दरभंगा के महाराजाधिराज के सबसे छोटे भतीजे बहुत ‘घमंडी’ थे, ‘ईगोइस्ट’ थे, ‘महत्वाकांक्षी’ थे….(भाग-24)

तीन बहुरानियां - महारानी, उनकी बहु (बाएं) उनकी बहु (दाहिने)

दरभंगा – पटना : राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह के पुत्र रत्नेश्वर सिंह अपने छोटे बच्चे को बचपन से जीवन का वह सभी व्यावहारिक ज्ञान, आत्मीयता देना चाहते हैं, समाज के हर तबके के लोगों के साथ दुःख-सुख बांटने का सम्पूर्ण अवसर देने में कोई कमी नहीं छोड़ते, उसे विद्यालय ले-जाने, ले-आने का एक भी मौका हाथ से फिसलने नहीं देते, उसे अपने हम-उम्र के दोस्तों के साथ मिलने-जुलने में कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाते, व्यवहारिकता-सामाजिकता का पाठ पढ़ने-पढ़ाने, सीखने-सीखाने का एक भी मौका नहीं गंवाते – जो उस बच्चे के दादाजी को जीवन पर्यन्त नहीं मिला। परिणाम यह हुआ कि दौलतों का अपार भण्डार होते हुए भी “जीवन की यथार्थता, जीवन का वास्तविक मनोविज्ञान” को उसके दादाजी नहीं समझ सके, अवसर नहीं मिला, अवसर नहीं दिया गया – क्योंकि वे महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का भतीजा और दरभंगा के राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के पुत्र थे – और ऐसे परिवार में जन्म लेने के बाद पिता/अभिभावक और संतानों के बीच एक दूरियां बन जाती है । यही कारण है कि एक गरीब का बच्चा भूखे पेट भी ठहाका लगता है और धनाढ्यों का बच्चा तो “हंसी” शब्द से परिचित नहीं होता, “ठहाका” क्या समझेगा।

इसका नतीजा न केवल वे जीवन-पर्यन्त भुगते और आज भी दरभंगा के  9-जी एम रोड स्थित बंगला के पिछले हिस्से वाले मकान के एक कमरे में विस्तर पर सोये, अश्रुपात होते किसी भी ऐसे खट्टे-मीठे अनुभवों को नहीं एकत्रित कर पा रहे हैं, जो न केवल अपने पुत्र को, बल्कि अपने पौत्र के साथ बाँट नहीं सके। आज न तो महाराजाधिराज जीवित हैं, न राजा बहादुर विशेश्वर सिंह जीवित हैं, न उस अबोध बच्चे के बड़े दादाजी राजकुमार जीवेश्वर सिंह ही जीवित हैं और न उनकी पत्नी जीवित हैं ।  न उस बच्चे के सबसे छोटे दादाजी कुमार शुभेश्वर सिंह जीवित हैं और न ही सबसे छोटी दादी ही जीवित है । आज सिर्फ और सिर्फ उस बच्चे के दादा-दादी जीवित हैं और दरभंगा राज की सबसे छोटी महारानी, यानि उस बच्चे के परदादा की कोई नब्बे-वर्षीय पत्नी जीवित हैं। यह बृद्ध दादी यदा-कदा इस बच्चे से मिलने आती है या फिर यह अबोध बच्चा अपने माता-पिता के साथ उनसे मिलने पहुँचता है। उस बच्चे के दादाजी 9-जी एम रोड कोठी के पिछले हिस्से वाले मकान के एक कमरे में ईश्वर का भजन करते जीवन यापन कर रहे हैं। उनकी पत्नी अपने पति के साथ विवाह के मंडप पर किये सभी वादों को, सभी शपथों को स्मरण करती, अपनी पति के साथ जीवन का अंतिम वसंत, जीवन का अंतिम दर्शन कर रही है । 

राज घराने में पैदा होने का राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह को सबसे बड़ा दंड यही मिला की बचपन से दरभंगा राज की चारदीवारी के अंदर भौतिक सुख-सुविधाएँ तो पर्याप्त मिली, लेकिन वह नहीं प्राप्त हो सका जो जीवन संवारने के लिए नितांत आवशयक था – बाल मनोविज्ञान, सामाजिक मनोविज्ञान, सामाजिक व्यावहारिकता, सामाजिकता, चारदीवारी के बाहर रहने वाले लोगों का अपनापन, उनका स्नेह, उनका प्यार, अपने हम हम-उम्र के बच्चों के साथ खेलने का अवसर, गर्मी में किसी पेड़ की छाया में खुले बदन घूमने का अवसर, बारिस में अपने हम-उम्र के बच्चों के साथ खेलने-भींगने का अवसर। क्या लिखूं, क्या नहीं लिखूं। लेकिन राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह की स्थिति का वयान इस बात का गवाह है कि दरभंगा राज का तत्कालीन बच्चे, तत्कालीन महिलाएं, या चारदीवारी के अंदर रहने वाले लोग (सिर्फ उन लोगों को छोड़कर जो महत्वकांक्षा को लेकर किसी भी हद तक जा सकते थे, गए), सम्पूर्णता के साथ “मनोविज्ञान” के एक एक शब्द से वंचित रहे, जो जीवन संवारने के लिए आवश्यक था। 

परिणाम यह हुआ की युवा-अवस्था में सम्पूर्णता के साथ ‘खालीपन’ था और वृद्धावस्था में जिंदगी दरभंगा राज के इस महल के पीछे वाले स्थान पर बनी एक कोठरी में सिमट गई  है। अस्सी-वर्ष से अधिक की जिंदगी पंद्रह-फीट के कमरे में सिमट गई है। यही कमरा अब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है उनके लिए।  वजह है – जीवन भर जब किसी से मिलने-जुलने का मौका नहीं मिला, मौका नहीं दिया गया – तो वे सभी गुण-अवगुण कहाँ से आये ? आज किस बात पर हँसे, किस बात पर रोयें? हाँ, उस कमरे के दरवाजे से जब अपने पौत्र को पिता के साथ विद्यालय जाने की बात सुनते हैं, अपने हम उम्र के बच्चों के साथ उसका मिलना-जुलना सुनते हैं, उसे अपने पिता के साथ, माता के साथ हँसते-रोते देखते हैं, किसी बात को लेकर जिद करते देखते थे, बारिस में भींगते देखते हैं, दोस्तों के साथ खेलते-कूदते देखते हैं, तो उस ख़ुशी के सामने दरभंगा के रामबाग का वह ऊँचा दीवार बौना दीखता है । कभी मन में आता भी होगा, काश!! उस दीवार को लांघने की हिम्मत जुटा पाते, कोई पीठ थपथपा देता और हम छलांग लगा देते – लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संभव है उस पौत्र के सहारे ही अपने जीवन के अंतिम वसंत में ही सही, दादाजी-दादीजी कुछ पल के लिए अपने-अपने बचपन में जरूर चले जाते होंगे  – वह खुशियां जो उन्हें उनके बचपन में नहीं मिली, क्योंकि वे दरभंगा महाराजा के भतीजे थे, राजा बहादुर के पुत्र थे। इसलिए कहा भी जाता है “जिस तरह गरीब को बेटी होना अभिशाप है, उसी तरह धनाढ्यों का संतान होना भी एक अभिशाप ही है।”

दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की तीन पत्नियां थी, परन्तु कोई संतान नहीं था उन तीनों पत्नियों से। दो महारानियां तो ईश्वर को प्राप्त हुई, एक अभी भी जीवित हैं। महाराजाधिराज के अंतिम सांस के समय दो महारानियां और तीन भतीजे थे। ये तीनों भतीजे महाराजाधिराज के भाई राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के पुत्र थे। इन तीनों भाइयों में सबसे बड़े थे राजकुमार जीवेश्वर सिंह, फिर थे राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और सबसे छोटे थे राजकुमार शुभेश्वर सिंह। महाराजाधिराज की मृत्यु के समय सिर्फ राजकुमार जीवेश्वर सिंह का ही विवाह हुआ था और उनकी पत्नी थी श्रीमती राजकिशोरी जी। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे।

राजकुमार जीवेश्वर सिंह अपनी प्रथम पत्नी श्रीमती राजकिशोरी जी के रहते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के प्रथम पत्नी से दो बेटियां – कात्यायनी देवी और दिब्यायानी देवी हुई और दूसरी पत्नी से पांच बेटियां – नेत्रायणी देवी, चेतना, द्रौपदी, अनीता, सुनीता  – हुई । कहा जाता है की जीवेश्वर सिंह दूसरी शादी अपने ही घर के एक ब्राह्मण, जो उनके पूजा-पाठ इत्यादि का बंदोबस्त करते थे, फूल तोड़ते थे, की बेटी से किये। जीवेश्वर सिंह को दोनों पत्नियों से पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। यह भी कहा जाता है कि किसी भी अन्य सदस्यों की तुलना में जीवेश्वर सिंह अधिक शिक्षित थे और महाराजाधिराज के समय-काल में दुनिया भी देखे थे। दरभंगा राज के लोग उन्हें “युवराज” भी कहते थे। 

दादी – माँ के बीच में दरभंगा के महाराजाधिराज का सबसे बड़ा पौत्र रत्नेश्वर सिंह 

कहा जाता है कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद कुमार जीवेश्वर सिंह को महाराजा की संपत्ति से “बेदखल” कर दिया गया। ऐसा क्यों हुआ यह तो शोध का विषय तो है, लेकिन शोध से परे नहीं है। विवाह के बाद जब तक महाराजाधिराज जीवित थे, राज्यकिशोरी दरभंगा के नरगौना पैलेस में ही रहती थीं। बाद में, अपने पति के साथ वे बेला पैलेस आ गई ।तत्कालीन सरकार ने दरभंगा राज के ही किसी ‘महत्वकांक्षी’ व्यक्ति के ताल-मेल से जब बेला पैलेस पर अपनी निगाहें जमा ली, तो राजकिशोरी यूरोपियन गेस्ट हाउस में रहने लगीं। लेकिन सरकार की नजर उनके साथ-साथ चल रही थी। यूरोपियन गेस्ट हॉउस भी दरभंगा राज के स्वामित्व से फिसल गया। इसके बाद वे बलभद्रपुर स्थित आवास में ही उनका शेष समय बीता। अपने पति की मृत्यु के बाद राज्यकिशोरी बेहद एकांत में रहने लगी थी। पिछले वर्ष श्रीमती राजकिशोरी का देहांत हो गया। वे दरभंगा के लहेरियासराय के बलभद्रपुर मोहल्ले स्थित आवास पर अंतिम सांस ली।

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राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह, जो राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के मझले बेटे थे, को तीन बेटे हुए  – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की अकाल मृत्यु हो गई थी। अपने मझले बेटे की अकाल-मृत्यु के बाद वे अपने अन्तःमन से टूट गए। ऐसा लगा कि उनकी जीवन के सभी सपने चकनाचूर हो गए। जबकि राजबहादुर के सबसे छोटे पुत्र राजकुमार शुभेश्वर सिंह के दो पुत्र हुए – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह। कुमार शुभेश्वर सिंह और उनकी पत्नी दोनों वर्षों पहले मृत्यु को प्राप्त किये। दरभंगा के महाराजाधिराज की अगली पीढ़ी में आज उनका मझला भतीजा राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और उनकी पत्नी जीवित है। और इसके बाद अगली पीढ़ी के वंशज।

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के मझले पुत्र राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह के बड़े पुत्र रत्नेश्वर सिंह यानी महाराजाधिराज के सबसे बड़े पौत्र से बात किया। रत्नेश्वर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य संकाय में स्नातक हैं और दिल्ली के एयरफोर्स विद्यालय से ही बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण किये थे, साल 1985-1986 था। उस समय उनकी उम्र कोई 18 वर्ष थी। स्नातक करने के कुछ समय बाद रत्नेश्वर सिंह महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा पटना में स्थापित दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड (एन एंड पी लिमिटेड) के निदेशक मंडल में एक निदेशक के पद पर भी नियुक्त हुए। आधुनिक भारत के इतिहास में किसी भी संस्थान में 21 वर्ष की आयु के आस-पास निदेशक-मंडल में कुर्सी पर बैठना ईश्वरीय शक्ति का ही कमाल होता है या फिर धनाढ्य परिवार में जन्म लेना। रत्नेश्वर सिंह तो दरभंगा महाराजा के सबसे बड़े पौत्र थे, निदेशक कैसे नहीं बनते ! यह अलग बात थी कि महाराजाधिराज अपनी वसीयत लिखाते समय दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड का स्वामित्व अपने सबसे छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह को लिख दिया। संभव है की उन दिनों कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – वयस्क नहीं हुए होंगे। वैसे इस वर्ष तक आते-आते दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड और उसके दोनों प्रकाशन आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार अपनी अनंत यात्रा की शुरूआती दौर में निकल पड़ा था। संस्थान की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गयी थी। और ऐसा महसूस किया जाता है कि संस्थान की आर्थिक स्थिति के कमजोर होने के बहाने दरभंगा राज की बहुमूल्य सम्पत्तियों, जमीनों की बिक्री का सिलसिला भी प्रारम्भ हो गया था।

कलकत्ता के न्यायालय के एक दस्तावेज के अनुसार एन एंड पी लिमिटेड के कर्मचारियों के बहाने फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 को उद्धृत करते हुए यह कहा गया कि एन एंड पी लिमिटेड के कर्मचारी ट्रस्टियों के ऊपर दबाव डाल रहे हैं कि उन्हें कर्मचारियों के भुगतान के लिए तो पैसा दिया ही जा, साथ ही, कंपनी के जीर्णोद्धार के लिए भी आर्थिक सहायत किया जाय। और इसके लिए कलकत्ता के चौरंगी रोड स्थित 42/1, 42A और 42 बी (इस संपत्ति को फेमिली सेटेलमेंट के सिड्यूल VI में रिसिडुअरी इस्टेट के कर्जों को चुकाने में बेचने वाली श्रेणी में रख दिया गया था) को बेच दिया जाए। वैसे यह मामला कलकत्ता उच्च न्यायालय में पहले से ही लंबित था जिसमें कलकत्ता उच्च न्यायालय, दिनांक 5 जून, 1992 को यह कहा था कि जिस दिन राज दरभंगा के रेसिडुअरी एस्टेट के सभी लाभान्वित होने वाले लोग, इस विषय पर एक मत होने का सहमत दे देंगे, कलकत्ता के चौरंगी रोड स्थित 42/1, 42A और 42 बी की संपत्ति रुपये 10,40,00,000 /- में बेच दी जाएगी। फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 के तहत लाभान्वित होबने वाले लोगों की कमिटी ने आपस में यह तय कर लिया था कि 10 4 करोड़ की राशि में, करीब 3 61 करोड़ रूपये एन एंड पी लिमिटेड के सभी कर्जों के लिए, भविष्य निधि के भुगतान के लिए, कर्मचारियों के बकाये भुगतान के लिए और कंपनी के पुनरुद्धार के लिए खर्च किया जायेगा। और जिसकला समायोजन लाभन्वियत होने वाले लोगों के शेयरों के आधार कर किया जायेगा।

बहरहाल, अपने दादा राजा बहादुर विशेश्वर सिंह की तरह रत्नेश्वर सिंह को भी कला-संस्कृति-सिनेमा से बेहद प्रेम था। देखने में सुन्दर थे। शरीर का बनावट भी अनुकूल था। स्क्रिप्ट लिखना, उसे पढ़ना, समझना और तदनुसार शारीरिक-भाषा को बरकरार रखते अभिनय करना – सम्पूर्णता के साथ अपने जीवन में अपनाना चाहते थे ताकि जीवन में अपनी अलग पहचान बना सकें, राज दरभंगा की चारदीवारी के बाहर । स्वाभाविक भी था । रत्नेश्वर सिंह जैसे युवक भारत में ही नहीं, विश्व के पटल पर बहुत कम होते हैं जिन्हे दो-जून की रोटी के लिए मसक्कत नहीं करना पड़ता है। परिवार के भरण पोषण के लिए जद्दोजेहद नहीं करना पड़ता है। ईश्वर की कृपा से उनके माता-पिता के पास अपने पुरखों की इतनी संपत्ति तो अवश्य थी कि वे स्वयं ही नहीं, आने वाली पीढ़ी को की आर्थिक रूप से सुरक्षित रख पाते, उन्हें बेहतर शिक्षा दे पाते, उनमें शिक्षा और संस्कृति कूट-कूट कर भर पाते ताकि आने वाले समय में आपने वाली पीढ़ी की भी अपने एक अलग पहचान बना सके । पुत्र के रूप में वे अपने माता-पिता को सभी प्रकार के मानसिक संरक्षण देना चाहते थे, साथ ही, आने वाली पीढ़ी को भी। राजा बहादुर विशेश्वर सिंह या महाराजाधिराज का बम्बई में अनेकानेक गणमान्य व्यक्तियों से जान-पहचान थी । फ़िल्मी हस्तियां, निदेशक, कलाकार भी जानते थे। उन सभी जान-पहचान का भरपूर फायदा उठाकर रत्नेश्वर सिंह बम्बई पहुंचे और सर्वप्रथम श्याम बेनेगल से मुलाक़ात किये। कहते हैं मुंबई में “भाग्य-विधाता” पहले मिलते हैं, लेकिन “भाग्य-निर्माता” नहीं, वह भी श्याम बेनेगल जैसे महान निदेशक। बेनेगल साहेब फिल्म में भी स्पष्ट वक्ता हैं, तो स्वाभाविक है व्यावहारिक जीवन में भी वैसे ही होंगे – वैसे ही स्पष्ट वक्ता निकले। रत्नेश्वर सिंह से बात हुई। सब ठीक था, परन्तु उन्हें एक बार फिल्म इंस्टीच्यूट, पुणे से अभिनय में शिक्षा प्राप्त करने का सलाह दिए। बेनेगल साहेब का मानना था कि बिना शिक्षा के मुंबई फिल्म जगत में जिस कार्य को करने में मुद्दत लगेगा, यदि अभिनय की शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं तो कार्य आसान हो जायेगा। रत्नेश्वर सिंह श्याम बेनेगल की बात को शिरोधार्य किये।

इस बीच रत्नेश्वर सिंह के अनुज रश्मेश्वर सिंह का देहांत हो गया। वह काफी युवक था और उसकी मृत्यु अकालममृत्यु ही कहलायेगा । एक पिता के लिए एक युवक पुत्र का उसके जीते-जी जाना पहाड़ टूटने के बराबर होता है। रश्मेश्वर की मृत्यु से पिता यज्ञेश्वर सिंह टूट गए थे। समय बदल रहा था – लेकिन रत्नेश्वर के लिए सापेक्ष नहीं था, यह उन्हें भी अनुभव हो रहा था। महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह, यानी रत्नेश्वर के दादाजी अपने जीवन के अंतिम समय में दरभंगा राज की सम्पूर्ण सम्पत्तियों से सम्बंधित जो वसीयत तैयार किये थे, उन वसीयतों के पन्ने-पन्ने, पैरा-पैरा, वाक्य-वाक्य, शब्दों-शब्दों पर अमल हो रहा था। जिसे लाभ हो रहा था उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी, जिसे हानि हो रहा था उसके चेहरे और हृदय में रुदन था। यदि पूछा जाय तो वसीयत को लेकर भी दरभंगा राज परिसर में कहीं दुदाली था तो कहीं ठहाका। 

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रत्नेश्वर सिंह अपने पुत्र के साथ

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के वसीयतनामा में लिखा : “I, Maharajadhiraaja Sir Kameshwar Singh, son of Maharajadhiraja Sir Rameshwar Singh deceased of Darbhanga in the state of Bihar, in a sound state of body and mind do hereby revoke all my previous wills, if any, and declare that  this is tha last Will and Testament of me, the executant, made this fifth day of July 1961 at Darbhanga House, 3, Middleton Street, Calcutta. 

Whereas I am the holder of an impartible estate commonly known as Raj Darbhanga, which is an ancient principality governed by the rule of lineal  primogeniture and of which the holder is the absolute owner having absolute right of alienation by gift inter vivos or by Will.

And Whereas I am possessed of considerable movable and immovable properties including right to compensation in respect of Zamindari properties which have vested in the state of Bihar under the Bihar Land Reform Act and in other States under similar appropriate Act, over which I have absolute right of disposal. 

And Whereas I have also the right of reversion in certain properties which are at present covered by gifts or truste, or maintenance grants made by me the executant or by my predecessors-in-interest and which are revartible to me on the demfee of the dones or donees, or on the termination of the trusts or on the failure of the male line of the maintenance-holder or otherwise.

And whereas I have no issue and I have, as may nearest relatives, two wives, namely (1) Maharani Rajyalakshmi and (2) Maharani kamsundari and three nephews (son of my deceased brother Raja Bahadur Visheshwar Singh) namely (1) Rajkumar Jeeveshara Singh, (2) Rajkumar Yajneshwara Singh and (3) Rajkumar Shubheshwara Singh of whom the first and the eldest Rajkumar Jeeveshwara Singh is major and married to Srimati Rajkishoriji and the remaining two are minors and unmarried. 

And Whereas I consider it desirable to make dispositions of my properties to take affect on my demise , to the persons in the manner and in accordance with the disrections hereinafter mentioned. Now I, the said maharajadhiraja Kameshwara Singh of darbhanga do hereby make the bequeath as follows:

1. I bequeath the property mentioned in Schedule ‘A’ to my wife Maharani Rajyalakshmi for her life for her residence only (and for no other purpose). She shall be entitled to reside in the said house and use the furniture and fittings solely without let or hindrance by any body. ASfter her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Shubheshwara Singh absolutely. 

2. Similarly, I bequeath property mentioned in schedule ‘B’ to my wife maharani Kamsundari for her life for her residence only (and for no other purpose) and at her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Shubheshwara Singh absolutely. 

3. I further bequeath to my wife Maharani rajyalakshmi assets of the value of Rs. 15 (fifteen) lacs and to my wife Maharani Kamsundari assets of the value of Rs. 15 (fifteen) lacs.

4. Subject to the disposition and bequest mentioned above my entire residue of my estate shall vest in a Board of Trustees consisting of persons named and described in Schedule ‘C’ who will held the property in Trust for my two wives and children of my aforesaid  three nephews (son of my deceased brother). The Trustees shall pay out of capital assets of Rs. 8 (Eight) lacs to Maharani Rajlakshmi and Rs. 12 (Twelve) lacs to Maharani Kamasundari and kept the properties, particularly the house property in proper repairs. On demise of my two wives, one-third of the properties shall vest in the children of my youngest nephew Rajkumar Subheshwar Singh born of a wife of his own Brahmin community, and one-third will be divided between the children of my other two nephews, Rajkumar Jeeveshwar Singh and rajkumar Yajneshwara Sinmgh, and one-third will remain in the Trust for public charitable purposes.“

बहरहाल, कभी बम्बई के फिल्म जगत में अपना नाम अपने काम से बनाना चाहते थे। समय साथ नहीं दिया। वापस दरभंगा आये और फिर समय के गिरफ्त में बंध गए रत्नेश्वर सिंह। एक ऐसा गिरफ़्त जिससे फिर कभी बाहर निकल नहीं सके।  जब उनसे पूछा कि आप महाराजाधिराज के सबसे बड़े पौत्र हैं। महाराजा की मृत्यु को अभी महज छः दशक ही हुआ है फिर क्या वजह हुआ की राज दरभंगा की स्थिति आज ऐसी हो गई? जिस महाराजा को, जिस दरभंगा राज को भारत ही नहीं विश्व के लोग जानते थे, आज पहचानते भी नहीं?

रत्नेश्वर सिंह, हिंदी बोलने की अपेक्षा ‘मैथिली’ बोलने-सुनने में अधिक खुश होते हैं। उनका मानना है कि देश – विदेश की शिक्षा व्यवस्था, विकास या अन्य गतिविधियों में राज दरभंगा की जो भी भूमिका रही हो, इतना सच है कि राज दरभंगा में चारदीवारी के अंदर, घरों में रहने वाले तत्कालीन लोगों को ऐसा वातावरण नहीं मिला जिससे उनका सर्वांगीण विकास हो पाता।  चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो, सामाजिक क्षेत्र हो, या कोई भी क्रिया कलाप हो। उस ज़माने में, महिलाओं की बात छोड़िये, पुरुषों को भी वह मौका नहीं मिला जिससे उनका सर्वांगीण विकास हो पता। यहाँ तक की उनके  दादाजी (पिताजी) में भी सर्वांगीण विकास नहीं हो पाया, जो आज तक वे  सभी देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं।” शिक्षा के बारे में, सामाजिक व्यवस्था के बारे में, तत्कालीन परिवार के बच्चों के विकास के बारे में महाराजाधिराज के पौत्र से ऐसी बातें सुनकर  मन द्रवित  हो जाता है,  आँखें अश्रुपूरित हो जाती है। महाराजाधिराज बाहर की दुनिया के लिए कुछ और थे, जबकि उनके परिवार में उस समय के बच्चे, उस समय की महिलाएं इतनी उपेक्षा की शिकार थी। अगर महाराजा पर कितनी भी किताबें लिखी जाय, अब यह स्वीकार करना बेहद कठिन है। महाराजा की अगली पीढ़ी, यानि उनके अपने सगे मंझले भतीजे की स्थिति को देखकर तो ऐसा ही लगता है। 

जब उनसे पूछा कि वसीयत के तहत सबों को अपेक्षित हिस्सा मिला ताकि किसी को कोई शिकायत महाराजा के देहांत के बाद नहीं हो, तो रत्नेश्वर सिंह कहते हैं “महाराजाधिराज अपनी वसीयत नाम में मेरे दादाजी (पिताजी) के छोटे भाई को बहुत दिए। वसीयत का दस्तावेज इसका गवाह है। वे बहुत ही महत्वकांक्षी व्यक्ति थे।  बहुत ही ‘अपरिपक्क व्यक्ति” थे। चाहे संपत्ति की बात हो, या शेयरों की बात है। चाहे न्यायालय से मिला हो या फॅमिली सेटलमेंट के तहत मिला हो। वे अपने महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकते थे, और कुछ भी कर दिए। उनके समय काल में दरभंगा राज के अनेकानेक बहुमूल्य सम्पत्तियाँ विभिन्न राजनीतिक चाटुकारों की मिलीभगत के कारण दरभंगा राज के स्वामित्व से फिसल गयी। किस किस का नाम गिनाएंगे, सभी जानते हैं। 

9-जी एम रोड आवास

महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय की देख-रेख में जो भी फेमिली सेटेलमेंट हुआ, उसमें आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका के प्रकाशक कंपनी दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड के शेयरों के लाभार्थियों में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट को अगर हटा दें, तो महारानी अधिराणी कामसुन्दरी साहब के अलावे, सात महिला लाभार्थी थी। पुरुष लाभार्थियों की संख्या महिलाओं की तुलना में कम थी। (फैमिली सेटलमेंट के शेड्यूल iv के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी एस्टेट चैरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नेत्रायणि देवी, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तांतरित करेंगे, सिवाय फैमिली सेटलमेंट के लोगों के। पुरुषों की कुल शेयरों की संख्या 8800 थी (मूल्य: 880000 रुपये) जबकि महिलाओं की कुल शेयरों की संख्या 11200 जिसका मूल्य 11200000 था।) 

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लेकिन परिवार में उचित और अनुकूल  वातावरण में पाल-पोस नहीं होने के कारण परिवार के किसी भी सदस्यों में सामंजस्य नहीं रहा। महाराजा की मृत्यु के बाद  कुमार शुभेश्वर सिंह और फिर बाद में उनके बच्चे राज दरभंगा पर हावी होने लगे। कुमार शुभेश्वर सिंह की अपरिपक्क मानसिकता के कारण, ‘उच्च महत्वाकांक्षी होने के कारण सभी चीजें, ताकत, स्थान तत्काल प्राप्त कर लेना चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि वे बिहार के राजनीतिक चाटुकारों के शतरंज के चाल में फंसते चले गए। तत्कालीन राजनेता उन्हें लुभाते गए, वे राज की संपत्ति को दान करते गए, बेचते गए, राज दरभंगा खाली होता गया – वे चाहते थे राज्य की राजनीति में प्रवेश करना चाहे इसके लिए उन्हें जो भी देना पड़े। तत्कालीन राजनेताओं ने भरपूर उनका शोषण किया। उसी बीच बिहार प्रेस बिल आया और वे  जगन्नाथ मिश्रा के विरुद्ध खड़े हो गए। पत्रकारिता के नजर से यह बेहतर था, लेकिन यह लड़ाई मूलतः दरभंगा राज और सरकार के बीच हो गयी। आर्यावर्त-इण्डियन नेशन उनके स्वामित्व में था, स्वाभाविक है कि उन अख़बारों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। लेकिन खेल तो कुछ और हो रहा था और इसका सम्पूर्ण असर उन दोनों अख़बारों पर पड़ा। दोनों अख़बारों में सरकारी वियञापन बंद हो गया।  संस्थान आर्थिक किल्लत की ओर उन्मुख हो गया और अंत में मृत्यु को प्राप्त किया।  

अगर कुमार शुभेश्वर  सिंह चाहते, उनमें  ‘अपरिपक्कता’ नहीं होती तो प्रदेश के किसी भी राजनेता के सहयोग के बगैर वे दिल्ली में श्रीमती इंदिरा गांधी से संपर्क कर सकते थे।  इंदिरा गांधी दरभंगा के महाराजा को जानते थे। इंदिरा गांधी दरभंगा आयी हुयी थी। अगर शुभेश्वर सिंह इंदिरा जी के अपनी बात कहते, कहने की हिम्मत कर पाते तो वे भारत की राजनीति में कहाँ होते, लोग अंदाजा नहीं लगा सकते थे। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। वे भी चतुर्दिक अपने चाटुकारों से धीरे होते थे। अवसरवादी लोग चतुर्दिक उनकी प्रशंसा में लगे होते थे, चाहे राज का का जो भी हो। उस समय के राजनेता अपने-अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए शुभेश्वर सिंह का भरपूर इस्तेमाल किया। राजनेता उन्हें ठगते रहे, वे ठगाते रहे और इस सम्पूर्ण चीजों का असर हम बच्चों पर आया। अपने महत्वकांक्षा के कारण एक बार वे लक्ष्मीकांत झा से भी लड़ गए, मुकदमा हुआ। लेकिन बच्चों का कसम देने पर लक्ष्मीकांत जा मुकदमा वापस लिए। आज भी, उनकी अगली पीढ़ी वैसे ही अवसरवादियों, चाटुकारों से घीरे होते हैं। 

एक घटना को सुनते रत्नेश्वर सिंह कहते हैं: दिल्ली प्रवास के दौरान महारानी एक दिन दिल्ली के तिलक मार्ग स्थित सागर अपार्टमेंट में थी । महारानी के साथ हम भी बैठे थे ड्राइंग रूम  में। तभी कुमार शुभेश्वर सिंह और रामेश्वर ठाकुर अंदर प्रवेश किये। वे महारानी को देखे।  दोनों एक दूसरे को देखे। कोई प्रणाम नहीं।  कोई स्नेह नहीं। कोई प्यार नहीं, प्रेम नहीं, डाइंग रूम में कोई दो मिनट चक्कर लगाए और फिर बाहर निकल गए। महारानी उनकी चाची थी। महाराजाधिराज की सबसे छोटी पत्नी थी। क्या समझा जाय ? वे बहुत “घमंडी” थे, बहुत “ईगोइस्ट” थे। ज्ञातब्य हो कि कुमार शुभेश्वर सिंह द्वारा दायर किये गए अनेकानेक मुकदमा आज भी भारत के न्यायालयों में है जिसमें वे महारानी को प्रतिवादी बनाया है। 

रत्नेश्वर सिंह कहते हैं: आज दरभंगा राज परिवार के लोगों में बहुत बेहतर सम्बन्ध भी नहीं हैं। यदा-कदा ही कभी किसी से बातचीत होती है। बड़ी दादी (महारानी) से मिलने हम सभी महीने में एक बार अवश्य जाते हैं और वे भी आती हैं। लेकिन घर के अन्य सदस्यों के बीच तालमेल का बहुत किल्लत है। पुरुष में मैं हूँ, मेरा भाई है। हमारे बड़े चाचा को कोई पुरुष संतान नहीं था। सबकी लड़कियां थी। कभी कभार ही उन लोगों से बात होती है। छोटे शुभेश्वर सिंह के दो बेटे हैं – राजेश्वर सिंह अमेरिका में रहते हैं जबकि कपिलेश्वर सिंह दिल्ली में। अगर दरभंगा आते भी हैं तो बहुत मुलाक़ात या बातचीत नहीं होती। 

महाराजाधिराज दिनांक 1 अक्टूबर, 1962 को मृत्यु को प्राप्त हुए। वे दुर्गापूजा के अवसर पर कलकत्ता से अपने राज दरभंगा आये थे। वे अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कलकत्ता से अपने रेलवे सैलून से नरगोना स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। सभी बातें सामान्य थी उस सुवह, लेकिन क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ जैसे अनेकानेक कारणों के बीच  पहली अक्टूबर, १९६२ को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में उनका जीवंत शरीर “पार्थिव” पाए गया । सर कामेश्वर सिंह की तीन पत्नियां थीं – महारानी राज लक्ष्मी, महारानी कामेश्वरी प्रिया और महारानी कामसुंदरी। महारानी कामेश्वरी प्रिय की मृत्यु आज़ाद भारत से पूर्व और अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन के समय सं 1942 में हुई। बड़ी महारानी के 1976 में देहांत होने और 1978 में पंडित लक्ष्मी कान्त झा के देहांत के बाद दरभंगा राज का कार्य ट्रस्ट के अधीन हो गया। श्री मदनमोहन मिश्र ( गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बड़े पुत्र), श्री द्वारिका नाथ झा और श्री दुर्गानंद झा तीनो ट्रस्टी के अधीन। फिर श्री दुर्गानंद झा के देहांत के बाद 1983  के आसपास श्री गोविन्द मोहन मिश्र ट्रस्टी बने और फिर उनके स्थान पर श्री कामनाथ झा ट्रस्टी बने ।  

बहरहाल, राजा महेश ठाकुर (1556-1569) से लेकर राजा गोपाल ठाकुर (1569-1581), राजा परमानन्द ठाकुर, राजा शुभंकर ठाकुर, राजा पुरुषोत्तम ठाकुर (1617-1641) , राजा सुन्दर ठाकुर (1641-1668), राजा महिनाथ ठाकुर (1668-1690), राजा नरपति ठाकुर (1690-1700), राजा राघव सिंह (1700-1739) राजा बिष्नु सिंह (1739-1743), राजा नरेंद्र सिंह (1743-1770), रानी पद्मावती (1770-1778), राजा प्रताप सिंह (1778-1785), राजा माधव सिंह (1785-1807), महाराजा छत्र सिंह (1807-1839), महाराजा रूद्र सिंह (1839-1850), महाराजा महेश्वर सिंह (1850-1860), महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह (1880-1898), महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह (1898-1929) और अंत में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह का राज-काल आते-आते जो दरभंगा राज बिहार के मिथिला क्षेत्र में लगभग 6,200 किलोमीटर के दायरे में फैला था, राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग 7,500 अधिकारी बहाल थे, भारत के रजवाड़ों में दरभंगा राज का अपना खास ही स्थान रखता था – आज अपनी किस्मत पर रो रहा है।

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