महाराज भी सोचते होंगे ‘अगर दीवारों में दरार, पेड़-पौधे निकल आये. तो रिश्तों का क्या हाल होगा?’ (भाग-29)

महाराज भी सोचते होंगे 'अगर दीवारों में दरार, पेड़-पौधे निकल आये तो रिश्तों का क्या हाल होगा?'

दरभंगा / पटना / नई दिल्ली : मिथिला के लोग कहते हैं कि दरभंगा का रामबाग पैलेस का गगनचुम्बी लाल-रंग का दीवार देखकर दिल्ली सल्तनत का लालकिला याद आता है। लेकिन कभी लोगों ने दीवार के बाहर रहने वाले आम जनता को यह नहीं बताया की दीवार के अंदर संपत्ति के बंटवारे को लेकर क्या-क्या हुआ और क्या-क्या नहीं हुआ। दीवार के अंदर रहने वाले लोगों में शायद ही कोई बचे-खुचे होंगे जो दरभंगा राज के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनकी संपत्तियों को लेकर “वादी-प्रतिवादी” नहीं बने होंगे भारत के विभिन्न न्यायालयों में।

अगर “Memorandum of Family Settlement of Estate of the late Maharajadhiraaj Sir Kameshwar Singh of Darbhanga” को दस्तावेज माना जाय, तो यह मेमोरेण्डम ऑफ़ फेमिली सेटेलमेंट प्रत्यक्ष और परोक्ष रूपों में महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थियों को एक तरह का “आदेश” दिया था कि वे एक-दूसरे के विरुद्ध भारत के किसी भी न्यायालय में किसी भी प्रकार के मुक़दमे, सूट, अपील अथवा कार्रवाई दायर किये हों, तो ‘तक्षण प्रभाव’ से वापस ले लें। ऐसा करने के बाद ही, महाराजाधिराज द्वारा बनाये गए ट्रस्टी महोदय, वसीयत के सिड्यूल VI में उल्लिखित सम्पत्तियों को बेचकर सभी प्रकार के बाकी-बकियौते का भुगतान कर जहाँ तक व्यावहारिक रूप से संभव हो पायेगा, लाभार्थियों को वसीयत के अनुसार सम्पत्तियों को हस्तगत करा पाएंगे। बेचारे ट्रस्टीज। तभी तो अंत में सर्वोच्च न्यायालय में गुहार किये “मी लार्ड!!! मुझे मुक्त किया जाए।”

दरभंगा के “लालकिले” के बाहर के लोग शायद यह बात नहीं जानते होंगे। वजह भी है। रामबाग परिसर के चारो तरफ महाराजा ने जिस गगनचुम्बी 90 फीट ऊँचा चारदीवारी का निर्माण प्रारम्भ कराया था। कहा जाता है कि जब अविभाजित भारत के लोग अंग्रेजों को भारत भूमि से खदेड़कर भागने के लिए जंगे आज़ादी का बिगुल बजाय था, महाराजाधिराज दिल्ली के लाल किले के तर्ज पर अपने 85 एकड़ की जमीन पर एक किला बनाना प्रारम्भ किये। यह कार्य 1934 के ऐतिहासिक भूकंप के बाद प्रारम्भ हुआ था। इस किले के निर्माण के लिए ब्रिटिश फर्म के ठेकेदार बैग कैगटीम को जिम्मेदारी दी गई थी। किले के तीन तरफ लगभग 90 फ़ीट ऊंची यह दीवार तैयार हो गई लेकिन किले के पश्चिम इलाके में यह दीवार नहीं बन सकी। कुछ लोग कहते हैं कि तीन तरफ दीवार बनते-बनते देश आज़ाद हो गया, जमींदारी प्रथा समाप्त हो गई, इसलिए पश्चमी दीवार नहीं बन सकी।  जबकि कुछ लोगों का कहना है कि इस किले के पश्चिम इलाके में रहने वाले लोगों शिकायत की कि इस दीवार से उनके घरों में आने वाली रोशनी अवरुद्ध हो गयी है। सभी न्यायालय से न्याय मांगे और और फिर अदालत ने निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। 

दरभंगा का यह किला जो लाल ईंटों का प्रयोग  करके बनाया गया गया है | रामबाग किले के मुख्य प्रवेश द्वार को सिंहल कहा जाता जो की  इसके प्रमुख आकर्षणों में से एक है। इसका डिज़ाइन फतेहपुर, सिकरी के बुलंद दरवाज़ा से प्रेरित है | इस किले के अंदर दो महल हैं। उनमें से एक रामबाग पैलेस है, जो एक प्रसिद्ध पूजा स्थल है। ऐसा माना जाता है कि राज परिवार की “कुल देवता” यहीं हैं । विगत कई भूकम्पों के दौरान महल नष्ट हो गया, लालकिला कई जगहों से दरक गया, लेकिन तब इसकी मरम्मत का कोई काम नहीं हुआ। फिर 2015 के तेज भूकंप में कई जगहों पर न सिर्फ छतिग्रस्त हुआ बल्कि किले के ऊपरी हिस्से का मलबा सड़को पर भी गिर था। किले की मरम्मत नहीं होने से किला लगातार जर्जर हाल होता जा रहा है। जगह-जगह.दीवाल पर बड़े-बड़े पेड़ निकल आए हैं। कई जगहों पर 10 से 20 फ़ीट तक ऊंची दीवारों में दरार साफ दिखाई दे रही है। दीवार की ऊपरी सतह पर बने बड़े-बड़े गुंबज टूट रहा है। दीवार के दक्षिण इलाके में 90 फ़ीट की दीवार घट कर 20-25 फ़ीट ही रह गई है। अब लोगों को कैसे बताया जाय कि महाराजाधिराज के इस ऐतिहासिक किले का क्षेत्रफल में उत्तरोत्तर कमी हो रही है। किले की दक्षिण दीवार की ऊंचाई में भी क्रमशः कम हो रही है। महाराजा कामेश्वर सिंह की जब मृत्यु हुई उसके बाद, उनके उत्तराधिकारियों ने कई महलों के भूखंड को  बेचना शुरू कर दिया था । उन प्लॉटों को खरीदने वाले लोगों ने कॉलोनियों और घरों का निर्माण किया। तो कही,होटल, रेस्तरां और दुकानों को खोला गया | 

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मेमोरेण्डम ऑफ़ फेमिली सेटेलमेंट का एक पन्ना

महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद Memorandum of Family Settlement of Estate of the late Maharajadhiraaj Sir Kameshwar Singh of Darbhanga के ये शब्द भी इस बात का गवाह है कि दिल्ली वाली लाल किले जैसी बानी दरभंगा वाली लाल किले के अंदर के लोगों की मानसिक ऊंचाई भी बरक़रार कहा रही? अगर मानसिक ऊंचाई स्थिर होती, महाराजाधिराज की तरह, तो शायद फेमिली सेटेलमेंट के मेमोरेण्डम के छठे पैरा में ऐसा नहीं लिखा होता: “That after the filing of petition for recording of the compromise on the basis of the family settlement before the Supreme Court the parties will take steps immediately to withdraw the suit/suits, appeal/appeals, petitions or proceedings filed by any of them against the other/others and after their withdrawal steps will be taken by the Trustees to …. of the properties mentioned in Schedule VI for raising funds for paying and liquidating all the liabilities and also putting the parties in possession of the charge as per this settlement as far as practicable.” ज्ञातव्य हो कि महाराजा की मृत्यु के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने महाराजा की सम्पत्तियों के लाभार्थियों को स्पष्ट रूप से कहा था कि दरभंगा राज के सम्मानार्थ, महाराजाधिराज के सम्मानार्थ, उनकी गरिमा की रक्षा के लिए, पारिवारिक सुलह से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: “Efforts for bringing  settlement should be made by the parties and with a view to save themselves from prolonged, protracted and ruinous litigations and for the sake of peace, preservation of honour and dignity of the family and to carry out the wishes of the late Maharajadhiraj Dr Sir Kameshwar Singh Bahadur of Darbhanga……” 

फेमिली सेटेलमेंट का दस्तावेज मार्च 27, 1987 को लिखा गया।  उस छः पन्ने के दस्तावेज में इस बात को बहुत ही प्राथमिकता थे स्थान दिया गया है “And Whereas now there is a genuine feeling among the parties that in all probability the whole estate will be liquidated for paying taxes and other legal dues and expenses on litigations even during the lifetime of the first party (Maharani Adhirani Kamsundari, wife of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh) and hardly anything will remain for the beneficiaries and public charity if the present state of affairs is allowed to continue…..” स्वाभाविक है ‘फॅमिली सेटेलमेंट” ही एकमात्र उपाय रह गया जिससे सभी लाभार्थियों के लाभों, के साथ-साथ ‘पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट’ की रक्षा हो सकती है और  महाराजाधिराज द्वारा लिखे गए अपनी वसीयत के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। वैसे विभिन्न आकार-प्रकार के हस्ताक्षरों के साथ, गजब की एकता फेमिली सेट्लमेंट के छः पन्नों पर दिखता है। शायद 27 मार्च, 1987 के बाद इस तरह की एकता दरभंगा राज के परिवार के लोग, रामबाग का चारदीवारी कभी नहीं देखा गया होगा। 

ज्ञातब्य हो कि 27 मार्च, 1987 को सम्बद्ध लोगों के बीच हुए फेमिली सेटेलमेंट को लेकर दायर अपील को सर्वोच्च न्यायालय दिनांक 15 अक्टूबर, 1987 को “डिक्री” देते हुए ख़ारिज कर दिया। तदनुसार, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 1 के अनुसार, सिड्यूल II में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी सिड्यूल II में उल्लिखित सभी सम्पत्तियों की स्वामी बन गयी। स्वाभाविक है, उन सम्पत्तियों पर उनका एकल अधिकार हो गया। इसी तरह, फॅमिली सेटलमेंट के क्लॉज 2 के अनुसार, कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र, यानी राजेश्वर सिंह, जो उस समय बालिग हो गए थे, और उनके छोटे भाई, कपिलेश्वर सिंह, जो उस समय नाबालिग थे, शेड्यूल III में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते शेड्यूल III में उल्लिखित संपत्तियों के मालिक हो गए। आगे इसी तरह, फैमिली सेटलमेंट के क्लॉज 3 के अंतर्गत शेड्यूल IV में वर्णित सभी नियमों के अनुरूप में सभी सिड्यूल IV में उल्लिखित सम्पत्तियों का मालिक पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज हो गए। फेमिली  सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के अधीन, श्रीमती कात्यायनी देवी, श्रीमती दिव्यायानी देवी, श्रीमती नेत्रयानी देवी (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी बालिग पुत्रियां) और सुश्री चेतना दाई, सुश्री दौपदी दाई, सुश्री अनीता दाई (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी नबालिग पुत्रियां), श्री रत्नेश्वर सिंह, श्री रश्मेश्वर सिंह (उस समय मृत), श्री राजनेश्वर सिंह शेड्यूल V में उनके नामों के सामने उल्लिखित, साथ ही, उसी सिड्यूल में उल्लिखित शर्तों के अनुरूप, सम्पत्तियों के मालिक होंगे। 

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फैमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के तहत, पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज को यह अधिकार दिया गया कि वे शेड्यूल I में वर्णित ‘लायबिलिटी’ को समाप्त करने के लिए, शेड्यूल VI में उल्लिखित सम्पत्तियों को बेचकर धन एकत्रित कर सकते हैं, साथ ही, परिवार के लोगों में फेमिली सेटेलमेंट के अनुरूप शेयर रखने का अधिकार दिया गया। साथ ही, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 के अनुसार, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी और राज कुमार शुभेश्वर सिंह या उनके नॉमिनी (दूसरे क्षेत्र के लाभान्वित लोगों के प्रतिनिधि) द्वारा बनी एक कमिटी लिखित रूप से सम्पत्तियों की बिक्री, शेयरों का वितरण आदि से सम्बंधित निर्णयों को लिखित रूप में ट्रस्टीज को देंगे जहाँ तक व्यावहारिक हो, परन्तु किसी भी हालत में पांच वर्ष से अधिक नहीं या फिर न्यायालय द्वारा जो भी समय सीमा निर्धारित हो। 

ज्ञातव्य हो कि मिथिलाञ्चल अथवा राज दरभंगा के इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी जब 84-वर्षीय, 72-वर्षीय और 69-वर्षीय वृद्ध न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर उससे विनती किया हो कि उन्हें कार्य मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया जाए, कार्यमुक्त किया जाय । याचिका में लिखा है: “It is submitted that the applicants are being harassed unnecessarily  by the various quarters having vested interest. They are also being confronted with various problems. The applicants further submitted that due to their old age, falling health and other difficulties they are not in a position to continue to function as Trustees. It is the sincere desire of the applicants that they may be relieved of the responsibilities of the office of the Trustees of the Residuary Estate of Maharaja of Darbhanga and also of the Charitable Trust.”

दरभंगा के लाल किले के पास का ही एक दृश्य

दस्तावेज के अनुसार, नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति  विशेश्वर नाथ खरे और उनके सहयोगी न्यायमूर्तियों के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत होता है। यह याचिका सिविल प्रोसेड्यूर कोड के सेक्शन 90 और आदेश 36 के तहत, सन 1963 के प्रोबेट प्रोसीडिंग्स संख्या 18 के तहत, दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर के वसीयत नामा के अधीन नियुक्त ट्रस्टियों के द्वारा इण्डियन ट्रस्ट एक्ट के सेक्शन 34, 37, 39, 60 और 74 के अधीन प्रस्तुत किया जाता है। प्रस्तुतकर्ता होते हैं द्वारका नाथ झा, मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा। ये सभी ट्रस्टी न्यायालय से निवेदन करते हैं कि महाराजाधिराज की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को होती है। अपनी मृत्यु से पूर्व वे दिनांक 5 जुलाई, 1961 को एक वसीयत बनाते हैं जिसमें लक्ष्मी कांत झा को “सोल एस्क्यूटर” बनाते हैं। इसके बाद दिनांक 26 सितम्बर, 1963 उक्त वसीयतनामा को “प्रोबेट” करने का अधिकार लक्ष्मी कांत झा को दिया जाता है। लक्ष्मी कांत झा उक्त कार्य को सम्पन्न करते हुए 3 मार्च, 1978 को मृत्यु को प्राप्त करते हैं। 

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याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय से अनुरोध की कि ढलती उम्र और गिरती स्वास्थ्य के कारण वे सभी अब इस अवस्था में नहीं हैं की इस पद पर कार्य कर सकें। स्वाभाविक है कि इन ट्रस्टियों ने न्यायालय से अनुरोध किये कि उन्हें रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभनगा और चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टी के पदों से मुक्त कर दिया जाय। यह भी कहा गया कि याचिका कर्ताओं ने न्यायालय द्वारा अनुशंसित सभी कार्यों के बहुत ही दक्षता के साथ, साथ ही जितनी भी बाकी-बकियौता था, उनमे अधिकांश को पूरा कर दिए हैं। 

याचिका दायर करने के दिन द्वारकानाथ झा की आयु 72 वर्ष थी, जबकि मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा क्रमशः 84 और 69 वर्ष के थे। याचिका में इस बात का उल्लेख किया गया कि द्वारकानाथ झा एक बार ह्रदय रोग से पीड़ित हो चुके हैं। साथ ही, मदन मोहन झा भी शरीर से अधिक अस्वस्थ रहते हैं और प्रबंधन का कार्य नियमित रूप से नहीं कर सकते हैं। जहाँ तक कि उनकी शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे याचिका पर अपना हस्ताक्षर भी कर सकें । द्वारकानाथ झा दरभंगा इस्टेट को विगत 30 वर्ष से देख-रेख कर रहे हैं। अतः, सभी ट्रस्टियों ने यह निर्णय लिए की रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा और चेरिटेबल ट्रस्ट का कार्यभार न्यायालय द्वारा नियुक्त “प्रशासक” को सौंप दिया जाय। वैसे भारत का सर्वोच्च न्यायालय इन सभी ट्रस्टियों को सम्पूर्णता के साथ अधिकार दिए थे जिससे रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा और चेरिटेबल ट्रस्ट का कार्य सुचारु रूप से चले। फिर भी सलाह के अनुसार, सर्वोच्च न्यायालय में तो आवेदन किया ही गया है।  सर्वोच्च न्यायालय ने ही यह आदेश दिया की आवेदन की एक प्रति कलकत्ता उच्च न्यायालय में भी पेश कर दिया जा। 

महाराजाधिराज अपनी मृत्यु के बाद भी, दरभंगा ही नहीं, भारत के विभिन्न शहरों में जितनी सम्पत्तियाँ छोड़ गए थे, उन सम्पत्तियों के सहारे भारत के बराबर भौगोलिक क्षेत्रफल का एक और देश जोड़कर भारत को बृहत्-भारत बनाया जा सकता था। स्वतन्त्र भारत में सरकार की मदद से देश में आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, मानवीय क्रांतियाँ लायी जा सकती थी, जिससे देश के लोगों का अत्यधिक भलाई हो सकता था –लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जो हुआ, साथ ही, जो हो रहा है, वह मिथिलाञ्चल ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत-राष्ट्र के लोगों के लिए एक “दुःखद” प्रकरण हैं। 

ज्ञातव्य हो कि अपनी मृत्यु से पूर्व 5 जुलाई 1961 को कोलकाता में उन्होंने अपनी अंतिम वसीयत की थी। कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा वसीयत सितम्बर 1963 को प्रोबेट हुई और पं. लक्ष्मी कान्त झा, अधिवक्ता, माननीय उच्चतम न्यायालय, वसीयत के एकमात्र एक्सकुटर बने और एक्सेकुटर के सचिव बने पंडित द्वारिकानाथ झा । वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवाशी होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सा में बाँटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवाशी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह , राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था । 

………..क्रमशः 

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