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय की देख-रेख में जो भी फेमिली सेटेलमेंट हुआ, उसमें आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका के प्रकाशक कंपनी दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड के शेयरों के लाभार्थियों में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट को अगर हटा दें, तो महारानी अधिराणी कामसुन्दरी साहब के अलावे, सात महिला लाभार्थी थी। पुरुष लाभार्थियों की संख्या महिलाओं की तुलना में कम थी। इसी फैमिली सेटलमेंट के शेड्यूल iv के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी एस्टेट चैरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नेत्रायणि देवी, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तांतरित करेंगे, सिवाय फैमिली सेटलमेंट के लोगों के। 

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कुमार जीवेश्वर सिंह (दिवंगत) की पत्नी श्रीमती राजलक्ष्मी जी का पार्थिव शरीर 

दस्तावेज के अनुसार पुरुषों की कुल शेयरों की संख्या 8800 थी (मूल्य: 880000 रुपये) जबकि महिलाओं की कुल शेयरों की संख्या 11200 जिसका मूल्य 11200000 था। निर्णय पाठकगण करें। दरभंगा राज को नेश्तोनाबूद करने में, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका को बंद करने में, महाराजाधिराज के नाम को समाप्त करने में पुरुषों का योगदान – चाहे चहारदीवारी के अंदर के पुरुष हों या चहारदीवारी के बाहर के – को मिथिला के आधुनिक इतिहास में “कोयलाक्षरों” में तो लिखा ही जायेगा; महिलाओं का नाम उस कतार से एक सीढ़ी ऊपर उसी अक्षरों में लिखा जायेगा। पढ़ने में तकलीफ़ जरूर होगी, लेकिन संलग्नित दस्तावेज इस तथ्य का जीता-जागता प्रमाण है। दरभंगा राज के इतिहास में यह भी दर्ज किया जायेगा कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा अपने मृत्यु के पूर्व जो भी वसीयतनामा बनाया गया, जिन-जिन लोगों को संपत्ति का हिस्सा मिला, किसी ने भी “ह्रदय से दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड द्वारा प्रकाशित आर्यावर्त-इंडियन नेशन – मिथिला मिहिर अख़बारों और पत्रिका के भविष्य को ह्रदय से नहीं स्वीकारा? शायद नहीं। जब इस कंपनी और अख़बारों की स्वीकार्यता अन्तःमन से नहीं हुआ, फिर इसमें कार्य करने वाले हज़ारों कर्मचारियों का, उनके परिवाओं का, उनके बाल-बच्चों का भविष्य अधर में लटकना स्वाभाविक था। 
 
महाराजाधिराज दिनांक 1 अक्टूबर, 1962 को मृत्यु को प्राप्त हुए। वे दुर्गापूजा के अवसर पर कलकत्ता से अपने राज दरभंगा आये थे। वे अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कलकत्ता से अपने रेलवे सैलून से नरगोना स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। सभी बातें सामान्य थी उस सुवह, लेकिन क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ जैसे अनेकानेक कारणों के बीच  पहली अक्टूबर, १९६२ को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में उनका जीवंत शरीर “पार्थिव” पाए गया । सर कामेश्वर सिंह की तीन पत्नियां थीं – महारानी राज लक्ष्मी, महारानी कामेश्वरी प्रिया और महारानी कामसुंदरी। महारानी कामेश्वरी प्रिय की मृत्यु आज़ाद भारत से पूर्व और अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन के समय सं 1942 में हुई। महाराजाधिराज बहुत दुःखी थे उनकी मृत्यु के बाद, जैसा लोग कहते हैं। जिस सुबह महाराजाधिराज अंतिम सांस लिए, उसके बाद उनकी दोनों पत्नियां – महारानी राजलक्षी और महारानी कामसुन्दरी दाह संस्कार में उपस्थित थी, यह भी लोग कहते हैं। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानि महाराजा की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई और महारानी कामसुन्दरी आज भी जीवित हैं महाराजा के विधवा के रूप में।  

बहरहाल, सन 1962 में दरभंगा के अंतिम महाराजा द्वारा अंतिम सांस लेने, उनके शरीर को पार्थिव होने के कोई चार-दसक बाद आर्यावर्त – इण्डियन नेशन अखबार के प्रबन्ध निदेशक, जिनके कार्यकाल में महाराजाद्वारा स्थापित बिहार का इन दो अख़बारों का पन्ना भी पार्थिव हुआ, अखबारों ने अंतिम सांस ली, महाराजा साहेब के भतीजे श्री शुभेश्वर सिंह ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि “वे बहुत ही तेज जीवन जीये हैं।उनकी जितनी भी बुराईयां थीं, अवगुण थे; सभी के सभी विवाहके साथ समाप्त हो गए, छोड़ दिए। लेकिन एक कमजोरी है जिसे वे नहीं त्याग नहीं सके,और वह है – शराब पीना।

क्रमशः…………

2 COMMENTS

  1. आपकी सभी बातें त्थयो पर आधारित होती हैं, आप बहुत ही अच्छा काम कर रहे हैं कि मिथिला वासियों तक सही जानकारी पहुंचा रहे हैं ।

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