‘महाराजाधिराज के सम्मान और गरिमा’ के लिए ‘फॅमिली सेटेलमेंट’ ही विकल्प है, नहीं तो…… सब बोले ‘आई एग्री-आई एग्री’ (भाग-28) 

जब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा महाराजाधिराज के सम्मान और गरिमा' के लिए 'फॅमिली सेटेलमेंट' ही विकल्प है

दरभंगा / पटना : दरभंगा में दरभंगा राज के लोग आज- कल मिथिला की संस्कृति को वापस लाने की बात करते हैं। लोगों में प्रेम, भाई-चारे की बात करते हैं। मिथिलांचल के लोग हँसते हैं, खासकर जिन्हे दरभंगा राज के रामबाग के गगनचुम्बी लाल-दीवार के अंदर की बातें मालूम है। महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद रामबाग परिसर की ईंटें और मिट्टियाँ कई हज़ार-लाख बातों का, चीजों का चश्मदीद गवाह है।  लेकिन ‘बोल नहीं सकती’, ‘निर्जीव’ हैं वह। और जो ‘सजीव’ हैं वे महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के शरीर को पार्थिव होने के बाद कोई भी कसर नहीं छोड़े, जिससे वे महाराजाधिराज द्वारा इस पृथ्वी पर छोड़ी गई सम्पतियों को ‘अधिकाधिक अपनी ओर खींच सकें’, चाहे ‘जिस हद तक जाना पड़े। लेकिन अंत में थक-हार कर ‘फॅमिली सेटलमेंट’ के छः पन्नों का हस्ताक्षर क्यों किये, यह भारत के सर्वोच्च न्यायालय का शब्द गवाह है। मिथिलांचल के लोग शायद नहीं जानते होंगे महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद क्या-क्या हुआ ‘सम्पत्तियों’ पर ‘स्वामित्व’ के लिए। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: “Efforts for bringing  settlement should be made by the parties and with a view to save themselves from prolonged, protracted and ruinous litigations and for the sake of peace, preservation of honour and dignity of the family and to carry out the wishes of the late Maharajadhiraj Dr Sir Kameshwar Singh Bahadur of Darbhanga……” ओह। 

I agree……I agree……I agree…… दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह  के वसीयत के हिसाब से जब संपत्ति का बंटवारा हुआ, तो क्या पत्नी, क्या भतीजे, क्या पोतियां और क्या पोते सबों ने एक स्वर में कहा और दस्तावेज के अंतिम पृष्ठ पर लिखे “I agree……I agree……I agree……” और अपना-अपना हस्ताक्षर करते गए। कोई हिंदी में हस्ताक्षर किये तो कोई अंग्रेजी में लिखे। कोई ‘रनिंग हैण्ड में कर्सिव’ में हस्ताक्षर किये तो ‘लूप्ड कर्सिव” में, कोई “इटालिक कर्सिव” में हस्ताक्षर किये तो कोई “प्रिंट हैंडराइटिंग” में। हस्ताक्षरों को देखकर यह कहा जा सकता है कि “हस्ताक्षर करना उनके लिए अंतिम पड़ाव” रहा होगा। लिखने और हस्ताक्षर करने के क्रम में जो लाभार्थियों ने “अनुशासन” दिखाए, यानी उम्र के हिसाब से हस्ताक्षर किये गए – पहले सबसे बड़ा और नीचे क्रमशः छोटा। काश !!! वह अनुशासन और क्रमबद्धता महाराजाधिराज की सम्पत्तियों को बचाने, धरोहरों को बचाने, पुरातत्वों को बचाने और दरभंगा के प्रथम राजा महेश ठाकुर से लेकर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह तक 400-साल का इतिहास बचाने में दिखाते तो शायद महाराजा के शरीर को पार्थिव होने के महज 60-वर्ष आते आते दरभंगा राज की दीवारें आज रोती-बिलखती नहीं। ऐतिहासिक रामबाग किले के अंदर की मिट्टी बंजर नहीं होती। कलकत्ता का 42-चौरंगी और पटना के फ़्रेज़र रोड का दि एन एण्ड पी लिमिटेड की “शब्दों की खेती वाली वह उपजाऊ भूमि कौड़ी के भाव में” नहीं बेची जाती। और आज भी सैकड़ों कामगार, मजदुर अपने-अपने हक़ के लिए रोता -बिलखता नहीं। 

दस्तावेज पर पहला हस्ताक्षर महारानी अधिरानी कामसुन्दरी का है और उनके नीचे महाराजाधिराज के भाई महाराजकुमार विशेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह का। कोई 29-शब्दों का वह “स्वीकारनामा” बहुत कुछ कहानियां कहती है। राजकुमार जीवेश्वर सिंह लिखते हैं: “I, Rajkumar Jeeveshwara Singh being the natural guardian of my minors daughters Sushree Chetna Singh, Draupadi Singh, Anita Singh and Sunita Singh agree of this memorandum of family settlement.” वैसे मिथिला में एक कहावत प्रचलित है “यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्” – हाँ, यहाँ “ऋण” नहीं लिया गया “घी” पीने के लिए। लेकिन जो किया गया मिथिला के 400-साल का इतिहास को समाप्त करने के लिए, महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह और महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह द्वारा उल्लिखित दरभंगा राज के इतिहास का अंतिम पृष्ठ को नेश्तोनाबूद करने के लिए – वह दुःखद ही नहीं, मिथिलाञ्चल के लोगों के लिए, युवकों के लिए, युवतियों के लिए, गर्भ में पनप रहे बच्चों के लिए, आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय भी नहीं है।  

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फेमिली सेटेलमेंट का दस्तावेज मार्च 27, 1987 को लिखा गया। महारानी अधिरानी कामसुन्दरी कल्याणी निवास, दरभंगा में रहती थी। महाराज बहादुर के सबसे छोटे बेटे कुमार शुभेश्वर सिंह के बड़े बेटे राजेश्वर सिंह ‘बालिग’ हो गए थे और रामबाग परिसर में रहते थे। उनके अनुज कपिलेश्वर सिंह उस समय ‘नाबालिग’ थे और वे अपने पिता द्वारा प्रतिनिधित्व हो रहे थे। महाराजाधिराज द्वारा बनाये गए दरभंगा राज के रेसिडुअरी इस्टेट के तीनों ट्रस्टी द्वारकानाथ झा, हरि मोहन मिश्रा गोविंद मोहन मिश्र भी उपस्थित थे। कुमार जीवेश्वर सिंह की पहली पत्नी श्रीमती श्रीमती राजकिशोरी जी (अब दिवंगत) की पहली पुत्री श्रीमती कात्यायनी देवी जिनका विवाह अरविन्द सुन्दर झा के साथ हुआ, राजकिशोरीजी-जीवेश्वर सिंह की दूसरी पूरी श्रीमती दिव्यायानी देवी जो भक्तेश्वर झा की पत्नी थी, श्रीमती नेत्रायणी देवी, जो जीवेश्वर सिंह और उनकी दूसरी पत्नी श्रीमती इरावती देवी की पुत्री थी और सुशिल झा की पत्नी थी, सुश्री चेतना दाई, सुश्री दौपदी दाई, सुश्री अनीता दाई, सुश्री सुनीता दाई श्रीमती जीवशर सिंह -इरावती देवी की बेटियां थी; रत्नेश्वर सिंह, रश्मेश्वर सिंह और राजमेश्वर सिंह – तीनो पुत्र राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और अंत में महाराजकुमार विश्वेश्वर सिंह के सबसे छोटे बेटे कुमार शुभेश्वर सिंह – पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें पार्टियों के रूप में फेमिली सेटलमेंट के दस्तावेजों पर उपस्थित थे। विभिन्न आकार-प्रकार के हस्ताक्षरों के साथ, गजब की एकता फेमिली सेट्लमेंट के छः पन्नों पर दिखता है। शायद 27 मार्च, 1987 के बाद इस तरह की एकता दरभंगा राज के परिवार के लोग, रामबाग का चारदीवारी कभी नहीं देखा गया होगा। 

उस छः पन्ने के दस्तावेज में इस बात को बहुत ही प्राथमिकता थे स्थान दिया गया है “And Whereas now there is a genuine feeling among the parties that in all probability the whole estate will be liquidated for paying taxes and other legal dues and expenses on litigations even during the lifetime of the first party (Maharani Adhirani Kamsundari, wife of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh) and hardly anything will remain for the beneficiaries and public charity if the present state of affairs is allowed to continue…..” स्वाभाविक है ‘फॅमिली सेटेलमेंट” ही एक मात्र उपाय रह गया जिससे सभी लाभार्थियों के लाभों, के साथ-साथ ‘पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट’ की रक्षा हो सकती है और  महाराजाधिराज द्वारा लिखे गए अपनी वसीयत के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। 

नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विशेश्वर नाथ खरे और अन्य न्यायमूर्तियों के समक्ष दायर दस्तावेजों के आधार पर 5 जुलाई, 1961 को महाराजधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा वसीयतनामे पर हस्ताक्षर किया जाता है। वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करने के 453 वें दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हो जाती है और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा “सोल एस्क्यूटर” बन जाते हैं। फिर 26 सितम्बर, 1963 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा उक्त वसीयतनामे को “प्रोबेट” करने का एकमात्र अधिकार न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा को दिया जाता है। उस दिन बिहार में भी पटना उच्च न्यायालय था और पंडित लक्ष्मीकांत झा उसी न्यायालय के न्यायमूर्ति भी थे। लेकिन अरबो-खरबों का प्रश्न अनुत्तर रह गया कि “आखिर पंडित झा संपत्ति की सीमा-क्षेत्र को छोड़कर, दूसरे राज्य के उच्च न्यायालय में वसीयतनामा को लेकर क्यों गए? महाराजाधिराज की सम्पत्तियों से लाभ प्राप्त करने वाले सम्मानित मोहतरमा और मोहतरम आखिर आपत्ति क्यों नहीं जताए ? 

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महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह। तस्वीर: कल्याणी फॉउंडेशन के सहयोग से 

महाराजा के वसीयतनामे के अनुसार, महाराजा का दरभंगा राज का सम्पूर्ण अधिकार न्यायमूर्ति झा के पास जाता है। महाराजा के वसीयतनामे में तीन ट्रस्टियों का नाम होता है जिसके नियुक्ति “सेटलर” द्वारा किया गया – वे थे: पंडित एल के झा (स्वयं), पंडित जी एम मिश्रा और ओझा मुकुंद झा। उपरोक्त “एस्क्यूटर” को अपना सम्पूर्ण कार्य समाप्त करने के बाद दरभंगा राज का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप इन ट्रस्टियों को सौंपना था। महाराजा के वसीयतनामे में इस बात पर बल दिया गया था कि ट्रस्टियों की मृत्यु अथवा त्यागपत्र के बाद, दूसरे ट्रस्टी द्वारा रिक्तता को भरा जायेगा और वर्तमान ट्रस्टी उक्त दस्तावेज में उल्लिखित नियमों के अधीन ही नियुक्त किये जायेंगे। 

खैर, न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा, यानी “सोल एस्क्यूटर” संभवतः सन 1978 साल के मार्च महीने के 3 तारीख को मृत्यु को प्राप्त करते हैं। न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी (अवकाश प्राप्त) को दरभंगा राज के “प्रशासक” के रूप में नियुक्त करते हैं। इसके बाद तत्कालीन न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखर्जी अपने आदेश, दिनांक 16 मई, 1979 के द्वारा उपरोक्त “प्रशासकों” को “इन्वेंटरी ऑफ़ द एसेट्स’ और ‘लायबिलिटीज ऑफ़ द इस्टेट’ बनाने का आदेश देते हैं ताकि वह दरभंगा राज के ट्रस्टियों को सौंपा जा। उक्त दस्तावेज के प्रस्तुति की तारीख के अनुसार तत्कालीन ट्रस्टियों ने महाराजाधिराज दरभंगा के रेसिडुअरी इस्टेट का कार्यभार 26 मई, 1979 को ग्रहण किया। कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेशानुसार, महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थी (यानी परिवार के सदस्य) इस ट्रस्ट के ट्रस्टीज होंगे ।

ज्ञातब्य हो कि 27 मार्च, 1987 को सम्बद्ध लोगों के बीच हुए फेमिली सेटेलमेंट को लेकर दायर अपील को सर्वोच्च न्यायालय दिनांक 15 अक्टूबर, 1987 को “डिक्री” देते हुए ख़ारिज कर दिया। तदनुसार, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 1 के अनुसार, सिड्यूल II में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी सिड्यूल II में उल्लिखित सभी सम्पत्तियों की स्वामी बन गयी। स्वाभाविक है, उन सम्पत्तियों पर उनका एकल अधिकार हो गया। इसी तरह, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 2 के अनुसार, कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र, यानी राजेश्वर सिंह, जो उस समय बालिग हो गए थे, और उनके छोटे भाई, कपिलेश्वर सिंह, जो उस समय नाबालिग थे, सिड्यूल III में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते सिड्यूल III में उल्लिखित सम्पत्तियों के मालिक हो गए। आगे इसी तरह, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 3 के अंतर्गत सिड्यूल IV में वर्णित सभी नियमों के अनुरूप में सभी सिड्यूल IV में उल्लिखित सम्पत्तियों का मालिक पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज हो गए। फेमिली  सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के अधीन, श्रीमती कात्यायनी देवी, श्रीमती दिव्यायानी देवी, श्रीमती नेत्रयानी देवी (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी बालिग पुत्रियां) और सुश्री चेतना दाई, सुश्री दौपदी दाई, सुश्री अनीता दाई (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी नबालिग पुत्रियां), श्री रत्नेश्वर सिंह, श्री रश्मेश्वर सिंह (उस समय मृत), श्री राजनेश्वर सिंह (कुमार याजनेश्वर सिंह) सिड्यूल V में उनके नामों के सामने उल्लिखित, साथ ही, उसी सिड्यूल में उल्लिखित शर्तों के अनुरूप, सम्पत्तियों के मालिक होंगे। 

फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के तहत, पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज को यह अधिकार दिया गया कि वे सिड्यूल I में वर्णित ‘लायबिलिटीज’ को समाप्त करने के लिए, सिड्यूल VI में उल्लिखित सम्पत्तियों को बेचकर धन एकत्रित कर सकते हैं, साथ ही, परिवार के लोगों में फेमिली सेटेलमेंट के अनुरूप शेयर रखने का अधिकार दिया गया। साथ ही, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 के अनुसार, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी और राज कुमार शुभेश्वर सिंह या उनके नॉमिनी (दूसरे क्षेत्र के लाभान्वित लोगों के प्रतिनिधि) द्वारा बनी एक कमिटी लिखित रूप से सम्पत्तियों की बिक्री, शेयरों का वितरण आदि से सम्बंधित निर्णयों को लिखित रूप में ट्रस्टीज को देंगे जहाँ तक व्यावहारिक हो, परन्तु किसी भी हालत में पांच वर्ष से अधिक नहीं या फिर न्यायालय द्वारा जो भी समय सीमा निर्धारित हो। 

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इसी फेमिली सेटेलमेंट के सिड्यूल iv के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी इस्टेट चेरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नतरयाणी देबि, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तानांतरित करेंगे, सिवाय फेमिली सेटेलमेंट के लोगों के। 

बहरहाल, पिछले दिनों इंटरनेट पर दरभंगा राज के लोगों को ढूंढ रहा था। महिला पक्ष में राजकुमार जीवेश्वर सिंह के परिवार से (जो नाम दस्तावेजों में उल्लिखित है) कोई दृष्टिगोचित नहीं हुए। स्वाभाविक है, सबों का अपना-अपना जीवन अपनी अपनी दिशा ले ली होगी। ‘आधुनिक पुरुषों’ में भी लोगों की उपस्थिति ‘नहीं’ के बराबर है। ऐसी स्थिति देखकर ह्रदय बिह्वल हो गया। काश, आज महाराजाधिराज का आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार और मिथिला मिहिर पत्रिका सांस लेते रहता तो महाराजाधिराज के परिवार के सभी लोगों की, बड़े बुजुर्गों की, महिलाओं की, पुरुषों की, बाल-बच्चों की तस्वीरें अवश्य प्रकाशित हुई होती – लेकिन ऐसा नहीं हुआ। समय बहुत बदल रहा है। तभी एक जगह एक तस्वीर दिखी जिसके “कैप्शन” में लिखा था: “…. HRH Kapileshwar Singh Maharaj Kumar & HRH Kavita Singh Maharani kumari of Dharbhanga Raj, Bihar” तस्वीर देखकर, कैप्शन पढ़कर स्तब्ध रह गया “HRH” (His/Her Royal Highness) – वैसे देश 15 अगस्त, 1947 को आज़ाद हो गया था और आज़ादी के साथ ही देश में जमींदारी प्रथा भी समाप्त हो गयी सं 1951 के शुरूआती दिनों में लेकिन।

खैर।  आज़ाद भारत को 75 वर्ष होने के बाद भी भारत के लोगों के लिए ऐसा कोई “तगमा” नहीं बना है HRH जैसा, और जो तगमा या “सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान (पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारत रत्न) है उसके लिए महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह, महाराजकुमार विशेश्वर सिंह, महाराज रामेश्वर सिंह और महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के अलावे दरभंगा राज परिवार में कोई हकदार हो ही नहीं सकता। आज की पीढ़ी के बारे में तो सोचिये ही नहीं – हाँ, अगर आज़ाद भारत की सरकार चाहे तो महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह, महाराजकुमार विशेश्वर सिंह, महाराज रामेश्वर सिंह और महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह को मरणोपरांत भी उक्त सम्मान से सम्मानित अवश्य कर सकती हैं। 

क्रमशः

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