दिवंगत युवराज जीवेश्वर की पुत्री कहती हैं: “शुभेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे खूंखार लुटेरे हो गए” (भाग-38 क्रमशः)

युवराज (दिवंगत) जीवेश्वर सिंह की पहली पत्नी राज किशोरीजी और उनका पार्थिव शरीर अग्नि को समर्पित 

दरभंगा / पटना : कहते हैं अगर संतान ”सकारात्मक रूप से शिक्षित और मानवीय” नहीं हो तो “ख़ास” को “आम” और फिर “आम” को “बदनाम” होने में अधिक समय नहीं लगता है। इस सम्बन्ध में बिहार का “दरभंगा राज” से बेहतर दृष्टान्त स्वतंत्र भारत में हो भी नहीं सकता। दरभंगा राज के विनाश की शुरुआत पहले सन 1958 में हुई, जब राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह का हंस-मुख शरीर पार्थिव हो गया और फिर उस पार्थिव शरीर को अग्नि को सुपुर्द कर दिया गया। इस संवेदनात्मक ठेस को उनके बड़े भाई महाराजाधिराज डॉ कामेश्वर सिंह नहीं सह सके। वैसे महाराजाधिराज की मृत्यु से सम्बंधित अनेकानेक ‘कहानियां’ हैं दरभंगा की सड़कों पर, मिथिला के गाँव के दलानों पर; लेकिन राजा बहादुर की मृत्यु के बाद परिवार में ऐसा कोई ‘संवेदनात्मक’ और ‘विचारवान’ महिला-पुरुष नहीं थे, जिनके कंधे पर महाराजाधिराज अपना सर रखकर अपनी आंसू बहा पाते। अंत में, अपने छोटे भाई की मृत्यु के ठीक चार वर्ष बाद, पहली अक्टूबर सन 1962 को “शक के दायरे” में 206 हड्डियों वाला उनका खिलखिलाता-मुस्कुराता शरीर देखते-ही-देखते ‘पार्थिव’ हो गया और नरगौना पैलेस के संगमरमर पर गिरा पड़ा दिखा । सभी ‘स्तब्ध’ थे, सबों को ‘शक’ था (आज भी है), सबों की उंगलियां ‘उठ’ रही थी; लेकिन “उठी नहीं” – शायद महाराजाधिराज की हिमालय-पर्वत नुमा संपत्ति का भण्डार सबों के मुखों पर ताला लगा दिया। महाराजाधिराज की सम्पूर्ण इक्षाएं, अभिलाषाएं, मनोकामनाएं, स्वतंत्र भारत में दरभंगा को एक नई ऊंचाई तक ले जाने का सपना उनके पार्थिव शरीर के साथ सुपुर्दे ख़ाक हो गया और ‘आनन्इ-फानन’ में दरभंगा के लाल-किले के अंदर के लोग अग्नि को सुपुर्द कर दिए उनके शरीर को । 

सन 1962 और 2021 के बीच 708-माह ही तो बीते थे दरभंगा राज को नेश्तोनाबूद होने में। जिस राज को बनाने में 8800-माह लगे – धन-दौलत-शोहरत-गरिमा की ईंट को ईंट से जोड़ने में महाराजधिराक सर कामेश्वर सिंह को और उनके पूर्वजों को । इसलिए मिथिला में एक कहावत भी बहुत प्रचलित हैं: “बाँझ क्या जाने प्रसूति का दर्द” यानी जो धन-दौलत-शोहरत-गरिमा की ईंट को जीवन में कभी जोड़ा ही नहीं, वह क्या जाने दरभंगा राज क्या था, महाराजाधिराज और राजा बहादुर कौन थे ? यहाँ तो “मंगनी का चन्दन लगायब रघुनन्दन” वाली बात है। आज स्थिति ऐसी है जैसे भारत के राजनेता जो अपने-अपने प्रदेश और संसदीय तथा विधान सभा क्षेत्र पहुँचते हैं तो रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डे से ही उनके आगमन और प्रस्थान तक ‘किराये’ पर जनसमूह एकत्रित किये जाते हैं। घंटे के हिसाब से, दिन के हिसाब से या सप्ताह के हिसाब से ‘किराया’ तय होता है। इस कार्य के लिए भी ‘बिचौलिए’ होते हैं। कहाँ-कहाँ जाना है, कहाँ-कहाँ ताली ठोकना है, पहले बता दिया जाता है – ताकि समाज में ‘तथाकथित इज्जत और सम्मान’ बरकरार रहे। 

आज दरभंगा के लाल किले के अंदर एकत्रित होने वाले चापलूसों, चाटुकारों की भीड़ भी उस लाल किले की गरिमा और प्रतिष्ठा को बहाल करने हेतु नहीं, बल्कि “स्वहित” के लिए होती हैं। विश्वास नहीं हो तो कभी आजमा कर देखिये। मन को तसल्ली मिलेगी । आज दरभंगा के लाल किले की ईंटों से ‘प्रत्यक्ष’ अथवा ‘परोक्ष’ रूप से सम्बन्ध रखने वाले लोग चारो-पहर-सालो-भर इस फिराक में ही रहते हैं कि किस संपत्ति पर धावा बोला जाए, किस संपत्ति को हथियाया जाए, किसे बेचा जाए ताकि रंग-बिरंगे कागज पर छपे गांधी को अधिक से अधिक मात्रा में अपने-अपने चार-दीवारों के बीच समेटा जा सके। ओह… दरभंगा राज की गरिमा, दरभंगा राज की संस्कृति, दरभंगा राज का वह विशाल इतिहास सुनकर ही रोना आता है। खैर। बहरहाल, आजकल खरीद-बिक्री पर रोक है और तहकीकात न्यायमूर्ति कर रहे हैं। 

राज किशोरीजी का पार्थिव शरीर अग्नि को समर्पित। साथ में खड़े हैं मोहन जी

पिछले साल की ही तो बात है। तारीख था 8 सितम्बर, 2020 और राजाबहादुर दिवंगत विश्वेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र कुमार जीवेश्वर सिंह की पत्नी राज किशोरी जी अपनी 85-वर्षीय शरीर को लहेरिया सराय स्थित अपने ही द्वारा निर्मित घर में त्यागकर अपने सास-ससुर-पति और तत्कालीन समाज के लोगों के पास अनंत यात्रा पर निकली । उसी तारीख को उनके भव्य शरीर को अग्नि को सुपुर्द किया गया था, वे पंचतत्व में विलीन हुई । उनका अंतिम संस्कार राज परिवार के श्मशान माधवेश्वर परिसर में उनके पति की समाधि के बगल में विधि-विधान पूर्वक किया गया। उन्हें उनके जीवन के अंतिम सांस तक सेवा करने वाले महेश नारायण झा @मोहन जी मुखाग्नि देकर उन्हें अनंत यात्रा पर भेजे । मोहन जी का राज किशोरी के साथ कोई रक्त का सम्बन्ध नहीं है, लेकिन उन्हें विश्वास है कि उनकी मालकिन को जो सुख जीते-जी नहीं मिला पाया अपने पति से, परिवार से; मृत्यु के बाद अवश्य प्राप्त होगा। बहुत बचपन से सेवा किये थे मोहनजी अपनी मालकिन को।

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लेकिन उनकी मालकिन की छोटी बेटी दिव्यायानी कहती हैं: “माँ के पास क्या था, क्या नहीं था, जेवर-जेवरात, पैसे, संपत्ति हम लोगों से अधिक मोहन जी को मालूम है। उनकी मृत्यु के बाद हम लोगों को कुछ पता नहीं, क्या हुआ। वे सब हड़प लिए।” एक बेटी के मुख से, वह भी जो राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह की पोती हो, जीवेश्वर सिंह की पुत्री हो और सबसे बड़ी बात की मृतक की संतान हो, सुनकर अच्छा नहीं लगा, उस व्यक्ति के लिए जो राज किशोरी जी के मृत-सय्या पर, बिमारी की अवस्था में सालो-साल मल-मूत्र साफ़ किया हो, खुद या अपनी पत्नी के साथ। 

दरभंगा के पुराने लोगों का कहना है कि मोहन जी अपने पिता के साथ आये थे राज परिवार में एक सेवक के रूप में, जीवन बिता दिए। जब राज किशोरी जी की मृत्यु हुई, तब “मुखाग्नि” के समय मोहन जी को “सेवक” ही समझा परिवार के लोगों ने; लेकिन उपस्थित समाज के लोग मोहन जी को मुखाग्नि देने को कहे। वजह भी था – राज किशोरी को पुत्र नहीं था, लेकिन मोहन जी कभी उन्हें पुत्र की कमी खलने नहीं दिए जीवन के अंतिम सांस तक । दरभंगा के लोग यह भी कहते हैं कि राज परिवार में मुद्दत के बाद किसी सदस्य का इतना विस्तृत वैदिक रीति से, विन्यास के साथ श्राद्ध-संस्कार हुआ था। इस मायने में राज किशोरी जी का अपना कर्म उनका साथ दिया। किशोरी जी की दो पुत्रियां हैं – कात्यायनी देवी और दिव्यायानी देवी। दोनों विवाहित हैं। कात्यायनी का विवाह प्रोफ़ेसर अरविन्द सुन्दर झा के साथ हुआ था, जबकि दिव्यायानी का अधिवक्ता भक्तेश्वर झा के साथ। कात्यायनी काफी वर्षों से दरभंगा में ही रहती हैं, जबकि उनकी छोटी बहन दिव्यायानी पहले तो पति के साथ रहती थी, लेकिन विगत कुछ वर्षों से दरभंगा में ही रह रही हैं। जबकि उनके पति अपने गाँव में रहते हैं। 

राजकिशोरी जी के पति दिवंगत जीवेश्वर सिंह महाराजा कामेश्वर सिंह के बड़े भतीजे थे। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि तत्कालीन दरभंगा राज का महाराजाधिराज-राजाबहादुर की अगली पीढ़ी का सबसे बड़े संतान थे वे। वे ही तो राजकुमार थे।प्रारब्ध देखिये, जब समय अपना रुख बदलता है तो कैसे शहंशाह जैसे लोग भी ‘विचरण’ करने लगते हैं। कहते हैं जब तक महाराजाधिराज जीवित रहे, युवराज जीवेश्वर सिंह से लाख ‘मतभेद’ होने के बावजूद राजकिशोरी दरभंगा के नरगौना पैलेस में ही रहीं । महाराजा के निधन के बाद वसीयत में युवराज को बेदखल कर दिया गया था। इसके बाद राजकिशोरी अपने पति के साथ बेला पैलेस में रहने लगीं। विधि का विधान देखिये, सरकार ने जब बेला पैलेस का भी अधिग्रहण कर लिया तो राजकिशोरी यूरोपियन गेस्ट हाउस में रहने लगीं। लेकिन सरकार ने आपातकाल के दौरान उसका भी अधिग्रहण कर लिया। कहा जाता है कि इस घटना के बाद वे अपना अधिकाधिक आभूषणों को बेचकर लहेरिया सराय स्थित बलभद्रपुर में चार कठ्ठा जमीन खरीदकर दो मंजिला मकान बनायीं और यही की हो गईं अपने जीवन की अंतिम सांस तक। अपने पति के पास पहुँचने के लिए राज किशोरी जी को कोई 25 वर्ष विधवा के रूप में जीवन यापन करना पड़ा – यह भी एक प्रारब्ध ही था। 

राजनगर का अवशेष

राजकुमार जीवेश्वर सिंह  का जन्म 1930 में हुआ था। महामहिमोपाध्याय पंडित उमेश मिश्र इनके अध्यापक थे। कहते हजाइन जब सन 1934 में भयंकर भूकंप आया था तो ये आनंद बाग पैलेस में बाल बाल बचे थे। जब वे महल से सुरक्षित निकल रहे थे उसी समय महल के टावर में लगी घडी पोर्टिको के पास गिरी गयी थी। जीवेश्वर सिंह का यज्ञोपवीत संस्कार सं 1941 में  हुआ था जिसमें देश-विदेश के मेहमान जुटे थे। यह आयोजन ऐतिहासिक थी जिसमे राजा-महाराजा के साथ – साथ डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी पधारे थे। उक्त समारोह में इन्हे दरभंगा राज के युवराज के रूप में पेश किया गया था। उनका विवाह सं 1948 राजकुशोरी जी से हुई  थी जो शारदा कानून के विवाद में आ गई। फिर तो विवाद ने उन्हें ऐसा घेरा कि राजकाज से अलग होकर अध्यात्म में लीन हो गये। जीवेश्वर सिंह के साथ एक घटना और जुडी है।करहिया ग्राम पंचायत के मुखिया और ट्रस्ट के मैनेजर श्रीकांत चौधरी का 30 नवम्बर, 1966 को राजनगर  ट्रस्ट ऑफिस के पोर्टिको में गोली लगने से मृत्यु हो गई। वे  हाथ में राइफल  लिए राजनगर के अपने निवास से कुछ देर पहले ट्रस्ट ऑफिस आये थे। जीवेश्वर सिंह पर भारतीय दंड संहिता 302 का मुकदमा चला। लेकिन “संदेह का लाभ” मिलने के कारण वे बरी हो गए। युवराज जीवेश्वर सिंह की मृत्यु सन 1995 के आस-पास हुई थी। 
 
जीवेश्वर सिंह के निधन के बाद राज किशोरी बेहद एकांत में रहने लगी थी। लोगों से नहीं के बराबर मिलती थीं। बलभद्रपुर निवास में वे अकेले रहती थी। लोग-बाग़ कहते हैं राज किशोरी जी अपने सर पर कभी धन-दौलत की भूख नहीं चढ़ने दी। उन्हें अपने धन का गुमान नहीं था । वह बेहद सादगी पूर्ण जीवन जीती थीं। उनका खर्च शुरू से ही बहुत सीमित था। वह कभी भी फिजूल खर्च नहीं करती थीं। महाराज को अपनी बहू की यह आदत बेहद पसंद थी। सीमित संसाधन में रहने की उनकी आदत उस जमाने में भी चर्चा में होती थी। वे मृदुभाषी स्वभाव की थीं। राजपरिवार का होने के नाते वे आम लोगों से बहुत ही आत्मीयता से मिलती थीं और लोगों की मदद करती थीं। जीवेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उन्हें अन्तः मन से इक्षा थी कि मरणोपरांत उनका अंतिम संस्कार माधवेश्वर परिसर में उनके पति की समाधि के बगल में हो। वही हुआ और इसके लिए स्थानीय लोगों के साथ-साथ दरभंगा राज के कुछ लोग भी मोहन जी को ही धन्यवाद देते हैं। वे सभी तो यहाँ तक कहते हैं कि अगर मोहन जी कुछ दिनों के लिए भी अपने घर से कहीं बाहर निकल गए होते, तो शायद राजकुमारी का पार्थिव शरीर को कोई देखने वाला तबक भी नहीं होता । वैसे माधवेश्वर परिसर अब बिहार राज्य धार्मिक न्यास पर्षद के अंतर्गत और मां श्यामा न्यास समिति के अधिकार क्षेत्र में है। इस परिसर में दरभंगा राज के सात राजाओं और एक महारानी की चिता पर मंदिर बने हैं। खैर। 

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आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते हुए जीवेश्वर सिंह – राज कुमारी की दूसरी बेटी दिव्यायानी कहती हैं: “राज परिवार में संपत्ति के बंटवारे के बाद पहले यूरोपियन गेस्ट हॉउस, फिर बेला प्लेस में रहती थी। उन दिनों तत्कालीन ट्रस्टी द्वारकानाथ झा से रहने के लिए ‘एक स्थायी घर’ की गुहार की थी माँ, लेकिन मदद नहीं मिली। इतना ही नहीं, महारानी के अलावे जीवेश्वर सिंह के सबसे छोटे भाई (कुमार शुभेश्वर सिंह), जो हम लोगों के सबसे छोटे चाचा थे, उनसे भी मदद की भीख मांगी, ताकि रहने की समस्या समाप्त हो जाये। कुमार शुभेश्वर सिंह से माँ को बहुत आशाएं थी, लेकिन।  एक और ट्रस्टी थे ओझाजी, उनसे भी मदद मांगे, लेकिन सबों ने अपना-अपना पल्ला झाड़ लिए। किसी ने भी मदद का हाथ नहीं बढ़ाये।” 

दिव्यायानी आगे कहती हैं: “सन 1974 में बड़ी बहन कात्यायनी की शादी हुई। विवाह राम बाग़ से ही हुआ था। बार-बार विश्वविद्यालय घर खाली करने को कह रहा था। अंत में वह अपने जेवरों को बेचकर लहेरियासराय के बलभद्रपुर इलाके में घर बनाकर रहने लगी। मेरी शादी भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी मंत्रेश्वर झा के अनुज भक्तेश्वर झा के साथ हुई थी। वे शिक्षाविद के साथ-साथ अधिवक्ता भी थे। प्रारंभिक दिनों में विवाहोपरांत मैं अब अपने पति के साथ रहती थी। लगभग सात साल जमशेदपुर में रही जब वे एक निजी कंपनी में कार्य करते थे। फिर सात साल पटना में रही जब वे पटना उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस करते थे। फिर सात साल के करीब रांची में रहे। हम दोनों का दो बेटा है अमित कुमार और आशीष कुमार । अमित कुमार एक गुड़गांव में कार्य करता है, जबकि आशीष शरीर से अस्वस्थ रहने के कारण मेरे पास रहता हैं। वह कंप्यूटर के क्षेत्र में है। समयांतराल मुझे राज-संपत्ति के बंटवारे के बाद जो भी जमीन-जायदाद मिली, विवाहोपरांत मेरे पति उन सबों को बेचते चले गए। अंत में वे बीमार हो गए और गाँव में रहने की इक्षा जाहिर किये। तब से वे गाँव में रहते हैं और मैं दरभंगा में अपने बच्चे का साथ। हम दोनों का कोई क़ानूनी रूप से पति-पत्नी का सम्बन्ध बिच्छेद नहीं हुआ है, लेकिन एक साथ नहीं रहते। बातचीत होती है ……. 

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दिव्यायानी कहती है: “माँ को ही नहीं, बल्कि हम दोनों बहनों को भी कुमार शुभेश्वर सिंह से (जब तक जीवित थे) बहुत आशाएं और उम्मीद थी। लेकिन सभी उम्मीदों और आशाओं पर पानी फिर गया। वे किसी भी चीज के लिए माँ को मदद नहीं किये। उनके देहावसान के बाद तो उनके दोनों बेटे खूंखार लुटेरे हो गए । सभी सम्पत्तियों को बेचते चले जा रहे हैं। यहाँ तक की राजनगर में भी हाथ लगा दिए। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए हम सभी न्यायालय गए ताकि दरभंगा राज की जो भी संपत्ति बची है वह या तो सुरक्षित रहे, या फिर अगर बिके तो सभी फैमिली सेटलमेंट के अधीन सभी लाभार्थियों को हिस्सा मिले। वजह यह है कि फॅमिली सेटेलमेंट के बाद “महाराजा के बिल का कोई अस्तित्व नहीं रहा”, इसलिए किसी भी संपत्ति पर शुभेश्वर सिंह के दोनों बेटों का एकल और एकमात्र अधिकार तो रहा नहीं।” कहा जाता है कि न्यायालय दरभंगा राज रेसिडुअरी ट्रस्ट और अन्य ट्रस्टों से शुभेश्वर सिंह के दोनों बेटों – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – को ट्रस्टीशिप से “तत्काल प्रभाव से मुक्त” कर दिया है, साथ ही, न्यायालय ने तीन-सदस्यीय न्यायमूर्तियों की एक कमेटी बनाई है जो इस बात की जांच कर रही है कि ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने कितना “असंवैधानिक” कार्य किये हैं। कहा जाता है कि न्यायालय ने ट्रस्टियों पर आर्थिक दंड भी लगाए हैं। 

दिव्यायानी को “शिक्षा” की कमी आज महसूस हो रही है। वह यह भी सोचती है कि अगर उस ज़माने में सभी बच्चे पढाई के महत्व को समझते तो शायद यह दशा और जीवन की यह दिशा नहीं होती। वे कहती है: “जब मेरा विवाह हुआ तब माँ यही सोची कि मेरे पति के बड़े भाई भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं। उसकी बेटी उस घर में बहुत सुरक्षित रहेगी, सम्मानित रहेगी, ढंग से रहेगी। लेकिन……इसके लिए दिव्यायानी कभी भी अपने पति के बड़े भाई, यानी मंत्रेश्वर झा को दोषी नहीं ठहराती हैं । हम अपने पति को ‘पॉवर ऑफ़ अटॉर्नी” दे दिए और वे सभी सम्पत्तियों को बेचते चले गए। वे “ईगोइस्ट” हो गए…. वे सोचते थे की वे तो दरभंगा राज के जमाय हैं, समाज में उनकी अलग पहचान है, स्कूटर पर कैसे चलेंगे… इत्यादि-इत्यादि बहुत साड़ी बातें होने लगी, और इसका परिणाम यह हुआ कि वे पहले ‘डिप्रेशन’ में चले गए, फिर शरीर से अस्वस्थ रहने लगे, अनेकानेक बीमारियां हो गयी। अब हमारी दुनिया हमारे बच्चे हैं। 

बहरहाल, बासठ वर्ष की आयु कम नहीं होती है, खासकर एक महिला के लिए; और वह भी जो जीवन के इस पहर में अकेले रहने पर मजबूर हो। पति बीमार रहने लगे। साथ छोड़कर अलग रहने लगे। बच्चा शरीर से बहुत स्वस्थ नहीं हो । बचपन से चारदीवारी के अंदर शिक्षा और स्वावलम्बन के लिए कोई दीक्षा और माहौल नहीं मिला हो जो आने वाले  दिनों में अपने जीवन की लड़ाई को अपने तरह से लड़कर पछाड़ने में मदद करे। आय का कोई समुचित साधन नहीं हो। पति लगभग सभी सम्पत्तियों को बेच दिया हो – आप स्वयं दरभंगा राज के राजबहादुर की दूसरी पोती की वर्तमान जिंदगी का अंदाजा लगा सकते हैं। सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शरीर में एक गजब तरीके का स्पंदन और दुःखद एहसास होने लगता हैं। पहले कभी राजा-महाराजा के घर की बेटी की तरह जिंदगी जी रही थी। समय ने अपना रुख बदला और आज महज एक आम महिला जी जिंदगी जी रही है – लेकिन समय और प्रारब्ध को कौन मात दे सकता है …..क्रमशः 

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