महाराजाधिराज का शिक्षा के क्षेत्र में अमूल्य योगदान था, परन्तु अपने ‘राज की महिलाओं को’ दक्ष नहीं बना सके (भाग-13)

महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपनी पत्नी महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहिबा के साथ 

पटना / दरभंगा / कलकत्ता / दिल्ली :  महाराजा दरभंगा भले देश में शिक्षा के क्षेत्र में अहम् भूमिका निभाए हों, परन्तु, अपने राज के अंदर उन महिलाओं को “शिक्षित” नहीं कर सके, जो उनकी मृत्यु के बाद उनके ही द्वारा स्थापित आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका को बंद होने से बचा नहीं पायीं । आश्चर्य की बात तो यह है कि इन अख़बारों के प्रकाशक कंपनी दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के शेयरों के बंटबारे में, दरभंगा राज की महिला लाभार्थियों की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक थी । महारानी अधिरानी कामसुन्दरी के साथ महिला लाभार्थियों की संख्या आठ थी, जो 11200 शेयरों की मालकिन थी (मूल्य: 1120000 रुपये); जबकि पुरुष लाभार्थियों की संख्या महज पांच ही थी और वे कुल 8800 शेयरों के साथ (मूल्य: 880000 रुपये) के स्वामी थे। अगर ये महिला लाभार्थीगण चाहती तो “इतिहास” लिख देती, परन्तु “चाहत ही नहीं” जगी। क्योंकि “शिक्षा की भूख” जरुरी है समाज में बदलाव के लिए। दृष्टान्त: अनपढ़, अशिक्षित परिवार में जन्म लेने के बाद भी शिक्षा की भूख “अहिल्या” को इतिहास में “अहिल्याबाई होल्कर” के नाम से स्वर्णाक्षरों में लिख दिया। अहिल्याबाई होल्कर का जन्म 1725 में है और उनकी मृत्यु 1795 में। यानी 226 वर्ष का इतिहास आज भारत के बच्चों के मुख पर है। जबकि राज दरभंगा की महिलाओं को महाराजाधिराज की मृत्यु के महज 60 वर्ष बाद ही कोई जानता तक नहीं। यह निश्चित है कि उन दिनों अगर दरभंगा राज की महिलाएं उन अख़बारों का नियंत्रण अपने हाथ में ले ली होती, तो भारत के इतिहास में आज वे भी अमर होती। शब्द बहुत कटु है, कर्ण प्रिय तो है ही नहीं – लेकिन विचार जरूर करें। अपने घरों की महिलाओं को पढ़ाएं जरूर।  

भारत में शिक्षा के क्षेत्र के विकास में दरभंगा के महाराजाओं, महाराजाधिराज की भूमिका अक्षुण है। यह बात कल भी लोग मानते थे, आज भी स्वीकार करते हैं और आने वाले समय में भी मानने पर विवश होंगे। लेकिन एक बात पर अगर विचार करेंगे तो शायद देश के लोगों की आँखें अश्रुपूरित हो जाएगी और फिर महाराजाधिराज की ओर, उनके परिवारों के तरफ एक विपरीत निगाहों से देखेंगे, सोचने पर विवश हो जायेंगे। 

वैसे आज तक किसी ने भी यह लिखने की, कहने की हिम्मत नहीं किये – लेकिन सच तो यही है की दरभंगा राज के चहारदीवारी के बाहर महाराजाधिराज चाहे शिक्षा के क्षेत्र में जो भी भूचाल लाये हों, जितने भी महत्वपूर्ण कार्य किये हों; चहारदीवारी के भीतर अपने ही परिवार की महिलाओं को आधुनिक शिक्षा, आधुनिक सोच से वंचित रखे या वे सभी महिलाएं “शिक्षा के महत्व” को “महत्वहीन” समझी। अगर उनकी नजरों में महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के आगे शिक्षा का महत्व हुआ होता, शब्दों का तबज्जो उनकी नज़रों में हुआ होता, महाराजाधिराज जैसी शैक्षिक-सोच का महत्व वे समझी होती, तो शायद वे सभी अपने वजूद को, दरभंगा के महाराजाधिराज की आवाज आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर को बंद नहीं होने देती ।

अगर यह अखबार आज जीवित होता, उनके नियंत्रण में संचालित और सम्पादित होता, तो आज दरभंगा राज की वे सभी महिला लाभार्थी, जो महाराजाधिराज की मृत्यु के साथ ही उनकी सम्पत्तियों की हिस्सेदार बनी; भारत का एक विशाल पुरुष समूह उन महिलाओं के सामने अपने घुटने पर बैठा होता – जहाँ तक आधुनिक पत्रकारिता का सवाल है। उन अख़बारों के सञ्चालन और संपादन के कारण वे सभी भारत ही नहीं, विश्व में महाराजाधिराज जैसी ही विख्यात होती । परन्तु ऐसा नहीं हुआ। यह दरभंगा राज के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण है। 

महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय की देख-रेख में जो भी फेमिली सेटेलमेंट हुआ, उसमें आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका के प्रकाशक कंपनी दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड के शेयरों के लाभार्थियों में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट को अगर हटा दें, तो महारानी अधिराणी कामसुन्दरी साहब के अलावे, सात महिला लाभार्थी थी। पुरुष लाभार्थियों की संख्या महिलाओं की तुलना में कम थी। इसी फैमिली सेटलमेंट के शेड्यूल iv के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी एस्टेट चैरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नेत्रायणि देवी, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तांतरित करेंगे, सिवाय फैमिली सेटलमेंट के लोगों के। 

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शेयरों का हिस्सेदारी – महाराजा के सोच का नहीं 

दस्तावेज के अनुसार पुरुषों की कुल शेयरों की संख्या 8800 थी (मूल्य: 880000 रुपये) जबकि महिलाओं की कुल शेयरों की संख्या 11200 जिसका मूल्य 11200000 था। निर्णय पाठकगण करें। दरभंगा राज को नेश्तोनाबूद करने में, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका को बंद करने में, महाराजाधिराज के नाम को समाप्त करने में पुरुषों का योगदान – चाहे चहारदीवारी के अंदर के पुरुष हों या चहारदीवारी के बाहर के – को मिथिला के आधुनिक इतिहास में “कोयलाक्षरों” में तो लिखा ही जायेगा; महिलाओं का नाम उस कतार से एक सीढ़ी ऊपर उसी अक्षरों में लिखा जायेगा। पढ़ने में तकलीफ़ जरूर होगी, लेकिन संलग्नित दस्तावेज इस तथ्य का जीता-जागता प्रमाण है। दरभंगा राज के इतिहास में यह भी दर्ज किया जायेगा कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा अपने मृत्यु के पूर्व जो भी वसीयतनामा बनाया गया, जिन-जिन लोगों को संपत्ति का हिस्सा मिला, किसी ने भी “ह्रदय से दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड द्वारा प्रकाशित आर्यावर्त-इंडियन नेशन – मिथिला मिहिर अख़बारों और पत्रिका के भविष्य को ह्रदय से नहीं स्वीकारा? शायद नहीं। जब इस कंपनी और अख़बारों की स्वीकार्यता अन्तःमन से नहीं हुआ, फिर इसमें कार्य करने वाले हज़ारों कर्मचारियों का, उनके परिवाओं का, उनके बाल-बच्चों का भविष्य अधर में लटकना स्वाभाविक था। 

आज़ादी के आन्दोलन में, भारत का इतिहास के निर्माण में देश की अनपढ़, अशिक्षित, गरीब, महिलाओं ने अपने पति के सम्मानार्थ जो भी की, आज इतिहास में दर्ज है। भारत का इतिहास उन महिलाओं के नामों के साथ कभी छेड़-छाड़ नहीं कर सकता है। लेकिन दरभंगा राज के मामले, महाराजाधिराज के घर की महिलाएं उन्हें वो सम्मान नहीं दे सकी, जिसके वे हकदार थे। अगर वे महिलाएं खुद आगे कदम बढ़ाई होती तो शायद आज राज दरभंगा नेश्तोनाबूद नहीं होता। और यही कारण है कि उस ज़माने में भी अनपढ़, अशिक्षित, अज्ञानी महिलाएं अपने पति के लिए, अपने परिवार के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए चट्टान की तरह खड़ी होती थी, अंतिम सांस तक लड़ती थी, योद्धा कहलाती थी – नहीं तो आज भी भारत के इतिहास में विधवा रानी लक्ष्मी बाई, अरुणा असफ अली, सरोजनी नायडू, मैडम बीकाजी कामा, एनी बेसेंट, कमला नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, मूलमती, कित्तूर वरणी चेनम्मा, झलकारी बाई, कस्तूरबा गाँधी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, बेगम हज़रात महल, सावित्री बाई फुले, नीली सेनगुप्ता, उमाबाई कुंडापुर, उदा देवी, जम्मू स्वामीनाथन, मातंगिनी हज़रा, सुचेता कृपलानी आदि जैसी सैकड़ों-हज़ारों महिलाएं भारत के इतिहास में – पति के जीवित रहते अथवा विधवा जीवन में भी अपने पति के सम्मानार्थ उनके पीछे खड़ी होने के लिए –  अमर नहीं होती। आज स्वतंत्र भारत के इतिहास में, बिहार के इतिहास में, मिथिलांचल के इतिहास में और दरभंगा के इतिहास में महाराजा सर कामेश्वर सिंह की तीनो पत्नियों को या फिर उन सात महिला लाभार्थियों को कौन जानता है ? आने वाली पीढ़ी को मिथिला के लोग क्या कहेंगे?

खैर। दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज को संभवत “अपनी मृत्यु” का बोध हो गया था, जैसा कि दरभंगा में, या यूँ कहें कि राज परिवार में शरीर से जीवित तत्कालीन लोग बाग आज भी कहते हैं । “मृत्यु” “आकस्मिक” था यह सभी स्वीकारते भी हैं। लेकिन ऐसी कौन सी परिस्थितियां थी, कौन से कारण थे जो महाराजाधिराज के आकस्मिक मृत्यु की जांच-पड़ताल के मार्ग में “ताला लगा दिया”, या फिर यूँ भी कहा जा सकता है कि “वे कौन लोग थे, चाहे घर के अंदर अथवा घर के बाहर, जो यह नहीं चाहते थे कि मृत्यु की जांच हो। महाराजाधिराज का व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक इतिहास पढ़ने से, उनके बारे में सुनने से तो यही प्रतीत होता है कि उस ज़माने में दरभंगा की भूमि से लेकर पटना के रास्ते, दिल्ली के राष्ट्रपति भवन तक महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की तूती बोलती थी। हाँ, तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल से उनका   “बहुत बेहतर” सम्बन्ध नहीं था, फिर भी पंडित नेहरू के पिता पंडित मोतीलाल नेहरू, जैसा की लोग कहते हैं, दरभंगा राज का कानूनी सलाहकार थे और उनका सम्बन्ध महाराजाधिराज से पूर्व भी दरभंगा राज के राजाओं से बहुत बेहतर था, इसलिए पंडित नेहरू सर कामेशर सिंह को भले बहुत पसंद करते हों अथवा नहीं, उन्हें “उपेक्षित” नहीं कर सकते थे। क्योंकि सम्बद्ध “पीढ़ियों” की थीं। 

महाराजाधिराज दिनांक 1 अक्टूबर, 1962 को मृत्यु को प्राप्त हुए। वे दुर्गापूजा के अवसर पर कलकत्ता से अपने राज दरभंगा आये थे। वे अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कलकत्ता से अपने रेलवे सैलून से नरगोना स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। सभी बातें सामान्य थी उस सुवह, लेकिन क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ जैसे अनेकानेक कारणों के बीच  पहली अक्टूबर, १९६२ को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में उनका जीवंत शरीर “पार्थिव” पाए गया । सर कामेश्वर सिंह की तीन पत्नियां थीं – महारानी राज लक्ष्मी, महारानी कामेश्वरी प्रिया और महारानी कामसुंदरी। महारानी कामेश्वरी प्रिय की मृत्यु आज़ाद भारत से पूर्व और अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन के समय सं 1942 में हुई। महाराजाधिराज बहुत दुःखी थे उनकी मृत्यु के बाद, जैसा लोग कहते हैं। जिस सुबह महाराजाधिराज अंतिम सांस लिए, उसके बाद उनकी दोनों पत्नियां – महारानी राजलक्षी और महारानी कामसुन्दरी दाह संस्कार में उपस्थित थी, यह भी लोग कहते हैं। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानि महाराजा की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई और महारानी कामसुन्दरी आज भी जीवित हैं महाराजा के विधवा के रूप में। 

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दरभंगा स्थित रामबाग का प्रवेश द्वार – एक बिरानीयत 

साख्य और दस्तावेज इस बात का गवाह है की महाराजाधिराज को चाहने वाले, उनके हितैषी, उनके मित्र, उनके प्रशंसक भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के प्रत्येक कोने में थे, आज भी हैं। लेकिन उनके पार्थिव शरीर को, जैसा कहा जाता है, देश के किसी भी गणमान्य व्यक्तियों के आने का इंतज़ार किये बिना, आनन फानन में माधवेश्वर में इनका दाह संस्कार दोनों महारानी की उपस्थिति में कर दिया गया।महारानी राजलक्ष्मी मृत्यु की सूचना पाते अंतिम दर्शन के लिए सीधे शमशान पहुंचना पड़ा था। 

अब यहाँ एक सवाल महाराजा की मृत्यु के 60-वर्ष बाद भी उठना स्वाभाविक है – क्या उस समय जीवित महाराजा की दोनों पत्नियां स्थानीय प्रशासन, प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री विनोदानंद झा से, देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, जो चौथे कार्यकाल (2 अप्रैल, 1962-27 मई, 1964), तत्कालीन गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री (25 फरवरी, 1961 – 1 सितम्बर, 1963) से राज दरभंगा का कोई भी व्यक्ति, यहाँ तक की महाराजाधिराज की विधवाएं अगर आवाज लगाती तो शायद दिल्ली से पटना और दरभंगा तक अन्वेषणकर्ताओं की लम्बी कतार लग जाती।  लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ इसके लिए तत्कालीन “नाबालिग” लोगों को तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जो “बालिग” थे, उनका व्यवहार प्रश्नवाचक चिन्ह के अधीन हो गया। महाराजा कामेश्वर सिंह तीन महारानियों के होते हुए भी “संतानहीन” थे। 

राजकुमार शुभेश्वर सिंह और राजकुमार यजनेश्वर सिंह वसीयत लिखे जाने के समय नाबालिक थे और उनकी शादी नहीं हुई थी सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह की दूसरी शादी नहीं हुई थी। शायद महाराजा को अपनी मृत्यु की अंदेशा था । मृत्यु से पूर्व ५ जुलाई १९६१ को कोलकाता में उन्होंने अपनी अंतिम वसीयत की थी, जिसके एक गवाह पं. द्वारकानाथ झा थे, जो महाराज के ममेरा भाई थे और दरभंगा एविएशन, कोलकाता में मैनेजर थे । कहा जाता है कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद बहुत ही तीब्रगति से दरभंगा राज का पतन हुआ। इसके अनेकानेक कारण हैं परन्तु मूल रूप से महाराजा की असामयिक और अचानक मृत्यु, महाराजा के सभी विश्वस्त और अच्छे लोग यथा महाप्रबंधक डैन्बी, निवेश प्रबंधक बैद्यनाथ झा, शिक्षा सलाहकार अमरनाथ झा, छोटे भाई विश्वेश्वर सिंह इत्यादि का भी देहांत होना, दोनों महारानियां का राज के क्रियाकलापों से अनभिज्ञता, विल के प्रोबेट कर्ता लक्ष्मीकान्त झा के हाथों राज का कार्य आते ही वे बहुत अधिक महत्वाकांक्षी होना, भतीजे या तो कोई समझदार नहीं होना या उनका छोटा होना, सरकार की नकारात्मक रुचि का होना, राज के प्रबंधक और सगे सम्बंधी स्वयं को धनाढ्य बनाने में लग जाना और उत्तराधिकारी के अभाव में दरभंगा राज का बृहत् लूट खसोट का केंद्र बन जाना प्रमुख रहा। खैर। 

वैसे महाराजाधिराज अपनी वसीयत को एस्क्यूट करने, प्रोवेट करने का एकमात्र अधिकार “न्यायमूर्ति” पंडित लक्ष्मी कान्त झा को क्यों दिया? यह तो उतना ही बहुमूल्य प्रश्न है जितना दरभंगा राज का कुल मोल। वैसे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि महाराजा की मृत्यु के समय भी दरभंगा राज के ऐसी कोई भी कुशल महिला अथवा पुरुष नहीं थे, जो दरभंगा राज का सम्पूर्णता के साथ भार स्वीकार करते। जो कोई शिक्षित थे भी, उनके मन में महाराजा के प्रति उतना “झुकाव” उनके मरणोपरांत विगत साठ-वर्षों में भी नहीं दिखा, जितना उनकी मृत्यु के बाद दरभंगा राज की संपत्ति के प्रति।

अगर ऐसा नहीं होता तो आज भी भारत में विभिन्न न्यायालयों में दरभंगा राज के लोगों के बीच मुकदमे लंबित नहीं होते। मृत्यु का समाचार मिलने पर वे कोलकाता से दरभंगा पहुंचे और वसीयत को प्रोबेट कराने की प्रक्रिया शुरू करवा दी । कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा वसीयत सितम्बर 1963 को प्रोबेट हुई और पं. लक्ष्मी कान्त झा वसीयत के एकमात्र एस्क्यूटर बने।वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवाशी होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सा में बाँटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवाशी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह ,राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था ।  इससे बड़ा दुर्भाग्य दरभंगा राज के लिए क्या हो सकता है कि महाराजा की मृत्यु के बाद उनकी महारानियों का देखभाल ट्रस्ट करे। यहाँ भी बहुत बड़ा प्रश्न खड़ा होता है? आखिर भारत ही नहीं, विश्व के कोने-कोने में अपना विजय पताखा, दानवीर कर्ण जैसा छवि रखने वाला, सरस्वती का वरद पुत्र कहलाने वाला मनुष्य अपने ही घर में, अपनी ही दोनों पत्नियों को उतना काबिल नहीं बना सके, जो दरभंगा राज की चाहरदीवारी से बाहर के किसी व्यक्ति को महाराजा के वसीयतनामा का ‘सोल एक्यूटर” होने से “प्रोवेट” करने से रोक सके। यह दुर्भाग्य जनक था।

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दरभंगा स्थित रामबाग का प्रवेश द्वार – एक बिरानीयत 

बड़ी महारानी के 1976 में देहांत होने और 1978 में पंडित लक्ष्मी कान्त झा के देहांत के बाद दरभंगा राज का कार्य ट्रस्ट के अधीन हो गया। श्री मदनमोहन मिश्र ( गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बड़े पुत्र), श्री द्वारिका नाथ झा और श्री दुर्गानंद झा तीनो ट्रस्टी के अधीन। फिर श्री दुर्गानंद झा के देहांत के बाद 1983  के आसपास श्री गोविन्द मोहन मिश्र ट्रस्टी बने और फिर उनके स्थान पर श्री कामनाथ झा ट्रस्टी बने । दोनों महारानी को रहने के लिए एक – एक महल, जेवर, कार और कुछ संपत्ति मात्र उपभोग के लिए और दरभंगा राज से प्रतिमाह कुछ हजार रूपये प्रति माह खर्च देने का प्रावधान था। एक सूत्र के अनुसार दरभंगा राज के जनरल मेनेजर मि. डेनवी के समय रहे असिस्टेंट मेनेजर पं. दुर्गानन्द झा के जिम्मे दरभंगा राज का प्रबंध था । वे राजमाता साहेब के फूलतोड़ा के पुत्र थे और महाराज के बचपन के मित्र थे वे उस ज़माने के स्नातक थे और पंडित द्वारिका नाथ झा, महाराज के ममेरे भाई एक्सेक्यूटर के सचिव मनोनीत हो गये और कोलकाता से आकर गिरीन्द्र मोहन रोड के बंगला नंबर 5 में अपने मामा पं.यदु दत्त झा, जो दरभंगा राज के अनुभवी और दझ पदाधिकारी थे, जिन्हें मिस्टर देनबी ने अपने बाद जनरल मेनेजर के लिए अनुशंसा की थी जिनका उल्लेख 1934 के भूकंप में राहत कार्यक्रम में कुमार गंगानंद सिंह ने की है, के बगल के बंगला में रहने लगे । बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने सबसे छोटे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को अपने रामबाग में रखा। वसियत के अनुसार बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी के मृत्यु के बाद उनके महल पर राजकुमार शुभेश्वर सिंह का स्वामित्व होगा। बड़े कुमार जीवेश्वर सिंह राजनगर रहने लगे और उनकी बड़ी पत्नी राजकिशोरी जी अपनी दोनों बेटी के साथ और मझले राजकुमार यजनेश्वर सिंह अपने परिवार के साथ यूरोपियन गेस्ट हाउस ऊपरी मंजिल पर उत्तर और दझिण भाग में आ गए। सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह राजनगर ट्रस्ट के एकमात्र ट्रस्टी रहे दरभंगा राज के मामले में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं था। राजनगर से वे गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बाद बंगला नंबर १, गिरीन्द्र मोहन रोड में अपने दूसरी पत्नी और 5  पुत्री के साथ रहने लगे।

राजकुमार शुभेश्वर सिंह 1965 के आसपास दरभंगा राज के मामले में सक्रिय हो गये थे उन्हें रामेश्वर जूट मिल, फिर सुगर कंपनी और न्यूज़ पेपर & पब्लिकेशन लिमिटेड का जिम्मेवारी मिली। कहा जाता है कि सं 1980में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि महारानी-अधिरानी कामसुन्दरी “रेसिडुअरी इस्टेट” का एक-तिहाई हिस्से का हक़दार होंगी।  कलकत्ता उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध कुमार शुभेश्वर सिंह सर्वोच्च न्यायालय गए और न्यायालय को बताया की वे अपने दो अवयस्क बच्चों के हितों के रक्षार्थ कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ लड़ रहे हैं। शुभेश्वर सिंह को अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए महाराजा की जीवित पत्नी महारानी अधिरानी कामसुन्दरी के साथ अनेकानेक मुक़दमे लड़ने पड़े। सम्भवतः आज भी कई मुक़दमे माननीय न्यायालय में लंबित होंगे। शुभेश्वर सिंह महाराजा के छोटे भतीजे थे। इसका वजह यह था कि महाराजाके वसीयत के क्लॉज 4 में इस बात को स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि शुभेश्वर सिंह के बच्चे उसी हालात में महाराजा की सम्पत्तियों के लिए दावा कर पाएंगे अगर उनकी माँ ब्राह्मण परिवार की होंगी। शुभेश्वर सिंह सन 1965 में महाराजा की इक्षा और उनके वसीयत में लिखे शब्दों के सम्मानार्थ “ब्राह्मण महिला” से ही विवाह किये और उनके दो पुत्र – श्री राजेश्वर सिंह और श्री कपिलेश्वर सिंह – हुए । 

क्रमशः 

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