“खेला तो 1997 में ही शुरू हो गया था कलकत्ता में” कि कैसे दरभंगा राज को मिट्टी में मिलाया जाए (भाग-8)

दरभंगा राज की दो सम्पत्तियाँ - पटना के फ़्रेज़र रोड पर और चौरंगी के  42/1, 42A और 42 बी नंबर भूखंड पर।  वैसे यह दोनों जमीन कर्मचारियों के हितों के रक्षार्थ, कंपनी को बचाने के लिए बेचीं गई (विक्रेता कहते हैं), लेकिन न कंपनी बची और न कर्मचारी 

दरभंगा / पटना और कलकत्ता :  पटना के फ़्रेज़र रोड पर दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिटेड के कार्यालय के स्थान पर अब पाटलिपुत्रा बिल्डर्स द्वारा निर्मित महाराजा काम्प्लेक्स है। जब देखा, तो मन खिन्न हो गया। नजर के सामने वे सभी “परजीवी” लोग मुजरा करते नाच गए,  जो उन दिनों मलाई, रसमलाई, छेनामलाई, टिकरी मलाई, रसगुल्ला, गुलाब जामुन, बियर, विस्की, रम, स्कॉच,  बिना डकार लिए खाने-पीने-लूटने  के लिए ‘अवसरवादी’ बन गए थे।  गलत कार्यों को भी स्वहित में मद्दे नजर ‘हां-में-हां’ मिलाते  थे, परजीवी जैसा चिपके थे। समय को दुत्कार कर इतने अंधे हो गए थे की संस्थान में कार्य करने वाले हज़ारों कर्मचारियों, उनके परिवारों, विधवाओं और बाल-बच्चों का रोता-बिलखता चेहरा भी उन्हें नहीं दीखता था। समय, आखिर समय है। समय की मार तो ईश्वर को भी लगी थी। 

कुछ पल के लिए कलकत्ता के चौरंगी रोड पर स्थित महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की जमीन संख्या 42/1, 42A और 42 B मानस-पटल पर दौड़ गई। सोचने लगा “बिहारी व्यवसायी” और “बंगाली व्यवसायी” की सोच में उतना ही अंतर है जितना पटना का महाराजा काम्प्लेक्स और कलकत्ता का “दी 42 कलकत्ता” । बिहारी सोच पांच तल्ला से ऊपर नहीं जा सका, चाहे जमीन “धोखेवाजी” से प्राप्त कर ली गयी हो या फिर मालिकों के साथ कोई सांठ-गाँठ बना लिया हो । “दी 42 कलकत्ता” भारत का सबसे ऊँचा भवन” है। यह जमीन नब्बे के दशक तक दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की हुआ करती थी। लेकिन इस भूमि पर दरभंगा राज से “परजीवियों” की तरह जुड़े लोगों – कुछ अपने, कुछ पराये – की नजर लग गयी। एक सोची-समझी साजिश और चक्रव्यूह के तहत इसे बेच दी गयी। अपने मरने से पहले अपने परिजनों के बीच अपनी सम्पूर्ण सम्पत्तियों को विभाजित कर देने के बाद भी, शरीर से जीवित लोगों की आत्मा तृप्त नहीं हुई और सभी साथ मिलकर महाराजाधिराज की सम्पत्तियों का “स्वाहा” करने लगे। सभी “स्वहित” में कौड़ी के भाव हीरे बेचने में मगल हो गए  – चाहे कलकत्ता हो या दिल्ली, पटना हो या इलाहाबाद इत्यादि।  

आज कलकत्ता की उम्र से लंबी सड़क चौरंगी का “दी 42 कलकत्ता” और पटना के  फ़्रेज़र रोड में बना महाराजा कॉम्प्लेक्स में तुलना नहीं किया जा सकता है। परन्तु, दोनों जमीनों की बिक्री के मामले में एक समानता जरूर थी – दरभंगा राज के लोगों ने ‘दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमिटेड के कर्मचारियों के नाम पर, उनके बकाये के नाम पर, उनके भविष्य निधि के नाम पर, संस्थान को जीवित रखने के नाम पर दोनों भवनों की बुनियाद, यानी जमीनों को कौड़ी के भाव में बेच दिए। लेकिन न कर्मचारियों को पैसा मिला और न ही संस्थान बचा पाए। यानि सबों ने मिलकर खेला की शुरुआत तो कलकत्ता के चौरंगी पर कर दिए थे। उस समय चौरंगी रोड के बाएं तरफ मैदान छोड़ से कलकत्ता मेट्रो के लिए जमीन की खुदाई हो रही थी। इधर एक इतिहास बन रहा था, उधर दरभंगा के लोगबाग स्वहित में अपने-अपने मानसिक चरित्रों को जमीन के अंदर दफ़न कर जमीन का सौदा कर रहे थे। 

बहरहाल, अनपढ़ों की भाषा में, अशिक्षितों की भाषा में बस इतना समझ लें कि दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के देहावसान के बाद दरभंगा-राज की सम्पूर्ण संपत्ति स्वरुप सिक्का को “तत्कालीन सीपा-सलाहकारों” ने “स्वहित के मद्दे नजर” चार-फांक में विभाजित कर दिया है। इस सिक्का को चार-खण्डों में विभक्त करने का पहला और अंतिम अधिकार पटना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति लक्ष्मीकांत झा को मिला था, शेष सभी मूक-बधिर स्वरुप खड़े थे। आज तक यह बात स्पष्ट नहीं हो सका की क्या सच में महाराजाधिराज ऐसा कोई “विल” बनाये थे अथवा नहीं ? यह ही मालूमात नहीं हो सका कि “उस विल को लागू करने का एकाधिकार तत्कालीन न्यायमूर्ति श्री लक्ष्मीकांत झा को ही दिया गया था ! इस विषय पर महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद दरभंगा राज की सम्पत्तियों से लाभान्वित होने वाले सभी टकटकी निगाह से दौलत को ही देख रहे थे – क्योंकि कभी देखा नहीं था, अपने द्वारा अर्जित नहीं था, मुफ्त की संपत्ति थी – अब इस पचड़े में कौन पड़े की महाराजाधिराज किसे बांटने को कहे और किसे दूर रखे। 

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इस अधिकार, कर्तव्य और महाराजाधिराज के “वसीयतनामा” से सम्बंधित कई बातें हैं, जो महाराजाधिराज की मृत्यु के साथ ही दफ़न हो गयी। लेकिन सच यही है कि उन दिनों पटना उच्च न्यायालय की उपस्थिति में भी, न्यायमूर्ति लक्ष्मीकांत झा ‘पटना उच्च न्यायालय को दर-किनार कर कलकत्ता उच्च न्यायालय में महाराजाधिराज के वसीयत-नामा को क्रियान्वित करने का अधिकार प्राप्त किया। क्यों किया? कैसे किया? किस-किसने इस ऐतिहासिक कार्य के पीछे अपनी भूमिका अदा किये, यह सभी बातें शोध की बातें हैं। आज तक इन पर शोध नहीं हुए, लेकिन इतना विश्वास रखें की आगे वाले समय में, आने वाली पीढ़ियां इन बातों पर शोध भी करेगी और प्रकाशन भी। खैर। 

फैमली सेटेलमेंट के तहत,  महाराजाधिराज के उस सम्पूर्ण संपत्ति स्वरुप सिक्के को जिन चार भागों में विभक्त किया गया उसमें एक – चौथाई भाग महाराजाधिराज पत्नी महारानी कामसुन्दरी को मिला। एक – चौथाई हिस्सा राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह को मिला।  एक – चौथाई हिस्सा राजकुमार जीवेश्वर सिंह और यज्ञेश्वरा सिंह को मिला और अंतिम एक – चौथाई टुकड़ा चेरिटेबल ट्रस्ट के हिस्से आया। सेटेलमेंट के क्लॉज 11 के तहत, यह बात स्पष्ट किया गया कि ‘समय आने पर ट्रस्ट का निर्माण’ किया जायेगा जिसका नाम ‘कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट’ होगा और इस ट्रस्ट के सभी सदस्यों का चयन, रखरखाव आदि-आदि नियमानुसार होगा। आगे, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 14 के अधीन न्यायालय के आदेश के दिनांक 15 अक्टूबर, 1987 से  पांच साल के अंदर इस सेटेलमेंट को लागू करना था। बाद में, दिनांक 7 मई, 1993 को न्यायलय ने सेटेलमेंट को दिनांक 15 अक्टूबर, 1995 तक बढ़ा दिया। 

इसी फेमिली सेटेलमेंट के सिड्यूल iv के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी इस्टेट चेरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नतरयाणी देबि, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तानांतरित करेंगे, सिवाय फेमिली सेटेलमेंट के लोगों के। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय में दिनांक 14 मार्च, 1997 दायर मुकदमें में यह स्पष्ट कहा गया कि जैसा कि एन एंड पी लिमिटेड अपने कर्मचारियों को वेतन और बकाया आदि का भूटान करने में असमर्थ है, जबकि ाल इंडिया न्यूजपेपर्स एसोसिएशन के तहत निबंधित समाचार पात्र और उसके कर्मचारी इस बात के लिए आंदोलन कर रहे हैं कि उन्हें वेतन और बकाया तो दिया जाय ही, साथ ही, अख़बारों को चलाने, प्रकाशित करने में भी मदद मिले। बाद में, कर्मचारियों ने ट्रस्टियों के साथ – था, उन सभी लाभान्वित लोगों का दरवाजा खटखटाया, घेराव किया, धरना दिया। उस समय न्यायलय में यह भी कहा गया कि कर्मचारियों ने ट्रस्टियों और लाभान्वित लोगों के साथ बदसलूकी भी किया। इसका परिणाम यह हुआ कि गोविंद मोहन मिश्रा, जो एक ट्रस्टी भी थे, त्यागपत्र दे दिया। जबकि राज दरभंगा के रेसिडुअरी एस्टेट के सभी लाभान्वित लोग एन एंड पी लिमिटेड के निदेशक थे।  

पहला खेल यहाँ प्रारम्भ हुआ।  एन एंड पी लिमिटेड के कर्मचारियों के बहाने  फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 को उद्धृत करते हुए यह कहा गया कि एन एंड पी लिमिटेड के कर्मचारी ट्रस्टियों के ऊपर दवाव दाल रहे हैं कि उन्हें कर्मचारियों के भुगतान के लिए तो पैसा दिया ही जा, साथ ही, कंपनी के जीर्णोद्धार के लिए भी आर्थिक सहायत किया जाय। और इसके लिए कलकत्ता के चौरंगी रोड स्थित 42/1, 42A और 42 बी (इस संपत्ति को फेमिली सेटेलमेंट के सिड्यूल VI में रिसिडुअरी इस्टेट के कर्जों को चुकाने में बेचने वाली श्रेणीं में रख दिया गया था) को बेच दिया जाए। वैसे यह मामला कलकत्ता उच्च न्यायलय में पहले से ही लंबित था जिसमें कलकत्ता उच्च न्यायालय, दिनांक 5 जून, 1992 को यह कहा था कि जिस दिन राज दरभंगा के रेसिडुअरी एस्टेट के सभी लाभान्वित होने वाले लोग, इस विषय पर एक मत होने का सहमत दे देंगे,  कलकत्ता के चौरंगी रोड स्थित 42/1, 42A और 42 बी की संपत्ति रुपये 10,40,00,000 /- में बेच दी जाएगी। 

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फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 के तहत लाभान्वित होबने वाले लोगों की कमिटी ने आपस में यह तय कर लिया था कि 10 4 करोड़ की राशि में, करीब 3 61 करोड़ रूपये एन एंड पी लिमिटेड के सभी कर्जों के लिए, भविष्य निधि के भुगतान के लिए, कर्मचारियों के बकाये भुगतान के लिए और कंपनी के पुनरुद्धार के लिए खर्च किया जायेगा। और जिसकला समायोजन लाभन्वियत होने वाले लोगों के शेयरों के आधार कर किया जायेगा। 

बहरहाल,  दरभंगा राज की सम्पत्तियों को नेश्तोनाबूद करनेमें महाराजाधिराज के विल को क्रियान्वित करने वाले तत्कालीन अधिकारीयों और ट्रस्टियोंका हाथ उत्कर्ष पर रहा ही; लेकिन सत्तर के दसक में स्थानीय प्रशासन के सहयोग से दरभंगाराज के मुख्यालय को जिस तरह मिथिला विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने कब्ज़ा किया, राजदरभंगा के लोगों की कमजोरी/मिलीभगत को दृष्टिगोचित करता है। एक अधिकारिक दस्तावेज के अनुसारजिलाधिकारी, दरभंगा के आदेश संख्या 1835 /एल  दिनांक 16.08. 1975 केद्वारा एक्सेकूटर लक्ष्मी कान्त झा को डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल 1971 के सुसंगत प्रावधानके आलोक में दरभंगा राज के भवन एवं भूमि अधिगृहित करने की सूचना दी गयी जिसके खिलाफपंडित लक्ष्मीकांत झा ने माननीय पटना उच्च न्यायालय में सी . डब्लू .जे . सी . नंबर1786 /75 दाखिल की।वाद के निपटारा से पूर्व हीं बिहार सरकार और दरभंगा राज केबीच समझौता हुई और जिलाधिकारी के आदेश और उक्त वाद को वापस ले लिया गया और 12-09-1975  को हुई इस समझौता के आलोक में 133 एकड़ भूमि और भवन विस्वविद्यालयहेतु दी गयी।  

कहा जाता है कि सं 1980में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि महारानी-अधिरानी कामसुन्दरी “रेसिडुअरी इस्टेट” का एक-तिहाई हिस्से का हक़दार होंगी।  कलकत्ता उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध कुमार शुभेश्वर सिंह सर्वोच्च न्यायालय गए और न्यायालय को बताया की वे अपने दो अवयस्क बच्चों के हितों के रक्षार्थ कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ लड़ रहे हैं। शुभेश्वर सिंह को अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए महाराजा की जीवित पत्नी महारानी अधिरानी कामसुन्दरी के साथ अनेकानेक मुक़दमे लड़ने पड़े। सम्भवतः आज भी कई मुक़दमे माननीय न्यायालय में लंबित होंगे। शुभेश्वर सिंह महाराजा के छोटे भतीजे थे। इसका वजह यह था कि महाराजाके वसीयत के क्लॉज 4 में इस बात को स्पष्ट रूप से लिखा गया था कि शुभेश्वर सिंह के बच्चे उसी हालात में महाराजा की सम्पत्तियों के लिए दावा कर पाएंगे अगर उनकीमाँ ब्राह्मण परिवार की होंगी। शुभेश्वर सिंह सन 1965 में महाराजा की इक्षा और उनके वसीयत में लिखे शब्दों के सम्मानार्थ “ब्राह्मण महिला” से ही विवाह किये और उनके दो पुत्र – श्री राजेश्वर सिंह और श्री कपिलेश्वर सिंह – हुए । लेकिन उन्होंने इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया था की “वे बहुत ही तेज जीवन जीये हैं। उनकी जितनी भी बुराईयां थीं, अवगुण थे; सभी के सभी विवाहके साथ समाप्त हो गए, छोड़ दिए। लेकिन एक कमजोरी है जिसे वे नहीं त्याग नहीं सके,और वह है – शराब पीना।   

बहरहाल, सन 1962 में दरभंगा के अंतिम महाराजा द्वारा अंतिम सांस लेने, उनके शरीर को पार्थिव होने के कोई चार-दसक बाद आर्यावर्त – इण्डियन नेशन अखबार के प्रबन्ध निदेशक, जिनके कार्यकाल में महाराजाद्वारा स्थापित बिहार का इन दो अख़बारों का पन्ना भी पार्थिव हुआ, अखबारों ने अंतिम सांस ली, महाराजा साहेब के भतीजे श्री शुभेश्वर सिंह ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार कियाथा कि वे विवाह के साथ अपने सभी अवगुणों को त्याग दिए, लेकिन एक अवगुण को नहीं छोड़ सके – शराब पीना।  शुभेश्वर सिंह की मृत्यु एक दसक पूर्व हुई।

महारानी और दरभंगा हाउस प्रॉपर्टी लि . द्वारा दी गयी जमीन इसके अतिरिक्त है उक्त समझौता कमिश्नर, शिझा विभाग, बिहारसरकार  और लक्ष्मीकांत झा के बीच हुई जिसपर इन दोनो के अतिरिक्त राजकुमार शुभेश्वरसिंह, रामेश्वर ठाकुर और द्वारिका नाथ झा के दस्तखत हैं, में तत्काल यूनिवर्सिटी को57 बीघा जमीन जिसमे राज हेड ऑफिस का अगला पूरा हिस्सा और पीछे का कुछ हिस्सा, यूरोपियनगेस्ट हाउस, आगे का फील्ड और मोतीमहल एरिया दी गयी और तत्काल 10 लाख रुपया राज को देनेकी बात थी और शेष जमीन और भवन को भूमि अधिग्रहण कानून के तहत अधिग्रहण करने की बातथी। राज पुस्तकालय की करीब 60 हजार दुर्लभ पुस्तक उपहार में राज द्वारा यूनिवर्सिटीको दी गयी। महारानी द्वारा 60 एकड़ जमीन बगीचा सहित नरगोना पैलेस दी गयी और दरभंगा हाउस प्रॉपर्टी ने 6 बीघा जमीन जिसमे गिरीन्द्र मोहन रोड स्थित बंगला नंबर11 मात्र 6.51 लाख रूपये में यूनिवर्सिटी को दी गयी। 

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उधर बिहार विधान परिषद् के133 वें सत्र में सर्व श्री अनिरुद्ध प्रसाद, शकील अहमद खान, रामजी प्रसाद शर्मा, राम कृपाल यादव एवं राम प्रसाद सिंह, स.वि.प. द्वारा दरभंगा महाराज की मृत्यु के पश्चात् गठितट्रस्ट द्वारा अनियमितता वरते जाने के सम्बन्ध में सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश किये। श्री शकील अहमद खान ने परिषद् को बताया था कि दरभंगा महाराज की मृत्यु 1 अक्टूबर 1962 को हुई। उन्होंने मरने के पूर्व एक बिल किया था, जिसके अनुसार उनकी सारी संपत्ति की एक तिहाई से होनेवाली आमदनी को पब्लिक चैरिटी पर खर्च होना निश्चित है। जिसके लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गई। उक्त ट्रस्ट द्वारा दिवंगत महाराजकी इच्छा के विपरीत पब्लिक चैरिटी के लिए सम्पति कौड़ी के मोल में बेचीं जा रही है और उसका उपयोग पब्लिक चैरिटी के अतिरिक्त अन्य कार्यों में किया जा रहा है, बिल के विरुद्ध है। 

परिषद् को अनेकानेक उदाहरण दिए गए। उन्होंने कहा कि श्री गिरीन्द्र मोहन मिश्र जी (श्री मदन मोहन मिश्र)का आवास वाली 37 कट्ठा जमीन 2 लाख 7 हज़ार प्रति कट्ठा के हिसाब से बेच दी गई,  जोकी कम है और उससे ऊँची हैसियत की जमीन श्री द्वारिकानाथ झा वाली आवासीय जमीन 39कट्ठा मात्र एक लाख, सत्रह हजार रूपये कट्ठा की दर से विक्री की गयी है, जिसका निबंधन लंबित है और खरीददार को कब्ज़ा दे दिया गया है। पब्लिक चैरिटी पर अभी तक कोई खर्च नहीं हुआ है और सारे पैसों का दुरूपयोग किया जा रहा है। 

ज्ञातब्य हो कि तत्कालीन जिलाधिकारी,दरभंगा के प्रतिवेदनानुसार स्थिति इस प्रकार थी: अंतिम दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु दिनांक 1-10-1962 को हुई। मृत्यु के पूर्व 05-07-1961 को उन्होंने एक बसीयत बनाया था ,जिसके अनुसार तीन अनुसूचियों के अनुरूप अपनी सम्पतियों को बांटे। बसीयत के अनुसार ⅓ हिस्सा पब्लिकचैरिटेबल के उद्देश्य से दिया गया था। बाद में महाराज के कई पारिवारिक सदस्यों ने कई मुकदमें महाराज के पैत्रिक कोर्ट ( कलकता उच्च न्यायालय ) में किये।अंततः यह मामला माननीय उच्चतम न्यायालय में गया और 05-10-1987 को फॅमिली सेटलमेंट हुआ । इस सेटलमेंट के अनुसार रेसिडुअरी इस्टेट के पब्लिक चैरिटेबल कार्य हेतु जो सम्पति रखी गयी, उसमे प्रश्नगत भूमि भी शामिल है। रेसिडुअरी एस्टेट में वर्णित सम्पति की देख– भाल ट्रस्ट के द्वारा किए जाने की व्यवस्था थी। रेसिडुअरी एस्टेट में जो सम्पति चैरिटेबल प्रॉपर्टी के लिए रखी गयी थी, उसकी व्यवस्था महाराजा कामेश्वर सिंह चैरिटेबलट्रस्ट द्वारा की जनि चाहिए थी। बाद में, 25-03-1992 को ट्रस्टी ने महाराजा कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट और दरभंगा निबंधन कार्यालय में एक डीड कार्यान्वित किया, जिसमे ट्रस्ट का एम्स एवं ऑब्जेक्ट निर्धारित किया गया।

तत्कालीन नेताओं का कहना था कि वैसे दरभंगा महाराज की सम्पतियों का  मामला है, ट्रस्ट का मामला है। लेकिन यह केवल दरभंगा महाराज तक सीमित नहीं है , यह बिहार की प्रतिष्ठा, ख्याति का सम्बन्ध है l अगर उसके ट्रस्ट में , उसकी जमीन पर यूनिवर्सिटी बनी , उसकी जमीन पर और उसकी जायदाद का जो दुरूपयोग हो रहा है , तो हर बिहारी से यह कंसर्न है।  आप इसकी जाँच इनके अधिकारियोंसे करायेंगे या कोई एजेंसी से करायेंगे , लेकिन जाँच करा लीजिए, क्योंकि हमलोग भी सुनतेहैं कि दरभंगा महाराज के पैसों का , उनकी जमींदारी की जमीन है जिसमे म्यूजियम बनवायाऔर भी चीज बनवाया , यूनिवर्सिटी बनवाया , काफी उसकी लूट हो रही है l इंडियन नेशन ,आर्यावर्त की लूट हो रही है तो इसके लिए जरुरी है कि सम्पूर्ण ट्रस्ट की जाँच हो जय और आप यदि समझिए तो सदन की समिति से जाँच करा लीजिए ।  एक अन्य नेता श्रीनवल किशोर यादव ने कहा था कि  सिर्फ चैरिटी के माध्यम से पैसा खर्च नहीं किया गया है बल्कि कौड़ी के भाव में उनकी संपतियां बेचीं जा रही है।   

……………………….क्रमशः 

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