हिन्दी: 30 पैसे प्रति शब्द: दिनकरजी अब कहिये-किसको नमन करूँ मैं भारत! किसको नमन करूँ मैं?

मुंबई चर्च गेट पर स्थित किताब की दूकान
मुंबई चर्च गेट पर स्थित किताब की दूकान

नई दिल्ली : पिछले दिनों हिन्दी के एक लेखक एक जलेवी की दूकान पर गए। लेखक ने दुकानदार से कहा: “पाँच जलेवी देना भैय्या।” दूकानदार बोला: पन्द्रह रूपये देना। लेखक बहुत ही मायूसी के साथ दूकानदार को कहते हैं: मैं तो सिर्फ चार शब्द में याचना किया, और इन चार शब्दों को जब मैं लिखकर किसी पत्र-पत्रिका या कारपोरेट घरानों में हिन्दी नहीं जानने वाले पैजामा का नारा पकडे अधिकारी को दूंगा, तो वे मुझे ३० पैसे प्रतिशब्द के हिसाब से (वह भी बहुत याचना के बाद) भुगतान करेंगे, यानि मुझे १ रूपये २० पैसे मिलेंगे। मैं इन पांच जलेवी के लिए पन्द्रह रूपये कहाँ से लाऊंगा ? दूकानदार लेखक की स्थिति को समझते हुए लेखक के हाथ में “एक पाव जलेवी” रखते कहता है: “तभी तो हिन्दी साहित्य की माँ – बहन हो रही है” – आप जलेवी खाएं और मीठे-मीठे शब्दों का श्रिंगार कर मीठी-मीठी बातें भी लिखें, देश को जरुरत है।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का आज ११० वां जन्म दिन है। छियासठ वर्ष पूर्व सन १९७४ में वे ‘हिन्दी’ और ‘हिन्दुस्तान’ से अपना नश्वर शरीर लेकर कूच किये थे। दिनकर के जन्म के बाद ही नहीं, स्वतन्त्र भारत के जन्म के समय में भी, भारत का रुपया डॉलर की तुलना में बराबर था, इसलिए हिन्दुस्तान में हिन्दी की ही नहीं; बल्कि समस्त भारतीय भाषाओँ में लेखक, लेखनी और शब्दों की कीमत थी – रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, मधुशाला, अलंकार, आनन्द मठ, एक गधे की वापसी, गबन, गोदान, गोरा, निर्मला, कबुलीबाला, जीना तो पड़ेगा, अंधायुग, मुद्रा राक्षस उखड़े खम्बे इत्यादि रचनाएँ जीवंत गवाह हैं।

आज़ादी के ७२ साल बाद न केवल रुपयों का मोल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लुढ़का, बल्कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओँ के शब्दों की कीमत तो लुढ़की ही नहीं; लोगों ने तो उसे “चरित्रहीन” बना दिया नहीं तो आज अपने ही देश में, अपनी ही भाषा २० पैसे से ३० पैसे प्रतिशब्द कैसे बिकती। बाजार में क्रेताओं की संख्या तो भरमार है ही, लेखकों की तो बाढ़ से है – बारहो महीना, छतीसो दिवस। वैसी स्थिति में “मेरे प्यारे देश! देह या मन को नमन करूँ मैं ? किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं?

​संजया कुमार सिंह
​संजया कुमार सिंह

जनसत्ता के पूर्व पत्रकार और अनुवाद कम्युनिकेशन के कर्ताधर्ता संजया कुमार सिंह कहते हैं कि ​यह सही है कि हिन्दी में लिखने की संभावना बहुत कम है और लिखने के पैसे तो नहीं के बराबर हैं। मैंने इसीलिए अनुवाद का काम चुना लिखने का नहीं। लिखने में एक बड़ा झंझट यह है कि आपके नाम से छपेगा। पाठक वही होंगे। इसलिए कोई भी बहुत ज्यादा नहीं छापेगा। एक अखबार हफ्ते में एक ज्यादा से ज्यादा हो। जब अच्छे पैसे मिलते थे तो एडिट पेज के एक लेख के 1000 रुपए मिलते थे। महीने के चार-छह हजार में क्या होता है। और जो इतने पैसे देता था वो इतना बिकता था कि आप कहीं और नहीं लिख सकते थे। उन दिनों बैंक में खाता खोलना आसान था। किसी भी नाम से खाता खुल सकता था। हमलोग दो-चार नाम से लिखते थे। रेडियो से भी पैसे मिलते थे और अनुवाद भी करता था। सब मिलाकर चल जाता था। अब काम लगातार कम हुआ है। दूसरे नाम से खाता ही नहीं खुलेगी। आयकर और जीएसटी के नियमों का उल्लंघन है। इसलिए संभावना लगातार कम हुई है जबकि काम करने वाले बढ़े हैं। नौकरियां भी कम हुई हैं। जहां पहले 50 लोग होते थे वहां 10 हैं वो भी सस्ते वाले। पुराने अनुभवी लोग बेरोजगार हैं। सस्ते या मुफ्त में काम करने के लिए तैयार। इसलिए यह हाल हुई है।

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जहां तक रेट की बात है – यह पैसा सिर्फ टाइपिंग या टाइप किए पेज में करेक्शन लगाने के लिए भी कम है। लेकिन अपेक्षा यह होगी कि इतने में मौलिक लेख मिलेगा और वह भी टाइप करके। आजकल कंप्यूटर मेनटेन करने का जो खर्च है – इतने पैसे में वह भी नहीं निकलेगा। पर सवाल उनके बजट का है। ऐसे ही काम अब इधर उधर से आते हैं। अच्छे पैसे वाले काम दलालों के जरिए कमीशन लेकर ही मिलते हैं। मुझे कई लोगों ने कहा कि लिंक्ड इन पर काम बहुत है। अब आप यह रेट दिखा रहे हैं। असल में सब जगह एक ही हाल है। दूर के ढोल सुहाने लगते हैं। मुझे किसी ने एक वेब साइट के बारे में बताया। बहुत काम है। उसका मेल आया है 550 पेज की किताब का अनुवाद 37500 रुपए में करना है। 70 रुपए प्रति पेज भी नहीं। इतने में टाइप नहीं होगा। इन्हें अनुवाद चाहिए। मैंने 1990 में 35 पैसे शब्द अनुवाद किया है लगभग 40 साल बाद कितना होना चाहिए आप सोच सकते हैं। लिखने का उससे ज्यादा होना चाहिए।

विनय द्विवेदी
विनय द्विवेदी

​जबकि भारत स्वाभिमान उत्तर प्रदेश (मध्य) के प्रांतीय प्रवक्ता विनय द्विवेदी का मानना है कि हिंदी का गला घोटने का प्रयास आज़ादी के बाद से लगातार किया जाता रहा ​है। ​जिम्मेदार लोगों द्वारा, अंग्रेजी अनिवार्यता कई परीक्षाओं से लेकर योग्यता का एक अनुचित मापदंड आज भी बनी हुई ​है। भारतीय समाज में, ऐसे में हिंदी भाषा का जो भी उत्कर्ष हो सका हैं वो इसके अपने विशाल पाठक वर्ग व बड़ी आबादी की बोलचाल की भाषा होने से हो सका हैं जिसके मूल में कहीं न कहीं बाज़ारवादी मजबूरी भी हैं जिसमें ग्राहक की रुचि,भाषा आदि सर्वोपरी हैं!​

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​लेकिन बड़ा प्रश्न ये हैं कि हिन्दी लेखन को प्रोत्साहन देना आवश्यक हैं आर्थिक व जनजागरण दोनों स्तर पर क्योंकि हिंदी पत्र पत्रिकाओं में लेखन पर जो पारिश्रमिक दिया जा रहा हैं वो बेहद कम हैं अब 20-30 पैसे प्रति शब्द का पारिश्रमिक लेकर कोई कैसे अपने परिवार का भरण पोषण कर सकता हैं?​ ​और वो हिंदी साहित्य की सेवा भी करता रहे सम्भव नहीं,​ ​इस पर जिम्मेदार लोगों को ध्यान देना चाहिए नही हिंदी भाषा प्रेमियों और मर्मज्ञों की उदासीनता के चलते भाषा की मूल आत्मा अपने स्वरूप को खो देगी, वैसे भी देवनागरी लिपि को आज हिंगलिश लिपि सोशल मीडिया के दौर में अतिक्रमण कर रही ​है।

​जागरण डॉट कॉम, मुंबई के ​असिस्टेंट डेस्क एडिटर इंटरटेनमेंट हीरेंद्र झा का​ मानना है कि हिंदी वालों ने हिंदी वालों का सबसे ज्यादा शोषण किया ​हैं। मैंने जब अपना करियर शुरू किया और कुछेक पत्र पत्रिकाओं में लिखने लगा तब वो बस बाईलाइन के नाम पर ही हमसे ​लिखवाते। हम भी नाम छपा देख कर खुश हो जाते​, लेखनी के बदले पैसे तो खैर भूल ही ​जाइये। जब पैसे नहीं मिलते हैं तो यह आत्मविश्वास जगाने में कि मैं लिख सकता हूँ, खासा वक़्त लग जाता ​है। इससे बड़ा नुक्सान क्या होगा?

हरेन्द्र झा
हरेन्द्र झा

पैसे की गड़बड़झाला का आलम यह है कि कई लिखने वाले लिखना छोड़कर किसी और सेक्टर में जॉब करके सेटल्ड हो जाना ज़रूरी समझ रहे ​हैं। हिंदी गुटबाजी से निकले तो कुछ हो​, नए लोगों को कोई प्रोत्साहित करे तो कुछ ​हो। आजकल तो एक गुट नयी हिंदी का भी नारा लगाने लगी ​है, यहाँ भी बंटवारा! सबको मुफ्त में लिखने वाले ​चाहिए। हिंदी वाले केवल उसी को पैसा देते हैं जो पहले से ही समर्थ और समृद्ध या लोकप्रिय ​है। बेडा गर्क करके रखा है! लेकिन, उम्मीद है कि ये हालत बदलेंगे! हम तो प्रार्थना ही कर सकते ​हैं।

अंकुश जी जो नए कवियों के लिए हिंदीनामा चलाते हैं, कहते हैं कि ​हिन्दी लेखन में ख़ास तौर से पत्र पत्रिकाओं में आजकल जो लिखा जा रहा है वह किस हद तक इस बात में सक्षम है कि उसे कोई पूर्ण रूप से रोज़गार का साधन मान सके, इस बात को समझने के लिये हमें कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा जैसे कि पत्र – पत्रिकाओं की गुणवत्ता और भविष्य में उनकी क्या दिशा और दशा रहेगी यह भी।

इनके अलावा जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है वह यह कि इनके द्वारा लेखकों को कितना भुगतान किया जा रहा है । आजकल जैसा कि देखने में आ रहा है, पाठकों की तुलना में लेखकों की संख्या में अपार वृद्धि हुई है । और यही कारण है कि पत्र पत्रिकायें ज्यादा शब्द समृद्ध लोगों से लिखवाने से बच रहे हैं और जिनसे लिखवाया जा रहा है, उनको बीस से तीस पैसे प्रति शब्द दिये जा रहे हैं, और यही वो कड़ी है जिसके कारण हिन्दी की दुर्दशा हुई है, क्योंकि ज्यादा शब्द संपन्न लेखक इस काम से हाथ खींच रहे हैं। इससे हाथ खींचना इसलिये उनकी मजबूरी बन चुकी है क्योंकि यह किसी भी तरह उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में सक्षम नहीं है, और बेहतर लोगों के लेखन के क्षेत्र में ना रहने से हिन्दी को जो नुकसान हुआ है वह दयनीय है।

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नुकसान का तात्पर्य यहाँ उस नुकसान से है जिसने भाषा को समृद्ध करने की बजाय उसे क्षीण किया है। हालांकि हिन्दी बोलने, पढ़ने और लिखने वालों में पिछले कुछ सालों में वृद्धि हुई है, पर कितने लोग हिन्दी को उसकी पहचान के साथ जीवित रखे हुए हैं यह सोचने वाली बात है। और अगर पत्र – पत्रिकाओं द्वारा हिन्दी लेखकों की यूँ ही अनदेखी होती रही तो एक दिन हिन्दी सिर्फ एक भाषा बनकर रह जायेगी, यह सोचा जाना चाहिये कि हिन्दी केवल एक भाषा नहीं हमारी संस्कृति का हिस्सा है। अगर भाषा के साथ साथ उसकी संस्कृति को भी बचाये रखना है तो लेखकों को किये जा रहे भुगतान के बारे में सभी को सोचने की जरूरत ​है।

भोपाल में रहने वाले रविन्द्र जोगलेकर, जो एजुकेशन एंड एकेडेमिक्स नामक संस्थान में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर है, कहते हैं कि ​जहां तक मेरी स्मृति मे है,​ ​हिंदी लेखको के संस्मरणो,​ ​पत्रोंं या पत्रिकाओ/पत्रों में छपे लेखो के माध्यम से जो पारिश्रमिक के जो संदर्भ पढे है उनसे यही धारणा बनती रही है कि अमूमन यह लगभग हिंदी मे शुरु से ही रहा है कि हिंदी लेखक आर्थिक मोर्चे पर संघर्षत ही रहा है,​ ​इसके बावजूद हिंदी साहित्य सेवियों की अनवरवत यात्रा चली जा रही है,​ ​हिंदी के संघर्ष का एक बड़ा हिस्सा हिंदी के भाषा क्षेत्र में ही लड़ना पड़ा जहाँ किताबे पत्रिकाये खरीदकर पढ़ने की संस्कृति अन्य भारतीय भाषाओं के मुक़ाबले कमतर रही, इस कारण भी प्रकाशक आमदनी का रोना रोते रहे हैं,पर अब स्थिति काफी सुधरी है, प्रकाशक पारिश्रमिक कम या ज्यादा देता है यह भी एक सापेक्षिक धारणा है क्यूंकि यहाँ कोई मानक उतने स्पष्ट नही है रॉयल्टी के न एडिशन के।बहरहाल हिंदी का भविष्य उज्वल है क्योंकि हिंदी नए इस स्थिति से भी तालमेल बैठा लिया ​है।

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