दीवारें ‘रो’ रही हैं, ईंट ‘कलप’ रहा है, ‘डर’ है कहीं वे भी महाराज की तरह ‘आकस्मिक’ रूप से पार्थिव न हो जाए  (भाग-19)

दरभंगा राज का भवन और रोटी दीवारें - उपेक्षा का शिकार 

दरभंगा / पटना / कलकत्ता : जब भी दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के हस्ताक्षर के साथ यह लिखा देखता हूँ “AND WHEREAS I have no issue and I have, as my nearest relatives, two wives and three nephews…….” ह्रदय विह्वल हो उठता है, आँखें अश्रुपूरित हो जाती है, रुदन के साथ हिचकियाँ भी आने लगती है। महाराजा जिसे ‘अपना’ मानते थे, किसे ‘अपना नजदीकी सम्बन्धी’ से कहते थे, गलत कहते थे शायद। पहली अक्टूबर, 1962 के बाद भारत के विभिन्न न्यायालयों के फैसले, वहां लाल-वस्त्र में बंधे लंबित मुकदमें, रेंगते दस्तावेज, महाराजा के साम्राज्य के भवनों की ईंटें, ढ़हती दीवारें, दीवारों के रंग, उस पर मुद्दत से लगी काई, चतुर्दिक बड़े-बड़े घास, ईंटों के बीच कुकुरमुत्तों की तरह पनपे पीपल और बरगद के पौधे – सभी इस बात का जीवंत गवाह है कि दरभंगा के अंतिम राजा के ‘कोई अपने, नजदीकी सम्बन्धी नहीं थे’, जिनका नाम सम्पत्तियों के दस्तावेजों पर लिखा था उन्होंने अपनी आँखें बंद करने से पहले। जो कहने को थे अथवा हैं, वे सभी महाराजा की इक्षाओं, अभिलाषाओं को उनकी मृत्यु के साथ दफ़न कर दिए – संपत्ति के खातिर । अगर ऐसा नहीं होता तो आर्यावर्त-दि इण्डियन नेशन अख़बारों के हज़ारों कर्मचारी और उनका परिवारों के रुदन को नजरअंदाज कर उस ऐतिहासिक संस्थान को मिट्टी में नहीं मिला दिया जाता। महाराजाधिराज की एकमात्र जीवित पत्नी अब अपनी ढ़लती उम्र, गिरती शारीरिक क्षमता के कारण उतनी “सवल” नहीं हैं कि वे अपने पति की इक्षाओं को पूरा कर सकें, जैसा की उन्होंने दस्तावेजों पर लिखा था। उनकी महारानी भी आज भारत की अनेकानेक हतास विधवाओं की उपेक्षित भीड़ में एक हैं और जीवन की अंतिम साँसे ईश्वर को याद करते ले रहीं हैं।   

महाराजाधिराज के वसीयत के शिड्यूल ‘A’ और ‘B’ में उद्धृत सम्पत्तियाँ, यानी महारानी राजलक्ष्मी और महारानी कामसुंदरी को जीवन पर्यन्त रहने के लिए जिन भवनों को महाराज बहुत “स्नेह” और “प्रेम” से लिखा था, ताकि उन्हें महाराज के बिना भी, अपनी अंतिम सांस तक “तकलीफ” नहीं हो; महाराजा की मृत्यु के बाद विगत छः दशकों से उन महलों की दीवारें, महलों की ईंट, बरामदे, खम्भे, छत, परिसर सभी टकटकी निगाहों से सूर्य की रोशनी में प्रत्येक आवक-जावक जीव को देखता आ रहा है, सोचता आ रहा है – कोई उसका भी हाल पूछे !! बारिस में बादलों की गर्जन के साथ भवनों के एक-एक ईंटों के रूह काँप जाते हैं। सभी डर से थर-थर कांपते हैं। परन्तु कोई नहीं आता, कोई नहीं पूछता। चतुर्दिक ‘उपेक्षाओं के पेड़-पौधे, घास-फूस कुकुरमुत्तों जैसा फ़ैल गया है। सूर्य की किरण फटते भवनों के छत-खंभे-दीवारें आपस में गुफ्तगू करना प्रारम्भ कर देते हैं, दुःख-दर्द बांटते हैं और सूर्यास्त होने के साथ ही, सभी एक-दूसरे को हताश निगाहों से देखते पृथक हो जाते हैं। उन्हें तो यह भी ज्ञात नहीं होता कि अगले दिन वे एक-दूसरे से मिल पाएंगे अथवा नहीं ? वे सोचते रहते हैं कहीं महाराजाधिराज की तरह “आकस्मिक रूप से” वे भी अपनी भव्यता को सुबह-सवेरे जमीन पर असहाय और पार्थिव अवस्था में तो पड़ा नहीं पाएंगे । चतुर्दिक सन्नाटा होता है।  

महाराजाधिराज द्वारा उनकी दोनों पत्नियों को दी गयी संपत्ति, रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा और चेरिटेबल ट्रस्ट को देखने वाले जो भी ट्रस्टीज थे, सभी मृत्यु को प्राप्त किये। उन शृंखला में अब महज महारानी अधिरानी कामसुन्दरी जीवित हैं।  वे भी कोई नब्बे की आयु में हैं। स्वाभाविक है राजा-रानी की सम्पत्तियों का “मानसिक” देखभाल करने वालों की किल्लत होना, क्योंकि “आर्थिक” लाभ के लिए तो सभी “सजग” हैं ही । अगर “मानसिक” रूप से कोई होते तो सम्पत्तियों के विशाल अम्बार के बाबजूद रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा की दीवारें, ईंटें, खम्भे, छत हतास होकर अपने परिवार के लोगों की ओर नहीं देखता !! बहुत दुःखद वृतांत हैं। समय मिले तो महाराजाधिराज दरभंगा के किसी भी भवन के सामने खड़े होकर भवन से बात करें, उससे पूछें कैसे हो तुम? विश्वास करें वह भोकार पारकर, चीत्कार मारकर, हिचकी लेकर अगर अपनी व्यथा नहीं कहे तो महाराजा द्वारा स्थापित अख़बारों के नामों को – आर्यावर्त – दि इण्डियन नेशन –  किसी “निर्जीव” का नाम दे देंगे। 

ये भी पढ़े   'अनीता गेट्स बेल' यानि भारतीय न्यायिक-व्यवस्था का कच्चा चिठ्ठा
क्या कहे थे महाराजाधिराज अपनी वसीयत में – आप भी पढ़ें, आप भी तो मिथिला ही के हैं और फिर नजर घुमाकर महाराज के भवनों की ढ़हती दीवारों से बात करें  

दस्तावेज में लिखा है: “I bequeath the property mentioned in Schedule ‘A’ to my wife Maharani Rajlakshmi for her life for her residence only. She shall be entitled to reside in the said house and use the furniture and fittings solely without let or hindrance by anybody. After her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshwara Singh absolutely.” और क्या चाहिए ? महारानी राज्यलक्ष्मी जी का देहावसान हो गया। दस्तावेज के अनुसार उक्त संपत्ति महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का हो गया “अब्सॉल्युटली” – आगे कुमार शुभेश्वर सिंह भी मृत्यु को प्राप्त किये। स्वाभाविक है यह संपत्ति उनके दो पुत्रों को हस्तगत हुआ होगा। 

दस्तावेज में आगे लिखा है: “Similarly, I bequeath the property mentioned in Schedule ‘B’ to my wife maharani Kamsundari for her life for her residence only (and for no other purpose) and at her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshwar Singh absolutely.” यहाँ, महारानी कामसुंदरी जी, अपने जीवन का करीब 90-बसंत देखी हैं, स्वस्थ हैं और उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना मिथिलांचल का लोग करते हैं। लेकिन, महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का देहांत हो गया। स्वाभाविक है, महारानी कामसुंदरी जी के नाम की संपत्ति उनके जीते-जी अभी दूसरों को हस्तगत नहीं हो सकती है। 

महाराजा साहेब अपने वसीयत में अपनी दोनों पत्नियों के नाम संपत्ति तो कर दिए, लेकिन वसीयत में आगे यह भी लिख दिए कि: “Subject to the disposition and bequeath mentioned above my entire residue of my estate shall vest in a Board of Trustees, consisting of persons named and described in Schedule ‘C’ who will hold the property in trust for my two wives and the children of my aforesaid three nephews.” यानी महाराजाधिराज अपनी दोनों पत्नियों को जो भी सम्पत्तियाँ दिए, उसकी सम्पूर्ण देखरेख के लिए “ट्रस्ट” बना दिए।  यानी महारानियों को उनके जीते-जी उन संपत्तियों पर प्रत्यक्ष रूप से कोई “अधिकार” नहीं रहा। ट्रस्ट को अधिकृत किया गया कि वह “कैपिटल एसेट्स” से महारानी राजलक्ष्मी को आठ लाख रुपये और छोटी महारानी कामसुन्दरी को 12 लाख रुपये देगा, साथ ही, यह भी अधिकृत किया की “भवनों से सम्बंधित जितनी भी सम्पत्तियाँ हैं उसका सम्पूर्णता के साथ मरम्मत, रखरखाव हो। 

क्या कहे थे महाराजाधिराज अपनी वसीयत में – आप भी पढ़ें, आप भी तो मिथिला ही के हैं और फिर नजर घुमाकर महाराज के भवनों की ढ़हती दीवारों से बात करें  

महाराजाधिराज ने लिखा: “(a) The properties bequeathed to my wife Maharani rajlakshmi shall be held in a trust for her life by a Board of Trustees consisting of (i) Sri Girindra Mohan Mishra, (ii) Sri Lakshmi Kant Jha and (iii) Sri Mukund Jha, who will held the property in trust for the said legatee, and shall pay to her, after payment of taxes and other public demands of Rs. 3000/- per month to her; and should the net income of the properties, after payment of taxes and other similar liabilities to be not found in any year to be sufficient to enable the Trustees to pay to her Rs. 3000 per month, they will be at liberty to make up the deficit from out of the capital assets of the legatee. इसी बात को महारानी कामसुन्दरी के साथ भी (b) सेक्शन में दुहराया गया। दस्तावेज में आगे लिखा गया कि : “The trustees aforesaid shall keep in proper repairs the house properties mentioned in Schedule ‘A’ and ‘B’ and spend the necessary amount for their maintenance from out of the income of the properties bequeathed to Maharani Rajlakshmi and maharani Kam Sundari respectively.”

शिड्यूल ‘A’ में रामबाग यानि दरभंगा राज फोर्ट के अंदर वाला विशालकाय भवन है। यानि महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद यह संपत्ति राजकुमार शुभेश्वर सिंह की हो जाएगी। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानी महाराजाधिराज की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई। शिड्यूल ‘’B’ में नरगौना पैलेस, इससे लगे गार्डन जिसके उत्तर में कंपाउंड वाल है, दक्षिण में सड़क है जो महाबीर मार्बल मंदिर के तरफ जाती है। महाराजाधिराज और महारानी राजलक्ष्मी की तरह, कुमार शुभेश्वर सिंह भी अब इस दुनिया में नहीं रहे। महाराज की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को हुई और कुमार शुभेश्वर सिंह उनके हिस्से आई आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों की अंतिम सांस लेने के कोई दो वर्ष बाद 2004 में हुयी। महाराज द्वारा नियुक्त तीनो ट्रस्टीगण भी मृत्यु को प्राप्त किये। आपको याद भी होगा कि नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति  विशेश्वर नाथ खरे और उनके सहयोगी न्यायमूर्तियों के समक्ष सिविल प्रोसेड्यूर कोड के सेक्शन 90 और आदेश 36 के तहत, सन 1963 के प्रोबेट प्रोसीडिंग्स संख्या 18 के तहत, दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर के वसीयत नामा के अधीन नियुक्त ट्रस्टियों के द्वारा इण्डियन ट्रस्ट एक्ट के सेक्शन 34, 37, 39, 60 और 74 के अधीन एक याचिका से निवेदन किए थे कि उन्हें  रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीशिप से “मुक्त” किया जाय। लक्ष्मी कांत झा उक्त कार्य को सम्पन्न करते हुए 3 मार्च, 1978 को मृत्यु को प्राप्त करते हैं। 

कहा जाता है कि दरभंगा राज लगभग 2410 वर्ग मील में फैला था, जिसमें कोई 4495 गाँव थे, बिहार और बंगाल के कोई 18 सर्किल सम्मिलित थे। दरभंगा राज में लगभग 7500 कर्मचारी कार्य करते थे। आज़ादी के बाद जब भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुआ, उस समय यह देश का सबसे बड़ा जमींदार थे। इसे सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। लोक-चित्रकला, संगीत, अनेकानेक विद्याएं या क्षेत्र की पूंजी थी। लोगों का कहना है कि वर्त्तमान स्थिति के मद्दी नजर, दरभंगा राज के सभी लोगों की निगाह दरभंगा राज फोर्ट यानी करीब 85 एकड़ भूमि के बीचोबीच स्थित रामबाग का विशाल भवन है। आज भवन की कीमत जो भी आँका जाय, इस सम्पूर्ण क्षेत्र यानी दरभंगा के ह्रदय में स्थित 85 एकड़ भूमि की व्यावसायिक कीमत क्या होगी, यह आम आदमी नहीं सोच सकता है। वजह भी है : सरकारी आंकड़े के अनुसार “दरभंगा के लोगों का प्रतिव्यक्ति आय 15, 870/- रूपया आँका गया है और इतनी आय वाले लोग लाख, करोड़, अरब, खरब रुपयों के बारे में सोच भी नहीं सकते। वह जीवन पर्यन्त उस राशि पर कितने “शून्य” होंगे, सोचते जीवन समाप्त कर लेगा। परन्तु सोच नहीं पायेगा। 

क्या कहे थे महाराजाधिराज अपनी वसीयत में – आप भी पढ़ें, आप भी तो मिथिला ही के हैं और फिर नजर घुमाकर महाराज के भवनों की ढ़हती दीवारों से बात करें  

भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने 1977-78 में इस किले का सर्वेक्षण भी कराया था , तब , इसकी ऐतिहासिक महत्वता को स्वीकार करते हुए किले की तुलना दिल्ली के लाल किले से की थी | किले के अन्दर रामबाग पैलेस स्थित होने के कारण इसे ‘ राम बाग़ का किला’ भी कहा जाता है | किले के निर्माण से काफी पूर्व यह इलाका इस्लामपुर नामक गाँव का एक हिस्सा था जो की मुर्शिमाबाद राज्य के नबाब , अलिबर्दी खान , के नियंत्रण में था | नबाब अलिबर्दी खान ने दरभंगा के आखिरी महाराजा श्री कामेश्वर सिंह के पूर्वजों यह गाँव दे दिया था | इसके उपरांत सन 1930 ई० में जब महाराजा कामेश्वर सिंह ने भारत के अन्य किलों की भांति यहाँ भी एक किला बनाने का निश्चय किया तो यहाँ की मुस्लिम बहुल जनसँख्या को जमीन के मुआवजे के साथ शिवधारा, अलीनगर, लहेरियासराय, चकदोहरा आदि जगहों पर बसाया। किले की दीवार काफी मोटी है। 

किले की दीवारों का निर्माण लाल ईंटों से हुई है | इसकी दीवार एक किलोमीटर लम्बी  है | किले के मुख्य द्वार जिसे सिंहद्वार कहा जाता है पर वास्तुकला से दुर्लभ दृश्य उकेड़े गयें है | किले के भीतर दीवार के चारों ओर खाई का भी निर्माण किया गया था। उस वक्त खाई में बराबर पानी भरा रहता था। किले के अंदर दो महल भी स्थित हैं | सन 1970 के भूकम्प में किले की पश्चिमी दीवार क्षतिग्रस्त हो गयी , इसके साथ ही दो पैलेस में से एक पैलेस भी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गयी | इसी महल में राज परिवार की कुल देवी भी स्थित हैं | यह महल आम लोगों के दर्शनार्थ हेतु नहीं खोले गए हैं|वैसे दुखद बात यह है की दरभंगा महाराज की यह स्मृति है अब रख – रखाव के अभाव में एक खंडहर में तब्दील हो रहा है |  

महाराजाधिराज अपनी वसीयत में कभी नहीं लिखे कि उनके रामबाग परिसर में सिनेमा हॉल खोल देना। क्या महाराजा की मृत्यु के बाद राज परिवार में इतनी आर्थिक किल्लत हो गयी है कि उनकी सम्पत्तियों को इस कदर बेचा जा रहा है? दरभंगा राज की संस्कृति को इस कदर रौंदा जा रहा है ?

बहरहाल, कोई सात सात पहले, बिहार सरकार द्वारा बिहार के एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स के अधीन दरभंगा के रामबाग पैलेस को एन्सिएंट मोन्यूमेंट की श्रेणी में रखने से पूर्व लोगों से उनका विचार, ऑब्जेक्शन मांगी थी। जैसे ही लोगों से आपत्ति मांगने से संबंधित सूचना के प्रकाशन के साथ ही दरभंगा राज फोर्ट में रहने वाले लोगों में खलबली मच गई। कोर्ट-मुकदमा हो गया। कला, संस्कृति और युवा विभाग, बिहार सरकार के सचिव, विभाग के उप-सचिव, पुरातत्व विभाग के निदेशक, अधीक्षक (पटना अंचल), दरभंगा के जिला मजिस्ट्रेट, सब-डिविजनल अधिकारी और अंचल अधिकारी प्रतिवादी बन गए।  महाराजाधिराज के भतीजे दिवंगत कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – पटना उच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि बिहार सरकार के डिप्टी सेक्रेटरी, आर्ट, कल्चर और यूथ डिपार्टमेंट द्वारा दिनांक 17 अगस्त, 2010 को जारी एक अधिसूचना, जिसमें उपरोक्त अधिकारी ने ‘आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन लोगों से ‘ऑब्जेक्शन’ मांगे थे की दरभंगा स्थित महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के दरभंगा राज फोर्ट को क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय, निरस्त कर दिया जाय। 

वादी का कहना था कि नियमानुसार उसी स्थान / भवनों को उक्त नियमों के तहत ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता है जो न्यूनतम 100-वर्ष पूरे नहीं किये हों। और नियमानुसार, दरभंगा राज फोर्ट 100 वर्ष की आयु के नहीं हैं, अतः नियमनुसार यह ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता। नियमों के अनुसार, कोई भी ऐसी चीज जो 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। इस ऐतिहासिक निर्णय का श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के एंटीक्वटीज एंड आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1972 को जाता है। यह कानून 1976 से लागू हुआ। इसका मकसद भारतीय सांस्कृतिक विरासत की बहुमूल्य वस्तुओं की लूट और उन्हें गैर-कानूनी माध्यमों से देश से बाहर भेजने पर रोक लगाना था। वैसे, इसके सिर्फ नकारात्मक और अनपेक्षित परिणामों का अतिरेक ही सामने आया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि यह कानून इतने कड़े और अभावग्रस्त नियमों से भरा हुआ है कि बेईमान ‘कला के सौदागर’ सरकारी अधिकारियों और कस्टम अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर अपना रास्ता निकाल ही लेते है।  

क्रमशः 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here